पुष्पा कुमारी की कहानी आँधियाँ

 

पुष्पा कुमारी



परिचय

पुष्पा कुमारी 

बिहार के सीतामढ़ी जिले के पैतृक गाँव, बंगराहा में जन्म।

माँ का नाम - रामदुलारी,  

पिता का नाम - डा. मुसाफिर बैठा

विचारधारा से वैज्ञानिक सोच की राही एवं स्त्रीवादी


बारहवीं तक की शिक्षा केंद्रीय विद्यालय से, प्राइमरी की शिक्षा जवाहरनगर (सीतामढ़ी) कैम्पस से एवं सेकेण्डरी एवं हायर सेकेण्डरी की शिक्षा बेली रोड कैम्पस से। हायर सेकेण्डरी (+2) जीव विज्ञान से तथा बीए, एम ए, एम फिल रूसी भाषा में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), नई दिल्ली से।

सम्प्रति रूसी से ही जेएनयू के भारतीय भाषा केन्द्र से पीएचडी डिजर्टेशन सबमिशन की अंतिम प्रक्रिया में।

पीएच, डी. शोध अध्ययन के क्रम में कई रूसी मूल की कहानियों का रूसी एवं अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद। कुछ शोध पत्र हिंदी, अंग्रेज़ी एवं रूसी में प्रकाशित।



यह दुनिया सबकी है। सबकी मतलब जितनी मनुष्य की, उतनी ही पशुओं की, चिरई चुरुंग की, कीड़े मकोड़ों की, पेड़ पौधों की। यह जीवन उतना आसान नहीं, जितना दिखता है। दुनिया में बने रहने के लिए सबको अपने अपने हिस्से का संघर्ष करना पड़ता है। जीवन के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। हम सबकी आपाधापी इतनी है कि अपने आस पास की दुनिया से अनजान हैं। हम अपने आस पास की पक्षियों को नहीं पहचान पाते। उनकी दिक्कतों को।समझ नहीं पाते। युवा रचनाकार पुष्पा कुमारी ने अपनी पहली कहानी लिखी है 'आँधिया'। इस कहानी जीवन से जुड़ाव स्पष्ट परिलक्षित है। आंधी में बेघर हुए बारबेट पक्षी के दो शिशुओं को कहानी की नायिका और उसकी सहेली अपने रूम में लाती हैं और धीरे धीरे उनके साथ जुड़ाव का धागा बुनता चला जाता है। कहानी अपने प्रवाहमान रूप में आगे बढ़ती चली जाती है। यह कहानी हिंदी अकादमी, दिल्ली की पत्रिका 'इंद्रप्रस्थ भारती' के हालिया अंक में प्रकाशित हुई है। रचनात्मक दुनिया में पुष्पा के पहले कदम का पहली बार स्वागत करता है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं पुष्पा कुमारी की कहानी  'आँधिया'।



आँधियाँ



पुष्पा कुमारी




उस दिन आंधी आई थी। मेरी रूममेट प्रगति को जेएनयू के जंगल बीच के एक रास्ते में हॉस्टल लौटते वक़्त बारबेट नामक पक्षी के दो बच्चे ज़मीन पर गिरे मिले। वहीं तोता का एक बच्चा भी गिरा हुआ था। किसी आदमी ने उसी समय, ऐन प्रगति के वहाँ पहुंचने के पहले तोते के बच्चे को तो उठा लिया था लेकिन बारबेट के बच्चों को वहीं गिरा छोड़ दिया। तोते में उसका स्वार्थ था, उद्देश्य था उसकी आज़ादी को हर कर, उसे पिंजराबद्ध कर अपना मनोरंजन करना, ग़ुलाम पालने के उसके शौक और सुख की एक प्रतिपूर्ति होती थी इससे। इधर, प्रगति ने काफी कोशिश की कि यह माँ बारबेट अपने परेशानहाल बच्चों को वहाँ से ले कर चली जाए परन्तु अपने घायल बच्चों को देखने के बावजूद वो उन्हें छोड़ कर चली गईं। प्रगति कुछ देर और वहाँ कुछ दूरी बना कर खड़ी रही कि कहीं उनकी माँ लौटे, पर वह न लौटी। प्रगति को इस बात की चिंता भी थी कि चील, कौए अथवा बिल्ली कहीं उन्हें हताहत न कर दें, खा न जाएं। प्रगति बच्चों को उठा कर रूम में ले आई।

 


