आशीष सिंह का आलेख 'कथाकार इब्राहीम शरीफ'





रचना की दुनिया बहुत बड़ी होती है। एक ही समय में अनेक रचनाकार अपनी रचनाओं से उस समय के साहित्य को समृद्ध कर रहे होते हैं। लेकिन समय की धारा कुछ ऐसी होती है कि कई महत्त्वपूर्ण रचनाकार गुमनामी में खो जाते हैं। इब्राहिम शरीफ ऐसे ही रचनाकार रहे हैं जिन्होंने कई महत्वपूर्ण कहानियां लिखीं। समांतर कहानी आंदोलन में उनकी भूमिका अहम रही है। बावजूद इसके उनके लेखन की वैसी चर्चा नहीं हो सकी, उनकी रचनाएं जिसकी हकदार थीं। युवा आलोचक आशीष सिंह ने इब्राहिम शरीफ के लेखन को रेखांकित करने की कोशिश की है। ऐसे रचनाकारों को 'जिन्हें हम भूल गये' कालम के अंतर्गत रेखांकित करने की कोशिश करेंगे। आइए आज पहली बार पढ़ते हैं आशीष सिंह का आलेख 'कथाकार इब्राहीम शरीफ'।



जिन्हें हम भूल गये

कथाकार इब्राहीम शरीफ

                   

आशीष सिंह


एक कहानीकार के तौर पर इब्राहीम शरीफ को हम कुल जमा 'जमीन का आखिरी टुकड़ा' के कहानीकार के तौर पर ही जानते हैं। उनकी तमाम कहानियों व 'अंंधेरे के साथ' जैसे उपन्यास से हमारी पीढ़ी के पाठक लगभग अपरिचित ही हैं। 'कई सूरजों के बीच' का यह कहानीकार 'अधूरे अधबने मकान' और 'अँधेरे का सिलसिला' जैसे उपन्यासों का भी लेखक है, हम कहाँ जानते हैं? कहानी के आलोचकों द्वारा जब कभी 'समान्तर कहानी आन्दोलन' के प्रमुख हस्ताक्षरों की चर्चा होती है तो कामता नाथ, जितेंद्र भाटिया, इब्राहीम शरीफ जैसे कहानीकारों का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। यहाँ अगर 'नाम लिया जाता है' वाक्य का सही में प्रयोग करें तो इब्राहीम शरीफ जैसे दूसरे कई कहानीकार हैं, जिनकी कथायात्रा से लगभग अपरिचय बना रहा है। इसमें एक वजह हिन्दी की 'अपनी स्मृति' है और दूसरी वजह उनकी रचनाओं की हमारे बीच प्रायः अनुपस्थिति है। अतः यह कहना कही अधिक सही होगा कि 'आज दुर्भाग्यवश इब्राहिम शरीफ का लेखन हमारे बीच अनुपस्थित है'।


इब्राहीम शरीफ के लेखन की प्रथम- प्रेरणा
                     

(1)

एक दक्षिण भारतीय हिन्दी कथाकार  'श्री शरीफ' हिन्दी साहित्य लोकवृत्त के वो अधूरे सिरे हैं, जिनसे जुड़ कर ही हम आधुनिक हिन्दी की कहानी-यात्रा का वास्तविक रेखांकन कर सकते हैं। जीवन के महज चालीस बरस और अपने लेखन के बमुश्किल दस बरस  ही वह दे पाये!अहिन्दी भाषाभाषी-लेखक किस प्रकार हिन्दी भाषा को अपनी जीविका के लिए; साहित्यिक-कर्म के लिए चुनता है, उसकी एक अलग ही कहानी है। सन् 1972-73 के दिनों की  'सारिका' में ''गर्दिश के दिन'' नाम से सम्पादक कमलेश्वर एक स्थायी स्तम्भ प्रकाशित किया करते थे, जिसमें एक रचनाकार अपनी लेखकीय जद्दोजहद एवं लेखन के लिये प्रेरित करने वाली स्थितियों को रचनात्मक-यात्रा के तौर पर दर्ज़ करता था। 'गर्दिश के दिन' स्तम्भ का जिक़्र करना इसलिए भी ज़रूरी लग रहा है कि इसी स्तम्भ को पढ़ने के बाद इस कहानीकार की रचनाएँ खोज़ कर पढ़ने की जिज्ञासा बलवती होती गयी। मुझे इसीलिये 'गर्दिश के दिन' में प्रस्तुत इब्राहीम शरीफ की 'कुछ अपनी कुछ जग बीती' को साझा करने का मन कर रहा है। वह बताते हैं कि उनके घर के पास कभी का सम्पन्न किन्तु; अब तबाह-हाल एक ब्राह्मण परिवार रहता था। उस परिवार की आर्थिक-दशा और स्वयं इब्राहीम शरीफ के परिवार की स्थिति में बहुत मामूली अन्तर था। वह कहते हैं 'हमारे परिवार व उस ब्राह्मण परिवार में फर्क सिर्फ़ इतना था कि भीख माँगने या शरीर बेचने जैसी जलालत हम पर अभी नहीं उतरी थी। 'किस प्रकार उस परिवार का मुखिया ग़रीबी-बेरोजगारी झेल रहे इनके परिवार को नौकरी दिलाने का झूठा बहाना बना करके एक-सेर, दो-सेर अनाज या मामूली रक़म वसूलता रहता है।' धीरे-धीरे युवा इब्राहीम को महसूस भी हो जाता है कि पूरी-गरिमा के साथ ग़रीबी छुपाने और झूठे-आश्वासन देते इस परिवार की आन्तरिक हालत कितनी जर्जर है। इस परिवार के प्रति उमड़ी सहानुभूति ही थी, जिसने इब्राहिम शरीफ को कुछ लिखने के लिए प्रेरित किया। अपनी आँखों द्वारा देखी गयी दुनिया और अपने परिवार द्वारा भोगी गयी जीवन स्थितियाँ ही कहानीकार की रचनाओं का मूल स्रोत बनी रहीं। वह लिखते हैं: "उस परिवार के साथ शायद मेरे दो सालों के जुड़ाव का ही असर होगा कि गम्भीर-लेखन के रूप में (अपनी कविताओं को छोड़ कर) मैंने जो पहली रचना की, वह उस बूढ़े, ग़रीब, विवश और दुनिया की दृष्टि में बदचलन-परिवार की स्थितियों को ही आधार बना कर की, आज भी मेरे भीतर उस परिवार की हर स्थिति और व्यक्ति की स्मृति ताजा़ है। अब वह समूचा परिवार तबाह हो गया है। लगभग सभी; बेमौत मर गये हैं। उस परिवार के साथ मेरे सम्बन्धों ने मुझे हमेशा ही दो बातों के लिए उकसाया है। एक की बदौलत मैं हिन्दुस्तान के लगभग हर शहर की दहलीज लाँघ चुका हूँ और - दूसरे की बदौलत मैंने आज तक लेखन के नाम पर जो कुछ भी लिखा है, उन्हीं लोगों की स्थितियों पर लिखा है, जिन्हें मैंने जीवन में देखा-पहचाना और भोगा है। मेरे जीवन का वह एक ऐसा दर्दनाक और साथ ही महत्वपूर्ण अनुभव था, जिसने मुझमें लिखने की चाह ही नहीं भरी बल्कि; मेरे लेखन को वास्तविक जीवन से जुड़े रहने की नैतिक-शर्त भी लगा दी।" 


