सेवाराम त्रिपाठी का आलेख हरिशंकर परसाई और हमारा समय

 

हरिशंकर परसाई



किसी भी रचनाकार की प्रासंगिकता इस बात में है कि उसने जिन मुद्दों को अपनी रचना का विषय बनाया है वे वर्तमानता में किस स्थिति में हैं। प्रख्यात रचनाकार हरिशंकर परसाई ने रोजमर्रा के जीवन और उसकी विडंबनाओं को अपनी रचनाओं का विषय बनाया। इसीलिए सेवा राम त्रिपाठी उचित ही लिखते हैं कि 'परसाई जितना वर्तमानता में हैं उसी अनुपात में अतीत और भविष्य के सपनों के साथ भी। उनमें एक विशेष किस्म की सतर्कता भी। उनके व्यंग्य जीवन और मूल्यों का, अनुभव और संवेदना का रसायन और घट रहे जीवन का आंखों देखा हाल भी।' सेवाराम जी ने परसाई जी के सानिध्य में 'वसुधा' में काम किया है और उन्हें नजदीक से देखा और अनुभव किया है। सेवाराम त्रिपाठी ने हरिशंकर परसाई पर कई महत्वपूर्ण आलेख लिखे हैं जिन्हें हम पहली बार पर सिलसिलेवार प्रस्तुत कर रहे हैं। कुछ आलेख हम पहले भी प्रस्तुत कर चुके हैं। इसी क्रम में आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'हरिशंकर परसाई और हमारा समय'।




हरिशंकर परसाई और हमारा समय

 


सेवाराम त्रिपाठी 

    


“मेरे छोटे-छोटे काम

महत्वपूर्ण हैं

उतने ही जितना सूरज का उगना

जितना अंतरराष्ट्रीय चक्र का चलना

वे नहीं न्यून हैं

उनसे नहीं मुझे विश्राम।” 


(मेरे छोटे-छोटे काम- मुक्तिबोध)

       

मुक्तिबोध की यह छोटी सी कविता मुझे हरिशंकर परसाई के छोटे -छोटे किए गए बड़े कामों की याद दिलाती है। ज़िंदगी भर वे छोटे-छोटे काम करते रहे जो उनके कद को उनकी विराटता को उजागर करते गए। उन्होंने कोई कालजई रचना लिखने की कोशिश नहीं की। जो उनके समय में घटा उसी को महत्व माना और लिखा। वे बड़प्पनों की परवाह करने वालों में से नहीं थे? वे न तो छिपते और न कुछ छिपाते। व्यंग्य लेखन अपने को तीसमारखां नहीं बना सकता। उसे अपना आत्मालोचन भी करना पड़ता है। कोई भी लेखक अपने समय से बाहर नहीं हो सकता? जो अपने समय को नहीं पहचानता वह न तो ठीक से अतीत को जान सकता और न आगत को। अपने समय, समाज, परिवार और परिस्थितकी को अनदेखा नहीं कर सकता? 

     


परसाई जी का निधन 10 अगस्त 1995  को हुआ था। उसी दिन मैं और प्रोफेसर कमला प्रसाद जबलपुर गए थे। उन्हें अंतिम प्रणाम निवेदित करने। ग्वारीघाट में उनकी धू-धू जलती चिता ही देख पाए? वहां से लौट कर  परसाई जी की बहन सीता दीदी से मिले और बाद में प्रोफेसर हनुमान वर्मा के यहां रुके रहे और सुबह चार बजे सतना की ट्रेन पकड़ कर रीवा आ गए। वे क्षण अभी भी मेरे भीतर जीवंत हैं। भारत से व्यंग्य लेखन का एक प्रतिबद्ध योद्धा चला गया। परसाई जी मेरे मार्गदर्शक और वसुधा के प्रधान संपादक भी थे और विराट व्यक्तित्त्व के धनी भी। खैर, समय वह भी था और समय आज  का भी है? इस आईने में भारत को और आज के समय को देखा परखा जा सकता है।हमारा समूचा देश भयावह स्थितियों में करवट ले रहा था। परसाई ने देश का विभाजन भी देखा था और आज़ादी भी। भारतीय जनतंत्र के घाव भी देखे थे और विकास के तमाम रूप और रूपक भी। परसाई जी  का दिमाग़ बहुत उर्वर था। न जाने कितने संदर्भ वाकए भी उनके दिमाग में थे और सम्पूर्ण क्रांति का आंदोलन भी और आपात काल भी। समाज में पनप रहा टुच्चापन भी। इधर हम अघोषित आपात काल को भी निरंतर देख ही रहे हैं। यह किसी भी तरह से छिपा नहीं है। नीचताओं को भी। अभी मोरबी पुल दुर्घटना का हादसा हुआ है। जिसमें 150 लोगों ने अपनी जानें गंवाईं और 130 लोग घायल  हुए हैं। यह अंतिम आंकड़ा नहीं है? उस पर एक व्यंग्य मैनें पढ़ा - "पुल कमजोर नहीं था लोगों का वजन ज्यादा था।"

