रवीन्द्र कालिया की कहानी 'रूप की रानी चोरों का राजा'

 



रवीन्द्र कालिया एक हरफनमौला रचनाकार थे जिन्होंने उपन्यासकार, कहानीकार और संस्मरण लेखक के अलावा बेहतरीन संपादक की भूमिका निभाई। आज उनका जन्मदिन है। उनकी स्मृति को पहली बार की तरफ से सादर नमन। इसी क्रम में आइए आज हम पहली बार पर पढ़ते हैं रवीन्द्र कालिया की एक चर्चित कहानी 'रूप की रानी चोरों का राजा'।



रूप की रानी चोरों का राजा



रवीन्द्र कालिया



यह कहानी मैं दोबारा लिख रहा हूँ। वैसे सच तो यह है कि मैं लगभग प्रत्येक कहानी एक से अधिक बार ही लिखता रहा हूँ। हर बार लिखते हुए लगा कि मैं रवीन्द्र कालिया की तरह लिख रहा हूँ। किसी दूसरे कथाकार को ऐसा लगता तो वह परेशान होता! मैं तो खामखा परेशान हो रहा हूँ। मैं रवीन्द्र कालिया की तरह नहीं लिखूँगा तो क्या ममता कालिया की तरह लिखूँगा? आप मेरे पाठक हैं, मेरी छटपटाहट को समझने की कोशिश कीजिए। मेरी इस व्याकुलता का यह अर्थ मत निकाल लीजिए कि मैं कोई तीर मारने जा रहा हूँ। मेरी अपनी सीमाएँ है। आप तो जानते ही हैं, मैं कभी अच्छा तीरंदाज नहीं रहा। इसे संयोग ही कहा जायेगा कि कहानी अभी शुरू भी नहीं हुई और आप से राब्तः कायम हो गया और अब मैं कहानी के बीच-बीच में आप से संवाद करता रहूँगा।


दरअसल टी. वी. ने मेरी आदत खराब कर दी है, कोई भी कार्यक्रम निर्बाध रूप से देखने का अभ्यास नहीं रहा, आप मन लगा कर कोई धारावाहिक देख रहे हैं कि बीच में अचानक विज्ञापन अथवा प्रोमो थोप दिये जाते हैं। दर्शक अब इस के अभ्यस्त हो चुके हैं। शायद दर्शकों को राहत देने के लिए फिल्म में 'इंटरवल' की व्यवस्था रहती है। उपन्यास को कई अध्यायों में विभाजित कर दिया जाता है, मगर कहानी एक ऐसी विधा है कि एक बार शुरू हुई तो अंत तक पहुँच कर ही दम लेती है। जेहन में अचानक यह खयाल गुजरा कि पिक्चर के दौरान थियेटर में शायद इसीलिए मूँगफली वेफर्स बिकते रहते हैं। आप मेरी कहानी पढ़ने जा रहे हैं, मैं आप की सुविधा-असुविधा का ध्यान रखूँगा, आप चाहेंगे तो बीच में चाय-नाश्ते का भी प्रबंध करता रहूँगा।


कहानी एडवोकेट दिवाकर के घर की है। वह दिल्ली गया हुआ है। उसके पिता को दिल का दौरा पड़ा था। घर में उसकी पत्नी संध्या और दो बच्चे हैं। बच्चों की परीक्षाएँ सिर पर हैं, वरना वे लोग भी दिवाकर के साथ चले गये होते। 

 

सुबह जब संध्या की आँख खुली तो उसने देखा घर का पूरा सामान कमरों में इधर-उधर बिखरा पड़ा था, खिड़कियों और दरवाजों के कपाट खुले पड़े थे। लग रहा था, जैसे अभी-अभी कोई जलजला आया हो। संध्या का कलेजा मेढक की तरह उछलने लगा।


वह देर तक कमरे में 'हाय मेरी साड़ी' 'हाय मेरी शॉल' जैसे शब्द बुदबुदाते हुए इधर-उधर दौड़ती रही। बरामदे में जल रहे बल्ब की बीमार जर्द रोशनी कमरे की देहरी लाँघ आयी थी। इसी अफरातफरी में उसने कमरे में सब स्विच ऑन कर दिये और सब से पहले बच्चों को छू कर देखा। बच्चे इस हादसे से बेखबर इत्मीनान से सो रहे थे। दूसरा खयाल उसे दिवाकर का आया। यह सोच कर उसे बहुत खुशी और हल्की सी ग्लानि हुई कि उसके तमाम विरोध के बावजूद दिवाकर घर का सारा कीमती सामान बैंक के लॉकर में रख आया था। वह कहती रह गयी कि साल दर साल लॉकर का भाड़ा भरते-भरते इतनी रकम खर्च हो चुकी है कि सारा सामान फिर से खरीदा जा सकता है। दिवाकर ने उस के किसी तर्क को अहमियत नहीं दी और अपनी जिद पर अड़ा रहा। यह सोच कर उसने बहुत राहत महसूस की कि घर में न ज्यादा रकम थी न जुएलरी। जिद कर के उसने गले की चेन, कंगन और अँगूठियाँ रोक ली थीं और अब अल्मारी का सेफ उसे मुँह चिढ़ा रहा था। घर के खर्च के लिए रखे आठ-दस हजार रुपये भी गायब थे। उसे ठीक-ठीक नहीं मालूम, दिवाकर कितनी राशि घर में छोड़ गया था।