आगे चल कर इब्राहिम शरीफ का, अखिल भारतीय हिन्दी महाविद्यालय में हिन्दी पढ़ने के लिए आगरा आना हुआ। एक वर्ष प्रशिक्षण पाने के बाद, मुकम्मल हिन्दी लेखक बनने की चाह से वह हिन्दी प्रदेश में रह कर हिन्दी सीखने की कोशिश करने लगे। मातृभाषा 'दक्खिनी हिन्दी' होने से खड़ी बोली हिन्दी गद्य-पद्य में प्रयुक्त होने वाले 70 प्रतिशत शब्द उन्हें अपनी भाषा के लगते थे, बस  प्रान्तीयता के वाह्य-आवरण को उतार फेंकना था। 



हिन्दी की शब्द-सम्पदा ही नहीं, सांस्कृतिक-सामाजिक स्थितियों को एक हिन्दीतर-क्षेत्र का लेखक अपने लेखन में किस प्रकार प्रस्तुत कर रहा है और यह पद्धति हिन्दी के लिए आज भी कितनी कीमती है, इस पर हम आगे बात करेंगे। अभी इस राह पर आगे बढ़ रहे हैं कि एक दक्षिण भारतीय हिन्दी-लेखक को किस तरह की सामाजिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है! इस पर यहाँ थोडी़ बात करनी ज़रूरी लग रही है। हाँ, तो मैं कह रहा था कि हिन्दी प्रदेश में रह कर, हिन्दीतर-भाषी इब्राहिम शरीफ के लिये हिन्दी सीखना का इतना आसान नहीं रहा होगा! आर्थिक तौर पर उनका परिवार इतना सम्पन्न नहीं रह गया था कि बाहर रख कर पढ़ाई करवा सके, इसलिए भी इन्हें काम की तलाश थी। इसका रास्ता शरीफ के एक मणिपुरी सहपाठी  ने दिल्ली में एक जगह काम दिलवा कर निकालने की कोशिश की। वह बताते  हैं कि - "एकदम अनिश्चित-सी स्थिति में, दोस्त के दिये हुए पते पर जब मैं पहुँचा तो अच्छा लगा, जब शाबाशी देते हुए उन लोगों ने स्वागत किया : "वाह! मुसलमान होते भी तुमने हिन्दी पढ़ी है।" परिचयात्मक बातें हुईं, उनके प्रश्न के उत्तर में मैंने बताया कि नमाज़ नहीं पढ़ता हूँ और दूसरे किसी भी तरह के धार्मिक काम  नहीं करता हूँ। मेरी ये बातें सुन कर उन लोगों ने दुबारा शाबाशी दी; मुझे 'बहुत ही समझदार और सच्चा भारतीय' करार दिया। स्वागत अच्छा था, मगर पता नहीं क्यों? उन लोगों से मिल कर मुझे कोई खास खुशी नहीं हुई थी। दोपहर के खाने का वक्त हुआ तो एक बेहद पुरानी-सी बदरूप थाली में खाना परोस कर बाहर बरामदे में मुझे बिठा दिया गया और बाकी लोग अन्दर रसोई खाने लगे। मैं जब खाना खा चुका तो मुझे निर्देश दिया गया कि थाली-कटोरी मैं खुद माँज कर बरामदे की दीवार के आले में रख लूँ।



खाना खाते वक्त और खा चुकने के बाद, न जाने क्यों, मुझे अपनी माँ की बेहद याद आयी और मैं थाली धो कर आले में रखने के बाद उस घर के पिछवाड़े के झुरमुट की तरफ पेशाब करने के बहाने गया और वहाँ जंगली पौधों के पीछे बैठ कर जी भर रो आया। नौकरी मिल गई थी, मुझे खुश होना चाहिए था। क्योंकि  उससे  पहले मुझे यह कर ख़याल खाये जा रहा था कि जो थोड़ा-बहुत पैसा मेरे भाई साहब मुझे भेजते रहते हैं, उसको  जुटाने में उन्हें कस्बे में जलील होना पड़ रहा होगा। मगर  पहले ही दिन से मेरा जी उचटने लग गया था। अपनी थाली खुद माँजने पर मुझे कोई आपत्ति हो सकती  थी। लेकिन  मुझे खुद अपनी निकृष्टता को स्वीकार करते हुए यह सब करना अखर रहा था।" 