   


हमेशा अपने समय को परिभाषित करना बेहद कठिन काम होता है। यूं अपने समय के यथार्थ को पहचानना, पकड़ना और अभिव्यक्त करना दुष्कर होता है। जसिंता केरकेट्टा की एक कविता का यह अंश पढ़ें -


"पहले मिट्टी, पानी, पेड़ मारे गए

किसी ने कुछ महसूस नहीं किया

जिन्हें कुछ महसूस नहीं होता

वे बहुत पहले मर चुके होते हैं

बाद में सिर्फ़ दफनाए जाते हैं


(जब कुछ महसूस नहीं होता)  


सच है जिनकी आत्मा मर जाती है और जिनमें ज़मीर नहीं होता। वे जीवित होते हुए भी मरे की भांति ही होते हैं? परसाई जब तक जीवित थे, सक्रिय और जीवंत थे। अब शरीर से नहीं हैं लेकिन अपने लेखन में जीवित, जीवंत और प्रासंगिक हैं। ज्यों ज्यों समय गुजरता जायेगा वे प्रासंगिक होते जाएंगे?

               


"हमें इसे ऐसे देखना चाहिए कि अदालतें कमजोर नहीं हो रही बलात्कारी मजबूत हो रहे हैं।" (बालेंदु परसाई) उसी तरह परसाई जी यूं तो सामान्य आदमी थे लेकिन उनकी नज़र अपने समय में घट रही स्थितियों, अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों तथा समय की निरंतरता को देखने और सहेजने में रही है। परसाई भावुक आदमी नहीं रहे बल्कि एक गहन विचारशील जिजीविषा वाले लेखक भी थे। परसाई जितना वर्तमानता में हैं उसी अनुपात में अतीत और भविष्य के सपनों के साथ भी। उनमें एक विशेष किस्म की सतर्कता भी। उनके व्यंग्य जीवन और मूल्यों का, अनुभव और संवेदना का रसायन और घट रहे जीवन का आंखों देखा हाल भी। विश्वनाथ त्रिपाठी ने एक तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है - "परसाई के साहित्य में कल्पना से बहुत कम काम लिया गया है। यथार्थ है- जो नहीं होना चाहिए। इसे उल्टा कर दीजिए - यानी जो होना चाहिए उसे यथार्थवत मान लीजिए तो स्वप्न कथा हो जाएगी। अवांछित और वांछित यथार्थ के बीच की रिक्तता को परसाई का व्यंग्य उद्घाटित करता है। यह व्यंग्य अपने युग की, ऐतिहासिक जिम्मेदारी निभाता है।" (देश के इस दौर में- पृष्ठ-25)

  


उनका समूचा लेखन छोटे-छोटे शब्दों में चीज़ों को बहुत पैनी निगाह से देखता है और  बेहद सधी  हुई प्रतिक्रिया दर्ज़ करता है। आज परसाई नहीं है तो भी वे हमें अक्सर याद आते हैं। परसाई जी सशरीर नहीं है लेकिन उनके द्वारा लिखा हुआ समग्र साहित्य हमें जीवन के महासंग्राम से लड़ने - जूझने में कारगर ढंग से महसूस होता है। यह याद आना कोई रस्म अदायगी का याद आना नहीं है। यह केवल उनसे हमारे जुड़ाव और लगाव को सूचित भर  नहीं करता बल्कि उनके लेखन की वास्तविक शक्ति, साहस और उम्मीद का  भी लगातार एहसास कराता है। यूं तो व्यंग्य शरद जोशी ने भी लिखे हैं। श्री लाल शुक्ल, ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, श्रीकान्त चौधरी, हरीश नवल, रमेश सैनी और अन्यों ने भी, किन्तु जिस नज़र से वास्तविकताओं को परसाई जी देखते हैं वह नज़र सबके पास सभी को मिलना मुश्किल है? 

     


    


इस बदले हुए दौर में भाषण पर भाषण गरज बरस रहे हैं। श्री लाल शुक्ल का कहना याद आ रहा है - "लेक्चर का मजा  तो तब है जब सुनने वाले भी समझें कि यह बकवास कर रहा है और बोलने वाला भी समझे कि मैं बकवास कर रहा हूं।" (राग दरबारी) अब तो झूठ और बकवास ही हमारे समय का मापक है। हमारा समग्र विकास ही इसकी श्रेष्ठता को अपना रहा है। बकवास हमारे जीवन में पसर गया है। नासमझी व्यंग्य की दुनिया में भी बढ़ी है। क्या व्यंग्य है? व्यंग की दुनिया में भी स्त्री का कोटा, दलित का कोटा, आदिवासी का कोटा, पिछड़े वर्गों का कोटा  बिना सोचे समझे कबड्डी खेल रहे हैं। समय के सवालों से हर किसी को जूझना पड़ता है। ज्यों ज्यों समय गुजरेगा कबीर, तुलसी, प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन और परसाई की  प्रासंगिकता बढ़ती जाएगी। जो व्यंग्य के लिए दाल भात में मूसलचंद की तरह हैं, तानाशाही मनोविज्ञान के एरिया से लोकतंत्र का परचम लहरा रहे हैं और उपदेशों के भूधर लगातार फेंक रहे हैं। यही नहीं खुशहाली के करिश्में रच रहे हैं। उनकी पूछ परख बढ़ती जा रही है? जाहिर है कि इस दौर में संवेदनात्मकता का क्षरण लगातार हो रहा है। बड़े बड़े छूट जाते हैं और छोटे छोटे फंस जाते हैं?