संध्या ने सब से पहले अमरेन्द्र को चोरी की सूचना दी। अमरेन्द्र दिवाकर का मित्र था और इसी कालोनी में रहता था। डायल घुमाते हुए संध्या ने देखा दिवाकर ने डायल पर कुछ जरूरी नम्बर लिख रखे थे। उनमें थाने का भी नम्बर था। संध्या ने तुरत थाने का नम्बर डायल किया। उसे सुखद आश्चर्य हुआ, थाना जग रहा था।

 

'थाना सिविल लाइन्स, सिपाही फौजदार सिंह।' उधर से आवाज आयी। संध्या ने अचानक अपने को बहुत महफूज महसूस किया, बेसाख्ता उसके मुँह से निकल गया, 'आपने फोन उठाया, शुक्रिया। मैं दो बटा तीन स्वराज नगर से मिसेज दिवाकर वर्मा बोल रही हूँ। हमारे यहाँ चोरी और लूटपाट हुई है, एस. ओ. साब से बात हो सकेगी क्या?'

 

'एस. ओ. साब क्वार्टर पर हैं।'

 

'किसी दूसरे अधिकारी से बात करा दें।'

 

'मेरे अलावा कोई नहीं है। आप घर पर फोन कर लें।'

 

'घर का फोन नम्बर है आप के पास?'

 

'आप होल्ड करें, अभी देख कर बताता हूँ।' फौजदार सिंह ने कहा। मेज पर ठक से रिसीवर रखने की आवाज आई। संध्या कान पर चोंगा रखे देर तक बैठी रही। रिसीवर में कुत्तों के भौंकने की आवाज सुनायी दे रही थी। 'मैडम फोन का चार्ट मिल नहीं रहा। वह बगलै में रहते हैं, मैं अभी नम्बर पूछ कर आता हूँ।' फौजदार सिंह ने जवाब सुने बगैर चोंगा दोबारा मेज पर पटक दिया। कुत्ते फिर भौंकने लगे।

 

दो-चार मिनट में ही संध्या को एस. ओ. साहब का नम्बर मिल गया। उसने तुरत एस. ओ. साहब का नम्बर घुमा दिया। वहाँ भी उसी मुस्तैदी से किसी पुलिसकर्मी ने फोन उठाया और जैसे रटे-रटाये शब्दों में जानकारी दी कि एस. ओ. साहब बाथरूम में हैं किसी भी सूरत में यह टायलट जाने का समय नहीं था और दूसरे क्या एस. ओ. साहब गेट पर तैनात सिपाही को सूचित करने के बाद बाथरूम जाते हैं, संध्या ने इन गैरजरूरी सवालात पर ध्यान न देते हुए पूछा, 'कब तक बाहर आ जायेंगे?'

 

'यह तो वही बता सकते हैं।'

 

'कितनी देर बाद फोन करूँ?'

 

'सुबह कीजिए।'

 

'आपकी सुबह कब होती है?' संध्या ने झुँझला कर पूछा।

 

'आप 100 नम्बर पर फ्लाईंग स्क्वायड को फोन मिलायें।' सिपाही ने सही मशविरा दिया।

 

'ठीक है। मगर एस.ओ. साहब कब मिलेंगे?'

 

'आप अपना फोन नम्बर छोड़ दें, मैं उन्हें दे दूँगा।'

 

'कागज कलम है तुम्हारे पास?'

 

'अखबार पर लिख लूँगा।'

 

'कलम है?'

 

'कलम तो है मैडम, मगर उसकी स्याही खत्म हो चुकी है। दबा कर लिखूँगा तो पढ़ा जायेगा।'

 

संध्या ने फोन काट दिया और सिर थाम कर बैठ गयी।

 

तभी गेट पर गाड़ी रुकने की आवाज आई। शायद अमरेन्द्र आ गया था। वह लपक कर दरवाजे की ओर बढ़ी, मगर दरवाजे पर नवताल लटक रहा था। भीतर आ कर वह भूल गयी कि रात को चाबी कहाँ रखी थी। तकिया उठा कर देखा, वहाँ चाबियों का गुच्छा नहीं था। अमरेन्द्र कालबेल बजा रहा था और संध्या को चाबियों का गुच्छा नहीं मिल रहा था। वह किवाड़ के पास जा कर चिल्लाई, 'भाई साहब चाबियाँ नहीं मिल रहीं। लगता है चाबियाँ भी ले गये।'


 

तभी गेट पर गाड़ी रुकने की आवाज आई। शायद अमरेन्द्र आ गया था। वह लपक कर दरवाजे की ओर बढ़ी, मगर दरवाजे पर नवताल लटक रहा था। भीतर आ कर वह भूल गयी कि रात को चाबी कहाँ रखी थी। तकिया उठा कर देखा, वहाँ चाबियों का गुच्छा नहीं था। अमरेन्द्र कालबेल बजा रहा था और संध्या को चाबियों का गुच्छा नहीं मिल रहा था। वह किवाड़ के पास जा कर चिल्लाई, 'भाई साहब चाबियाँ नहीं मिल रहीं। लगता है चाबियाँ भी ले गये।'

 

अमरेन्द्र बाहर खड़े-खड़े अपने मोबाइल से फोन मिलाने लगा। उसने इन्सपेक्टर, डी वाई. एस. पी., एस. ओ., सी. ओ., सबके नम्बर मिला कर देख लिए, कोई भी अधिकारी लाइन पर नहीं आया। एस. पी. (रूरल) खान उसका मित्र था, जब कोई अधिकारी न मिला तो उसने खान से बात करना मुनासिब समझा। खान का मोबाइल नम्बर उसके पास था। खान से उसकी बात हो गयी। यह क्षेत्र खान के अधीन नहीं था, फिर भी वह आने को तैयार हो गया।