 

 
                     

(2)


जीवनानुभव जो कहानियों में दर्ज़ होने लगा

"अब, मैं उस दिन की प्रतीक्षा में हूँ कि अपने देश के किसी गाँव या शहर के किसी मकान-मालिक के पास जा कर कह सकूँ कि मैं इब्राहिम शरीफ, आपका मकान किराये पर चाहता हूँ और पूरे अधिकार तथा गौरव के उससे मकान ले कर रह सकूंँ।" 
       


इब्राहीम शरीफ 'गर्दिश के दिन' में धार्मिक तौर पर अलग से पहचाने जाने के सवाल को इन सतरों के ज़रिया दर्ज़ तो करते हैं लेकिन, अपनी कहानियों में इसे बहुत कम जगह देते हैं। व्यक्तिगत त्रासद-अनुभव को रचना का विषय बनाने से बचने की कोशिश के पीछे की वजहें क्या रहीं होंगी? हिन्दी क्षेत्र का कोई मुस्लिम लेखक इस सवाल को कैसे देखता और दर्ज करता? हिन्दी में लिख रहे एक अहिन्दी भाषी लेखक के आन्तरिक उद्वेलन को न समझे जाने की अनकही व्यथा रही? क्या इसके पीछे उनका वैचारिक-दृष्टिकोण था, जो इस अलग से पहचाने गये रूप व दंश को मूल सवाल बनाने के बजाय बेरोजगारी, असुरक्षा-बोध जैसे मुद्दों को अपनी रचना में केन्द्रीय स्थान देता है। अपनी धार्मिक-पहचान के चलते ही दिल्ली जैसे महानगर में आसानी से किराये का कमरा न मिल पाना, अन्ततः नाम बदल कर रहने को मजबूर होना. आदि ऐसे तीखे सवाल हैं जिनसे कोई अल्पसंख्यक या दलित-परिवेश से आया शख़्स आज भी मुठभेड़ करता मिलता है! क्या विमर्श की खास माँग-आपूर्ति को पूरी करने के बजाय आम-जन के बीच मौजूद मूल-सवाल को सामने लाना वे ज़रूरी समझते हैं! क्या इसी सहारे वे प्रवासी मन में उठ रहे सवालों को  कुछ बदले हुए रूप में कहानी में बार एल-बार जगह देते हैं? उनकी एक कहानी का शीर्षक है 'गणित'। यह 'गणित' जहाँ होटल मालिक के लिए अपने होटल में काम करने वाले नौकर के लिए अलग अर्थ लिए हुए है तो स्वयं मालिक के लिए दूसरे अर्थ लिए हमसे मुखातिब हो कर के भयावह-बेबसी और बेहद कम मज़दूरी पर परदेस में काम करने की विवशता को बहुत मार्मिकता से उठाती है यह कहानी! कहानी का सबसे गौ़रतलब अंश स्मृति में उपस्थित वह प्रकृति भी है, जिसका हिसाब कोई मालिक नहीं दे सकता है। क्या भयावह स्थिति से बाहर निकलने के लिए भी स्मृति हमारा साथ देती है या कि स्मृतियाँ हमारी तकलीफ को बढ़ा देती हैं?



'वह झट से उठ कर खड़ा हो गया, जैसे कुछ और सोचने के लिए उसका दिमाग़ बिल्कुल तैयार न हो। वह कमरे के बाहर आ गया। शाम हो गई थी। सूरज की पीली-धूप उसके कमरे के आसपास के पेड़ों पर पड़ रही थी। थोड़ी देर वह वहीं खड़ा पेड़ों की हल्की-सी परछाइयों को देखता रहा। एकाएक उसके दिमाग़ में अपने यहाँ के पेड़ कौंध गये। वह सोचने लगा; हमारे यहाँ कितने घने और हरे-भरे पेड़ होते हैं। यहाँ तो साल के बारहों महीने धूप में पेड़ जलते रहते हैं। घने और हरे कहाँ से होंगे? उसकी इच्छा होने लगी कि वह उड़ कर अपने गाँव पहुँच जाये और किसी घने पेड़ की छाया में घण्टों बैठा रहे। जब भी उसे अपने यहाँ के पेड़ों की याद हो आती तो वह भीतर से पिघल उठता था। कितने-कितने लम्बे साल उसे यहाँ बिताने पड़ते हैं, उन गबरू पेड़ों को सिर्फ याद करते हुए। जब भी इस तरह की बातें उसके मन में ऊपर-नीचे होतीं तो उसे लगता, लम्बा समय पहाड़ की तरह उसके ऊपर बैठ गया है। वह तरह-तरह से हिसाब लगाता और उस पहाड़ के एक-एक पत्थर को परे फेंकते हुए सोचने लगता कि फिर भी उसे घर पहुँचने में बहुत समय बाकी है। उसे पता था, यह समय का पहाड़ कभी भी उसके ऊपर से हटने वाला नहीं है और उसके हटे बगै़र अपने यहाँ से पेड़ों की छाया की कल्पना में जीने के सिवा उसके लिए कोई चारा नहीं है। वह यह भी जानता था कि जब तक वह अपनी इच्छाओं और पेट को मार कर एक-एक पैसे का जोड़-जमा नहीं करता, तब तक उसकी कोई भी कल्पना पूरी नहीं हो सकती; न बीवी-बच्चों से मिलने की, न अपने यहाँ के प्यारे पेड़ों के नीचे बैठने की।" 