जब वे शिशु बारबेट आई थीं तो मुश्किल से एक हफ्ते की रही होंगी। दोनों बहुत ही बदसूरत दिख रही थीं। उनके शरीर पर बाल भी ठीक से नहीं उगे थे और न ही तब तक उनकी आँखें खुली थीं। वे दोनों लघुगात कुछ कुछ डायनासोर के बच्चों से भद्दे लग रहे थे। एकबारगी उन बच्चों को देख कर मुझे बहुत अजीब सा लगा था। मैंने तो उन्हें शुरू के चार पांच दिनों तक छुआ तक नहीं। प्रगति ही उसे खाना-दाना देती थी। प्रगति ने बारबेट पक्षी का डायट मैनुअल इंटरनेट नेट पर देखा था और उसके लिए एक डायट-चार्ट तैयार किया था। उसे प्रगति समय समय पर केला, पपीता और उबले अंडे का सफेद वाला भाग खिलाती थी। प्रगति ने मोटे गत्ते के कार्टन में पेपर डाल कर रख दिया था जो उनका बिछावन और आराम-विश्राम की स्थायी जगह थी।

 




मुझे मजबूरन एक दिन उन्हें खाना खिलाना पड़ा। प्रगति नहीं थी और वे दोनों भूख की वजह से जोरों से चींचीं कर रहे थे, चिल्ला रहे थे, आकुल पुकार लगा रहे थे, मानो अपनी अभिभावक प्रगति की बेतरह तलाश थी उन्हें। पहली बार ही मैंने जब खाना खिलाया तो मुझे भी उनसे प्यार हो आया और उनके प्रति सहानुभूति उमड़ गयी। दोनों बहुत ही असहाय लग रहे थे। इस घटना के बाद मैं भी उनकी देखभाल करने लगी।

 


समय बीतता गया। वे धीरे धीरे बड़े होने लगे। उनके पंख भी उगने शुरू हो गए। और करीब एक हफ्ते बाद उनकी आँखें भी खुल गईं। एक आकार में बड़ी थी दूसरी थोड़ी छोटी। प्रगति ने उनका नामकरण कर दिया। बड़ी का रेचल और छोटी का मोनिका।

 


समय बीता। दोनों अब हमें अच्छे से पहचानने लगी थीं। हमारे मनोभावों एवं संकेतों को भी समझने परखने लगी थीं वे। जब भी हम में से कोई उसे डाँट देती वे हमारे हाथ से खाने को मना कर देतीं। फ़िर उन्हें दुलारना-पुचकारना पड़ता, उनका मनुहार करना पड़ता, और तब वे नॉर्मल हो जातीं। अगर कमरे में कोई ना हो और हम कुछ देर बाद वहाँ पहुँचते थे तो कमरा खोलते ही वे खुशी के मारे शोर मचाना शुरू कर देती थीं। उनकी आवाज़ बदल जाती थी जो उनके खुश होने का संकेतक होती। सामान्यतः वे मेढक की तरह की आवाज किया करती थीं। परन्तु जब उनके मुँह में खाने का पहला टुकड़ा जाता तो उनकी आवाज़ बदल जाती थी।

 


लगभग एक महीना गुजरते गुजरते वे खड़ी भी होने लग गईं, जबकि पहले मेढक की तरह पैर फैला कर बैठती थीं। अब वे थोड़ी तुनकमिजाज भी हो गयी थीं। कई बार खाना खिलाते समय दोनों एक दूसरे से युद्ध को तैयार हो जाती थीं, एक दूसरे को चोंच से मारना शुरू कर देती थीं। मौजूद रहने पर उनके बीच-बचाव में मुझे या प्रगति को कूदना पड़ता। जैसे वे मानने को तैयार न हों कि ईर्ष्या-द्वेष केवल हम मनुष्यों की ही संपत्ति होनी चाहिए, कमाई है, उन जैसे निश्छल पखेरूओं की नहीं! 

 

 