 

'क्या बताऊँ भाई साहब, मेरा तो दिमाग खराब हो गया है। सामने मेज पर चाबियों का गुच्छा पड़ा था, मुझे दिखायी न पड़ा। मैंने पूरा घर छान मारा।' अमरेन्द्र भीतर आया तो संध्या ने कहा।

 

'घर तो आपका चोरों ने छान मारा है। देखिए दिवाकर का नया सूट धूल फाँक रहा है। अभी जो चीज जहाँ है, वहीं पड़ी रहने दीजिए। कुछ छुइए मत।'

 

संध्या कोट की जेब में से पर्स ढूँढ़ रही थी, उसने कोट वहीं रख दिया।

 

अमरेन्द्र कुर्सी पर बैठे हुए लगातार फोन मिला रहा था। संध्या कुछ बोलती तो वह सिर उठाता और दोबारा फोन मिलाने में जुट जाता। तभी कोई गाड़ी घर के बाहर रुकी और गाड़ी के चारों दरवाजे खुलने और बन्द होने की आवाज आयी।

 

'भाभी आप बैठें, मैं देखता हूँ। खान होगा, एस. पी. रूरल। मेरा दोस्त है।'

 

दिवाकर ने बाहर जा कर खान को रिसीव किया। खान के साथ उसके सुरक्षा कर्मी भी थे। वे उसके पीछे पीछे चल रहे थे। उत्सुकतावश संध्या भी बाहर आ गयी। उसने खान का अभिवादन किया और बोली कि वह अभी चाय ले कर आती है।

 

'वल्लाह क्या खूबसूरत बदन है।' खान ने अपने दोनों हाथ अमरेन्द्र के हाथों पर रख दिये। 'सुबह महक महक उठी।'

 

'खान बेवकू़फी की बातें मत करो। वह मेरे नजदीकी दोस्त की बीवी है।'

 

'अमर तुम बहुत खुशकिस्मत हो कि वही तुम्हारा नजदीकी दोस्त है, जिसकी बीवी इतनी खूबसूरत है। लगता है तुमने उसे गौर से नहीं देखा।'

 

'तो तुम भी हर चीज पुलिसिया निगाह से देखने लगे हो।'

 

'क्यों पुलिस के दिल नहीं होता?'

 

'यह बकवास बन्द करो और किसी जिम्मेदार अधिकारी को बुलवाओ। फोन पर कोई अधिकारी उपलब्ध नहीं। जो उपलब्ध हैं, वे बाथरूम में हैं।'

 

'बड़े अधिकारियों की लोकेशन बाथरूम ही होती है।' खान ने एक सिपाही को वायरलेस पर एस. पी. (सिटी) से सम्पर्क करने को कहा। देखते ही देखते वह एस. पी. (सिटी) से गाड़ी में जा कर बात भी कर आया।

 

संध्या ने अमरेन्द्र और खान के सामने चाय की ट्रे कर दी। दोनों ने अपना-अपना कप उठा लिया।

 

'एस. पी. से बात हो गयी है, वह आते ही होंगे।' अमरेन्द्र ने कहा, 'आप भीतर जायें, तब तक मैं खान को दिखाता हूँ कि चोर कहाँ से खिड़की तोड़ कर घुसे।'

 

'आइए मैं दिखाती हूँ।' संध्या उन दोनों के आगे-आगे चलने लगी।

 

अमरेन्द्र वहीं रुक गया।

 

'रुक क्यों गये?'

 

'तुम जानते हो।'

 

'उसे बार-बार भीतर जाने के लिए क्यों कह रहे हो? वह होगी तुम्हारे दोस्त की बीवी, मैं भी तुम्हारा दुश्मन नहीं हूँ।'

 

'हुए तुम दोस्त जिसके, दुश्मन उसका आसमाँ क्यों हो।' अमरेन्द्र ने कहा।

 

'तुम जानते हो, मैं दोस्तों से शायरी और अफसानानिगारी के रिश्ते नहीं रखता वैसे इस वक्त तुम काफी गैरशायराना हरकत कर रहे हो।'

 

अमरेन्द्र को लगा, खान से बहस करना फिजूल है, उसने चुपचाप अपने मोबाइल से दिवाकर का नम्बर घुमा दिया। उसे विश्वास था, घंटी सुनते ही संध्या भीतर भागेगी, वही हुआ। भीतर से 'हैलो, हैलो' की आवाज आती रही। अमरेन्द्र ने नम्बर काट दिया। संध्या दोबारा बाहर चली आई। वह अभी बीच रास्ते में ही थी कि अमरेन्द्र ने 'रीडायल' दबा दिया। संध्या उल्टे पाँव कमरे की तरफ लपकी। इस बार अमरेन्द्र ने बाहर से कमरे की साँकल चढ़ा दी।

 

'लगता है तुम्हारे दोस्त की बीवी को कोई पुराना आशिक फोन मिला रहा है।' खान ने कहा, 'तुमने उसे कमरे में क्यों बन्द कर दिया।'

 

अमरेन्द्र खान को ले कर बाहर आ गया और वह खिड़की दिखाने लगा, जिसे काट कर चोर भीतर कूदे थे। खिड़की में से भीतर देखा तो सामने संध्या खड़ी थी। अमरेन्द्र को देखते ही उसने हैरत से पूछा, 'भाई साहब, साँकल किसने लगा दी?'