बेरोजगारी-बेबसी का यह सवाल इब्राहीम शरीफ की कहानियों में बहुत दूर तक उपस्थित मिलता है। वह व्यवस्था को किसी अमूर्त इकाई के तौर पर चिन्हित कर महज दिखाने के लिये 'प्रतिरोध' का धुन्ध नहीं रचते हैं। यह कहते हुए सोचना पड़ता है कि साठोत्तरी कथाकारों में इब्राहीम शरीफ जैसे कथाकारों ने छद्म-प्रतिरोध व नकली भाव-भंगिमाओं को सामने ला कर तत्कालीन-कथाजगत में सूखते कथ्य को फिर से जाग्रत करने का ही काम किया है। केन्द्रीय सामाजिक-समस्याओं के साथ व्यक्ति-मन में चलने वाले तीखे अन्तर्द्वन्द्व को इब्राहीम हर बार अपनी कहानी में लाते हैं! ठीक निकट की चीजों, रिश्तों को देखती मनोवैज्ञानिक-दृष्टि और अपने सामने मौजूद यथार्थ के वास्तविक-स्वरूप को संयोजित कर वह अपनी कहानी-कला को ताकतवर बनाते हैं, जो एक परम्परा के तौर पर, प्रविधि के तौर भी आज की कहानी को 'नयी कहानी' बनाती है। एक निम्नवर्गीय पृष्ठभूमि से आये व्यक्ति के सामने उसकी बेबसी, उसके चेहरे से, उसके कपड़े से पहचानी जा रही है। यह बाहर से ज़्यादा अन्दर की ओर झाँकते-मन की छवि के रूप में पढ़ा जाए? या एक काॅम्प्लेक्स के तौर पर  मन की गुत्थियों के रूप में पढ़ा जाये? यहाँ 'हँसो हँसो, जल्दी हँसो' की तरह दूर खड़े मध्य-वर्ग के हँसी को नहीं, खुद में पनपते 'डर' को चिन्हित करना चाहती है कि 'हँसी' का पात्र मैं हूँ तो क्यों हूँ? क्या इस 'कष्टकारी-सुरंग' से निकले बगैर मुक्ति नहीं मिलेगी?-- "वह भीतर ही भीतर किसी अनजान डर से हिल उठता था। उनकी हँसी देख कर उसे भीतर छिपी हुई कितनी ही कमियाँ उभरती हुई नज़र आती थीं। वह सोचने लग जाता था कि शायद वे लोग उसके एम.एस-सी. तक पढ़ कर भी बेकार रहने के कारण, उसके चेहरे पर हमेशा उड़ती हुई हवाइयों के कारण, उसके चुपचाप चौबीसो घण्टे कमरे में बैठे रहने के कारण कारण ....न जाने किस कारण से हँसते रहते हैं।" और उन सबकी हँसी से बच निकलने की राह में एक बेरोजगार युवक कुछ निर्णय जरूर कर ले, मगर इस निर्णय की ज़मीन कितनी पोपली है किन्तु; क्या यह निरर्थकता-बोध उस तन्त्र की निरर्थकता को नहीं दिखाती! 'मौत' कहानी का यह संवाद बहुत कुछ कहता मिलता है -


"उसने किताब बन्द कर दी और उठ कर टहलने लगा। मैं उसे टहलते हुए काफी देर तक देखता रहा। मैं बखूबी समझ गया कि भूरे चेहरों ने मुझ पर पूरी बेरहमी से वार करना शुरू कर दिया है। उन से निस्तार पाने के लिए मैंने उससे पूछा-'देखो, इस तरह नींद का न आना अच्छी बात नहीं है! तुम्हें  इस बात पर सोचना चाहिए।
 

"फिर वही सोचने वाली बात ही तो बीच में आ जाती है न...'

-"क्या मतलब?'

"नींद पाने के लिए सोचूँगा, सोचने पर नींद नहीं आयेगी.. फिर सोच.. फिर.. फिर नींद का न आना..।"

"तो सोचे बगैर सोया तो जा नहीं सकता।"

"तो सोच कर सो क्यों नहीं जाते?"

"सोचने पर नींद नहीं आती!"

मैं भी उठ कर कुरसी पर बैठ गया। मैंने एक सिगरेट सुलगा ली और उत्सुकता से उसकी तरफ देखते हुए बोला - "सच कहूँ, तुम्हारी कोई बात मेरी समझ में नहीं आती है!"



वह थोड़ी देर चुपचाप मेरी तरफ देखता रहा , और हौले-हौले जैसे शब्दों को चबाते हुए बोला - "मेरी बात अपनी ही समझ में नहीं आती है ..।'"

"आखिर क्यों?'"


"मेरे दोस्त, मैं क्या कहूँ, बस यह समझो कि मैं खु़द अपने ही खोदे हुए कुएँ में डूबने लग गया हूँ..।'"

"मैं समझा नहीं ..।'"

'अच्छा है, तुम समझो ही नहीं।'

"फिर भी क्यों इतने परेशान हो?"

"मुझे यहाँ नौकरी करने के लिए नहीं आना चाहिए था।"

"क्यों? नौकरी नहीं करोगे तो क्या झख मारोगे?'

"झख तो नहीं मारूँगा, लेकिन पहले वाली नौकरी नहीं छोड़नी चाहिए थी।"

"यह भी तो बुरी नहीं है।" 

"लेकिन वह ज्यादा अच्छी थी।"

"क्या फरक पड़ता है।"

"फरक क्यों नहीं पड़ता। सच मानो, यह नौकरी तो बकवास है।"


"नौकरी जगह देख कर नहीं की जाती, आमदनी देख कर की जाती है। पहले मैं भी ऐसी ही बेवकूफी की बातें सोचता था।"


"'यानी, तुम्हें यहाँ तनख्वाह नहीं मिलती? क्या बकते हो?"