        


परसाई जी के समय भी अंतर्विरोध, संत्रास, विकृतियां और विसंगतियां हुआ करती थीं अब तो उसी के रेले पर रेले भी आ रहे हैं यही नहीं अब तो उनके बड़े- बड़े कट ऑउट बड़ी बेशर्मी से लगे हैं। सब कुछ धड़ल्ले से बिक रहा है। गणेश शंकर विद्यार्थी ने सही लिखा है -"दो घंटे बैठ कर मूर्तियों की पूजा करें या दिन में पांच बार नमाज अदा करें, लेकिन भगवान को इतनी रिश्वत देने के बाद, अगर आप खुद को अनैतिक काम करने और दूसरों को दर्द देने के लिए स्वतंत्र मानते हैं, तो आपका यह धर्म अब स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। आने वाला समय इसे कभी टिकने नहीं देगा।" हालांकि सब कुछ टिका हुआ सा दिखता है लेकिन है ऐसा नहीं। हमारी अस्मिता और आत्मा में। पाठक और तमाम गुणग्राही, उसे पाना चाहते हैं। उन्हें ही महत्त्वपूर्ण मानते हैं? परसाई जी की दृष्टि एकदम साफ़ थी। वैसी नज़र सबको मिलती भी बड़ी मुश्किल से है। यह कोण कम लोगों के पास है।  इस पूरे मामले में परसाई का कोई विकल्प नहीं है।

        


अपने समय में परसाई जी ने व्यंग्य को लेखन की मुख्यधारा बना दिया। उसे उन्होंने लेखन की ज़रूरत बना दिया था। परसाई  कबीर, गालिब, प्रेमचन्द मुक्तिबोध और निराला के वंशज हैं। वे ऐसे वंशज हैं जो प्रायः सब कुछ देखता है और उसे अपनी रचनाओं में ईमानदारी से व्यक्त करता है। उन्होंने बहुत लिखा है -यह हमारी दृष्टि में महत्वपूर्ण नहीं है। परसाई जी की पकड़ बहुत संजीदा थी। दो उदाहरण देखें - 


(1) "जो आदमी स्वार्थ का बिल्कुल त्याग कर दे, वह बहुत खतरनाक होता है वह दूसरे के प्राण तक लेने का नैतिक अधिकार समझता है।


"(2) "जब मैं प्राण क्या करूंगा, तब इस बात की आशंका है कि झूठे  रोने वाले सच्चे रोने वालों से बाज़ी मार ले जाएंगे। "

   

हमारा समाज कई विकृतियों का शिकार है। लेखक भी इससे बचे नहीं। वैसे लोगों ने तो कई-कई पोथियां और पोथन्ने रचे हैं। संबंधों की देख रेख में उनका बहुत सारा प्रकाशित भी हुआ है, हो रहा है। थीसिस पर थीसिस झर रहीं हैं। हमारे समय के व्यंग्य, प्रतीको, रूपको  या उपमांओं  में लगातार गुम होते जा रहे हैं, जो चिंता की बात है। अधिकांश तथाकथित व्यंग्यकारों का अपने ज़मीर और इंवॉल्वमेंट से पलायन इस समय की सबसे बड़ी त्रासदी है? वैसे भी व्यंग्य खाए, अघाए लेखकों के बस की चीज़ नहीं है। व्यंग्य को हमने अखबारी, टपोरी और न जाने  क्या  क्या बना दिया है। वह भाषा और पंच की जागीर भी बना दिया गया है। हालांकि वह भाषा का खेल कत्तई नहीं है और ना पंच मारने का। वह चितवन ही औरै कछू है। बहुत तो परसाई जी को गाँधी जी की तरह ध्वस्त करने में लगे हैं? हालांकि गाँधी और परसाई को छुआ तक नहीं जा सकता? इधर कुछ  इसमें बकायदा जुटे हैं कि यदि वे  गाँधी और परसाई को नष्ट नहीं करेगें तो उनको कौन पूछेगा? अपने काम से तो कुछ होगा नहीं लेकिन उनकी पहचान नहीं बनी तो नहीं बनी। लेकिन परसाई जी की एक अमिट छाप और पहचान है। उनका देखना सचमुच अलग तरह का देखना है। उनका लिखना अलग तरह का लिखना भी रहा है। उसे लांघ कर आप किसी भी तरह से बाहर नहीं जा सकते। परसाई जैसा लिखने के लिए कलेजा चाहिए?