 

'इसे डर लग रहा है, कहीं चोर दुबारा न घुस आयें। खान बोला, 'इनका दोष नहीं, बहुत से लोग पुलिस को सबसे बड़ा चोर समझते हैं।'

 


 

 

एस. पी. (सिटी) अपने फौज फाटे के साथ आते दिखायी दिये तो अमरेन्द्र ने राहत की साँस ली। उनकी तेज रफ्तार गाड़ी कुछ ऐसे झटके के साथ रुकी और वह कूद कर बाहर निकले, जैसे चोर कहीं आसपास ही हैं और वह लपक कर उसे पकड़ लेंगे। खान और अमरेन्द्र ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया।

 

एस. पी. और पुलिसकर्मियों को देख कर संध्या तुरत रसोई में घुस गयी और चाय के लिए ढेर-सा पानी चढ़ा दिया। जब तक पानी उबलता, वह एस. पी. वगैरह को टूटी हुई खिड़की और कमरे का जायजा लेते हुए देखती रही। उसे आश्चर्य हो रहा था। कि घर में इतनी चहल-पहल थी और बच्चे दीन-दुनिया से बेखबर सो रहे थे।

 

संध्या मेज पर झुक कर प्यालियों में चाय उड़ेल रही थी। एस. पी. (सिटी) ने एस. पी. (रूरल) की तरफ देखा। दोनों ने आँखों ही आँखों में सन्देशों का आदान-प्रदान किया। अमरेन्द्र से यह छिपा न रह सका। उसके चेहरे पर तनाव की रेखाएँ स्पष्ट देखी जा सकती थीं। उसे लग रहा था, उसके सामने ही चोरी हो रही है और वह कुछ नहीं कर सकता।

 

'क्या क्या ले गये? अन्दाजन कितना नुकसान हुआ होगा?' एस. पी. ने संध्या को सिर से पैर तक देखते हुए पूछा।

 

'सब कुछ ले गये। सेफ में कुछ नहीं बचा।'

 

'क्या-क्या सामान था?'

 

'रुपया पैसा, ज्वैलरी, सब कुछ।' संध्या बोली, 'बहन की शादी पड़ रही थी, यह सोच कर कुछ सामान लॉकर से निकाल लाई थी।'

 

'एक लिस्ट बनायें, सब सामान की। नकदी कितनी थी?'

 

'दिवाकर को मालूम होगा। वही बता पायेंगे।' संध्या ने कहा।

 

'दिवाकर इनके पति का नाम है।' अमरेन्द्र बोला, 'वह कल ही दिल्ली गये हैं। उनके पिता नर्सिंग होम में भर्ती हैं।'

 

'ओह तो आप अकेली थीं।' एस. पी. ने पहलू बदलते हुए अपनी राय जाहिर की, 'निश्चित रूप से यह राजू गिरोह का काम है। खिड़की की ग्रिल काटने का हुनर उसी के पास है। वह मजबूत से मजबूत सरिया टेढ़ा कर के निकाल लेता है।'

 

एस. पी. के पीछे सावधान की मुद्रा में एक इन्सपेक्टर खड़ा था। उसने एस. पी. साहब की बात सुनते ही थाने को फोन किया कि राजू को कहीं से भी खोज कर फौरन हाजिर किया जाये।

 

'डॉग स्क्वायड और फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट को बुलाइए।'

 

'सर, मैं फोन कर चुका हूँ। कुत्ते अभी मार्निंग वाक के लिए निकले हुए हैं। मैंने सन्देश छोड़ दिया है।'

 

'और वह डफर फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट?'

 

'उसके यहाँ फोन नहीं है सर। उसे बुलाने के लिए एक सिपाही गया है।'

 

तमाम लोग मौका ए वारदात का जायजा लेने के लिए उठे। कमरे के भीतर फर्श पर कपड़े, लत्ते और कागजात फैले हुए थे। आल्मारी और उसके भीतर के सेफ के कपाट खुले पड़े थे। थोड़े बहुत कपड़े अल्मारी में दिखाई दे रहे थे, उनकी भी तहें खुल चुकी थीं। खिड़की की कुछ टेढ़ी मेढ़ी सलाखें खिड़की के बाहर पड़ी थीं और कुछ कुबड़ी-सी खिड़की में ही पड़ी रह गयी थीं। खिड़की के भीतर से आने जाने का एक ऐसा कलात्मक गोल घेरा बन गया था कि बिना किसी खरोंच के बाहर से भीतर आया जा सकता था।

 

'निश्चित रूप से यह राजू गिरोह का काम है।' एस. पी. ने एक बार फिर अपनी राय प्रकट की।

 

'सर, ध्यान सिंह राजू को ले कर पहुँच ही रहा होगा।' एस.।ओ. बोला।

 

संध्या उरोजों के नीचे बाँहों का घेरा बनाए कुछ इस मुद्रा में खड़ी थी, जैसे बाँहें हटायेगी तो वे नीचे गिर जायेंगे। अमरेन्द्र ने देखा, खान अपना बायाँ पैर एस. पी. के पैर के ऊपर रख कर दबा रहा था। अमरेन्द्र जितनी बार संध्या की तरफ देखता उसका पारा चढ़ने लगता। अब तक संध्या को भीतर भेजने के सारे प्रयत्न निष्फल रहे थे।

 

 


 

 