एक बार मैं यूनिवर्सिटी कैम्पस से कहीं बाहर गयी हुई थी और इस बीच जब प्रगति कमरे में गयी तो उसने देखा कि रेचल अपने बेड (डब्बे) से गायब है। तभी उसकी नजर कोने में गयी। रेचल डब्बे से खुद बाहर निकल आई थी और थोड़ी उड़ान भर वहाँ पहुँच गयी थी। यानी, अब वह उड़ना सीखने लगी थी। दो दिन बाद मोनिका भी उड़ने लग गयी। उड़ना शुरू करते ही वे दोनों डब्बे से बाहर आने को हर वक़्त आतुर रहती थीं। नया सीखने के बाद उड़ान भरने के अपने मजे होते हैं न! साइकिल-मोटरसाइकिल और मोटरगाड़ी नया चलाना सीखो तो चलाते चलाते मन नहीं भरता जैसे! हम कभी-कभी उन्हें डब्बे से बाहर निकाल दिया करते थे. हमेशा ऐसा नहीं किया जा सकता था क्योंकि यह वे कमरा भी उछल-कूद कर बराबर गंदा ही किये रहते। वे तो कभी–कभी डब्बे पर रखे पेपर को भी काफी कोशिश के बाद हटा कर बाहर निकल जाती थीं। कुछ और बड़ी होने पर दोनों को ही डब्बे में रखना हमारे लिए बेहद मुश्किल होने लगा था, क्योंकि जबतक बाहर न निकाल दो, वे अपनी चोंच से मार-मार कर और चिल्ला कर बाहर आने का जिद मचाती रहती।

 


एक दिन किसी काम के लिए मैंने खिड़की खोली पर उसे लगाना भूल गयी. फ़िर क्या था, रेचल फ़ौरन डब्बे से निकल कर खिड़की के ठीक बाहर पेड़ पर जा बैठी। उसे वापस लाने की मेरी सारी कोशिश नाकाम रही और वह बाहर स्वच्छंद उड़ान भर गयी। 'हम पंछी उन्मुक्त गगन के, पिंजड़बद्ध न गा पाएंगे, कहीं भली है कटुक निबौरी, कनक कटोरी की मैदा से' - मानो इस गान में मन रम गया था उसका! शायद, हमारे प्यार की परवाह न कर उसने अपने उद्दाम उड़ान भरने की स्वतंत्रता का चुनाव किया था! मुझे उसकी चिंता काफी सताने लगी क्योंकि वह उड़ना तो सीख गयी थी परन्तु अभी भी खाना हमारे हाथों से ही खाती थी। ऐसे में, हमारे लिए उसके खाने का सवाल चिंता का विषय था। मैंने उसे अपने हॉस्टल के आस-पास ढूंढा परन्तु वह नहीं मिली। उसी दिन मैं शाम को हॉस्टल से बाहर निकली, मुझे बरबेट पक्षी की आवाज़ सुनाई दी। जब चारों तरह पेड़ों पर नजर दौड़ाई तो उसे एक पेड़ की टहनी पर बैठे पाया। वो भूख के मारे वहाँ बैठ कर चिल्ला रही थी। मैंने उसे पास बुलाया, वो मुझे देख कर बस चिल्ला रही थी, फ़िर मैंने उसकी ओर केले का टुकड़ा बढ़ाया जो मैंने इस बीच छात्रावास की एक लड़की से मंगवा लिया था। उसे देखते ही वह तुरंत से मेरे पास आ कर उसे झपटना चाहा, परन्तु मैंने उसे पकड़ लिया और वापस कमरे में ले आई। इधर, मोनिका हो बहन रेचल की अनुपस्थिति में काफी बेचैन थी, चिल्ला रही थी, उसे देख कर तुरंत ही सहज हो गयी।

 


मैं और मेरी रूममेट प्रगति ने अब फैसला किया कि दोनों को हमें बाहर छोड़ देना चाहिए। उन्हें संभालना भी अब टेढ़ी खीर हो रहा था हम दोनों के लिए। तभी एक घटना घटी। मोनिका और रेचल दोनों ही रूम से बाहर जाने को आतुर दिखीं। मैंने गुस्से में खिड़की खोल दी। मेरे खिड़की खोलने के बावजूद वो बाहर नहीं गईं और खिड़की पर ही बैठी रहीं। हालांकि कुछ देर बाद रेचल खिड़की से उड़ गयी और सामने के पेड़ पर जा बैठी। मोनिका खिड़की पर बैठी बहन रेचेल को देख रही थी। वो बाहर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। शुरू से ही मोनिका थोड़ी दब्बू किस्म की थी और डरी-सहमी रहती थी। वह अक्सर रेचल के क्रियाकलापों का नकल और अनुसरण करती। खिड़की के बाहर जंगल की तरफ़ देखना और खुद को निहारना उसे अच्छा लगता था। अक्सर वह ऐसा किया करती थी। रेचल को खिड़की से देर दूर बाहर पेड़ पर बैठी देख मोनिका चिल्लाने लगी, शायद वह अपनी बहन को वापस बुला रही थी। तभी हमने देखा कि पेड़ पर बैठी रेचल के पास ही एक बड़ी बारबेट आकर बैठ गयी। हम सब डर गए कि न जाने वह क्या करेगी। परन्तु उस बरबेट के अपने पास बैठते ही रेचल डर कर एक उड़ान में ही हमारे पास आ गयी।