"तुम्हें पता है, मुझे यहाँ दस रुपये कम मिलते हैं।"

'"छोड़ो, दस रुपयों से होता-जाता क्या है?"
 
-"होता क्यों नहीं? तुम्हें पता है, मेरी माँ को पिछले महीने लकवा मार गया है। दो हफ्तों से मेरे भाई का बच्चा बीमार है। अगर वे दस रुपये होते  तो अब काम नहीं आते?"



-"इस तरह सोचने से कोई बात थोड़े बनेगी। ..दूसरे ढंग से भी सोचना चाहिए।"

"दूसरे ढंग से दूसरा आदमी ही सोच सकता है, मैं नहीं।"

"तो उसी नौकरी पर ही क्यों नहीं चले जाते?"

"अब वह कैसे मिलेगी?'

"कोशिश तो कर सकते हो?"

"कोशिश में यह भी चली जायेगी तो?"

"तो यहींं रहो।"

"यहीं रहूँगा तो दस रुपयों का हर महीने घाटा कौन उठायेगा?"
आई
"उसे भूल जाओ!'"

"यानी, मैं अपनी माँ को, अपने भाई के बच्चों को भी भूल जाऊँ ?"

अपनों के प्रति निपट लगाव और असहायता बोध के बीच उभरे  मानसिक द्वन्द्व को इब्राहीम व्यक्ति तक सीमित नहीं रहने देते बल्कि; उसकी सामाजिक-आर्थिक चौहद्दी को बिना बताये दिखाते मिलते हैं। 'आदमी न चाहते हुए खुद को चीरकर दो हिस्से में कर सकता है।' लेकिन इस अलगाव में भी अपने सम्बन्धों को, मृत हो रहे सम्बन्धों की डोर को इब्राहिम शरीफ का कहानीकार रोमांटिक तौर पर भाव-लेपन नहीं करता है बल्कि; बदल रहे रिश्तों की परिधि को साफ-साफ रेखांकित करता मिलता है। 'नयी कहानी' के कहानीकारों के बाद उभरी नयी-पीढी़ में यह सवाल प्रमुखता से अपनी जगह बनाता मिलता है कि रिश्तों की शिनाख्त किस रूप में की जाए। 



'अंधेरे के साथ' उपन्यास में नौकरी से बेदखल कर दिये बेरोजगार-नौजवान की बेबसी और बचे रहने की तमाम एक कोशिशों के बीच खु़द से जूझते एक चरित्र को हम देखते हैं-

 
"माँ मेरी परिधि में नहीं आ सकती थी। मैं माँ की सीमा में सिकुड़ नहींं सकता था।" रिश्तों के बीच उभर आये बेगानेपन को, साथ में बुनियादी जरूरतों तक के लिए लगभग निर्वीर्य हो चुके तन्त्र की कोशिकाओं को उनकी कहानियाँ अपना निशाना बनाती हैं। 'पूर्वाभास' का तथाकथित समाज-सेवी, वे जो देश के किसी हिस्से में जा कर जनता को मुक्ति, आजा़दी व समानता के पाठ के लिए तैयार करना चाहता है लेकिन, उसका मध्यवर्गीय दुचित्तापन मनोनुकूल वातावरण तलाशने की ओट में इधर-उधर आवाजाही करता ही  मिलता है तो 'दिग्भ्रमित' हर प्रकार की राजनीति के प्रति नकार के भाव को सामने लाती हुई कहानी है। जब किसी आदर्श - बदलाव की सीधी राह का वातावरण बनाया जा रहा हो। ऐसे में कहानी में आ रही यह 'मर्यादाहीनता' खोखली मुरादों व तत्कालीन समाज में गहरे पैठ रहे निराशा-बोध की ही अभिव्यक्ति है। बेवजह जीत का तूमार भरना यथार्थवादी तत्व नहीं हो सकता है। अनुभूतियों को कहानी में आत्मगत तौर पर पेश करना इब्राहीम शरीफ की कहानियों की अन्यतम खा़सियत है। 'मरीचिका' कहानी का नायक जब यह दर्ज़ करता है - "खुशी के गाने मुझसे ज्यादा देर तक गाये नहीं जाते हैं। पता नहीं कब और क्यों, मेरा गुनगुनाया जाने वाला गाना अपने आप दर्द की तर्ज़ में ढल जाता है और मैं दोस्तों पर खीझ कर ओठ भींच लेता हूँ।" 'चली जाती है उधर को भी नजर' वाली मन:स्थिति न हो कर खु़द पर आयत्त वस्तुस्थिति से परेशान नौजवान की आवाज़ है यह, जब कि यही नौजवान जब समूह में अपने 'हमदर्दों' के साथ होता है तो इस स्थिति के जि़म्मेदार तत्वों की तबियत से खिल्ली उड़ाता मिलता है। ऊपर से जितना पत्थर-दिल अन्दर से उतनी ही गहरी-आक्रोशित भंगिमा!