प्रिय पाठको, कहानी के प्रारम्भ में ही मुझसे एक भूल हो गयी थी, मालूम नहीं, आपने उसकी तरफ ध्यान दिया या नहीं। मैंने सोचा था, नायिका का नामकरण कर देना पर्याप्त होगा। इससे पहले मैंने बहुत-सी ऐसी कहानियाँ भी लिखी हैं, जिनमें पात्रों का नाम ही नहीं है, 'वह' 'यह' आदि सर्वनामों से काम चला लिया गया है। इस कहानी में पात्रों के नामकरण के बावजूद कुछ दिक्कतें दरपेश आ रही हैं। जैसे आप जानना चाह रहे होंगें संध्या की शकल सूरत कैसी है, उसकी देह में ऐसा कौन-सा आकर्षण है कि उसके पति का दोस्त उसे पुलिसिया आकर्षण से दूर रखना चाहता है। जिस समय उसे चोरी का पता चला, वह क्या पहने हुई थी। कथाकार के गले के नीचे यह बात नहीं उतरती कि जब कोई दुर्घटना होती है, उस समय कोई अपनी पोशाक के बारे में सोचता होगा। किसी प्रियजन की मृत्यु का समाचार सुन कर यह जिज्ञासा तो नहीं होती कि मौत के समय वह क्या पहने हुए था, थ्रीपीस सूट में था या कुरते पायजामें में? ऐसा भी नहीं देखा गया कि किसी के बाप की मौत हो जाये और वह फौरन कोट पतलून उतार कर धोती पहन ले।

 

इस कहानी में संध्या के साथ ऐसा ही कुछ हुआ। संध्या के पति को पसंद था कि उसकी पत्नी महीन कॉटन की नाइटी में ही बिस्तर पर आये। उसके पास दर्जनों नाइट सूट थे और वह वर्षों से यही पहन कर सो रही थी। हालाँकि आज उसका पति घर पर नहीं था, वह हस्बे मामूल नाइटी पहन कर सो गयी थी। संध्या को कल रात अगर साड़ी पहना कर सुला दिया होता तो ये अनपेक्षित स्थितियाँ पैदा न होतीं। वैसे यह तो ऐसी ही बात हुई कि किसी से कहा जाये, सुबह आपकी मौत होने वाली है, रात को अवसर के अनुकूल वस्त्र पहन कर सोयें। बहरहाल, अब जल्दी से संध्या के कपड़े तब्दील करवाने का इन्तजाम करता हूँ, क्योंकि जब तक संध्या कपड़े नहीं बदलेगी, कहानी उसकी नाइटी के आगे पीछे ताकझाँक करती रहेगी।

 

लीजिए, ध्यान सिंह राजू को पकड़ कर ला रहा है।

 

'सलाम साब।' राजू पुलिस अधिकारियों को देख कर जरा भी विचलित न हुआ।

 

'क्यों बे, दुबारा जेल की हवा खाना चाहते हो।' इन्सपेक्टर ने अपने गाली कोश से अफसरों की उपस्थिति में चल सकने लायक गालियों का सावधानीपूर्वक चुनाव करते हुए उसे गिरेबान से पकड़ कर दो तीन बार झिंझोड़ा, 'बता किसके लिए किया यह काम? मैं तो खिड़की देखते ही समझ गया था यह तुम्हारी करामात है।'

 

'नहीं साहब, मैंने यह काम छोड़ दिया है।'

 

'रात को कहाँ था, बता वर्ना अभी बाँस पर चढ़ा दूँगा।'

 

गाली गलौज के माहौल का लाभ उठा कर अमरेन्द्र ने संध्या से कहा, 'भाभी, आप अन्दर जायें।'

 

संध्या उठ कर कमरे की ओर चल दी। खान ने शिकायती नजरों से अमरेन्द्र की तरफ देखा। तमाम निगाहों ने संध्या का पीछा किया।

 

'झूठ नहीं बोलूँगा हुजूर। रात को कुछ ज्यास्ती पी गया था, हौली में ही ढेर हो गया। किसने घर पहुँचाया, कुछ पता नहीं।'

 

'हर बार तुम यही जवाब देते हो। मैं तुम्हारी रग-रग से वाकिफ हूँ।'

 

इन्सपेक्टर ने उसे खिड़की की तरफ धकेलते हुए कहा, 'साहब को बताओ, कैसे भीतर घुसे थे।'

 

राजू वहीं फर्श पर उकड़ूँ बैठा रहा, बोला, 'साहब यकीन मानिए यह मेरा काम नहीं है। मेरा हुनर ही मेरा दुश्मन बन गया है।'

 

'साहब को भी दिखाओ अपने हुनर का कमाल।' एस. ओ. ने आदेशात्माक स्वर में कहा।

 

'अमरेन्द्र भाई, एक चाय तो पिलवाइए, बहुत तलब हो रही है।' खान ने कहा। वह खान का आशय समझ रहा था। वह राजू के हुनर का कमाल देखने में मशगूल हो गया।

 

राजू को जैसे मनपसंद काम मिल गया था। वह खिड़की के पास पहुँचा और उसने दोनों ओर से पकड़ कर लोहे की छड़ को कुछ इस अन्‍दाज में दबाया कि वह फ्रेम के बाहर आ गयी।

 

'साला देखने में चिड़ीमार लगता है, मगर गजब की ताकत है इसकी बाँहों में।' इन्‍सपेक्‍टर ने कहा।

 

राजू का चेहरा सुर्ख हो गया था। उसने छड़ जमीन पर फेंक दी और जेब से निकाल कर बीड़ी सुलगा ली।

 

'यह कुछ भी कहे, काम इसी का है।' एस. पी. ने प्रदर्शन देखने के बाद राय दी।

 

'नहीं साहब, अब बहुत से लोग यह कला सीख गये हैं।' राजू बोला, 'जमाना मुझसे बहुत आगे निकल गया है।'

 

'इस हुनर में कौन है तुमसे आगे?'