अब हम इस विश्वास और इत्मीनान में थे कि वे बाहर जाएंगी भी तो वापस आ जाएंगी।


प्रगति हॉस्टल में नहीं थी। कुछ दिनों के लिए अपने घर गयी थी। एक दिन खिड़की खुली छोड़ उस पर दोनों को बैठे छोड़ दिया मैंने और बाहर चली गयी। जब वापस आई तो दोनों बाल चिड़िया एक एक कर बाहर उड़ गईं। पहले रेचल उड़ी, फ़िर उसकी देखादेखी मोनिका भी उसके पीछे हो ली। रेचल आम के पेड़ पर थोड़ा ऊंचा बैठी हुई थी जबकि मोनिका खिड़की के सामने वाले अमरूद के पेड़ पर। रेचल को लाने की कोशिश जब मैंने की तो मोनिका उड़ कर थोड़ी और दूर किसी पेड़ पर जा बैठी। गोधूलि बेला का अन्धकार बढ़ चला था, वहाँ बैठी मोनिका अब मेरी आँखों से ओझल हो गयी थी। मोनिका की यह पहली उड़ान थी बाहर की दुनिया में, अतः वह काफी घबड़ाई हुई भी लग रही थी। लंबी उड़ान का साहस उसमें अभी नहीं भरा था। मैंने इस आस में खिड़की खुली छोड़ दी कि दोनों वापस आ जाएंगी।

 


उन दोनों के उड़ान भरने के लगभग एक घंटे के बाद जोरों की आँधी-बारिश आ गयी। अचानक आई इस आफत में वे घर जरूर लौटना चाह रही होंगी पर ये अबोध परिंदे शायद उस झंझावात में घर का रास्ता भूल गए थे। मैं उन दोनों की चिंता में व्याकुल हो रही थी। मेरी नजरें इस घुप्प अँधेरी–तूफानी रात में उन मासूमों को ढूंढ रही थीं। भींगते-ठिठुरते मैं खिड़की के बाहर के इलाके में जंगलों में भटकी, आस-पास के पेड़ों पर एवं नीचे जमीन पर नजर दौड़ाई पर उन्हें पाने में नाकाम रही। मोनिका की मुझे खास चिंता हो रही थी क्योंकि वो पहली बार बाहर निकली थी और उसे इन विषम व विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था।

 


रात तो आशंकाओं के बीच जैसे तैसे सो कर काट ली थी मैंने पर अहले सुबह जाग कर मैं हॉस्टल की अपनी खिड़की के पीछे बदहवास भागी भागी पहुंची सोचा, एक बार उस अमरूद के पेड़ की ओर देख लूँ जहाँ पिछली शाम को मोनिका अंतिम बार बैठी दिखी थी परन्तु यह नहीं हुआ हाँ, वह मिली जरूर, पर पेड़ पर बैठी नहीं, नीचे निढाल जमीन पर गिरी हुई यह पेड़ था तो खिड़की यानी मोनिका के घर के समानांतर और महज कुछ मीटर की दूरी पर, पर वह अपने प्राण बचाने को इतनी भी दूरी तय न कर पाई थी अति उत्साह में बिना सुरक्षा कवच पाए चल दी थी वह अपनी मर्ज़ी की जिंदगी जीने और अभिमन्यु की वीरगति प्राप्त हो चली थी जैसे!

 


उस असीम उत्साह भरे नन्हे पंछी के प्राण-पखेरू उड़ चुके थे; मोनिका की वो पहली कच्ची उड़ान आखिरी साबित हुई थी उसकी मौत का सफर साबित हुई थी चींटियों ने उस निष्प्राण नन्ही जान पर धावा बोल रखा था अपनी जान से प्यारी मोनिका को मैंने उन जालिम चींटियों से अलग किया और उठा कर अपने गले से चिपका लिया. हालाँकि चींटियाँ जालिम क्या होंगी, हमारी जान मोनिका ही अस्वाभाविक मौत मरी थी और उन्होंने उसे अपना स्वाभाविक आहार बना लिया था आजाद उड़ान भरते ही आँधी-बारिश में फंस रेचल कहाँ गुम हो गई, यह भी पता नहीं चल सका था।

 


मोनिका और रेचल आंधी में ही हमें मिली थीं और आंधी ने ही उन्हें हमसे छीन लिया था।

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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)

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