    


परसाई जी को याद करना- उनके समय समाज और उस परिवेश को, उनके जीवन संघर्ष और जिजीविषा को भी याद करना है, जहाँ पीड़ित लोगों, दलित और कुचले लोगों का संसार है। और  परसाई जी को, आज के समय को याद करना भी कम रोचक नहीं है। जहाँ आतंक, भय और दोगलेपन के खौफ़नाक मंज़र हैं।वे समय, परिवेश, समाज, घटनाओं, मनुष्यता के जजबातों से हमेशा जुड़े रहे हैं। ईमानदारी की एक अलग राह बनाई। उनका प्रायः कुछ भी छिपा नहीं है? वे भविष्य को, यथार्थ को और उनकी अन्वितियों को बहुत सूक्ष्मता से और बहुत गहनता और अंतरंगता से स्पर्श करते हैं। उनका एक व्यंग्य है जिसमें वे एक आदमी से पूछते हैं कि इलाहाबाद गए थे। वहां क्या-क्या किया? उसने बताया कि गंगा देखने गया था। लेकिन वहां स्नान नहीं किया? वे कहते हैं यह है कोई ढंग का आदमी। परसाई जी का एक व्यंग्य है स्नान। स्नान के विविध संदर्भ हैं -"मैंने ऐसे लोग देखे हैं और जो केवल इस कारण अकड़े फिरते हैं कि रोज़ दो बार नहाते हैं, इसे वो बड़ी उपलब्धि मानते हैं और इससे जीवन की सार्थकता का अनुभव करते हैं। बड़े गर्व से कहते हैं - "भैया, कोई भी मौसम हो, हम तो दो बार नहाते हैं और ठंडे पानी से।.. आगामी पीढ़ियां तुम जैसों को कोसेंगी। कहेंगी, उस जमाने में जब देश का निर्माण हो रहा था, तब कितने ही ऐसे तरुण थे, जो अपनी शक्ति का उपयोग ठंडे पानी से नहाने में कर रहे थे।इतिहास कभी तुम्हें माफ नहीं करेगा। आगामी पीढ़ियां तुम्हारे नाम को रोयेंगी।" इस धार को भी ध्यान से देखिए और इसकी धारा को भी। इस दौर में एक अजीब उपमान बगरा है कि क्या भाषा है और क्या पंच मारा है? ज़मीर को खोखे में भर दिया है? परसाई जी ने बताया है - "मार्क टवेन लिखा है - यदि आप भूखे कुत्ते को रोटी खिला दें तो आपको नहीं काटेगा। कुत्ते और आदमी में यही मूल अंतर है।"

    


परसाई जी अध्यापक रहे हैं। उन्होंने छात्रों को कुछ अरसे तक पढ़ाया भी है। अध्यापक तो बहुत होते हैं लेकिन वे एक ऐसे विरले अध्यापक रहे हैं, जिन्होंने समूचे समाज और समय का, परिवेश और परिस्थितियों का अध्यापन किया है। वे एक बड़े लेखक समूह के मार्गदर्शक भी रहे हैं। वे अन्तर्विरोधों और विसंगतियों को बहुत सूक्ष्मता से परखते हैं। वे सबको अपने समयानुकूल अनुभव कराते हैं और सभी चीज़ों- वस्तुस्थितियों पर गंभीरता से बातें करते हैं। उनका इस तरह बात करना चीज़ों को सहेजना, उनकी जागरुकता का  ही परिचायक है। 

    