 

'बबलू मुझसे कहीं आगे है साब।' राजू बोला, 'मगर मैंने तो सुना था, आजकल दूसरी जगह काम लगाये हैं।'

 

'मैं उसे जहन्‍नुम से भी तलब कर लूँगा।' इन्‍पेक्‍टर ने कहा, ' इसे ले जाकर हवालात में बंद कर दो। वहीं इसके डंडा करूँगा तो यह कुबूलेगा'

 

एस. पी. ने घटनास्‍थल का जायजा लेने के बाद निर्णायक स्‍वर में बताया कि यह किसी जानकार व्‍यक्ति का ही कारनामा है। उनके शक की सुई घरेलू नौकरों के आसपास ही भटक रही थी। घरेलू नौकरों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए दारोगा ने अमरेन्‍द्र से 'बहन जी' को बुलवाने के लिए कहा। दारोगा के प्रस्‍ताव से दोनों एस.पी. गदगद हो गये। अमरेन्‍द्र ने वहीं बैठे-बैठे फोन पर संध्‍या से कहा कि अगर 'फ्रेश' हो गयी हों तो जरा बाहर आ जाएँ। फ्रेश होने से उसका जो आशय था, वह एस. पी. तो समझ ही गये, संध्‍या तो भीतर पहुँचते ही समझ चुकी थी और अपनी लापरवाही को लेकर बेहद शर्मिदा थी।

 

संध्‍या पल्‍लू से सिर ढँके हुए बाहर आई तो उसे पहचानना मुश्किल हो रहा था। उसे देख कर लग रहा था जैसे साड़ी में लिपटी कोई चलती फिरती प्रतिमा हो। एक अवयवविहीन प्रतिमा। उसके पैर तक साडी़ से छिपे हुए थे। नजरें झुकी हुई। अमरेन्‍द्र ने राहत की साँस ली। खान ने एस. पी; की ओर झुक कर उसके कान में कुछ कहा, जिस पर एस. पी. ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। दारोगा ने संध्‍या से पूछा कि कितने लोगों को इस बात की खबर थी कि उसके पति शहर से बाहर हैं।

 

'मैं नहीं सोचती, ज्‍यादा लोगों को इसकी जानकारी थी।'

 

'पड़ोसियों को मालूम था?'

 

'शायद नहीं।'

 

'नौकर चाकरों को?'

 

'वे जरूर जान गये होंगे। रूबी ने उनके लिए पराँठे सेंके थे और महरी उनके कपड़े प्रेस करवा के लायी थी। दो दिन से बढ़ई उनकी लाइब्रेरी में काम कर रहा था, उसको भी नजर खबर होगी। ड्राइवर तो उन्‍हें स्‍टेशन छोड़ कर आया था।'

 

संध्‍या ने लक्षित किया, इन्‍पेक्‍टर डायरी में तमाम बातें दर्ज कर रहा था। वह अचानक चुप हो गयी। उसे चुप देख कर इन्‍पेक्‍टर ने उस पर सवालों की बौछार लगा दी, जैसे बढ़ई को आप कब से जानती हैं, क्‍या इससे पहले भी कभी उसने यहाँ काम किया था। महरी कितने दिनों से काम कर रही है और कहाँ रहती है, उसका पति क्‍या करता है। महाराजिन का आने जाने का समय क्‍या है, उसे काम पर किसने रखवाया था। महरी और महराजिन का पता भी उसने नोट कर लिया।

 

संध्‍या ने बताया कि बढ़ई ने इससे पूर्व उनके यहाँ कभी काम नहीं किया था, मगर वह अब तक दिवाकर के कई मित्रों की लायब्रेरी फर्निश कर चुका है। महरी दो बरस से, जबसे उन लोगों ने बँगला खरीदा है, काम पर आ रही है और उससे कभी कोई शिकायत नहीं रही और रूबी को उसकी एक सहेली ने भिजवाया था और लगभग छह माह से उनके यहाँ है। इस दौरान घर से कभी कोई चीज गायब नहीं हुई।

 

'ये लोग कब तक आते हैं?'

 

'महरी के आने का समय हो गया है। रूबी आठ बजे तक आती है, बढ़ई नौ बजे तक। ड्राइवर से कोई काम नहीं था, वह आज नहीं आयेगा।'

 

'उसका पता मालूम है?'