इब्राहिम शरीफ की कहानियों में से कुछ कहानियाँ 'नग्न यथार्थ' की रोचक प्रस्तुति करती मिलती हैं। उनकी कहानी 'मर्यादाहीन' पढ़ते हुए हमें अनायास अखिलेश की 'चिट्ठी' और अमरकान्त की 'हत्यारे' की स्मृति हो आयी! सभ्याचार की तमाम भंगिमाओं की खिल्ली उड़ाती यह कहानी दरअसल व्यवस्था और उनके कल-पुर्जों से लाभ ले रहे तबकों के 'वास्तविक यथार्थ' को सामने लाती है। किसी प्रकार के आदर्श,  किसी प्रकार के झूठे-भरोसे की फेहरिस्त का वजन लादे बिना बिल्कुल नंगे-ढंग से बेरोजगारी, शिक्षा के अवमूल्यन व समाज के अधःपतन को कहानीकार व्यंजक -ढंग से प्रस्तुत करता है! इस कहानी के दो पात्रों की 'बेरोज़गारी' से जूझने की रोचक तैयारी-भरी बातचीत का एक अंश गौरतलब है -


"एक दोस्त ने कहा- 'यार, एक बात सूझती है - यूनिवर्सिटी के पास गोलगप्पे की दुकान खोली जाय। लोग अपनी बहू-बेटियाँ बेच कर जि़न्दगी बनाते हैं तो हमें इसमें शर्म क्यों हो?' 


दूसरे ने सलाह दी- 'हाँ, मगर दूकान  के तीनों तरफ हमारी डिग्रियाँ टँगी होंगी और दुकान का नाम होगा-- 'एम. ए. गोलगप्पा केन्द्र।' 


मैंने सुझाया- 'बीस रुपये खर्च कर इस बात का इश्तहार क्यों न किसी स्थानीय दैनिक में निकलवायें? लोगों को पता तो चले।'
                 
 
 

    

(3)

कहानीकार कहानी कहता नहीं, दिखाता भी है 

किन्हीं स्थितियों के कारुणिक-रूपान्तरण मात्र से कहानी नहीं बनती बल्कि; कहानी अपने बीच उन स्थितियों को कैसे दिखाती है कहानी बनने के लिए! ये 'दिखाने' का पहलू ही ज़रूरी-पहलू है। 'समान्तर कहानी आन्दोलन' के कहानीकारों ने पीछे छूट चुके सामान्य, आम-जनजीवन को फिर से कहानी का विषय बनाने का प्रयास किया।मामूली लोगों की मामूली जि़न्दगी को अपनी कहानी का विषय बनाया; हालाँकि अन्तर्धारा के तौर पर हिन्दी कहानी की यह सिफत बरकरार रही। इसे आन्दोलन का नाम दे कर अलग से चिन्हित करने की मूल वजहें तत्कालीन 'कथा-त्रयी' या  'कथा-चतुष्टय' या 'सचेतन कहानी' जैसे रेखांकनों के पीछे खड़े कथाकारों के अपने प्रयासों में पढ़ा जा सकता है। इन नामांकनों के पीछे कहानी कितनी बार फार्मूले से मुक्त हुई और कितनी बार नये फार्मूले की गि़रफ़्त में डूबती-उतराती मिली, इस पर अलग से बातचीत की आवश्यकता है। 'समान्तर कहानी आन्दोलन' के अग्रणी कहानीकार होने के बावजूद इब्राहीम शरीफ कहानी को पुराने ढंग से अलगाने व जोड़ने के बारे में बेसुधी के शिकार नहीं थे। 'सारिका' दिसंबर, 1974 में प्रकाशित 'इन्सानी सोच के समान्तर और विपरीत' आलेख में इब्राहीम शरीफ कहते हैं-



'इस बार उसके पास प्रेमचन्द की कहानी का रूप था और 'नयी कहानी' के कहानीकारों की शक्ति! इन नये कहानीकारों ने बेहद ठहरी हुई निगाहों से खुद को और अपने चारों तरफ साँस लेते लोगों को देखा!ये नये कहानीकार उम्र के हिसाब से नये नहीं बल्कि; विचारों के हिसाब से नये थे। इन लोगों ने अपनी-अपनी जगह, अपने-अपने ढंग से इस बात की ज़रुरत महसूस करनी शुरू कर दी कि कहानी ऐय्याशी और सिरफिरेपन के कच्चे खूनी-धब्बों की दास्तान नहीं है बल्कि; समाज की परस्पर-विरोधी स्थितियों का वैज्ञानिक-अध्ययन तथा समीक्षा कर आम जनता में जागृति तथा हर तरह की आजा़दी की भावना भरने वाली सामाजिक तथा राजनैतिक शक्तियों को मज़बूत करने का एक ज़रिया है।' 'साहित्य मनबहलाव की चीज नहीं है' जैसी पुरानी उक्ति से प्रभावित ये कथाकार अपने समय के समाज में उभरते नये सवालों और सम्बन्धों के समीकरण में आ रहे बदलावों व प्रतिरोध के नये रूपों को सामने लाते हैंं।


दरअसल यह वक्तव्य और कहानी में मौजूद कहानीकार का ट्रीटमेण्ट इब्राहिम शरीफ की कहानी-कला को सामने लाती है। 'घटना प्रसंग' व 'मार्मिक अनुभूति' को ही केन्द्रीय-वस्तु मान कर कहानी में गायब हो रही सामाजिक-आर्थिक वस्तुस्थिति अपनी जगह बना रही थी। कहानी अपने अन्तिम निष्कर्ष, उपदेश, कथन, जय/ पराजय के फलितार्थ का पीछा करने के बजाय, सतत-जीवन की चलती, डूबती-उतराती तस्वीर पेश कर रही थी।/ क्या 'नयी कहानी' की शक्ति मनुष्य को, उसकी मानवीय-वस्तुस्थिति को, कहाँ खड़ा है, कहाँ ठिठक रहा है और किधर जाते-जाते पिछड़ जा रहा है, नहीं बता रही है? यही वह नयापन है जिसमें कहानी अपने को आगे बढ़ा कर अपनी भागीदारी दिखा रही है। हिन्दी भाषा में लिखी किसी अहिन्दी क्षेत्र की पूरी आबोहवा अपने साथ अपनी आन्तरिक भाषा, प्रकृति व दृष्टि भी ले कर आती है। सामाजिक-सांस्कृतिक एकता के लिए भी परिवेशगत यह दुनिया किसी हिन्दी भाषी पाठक की चेतना का उन्नयन करने के साथ उस जीवन से लगाव भी पैदा करती है।
 