उन्होंने मात्र लिखने के लिये कभी नहीं लिखा। वे जो लिखते हैं वैसा आचरण और व्यवहार भी करते हैं। अपने लेखन में और व्यवहार में वे कथनी करनी का समूचा भेद मिटा देते हैं। वे उन तथाकथित लेखकों की तरह नहीं है जो बड़ी तीसमारी से लिखते हैं, लगभग हांका सा डालते हैं लेकिन उस पर आचरण प्रायः नहीं करते? उनका लेखन वाहवाही लूटनेे का, अपने को विज्ञापित करने का व्यापक साधन है। परसाई के लेखन में दोगलापन कदापि नहीं है।  चमक- दमक के खाते का भी उनका लेखन नहीं है। पक्षधरता और आत्मविश्वास का इतना बड़ा कौशल उनके पास है कि उसे पढ़ कर आप विचलित हुए बिना नहीं रह सकते। उनमें कोई तामझाम नहीं है इसलिये उनका समूचा लेखन एक बहुत बड़ा धधकता हुआ अग्निपुंज है। वे अन्य लेखकों की तरह  ढकोसला नहीं करते। यथार्थ की लत्ता लपेटी भी नहीं करते, अमूर्तन नहीं करते। उनके लिए व्यंग्य सच और विश्वसनीयता का पर्याय है आत्म विज्ञापन और आत्म मुग्धता का नहीं? परसाई के लिए व्यंग्य गंभीरता और पूरी ज़िम्मेदारी की चीज़ है? व्यंग्य लेखन उनके लिए हास्य कभी नहीं रहा? हल्कापन महसूस करने कराने का कोई साधन नहीं है? वे व्यंग्य को अपने समय समाज और राजनीति के दर्पण की तरह रखते हैं। वह कोई मसखरापन या चटखारे बाज़ी की दुनिया कत्तई नहीं है? वे व्यंग्य को किसी भी कीमत में विदूषक नहीं बनाते? व्यंग्य लेखन जितना बहिर्मुखी है उतना ही अंतर्मुखी भी है? व्यंग्य कोई मनोरंजक चीज़ नहीं है? व्यंग्य लेखन भाषा का खिलवाड़ भी नहीं है? व्यंग्य लेखन अपने समय की विद्रूपताओं विकृतियों, विरूपताओं और अंतर्विरोधों विद्रूपताओं का सार्थक हस्तक्षेप भी है और जन जीवन की पक्षधरता यानी इंवाल्वमेंट की दुनिया भी है?

     


आज लेखक भी अनौचित्य के दायरे में आ चुका है। उसका दोहरा चरित्र ज़रूर हम सभी को घायल करता है। स्वार्थ साधना  में फंसा वह किसी भी सीमा तक पहुंच सकता है। इन स्थितियों के बरक्स परसाई का लेखन हमारी आत्मा को जगाता है। परसाई के लेखन में सामाजिक यथार्थ और समय का सच बोलता है। क्योंकि उनमें संवेदनात्मक ज्ञान है और ज्ञानात्मक संवेदन दोनों  हैं। वे हर छोटी-बड़ी घटना को और उसके कैनवास को यथार्थ की पृष्ठभूमि में और विभिन्न आयामों में देखते रचते हैं। मनुष्य की स्वतंत्रता और जिजीविषा के संदर्भ में जो भी नौकरी उन्हें रोकती थी वे उससे किनारा कर लेते हैं। ऐसा उन्होंने अपने जीवन में किया भी। वे वास्तविकताओं से दो-चार होेते हैं। उनसे कन्नी नहीं काटते, उनको पीठ नहीं दिखाते। उनसे सीखते हैं। यह सीखना सामान्य नहीं विशेष होता है। जो वास्तविकताएं उन्हें कमज़ोर नहीं बनातीं बल्कि निरंतर मजबूत बनातीं हैं। लिखना उनके लिये अनिवार्यता का कोई शगल नहीं। यह उनकी बेहद आत्मीय ज़रूरत है। यह उनकी साँस की तरह है। वे शाश्वत में विश्वास नहीं करते। उनका लेखन हमेशा जीवित रहने के पक्ष में कतई नहीं है। उनके लिये वह महत्वपूर्ण है जो गंगा के पास जाता है और बिना स्नान किये हुये तन कर वापस आता है। वे ’अन्न की मौत’ पर लिखते हैं। उनके लिये ’गर्दिश के दिन’ यूं ही समय की आवाजाही नहीं है। उनके जीवन का यह गहरा हिस्सा है और इन गर्दिशों से उन्हें निरंतर सीखना है। निरंतर मुठभेड़ करना है। मुझे लगता है कि उनका समूचा लेखन एक आवश्यक और जीवंत मुठभेड़ है। जिसका कोई अंत नहीं। वह एक अचूक हथियार भी है। मानवीय रिश्तों और मूल्यों की रक्षा उनके लिये महत्वपूर्ण है। यह सही है कि मूल्यवत्ता और सामाजिक सांस्कृतिक चुनौतियों के संघर्ष बहुत जानलेवा होते हैं। परसाई जी उन्हें वास्तविकताओं के परिप्रेक्ष्य में अपने लेखन में व्यवहार करते हैं। उपदेश देने के वे कतई पक्षधर नहीं है। वे बनावटी पक्ष के ख़िलाफ़ रचनात्मकता में खड़ें होते हैं और वास्तविकता को हमारे सामने रखते हैं। गर्दिश के दिन का एक अंश पढ़ें।"मैंने तय किया - परसाई, डरो किसी से नहीं। डरे कि मरे। सीने को ऊपर-ऊपर कड़ा कर लो। भीतर तुम जो भी हो, जिम्मेदारी के साथ निभाओ। जिम्मेदारी को अगर जिम्मेदारी के साथ निभाओगे तो नष्ट हो जाओगे। और अपने से बाहर निकल कर सबमें मिल जाने से व्यक्तित्व और विशिष्टता की हानि नहीं होती, लाभ ही होता है। अपने से बाहर निकलो, समझो और हंसो!"