 

'महरी के पड़ोस में रहता है।'

 

'वकील साहब का मुंशी भी तो होगा।'

 

'वह घर के सदस्‍य की तरह है। वह दिवाकर के साथ दिल्‍ली गया है।'

 

संध्‍या अपनी बात पूरी करती कि घर के सामने एक टुटहा जीप आ कर रुकी। जीप का अंजर पंजर हिल रहा था। जीप से ज्‍यादा फुर्ती उन जवानों में थी, जो जीप के रुकते ही उसमें से कूदे। जवानों के पीछे दो कुत्ते नमूदार हुए। जीप से उतर कर वे खरामा-खरामा जवानों के पीछे चल दिये। 'जयहिन्‍द साब' 'जयहिन्‍द साब' और सैल्‍यूट से जुड़ी जूते ठोंकने की आवाजों से आभास हुआ कि पुलिस कार्यवाही ने अचानक गति पकड़ ली है।

 

संध्‍या को लग रहा था, अब कुछ ही देर बात अपराधियों की धरपकड़ शुरू हो जायेगी, मगर सिपाहियों के साथ दो मरियल से कुत्ते देख कर उसे बहुत निराशा हुई। देखने से ही दोनों कुत्ते कुपोषण का शिकार लग रहे थे। उन कुत्तों को देखकर कोई भी समझदार आदमी कह सकता था कि वे कामचोर किस्‍म के सरकारी कर्मचारी हैं। वे अपने अफसरों की खुशामद करना भी सीख गये थे। दोनों कुत्ते एस. पी. के सामने खड़े हो कर पूँछ हिलाने लगे, वे जैसे अपने अधिकारी की पुचकार पाने के लिए मचल रहे हों। एस. पी. ने उन्‍हें खास महत्‍व नहीं दिया तो वे वहीं जवानों के पास बैठ गये। लग रहा था, वे सुबह की लम्‍बी सैर से थक चुके है और जैसे उन्‍हें अभी सुबह का नाश्‍ता भी नसीब न हुआ हो।'

 

'कुत्तों को नाश्‍ता वाश्‍ता कराया या ऐसे ही ले आये हो?' कुत्तों के साथ आते दीवान से एस. पी. ने पूछा।

 

'जी सर'। दीवान बोला।

 

'जी सर का क्‍या मतलब?' कु्त्ते नाश्‍ता कर चुके हैं या नहीं?'

 

'जी सर।' दीवान बोला, 'नाश्‍ता कर चुके हैं।'

 

संध्‍या रसोई में जा कर रात की बची रोटियाँ उठा लायी और कुत्तों के सामने फेंक दीं। कुत्तों ने बारी बारी से रोटियाँ सूँघीं और वहीं पड़ी रहने दीं।

 

पुलिस का अमला कुत्तों को भीतर ले गया और कुत्ते फर्श पर बिखरी एक एक चीज को सूँघने लगे। अल्‍मारी को उन्‍होंने प्रत्‍येक कोण से सूँघ लिया। फर्श पर बिखरी-तमाम चीजों को। फिर वे किसी अनजानी गंध का पीछा करते हुए खिड़की की तरफ बढ़े। उनके साथ साथ दीवान भी खिड़की से कूद गया।

 

कुत्तों का करिश्‍मा देखने के लिए तमाम अधिकारीगण बाहर निकल आये और एक पेड़ के नीचे खड़े हो गये। संध्‍या भी पिछवाड़े की ओर खुलने वाली खिड़की खोल कर कुत्तों की गतिविधि का जायजा लेने लगी। उसे पुलिस पर उतना भरोसा नहीं था, जितना कुत्तों पर होता जा रहा था। कुत्ते जमीन को सूँघते हुए आगे बढ़ रहे थे। कुछ ही देर में वे चारदीवारी फाँद कर आँखों से ओझल हो गये। बँगले की चारदीवारी जगह-जगह से ढह गयी थी। संध्‍या ने कई बार दिवाकर से नयी और ऊँची चारदीवारी बनवाने का आग्रह किया था, मगर दिवाकर ने इस ओर ध्‍यान ही न दिया था। उसकी धारणा थी कि चारदीवारी चोरों को नहीं, मवेशियों को रोकने के लिए बनवायी जाती है और अंग्रेजों ने कुछ सोच समझ कर ही तीन चार फीट की चारदीवारी बनवायी होगी। संध्‍या को यह पुराना बँगला पसंद आया था, मगर कुछ चीजों को ले कर उसके मन में बहुत उलझन होती थी। कमरों की छतें इतनी ऊँची थीं कि लम्‍बे से लम्‍बे झाड़ू से भी जाले साफ नहीं किये जा सकते थे।

 

कुत्तों के नजरों से ओझल ही कुत्तों पर चर्चा छिड़ गयी थी। एस. पी. कुत्तों की उपलब्धियों का बखान करने लगे कि कहाँ-कहाँ इन कुत्तों की वहज से चोरों का सुराग मिला। कुत्तों पर कुछ लतीफे़ भी हुए। अमरेन्‍द्र की जानकारी में इजाफा हुआ कि गहन प्रशिक्षण के बाद कुत्तों की बाकायदा विभाग में नियुक्ति होती है। और तो और उन्‍हें एक विशेष उम्र में सेवानिवृत्त भी किया जाता है। कई कुत्तों की विभाग में इतनी पूछ होती है कि वे समय-समय पर डेपुटेशन पर जाते रहते हैं। झबरा कुत्ता तो इतना जिद्दी है कि मनपसंद गोश्‍त न मिले तो अनशन पर चला जाता है। उस पर कई बार अनुशासनात्‍मक कार्यवाही हो चुकी है। अपराधी लोग इन कुत्तों के जानी दुश्‍मन हो जाते हैं और कई बार इन पर जानलेवा हमले हो चुके हैं। यही वजह है कि इन्‍हें कड़ी सुरक्षा के बीच रख जाता है। वे अपराधियों की हिटलिस्‍ट पर हैं। एस. पी. साहब किसी कुत्ते के मधुमेह को ले कर भी बहुत चिन्तित थे।

 