 
एक अनूदित भाषा से ज्यादा उस भाषा में दर्ज रचना अपने परिवेश की पूरी आत्मिक-भौतिक सम्पदा के जरिए एक पाठक को समृद्ध करती है। यह समृद्धि महज भाषाई व्यवहार तक नहीं बल्कि सांस्कृतिक-सामाजिक एकता के आन्तरिक जुड़ाव की मजबूत वजह बनती है। जरा सोचिए! एक बंगाली परिवेश में रह रहा हिन्दी भाषी अगर बांग्ला में कथा-कहानी लिखे तो उसमें निहित जीवन, शब्द वैभव महज भाव -विचार तक सिकुड़े नहीं रहेंगे बल्कि राजनीतिक -सामाजिक अन्तर्सम्बन्धों को स्पर्श करते हुए साहित्य की वास्तविक भूमिका का निर्वहन करते मिलेंगे। इब्राहीम शरीफ अपने लेखन में न सिर्फ अपने देश-समाज की प्रकृति-परिवेश ले कर आते हैं बल्कि तमाम तेलुगू मुहावरों, शब्दों के जरिए हिन्दी जीवन को समृद्ध भी करते हैं। 'पानी चबाना' जैसा तेलुगू मुहावरा जिसका भावार्थ है गलती करके पकड़े जाने पर मुँह से बात न कर पाना, का समानार्थी शब्द हिन्दी में खोजना पड़ेगा तो दूसरी तरफ अपने भाव को सटीकता देने के लिए वे 'ठिठुरती रोशनी', 'काली कोमलता', जैसे शब्द प्रयोग करके 'नयी कहानी' की काव्यात्मक भाव व्यंजना को संभाले दिखते हैं। इस तरह के प्रयोगों के साथ 'मृगमरीचिका' कहानी में  प्रयुक्त फैंटसी में  स्त्री मुक्ति के सवाल को अलग तरह से सामने लाने की कोशिश करते हैं। कहानी कला में किये जा रहे इस तरह के नवाचार उनके यहाँ महज प्रयोग के प्रयोग नहीं बल्कि जीवन के बहुपरतीय द्वन्द्वों को बहुविधि तरीके से पाठकों तक पहुचाने की एक तजबीज ही रही है। 



इब्राहीम शरीफ की एक कहानी 'कथाहीन' है। 'कथाहीन' का परिवेश चित्रण व अन्तर्वस्तु इस कदर एक दूसरे में गुंथा-बुना है कि उसका शीर्षक 'कथाहीन' क्यूँ है यह कहानी से गुजरते हुए पाठक बरबस सोचने को विवश हो जाता है। जीवन कहानी से बाहर झांकता मिलता है, कहानी के शिल्प में पूरा-पूरा उतारा जा सकना मुश्किल है। मुझे 'प्रतिरूप' और 'कथाहीन' दोनों कहानियां स्त्री मुक्ति के सवाल को कुछ अलग ढंग से उठाती मिलीं जिनका उत्तर आज भी पूरा पूरा दे पाना कठिन लग रहा है, खासकर "प्रतिरूप"। दोनों पुरुषों के बजाय स्त्री चरित्र ज्यादा प्राणवान और आधूनिक नजर लिए।मिलते हैं।
 

बहरहाल! हम यहाँ 'कथाहीन' की थोड़ी बानगी देख लें! 


इस कहानी का मूल कथ्य तो एक बेरोजगार-युवती की ऐसी गाथा है जो घर वापस जायेगी तो उसके घर वाले आर्थिक-अभाव में किसी 'धनपशु' के हवाले कर सकते हैंं और बाहर रहकर जीविकोपार्जन का कोई उचित साधन नहीं है। वह अपने प्रेमी (जो उसे छोड़ कर चला गया है) के निकट-मित्र को इसलिए बुलाती है कि उसकी शादी करा दे, जिससे नरक में जाने से बच जाये वह युवती! कथानायक तमाम-दयाभाव का शाब्दिक-प्रदर्शन करने के बावजूद नरक की ओर ढकेली जा रही युवती की ओर हाथ बढ़ाने में झिझकता ही नहीं बल्कि; वहाँ से निकल भागना चाहता है। अन्ततः वह युवती ही अपने जीवन के लिए, अँधेरे से जूझने के लिए खुद को तैयार करती है। मैं आपको इस कहानी में प्रयुक्त परिवेश चित्रण की एक झलक इसलिए भी दिखाना चाहता हूँ कि कहानीकार इब्राहिम शरीफ आपको अपने साथ कैसे ले कर चलते मिलते हैं - "बस से उतरते ही मैंने जेब में से पत्र निकाल कर उसके बताए रास्ते के सारे निशान एक बार हिफ़्ज कर लिखे और उसी हिसाब से पीछे मुड़ कर सड़क के किनारे-किनारे चलने लगा। उसकी लिखी हुई सारी जगहें ठीक थीं। कोई दो सौ गज ही चल पाया हूँगा कि नारियल के पत्तों की छत वाला ओसारेनुमा बच्चों का स्कूल नजर आया। तीन-चार सौ गज आगे और बढ़ा कि मंगलूरी खपरैलों की भट्ठी की गगनचुम्बी चिमनी लगातार धुँआ उगलती हुई दिखलायी पड़ी। राहत हुई कि ठीक ही दिशा में चल रहा हूँ। कुछ दूर और चला कि उसका बताया हुआ बड़ा-सा काली-मिर्च का बागीचा नजर आया। दुबले, ऊँचे-ऊँचे पेड़ोंं से लिपटी हुई बेलें काली मिर्च के गदराये हुए गुच्छों से लदी हुई थीं। 