    


 

परसाई जी ने व्यंग्य को विधा नहीं माना वह तो लेखन की स्पिरिट है। यह स्पिरिट उनके लेखन में करंट की तरह बहता है। उसने समूची दुनिया में उनके तेवर को विख़्यात किया और प्रायः सभी ने उनके लेखन को व्यंग्य के रूप मंे स्वीकार किया। हालाँकि उन्होंने व्यंग्य व्यंग्य के लिये कभी नहीं लिखा। लेखन के लिये कभी नहीं लिखा। अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ और ज़रूरत पर लिखा। उनके लेखन में भारत और देश दुनिया की कोई ऐसी घटना नहीं है जो उनके लेखन का ज़रूरी हिस्सा न बनी हो। उनके समय तक की सच्ची घटनायें उनके लेखन तक आई। मध्यवर्ग की हक़ीकतों और विडंबनाओं को वे क़ायदे से रखते हैं। इसीलिये उनके लेखन में अरस्तू, सुकरात, कबीर, तुलसी आदि आते हैं। वे अपने कालमों के माध्यम से राजनेताओं समाज सेवकों और संस्कृतिकर्मियों के अन्तरविरोधों की बहुविध पहचान करते हैं। वे एक बोरे गेंहू पर लिखते हैं क्योंकि वे गेंहू की कीमत समझते हैं। वे ’चूहा और मैं’ पर लिखते हैं। परसाई यथार्थ के लिये लिखते हैं। वे समझ और सोच के विस्तार के लिये लिखते हैं। यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिये वे कल्पना लोक तक जाते हैं। फ़ैन्टेसी की दुनिया में जाते हैं। उसके माध्यम से यथार्थ की गहरी भूमिका को व्यक्त करते हैं। वे बहुत सी विधाआंे में प्रवेश करते हैं। कहानियों में हंसते हैं, रोते हैं जैसे उनके दिन फिरे को महत्वपूर्ण मानते हैं। उपन्यास लिखते हैं, तो रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज से वास्तविकता का संधान करते हैं। उनके लेखन की दुनिया में भूत के पांव पीछे, बेईमानी की परत, वैष्णव की फिसलन, पगडंडियों का जमाना, शिकायत मुझे भी है, सदाचार का ताबीज, विकलांग श्रृद्धा का दौर, तुलसीदास चंदन घिसें और हम एक उम्र से वाकिफ हैं। वे भोलाराम का जीव, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, राम सिंह की ट्रेनिंग और आध्यात्मिक पागलों का निदान, एक टार्च बेचने वाला आदि पर विचार करते हैं। उसके दशकों सामने लिखते हैं। उनके ये मात्र विचार नहीं है। यह उनका जीवन दर्शन है। यह उनके विश्वासों का खजाना भी है। इसी के तहत वे अपनी पक्षधरता व्यक्त करते हैं। 

    


परसाई जी का समग्र लेखन उनकी ज़िन्दगी के अनुभवों की पाठशाला है। वे हर चीज़ को हर परिस्थति को गहराई से समझते हैं। ज़िन्दगी जो उन्हें सिखाती है उसे अभिव्यक्त करते हैं। उनकी भाषा आयातित नहीं है। वह ज़िन्दगी की भाषा है आमजन् की भाषा है। परसाई जी का लेखन हमारे पुराजीवन और बदलते हुये सन्दर्भों का एक व्यापक कैनवस है। वे अपने लेखन में सम्बन्धों की पड़ताल करते हैं। उनका लेखन या व्यंग्य हमारे सुधार और बदलाव के लिये है। उनका लेखन हमे ग़लत स्थितियों के खि़लाफ़ लड़ने के लिए बाध्य करता है। 

    


हरिशंकर परसाई ऐसे पहले रचनाधर्मी हैं जो पाठकों को समाज राष्ट्र और दुनिया के व्यापक यथार्थपरक और जीवन जगत के महास्वप्नों से जोड़ते हैं। उनका उद्देश्य मनोरंजन और गुदगुदी पैदा करना नहीं है बल्कि समाज और समय की वास्तविकताओं का साक्षात्कार कराना होता है। वे व्यक्ति के भीतर की काहली को समाप्त करते हैं। वे समाज राष्ट्र, राजनैतिक पाखण्ड, आर्थिक चुनौतियों को हमारी आँखों में उंगली डाल कर बताते हैं। रूढ़िवादी जीवन मूल्यों से विंधे मध्य वर्ग को भी कुण्ठाओं से बाहर निकालने के लिये उनका साहित्य है। उनके लिये सच्चाईयों को जानना आवश्यक है। जीवन और सच्चाइयाँ उनके लेखन का मूलमंत्र हैं। 