"मैं ठिठक कर खड़ा हो गया। हाथ का बैग ज़मीन पर रखा और दुबारा पत्र निकाल कर घर का नाम देखा - 'पुत्तन पुरक्कलबीडू'! नाम दो-चार बार दुहरा लिया और सड़क पार कर के सामने खड़े हुए बगीचे के दरवाजे के आगे जा कर रुक गया।" 


'कथाहीन' की स्त्री जिस तरह से कहानी में अन्ततः ज़्यादा निर्णायक नज़र आती है, उसी प्रकार 'प्रतिरूप' की स्त्री अपने लिए अलग स्पेस चाहती है। अनचाहे रिश्तों की गाँठ में जीवन का स्पन्दन नदारद है। महज रिश्ते को बचा रखने की पुरानी मर्यादा की गन्ध भर बची है। पति-पत्नी के बीच उभरते नये सवाल को 'प्रतिरूप' कहानी बहुत गहरायी से दर्ज़ करती है। किसी खा़स मुकाम तक न पहुँचने की त्रासदी और पुरुषवादी-दृष्टि को तमाम खुलेपन के बावजूद खा़स जंक्चर पर ठिठके-रूप को 'प्रतिरूप' दिखाती मिलती है। 'एक स्त्री की जिन्दगी में सिर्फ सहानुभूति लेना और देना ही तो सब कुछ नहीं है ..', केन्द्रीय कथ्य कहानी का यही है। इसी प्रकार 'खाली समय' कहानी भी स्त्री-प्रश्न को ही नहीं बल्कि; स्त्री के मन में उठ रहे सवालों, सपनों को स्पेस प्रदान करती है; वहीं पुरुष-मन के अँतरे-कोने को बेहद साहसिकता के साथ उघाड़ती मिलती है। ये दोनों कहानियाँ प्रेम व जीवन की स्वाभाविक आकांक्षा को शब्द-रूप देती एक-दूसरे में विस्तारित होती दिखती हैं मार्मिक कहानी।कहानी का रूप प्रेमचन्द का लेकिन, 'शक्ति' नयी कहानी से प्राप्त करती है। ऐसी स्त्री जो खाँटी घरेलू जि़न्दगी ही नहीं, अपने स्वाभाविक सपनों को भी साझा करती मिलती है। वहीं 'विक्रय' की थीम के तौर पर तो दहेज-उत्पीड़न का सवाल उठाती कहानी लगती है लेकिन, वहाँ उपस्थित सम्बन्ध महज 'सम्बन्ध' बन कर रह जाते हैं। बातों में आत्मीयता की जगह 'सड़े माँस' की गन्ध आ रही हो, वहाँ जीवित-सम्बन्ध कहाँ बचे रह गये हैं? इन सम्बन्धों और सपनों के बीच आवाजाही करती इब्राहिम शरीफ की कहानियाँ अपने समय के बहुपरती-यथार्थ को उद्घाटित करती आगे बढ़ती हैं। 'जमीन का आखि़री टुकड़ा' से जुड़े इस कहानीकार के लिए उस ज़मीन से उखड़ रहे अपने लोगों की त्रासद-गाथा हमेशा याद रहती है तो शहर में दुहरे-शोषण का शिकार गरीब-गुरबा आबादी की बेबसी भी। वे किसी खा़स-टाइप की तलाश में नहीं भटकते हैं, जैसा कि नयी कहानी के कहानीकारों में से कुछ कहानीकारों ने एक आसान रास्ते के तौर पर टाइप्ड-चरित्रों के सहारे मार्मिक-अनुभूति जगाने की तजबीज इजाद कर रखी थी। उनकी कहानी दैनिक जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं व रोजमर्रा के सवालों से दो-चार होते आगे बढ़ती मिलती है। इन्हीं स्थितियों के बीच जीवन की अकुलाहट, तमाम समानधर्मा जीवन की विवशताएँ और सपने झाँकते मिलते हैं। इब्राहीम शरीफ साठोत्तरी कहानीकारों में ऐसे कहानीकार हैं, जो साधारण-आदमी को घेरे खड़ी तमाम भयानक छायाओं को उद्घाटित कर 'उन पर प्रकाश के धब्बे फेंकने' को अपनी कहानी का मकसद मानता है। ऐसे विरल-कहानीकार को स्मृति-पटल से ओझल करती हमारे हिन्दी-साहित्य की दुनिया 'कितनी- 'भयानक छायाओं' से घिरी है, उस पर प्रकाश के धब्बे फेंकने की जरूरत है!




सन्दर्भ -

1. सारिका, जनवरी, 1974
2.  सारिका, दिसंबर,1974
3. कहानी, नवम्बर,1968
4. कहानी, जुलाई, 1970
5. कथा कहानी ,अक्टूबर -दिसम्बर, 1972
6. आखिरी टुकड़ा (कहानी संकलन) इब्राहीम शरीफ
8. अँधेरे के साथ (उपन्यास) - इब्राहीम शरीफ 
9. सन् साठ के बाद की कहानियां - सं. विजय मोहन सिंह आदि पुस्तकों व पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ते हुए इब्राहीम शरीफ की कथायात्रा को समझने की कोशिश की गई है।
 
 





सम्पर्क 

आशीष सिंह
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