हरिशंकर परसाई पर आलोचकों एवं अन्य लेखकों का ध्यान पहले गया ही नहीं। कुछ सोचते थे कि परसाई जी बहुत हल्का फुल्का लिख रहें हैं। इनकी भाषा भी बहुत सहज सरल है। वे जिस तरह लिखते हैं उसे किस विधा में परिगणित किया जाये। वे ज़्यादातर व्यंग्य करते हैं लेकिन बात इतनी आसान है नहीं। मुक्तिबोध नें उन्हें मध्यप्रदेश का जाज्वल्यमान कथाकार कहा था। यहां ध्यातव्य है कि परसाई जी का लेखन  कथनी और करनी के भेद को मिटाता है। उन्होंने कभी भी मनोरंजन के लिये अथवा बुद्धि विलास के लिये नहीं लिखा। उनका लेखन साहित्य में पनप रहे मनोविनोद के प्रतिरोध का लेखन है। परसाई पाखण्ड, आडम्बर एवं छल छद्म को अनावृत्त करते हैं। विरोधाभासों को विस्तार से खोलते हैं। वे पाठक को महसूस कराते हैं कि उनका  लेखक पाठक के सिर पर सवार नहीं होता बल्कि पाठक के सामने बैठा रहता है उसे सोचने विचारने के लिये बाध्य करता है उसे सकर्मक और संवेदनशील बनाता है। वे बस की यात्रा करते हुये वास्तविकता का संधान करते हैं। परसाई जी के अनुसार “जो आदमी पाखण्ड कुरीतियों अत्याचारों और दोमुंहेपन पर हंस नहीं सकता वह मनुष्य नहीं वनमानुष है।”



वे मानते हैं कि समाज में व्याप्त विसंगतियां, पाखण्ड भ्रष्टाचार, छल, कपट, राजनैतिक दुराचार व्यंग्य के द्वारा ही प्रभावकारी एवं सार्थक ढंग से अभिव्यक्त होता है। उनकी तेज़ नज़र उन छिपे हुये छिद्रों पर पड़े बिना नहीं रहती। जिनमे वे कीड़े कुल बुलाते हैं। जो सामाजिक शिष्टताओं को धीरे-धीरे चट कर जाने में जुटे हैं। परसाई का समग्र लेखन उन पीड़ितों और वंचितों के हक़ में है जो अन्याय के शिकार हैं। वे अपने लेखन में एक न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज के अकांक्षी हैं। उन्होंने अपने समूचे लेखन में साम्प्रदायिकता पर कठमुल्लेपन पर जबर्दस्त प्रहार किये हैं। उसके परिणामों को भुगता भी है उनका एक निबंध मुझे याद आ रहा है ‘गर्दिश के दिन’। इस निबंध में वे अपने माध्यम से समूचे परिवेश और दुनिया को देखते हैं वे लिखते हैं। “दुःखी  और भी हैं इससे मेरी संवेदना का विकास हुआ। मैंने देखा कि जीवन में बेहद विसंगतियां हैं, अन्याय, पाखण्ड, छल, दोमुहापन, अवसरवाद, असामंजस्य आदि। इनके विश्लेषण के लिये साहित्य, दर्शन, समाजशास्त्र और राजनीति का अध्ययन किया।" उनका यह अध्ययन उन्हें पारदर्शी दृष्टि देता है। मुझे लगता है कि परसाई तक़लीफों को बहुत साधारण और सरल ढंग से कहकर उनकी आंतरिक पीड़ा को ठंडेपन से उजागर करते हैं। उनके कुछ शीर्षक बहुत दिलचस्प हैं जो फ़ैण्टेसी के जरिये हमारे समय के तमाम सवालों को उठाते हैं। जैसे अयोध्या में खाताबही, लंका विजय के बाद, प्रथम स्मगलर नहुष का निस्काशन, इतिहास का सबसे बड़ा जुआ।” परसाई कहते हैं व्यंग्य विधा न होकर एक स्पिरिट है उनको कबीर का एक दोहा बहुत पसंद था। जिसका वो अक्सर जिक्र करते थे। 


‘सुखिया सब संसार है, खाबै और सोबै

दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोबै।’ 


तात्पर्य यह कि जो जाग रहा है चीज़ों को समझ रहा है समय को जाँच  परख रहा है वही दुखी है। वह दुख से निजात पाने के लिये निरन्तर उद्यम करता है और लोगों को जगाने की चेष्टा करता है।



नागार्जुन ने परसाई के व्यक्तित्व और कृतित्व को केन्द्र में रख कर एक कविता लिखी थी। 


“वाणी ने पाये प्राणदान

सदियों तक कुन्द नहीं होंगे

गुरु परसाई के वचन वाण” 


यह समूची कविता परसाई के लेखन और व्यक्तित्व को केन्द्र में करती है। जाहिर है कि उनका व्यंग्य जीवन के आर पार देखता है। आपकी आँखे खोल देता है, उनका लेखक इतिहास परम्पराओं और वर्तमान को देखता है और आपके सामने युग के यथार्थ को खोल देता है। यह तमीज बिरलों मे होती है। परसाई से जब मुलाकात होती थी वे आँखे फाड़ फाड़ कर देखते थे क्योंकि उनके यहाँ ‘दोगलापन’ नहीं चल सकता। वे राजनीति, समाजनीति और सांस्कृतिक आयामों और छद्म नैतिकताओं की चीर फाड़ करते हैं। वे राजनीति के वीभत्स और घिनौने रूप को प्रत्यक्ष करते हैं। उनके व्यंग्य सामाजिक विसंगतियों पर तीखे प्रहार करते हैं। मुझे लगता है कि उनकी लेखकीय आवाज कालजयी है। हालांकि वे अपने लेखन को कालजयी नहीं मानते। परसाई जी ने अनेक कालम लिखे। ये कालम इस बात की सूचना है कि साधारण लोगों से उनका जुड़ाव कैसा है। जैसे ये माजरा क्या है, सुनो भाई साधो कबिरा खड़ा बाज़ार में, तुलसीदास चंदन घिसैं, रिटायर्ड भगवान की आत्मकथा, माटी कहै कुम्हार से, और अंत में तथा हम इक उम्र से वाकिफ़ हैं। उनके लेखन को बहुत सारे लोग पढ़ते थे। उसमें उनकी संख्या बहुत ज़्यादा थी जो रिक्शा चलाते थे, अख़बार बांटते थे छोटे-मोटे काम करते थे छोटी मोटी यात्रायें करते थे। तात्पर्य यह है कि जो सामान्य ज़िन्दगी से सीधे-सीधे जुड़े थे वे इस बात में अपने को छोटा नहीं मानते थे कि उनका लिखा हुआ छोटे छोटे अख़बारों मे छप रहा है। अपने पाठकों की प्रतिक्रियायें के बहुत गंभीरता से सुनते थे। देशबन्धु में उनका एक स्तम्भ छपता था ‘मूर्ति में परसाई से। जिसमें वे हर तरह के जवाब देते थे।



परसाई के लेखन को किस कोटि में रखा जाय यह प्रश्न भी जब तब उठता रहा है मेरा मानना है कि उनकी कहानियां मुक्तिबोध, अमरकान्त जैसा है जो हिन्दी कथा के की चालू भूगोल अलग हटकर है। कुछ आलोचकों का ध्यान इस ओर गया भी। परसाई जी ने 'वसुधा' नामक पत्रिका निकाली उसे उन्होंने कैसे चलाया यह भी हमारे समय का एक उदाहरण है। उस पत्रिका में मुक्बिोध का एक स्तंभ छपता था ‘एक साहित्य की डायरी’ इसके अलावा उस समय के महत्वपूर्ण लेखक भी उसमें अक्सर छपते थे मुझे याद आता है जब 'वसुधा' पत्रिका बंद हो रही थी तो उन्होंने उसे किस सहजता से स्वीकारा था। परसाई जी मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रहे हैं। अपने साहित्यिक साथियों को उन्होंने बहुत मार्मिक पत्र लिखे थे और साथियों से निवेदन किया है कि लेखक साथियों को सभी लोगों से पारिवारिक रिश्तो बनाने चाहिये और उसका निर्वाह करना चाहिये। 



उनकी रचनाओं में बहुत कुछ है जैसे वे छोटी छोटी बातों में अपने समय को वे बेहतर तरीके से प्रश्नांकित करते हैं जैसे गेहूँ का सुख, जैसे  उनके दिन फिरे, राम सिंह की ट्रेनिंग, इन्सपेक्टर मातादीन चाँद पर, सदाचार का ताबीज, वैष्णव की फिसलन, एक तृप्त आदमी, विकलांग श्रद्धा का दौर, अकाल उत्सव, टार्च बेंचने वाला, एक निठल्ले की डायरी और रानी नागफनी की कहानी। उनके समग्र लेखन में व्यंग्य, विट, आयरनी और मिथकों का बहुत सटीक इस्तेमाल हुआ। वे अपनी बातें फ़ैण्टेसी के माध्यम से कहते थे और उसकी सटीक व्याख्या भी करते थे। अन्न की मौत से एक उदाहरण प्रस्तुत है- “मुझे लगता है कि सभ्यता के बोरे में चूहे घुसकर सड़ रहे हैं। मैं कहता हूं कि तुम अगर अभ्यास से कुतरो तो एक हद तक बर्दाश्त किया जा सकता है। मगर कम्बख्त उसमें घुसकर क्यों सड़ते हो। खुद तो मरते ही हो हमारे लिये बदबू और रोग फैलाते हो। हम बोरे को खोल कर देखते हैं कि तुम सड़क पर मर रहे हो क्या? तुम हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचाना चाहते हो कि हम पूरी व्यवस्था को ही दफ्न कर दें।”

 

   


 


सम्पर्क 

 

रजनीगंधा 06, 

शिल्पी उपवन,

अनंतपुर, रीवा (म.प्र.) 486002

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