मटमैला-सा दिन धीरे धीरे आँख खोल रहा था और मुख्‍य सड़क पर लोगों की आमदरफ्त शुरू हो गयी थी। कुछ बूढ़े लोग छड़ी टेकते हुए सैर से लौट रहे थे और पुलिस को देख कर वहीं रुक गये थे। बच्‍चों को स्‍कूल ले जाने वाली ट्रालियाँ बीच-बीच में दिखाई देतीं। लगता था, शहर में अब बच्‍चे ही सब से पहले जगते हैं। एक नौजवान आदमी साइकिल पर अखबार फेंकते हुए पास से निकला तो दारोगा जी ने उसे रोक कर तीन चार अखबार छीन लिए। वह बगैर किसी प्रतिरोध के आगे बढ़ गया। दरोगा ने तत्‍परता से अखबार एस.  पी. साहब को पेश कर दिए।

 

संध्‍या सोच रही थी, अभी थोड़ी देर में कुत्ते चोरों को कालर से पकड़ कर घसीटते हुए ले आयेंगे, मगर हुआ ठीक इसके विपरीत। कुत्ते ही मुँह लटकाये हुए वापस लौट आये। मालूम हुआ, उनकी घ्राणशक्ति चौराहे पर जा कर फेल हो गयी। अफसर लोग इस नतीजे पर पहुँच चुके थे कि चौराहे पर जरूर कोई वाहन खड़ा होगा और चोर उसमें बैठ कर चम्‍पत हो गये होंगे। एस. पी. कुत्तों की असफलता से निराश न हुए।

 


 

 

एस. ओ. ने संध्‍या को बुला कर आश्‍वासन दिया कि वह जल्‍द ही चोर को ढूँढ़ निकालेंगे और फिलहाल उसकी सुरक्षा के लिए एक सिपाही को तैनात करके जा रहे हैं। एस. पी. ने फिंगर प्रिंट्स एक्‍सपर्ट के साथ मश्‍वरा किया और एस. ओ. को घरेलू सेवकों से तफ्सील से तफ्सीश करने का आदेश दे कर खान के साथ रवाना हो गये। अमरेन्‍द्र को भी और अधिक रुकने का कोई औचित्‍य नजर नहीं आया।

 

फिंगर प्रिंट एक्‍सपर्ट को शायद बहुत दिनों के बाद कोई काम मिला था, वह बहुत फुर्सत में था और बार बार कह रहा था कि वह खबर मिलते ही बगैर चाय नाश्‍ता किये घर से चला आया है। संध्‍या ने पहले तो उसकी बात पर ध्‍यान नहीं दिया, मगर जब देखा कि बगैर चाय नाश्‍ता किये काम शुरू नहीं करेगा, वह रसोई में घुस गयी। उसके लिए दो एक टोस्‍ट भी सेंक दिये। चाय नाश्‍ता देख कर वह कुर्सी पर पसर गया और आत्‍ममुग्‍ध भाव से अपनी सफलताओं के किस्‍से दर किस्‍से बयान करने लगा। टोस्‍ट खाते हुए भी वह लगातार बोले जा रहा था कि कहीं उसके विराम का फायदा उठा कर संध्‍या वहाँ से चल न दे। वह दीवार का सहारा लिए खड़ी रही और, 'हाँ हूँ' करती रही। उसे लगा रहा था कि यह मूर्ख आदमी अगर इसी तरह बकबक करता रहा तो वह गिर पड़ेगी। फिंगर प्रिंट एक्‍सपर्ट को विदा करने के बाद वह कटे पेड़ की तरह पलँग पर जा गिरी। उसने तय कि वह बच्‍चों को जगाने की बजाय उनके साथ ही थोड़ी देर के लिए सो जायेगी। उसकी झपकी लगी ही थी कि टेलीफोन की घंटी टनटनायी। उसने लपक कर रिसीवर उठा लिया, 'हेलो।'

 

'मैं अलका बोल रही हूँ संध्‍या।'

 

'बोल यार'

 

'तुमने दोस्‍ती का अच्‍छा सिला दिया। मैंने तुम्‍हें अपना समझ कर और तुम्‍हारी मदद के इरादे से शान्ति को तुम्‍हारे यहाँ रुकवाया था। बस यह समझ लो, तुमने उसे नहीं मुझे हवालात भिजवाया है। मुझ से पूछ तो लिया होता, वह कैसे घर की लड़की है। उसका भाई डी. आई. ओ. एस. में चपरासी है, माँ बच्‍चों के स्‍कूल में दाई है। और वह खुद इस बरस हाई स्‍कूल की परीक्षा में बैठ रही है। जरूरतमंद लड़की थी, मैंने तुम्‍हारी मदद के लिए भिजवा दिया और तुमने सब सम्बन्ध ताक पर रख दिये और उस बेचारी को जलील कराने थाने भिजवा दिया।'

 

'अलका, यकीन मानो, मैंने ऐसा कुछ नहीं किया।' संध्‍या के होंठ सूख रहे थे। वह किसी तरह इतना ही कह पायी।

 

'क्‍या यकीन मानूँ। जानती हो, पुलिस बदतमीजी से कैसे उसे पकड़ कर थाने ले गयी?'

 

संध्‍या की बोलती बंद थी। बड़ी मुश्किल से वह सिर्फ इतना कह पायी कि उसने पुलिस से शान्ति की कोई शिकायत नहीं की और शान्ति के साथ जो कुछ हुआ उसके लिए उसे बहुत अफसोस है।

 

'तुम ने मेरा दिल बहुत दुखाया है संध्‍या, मैं ताजिन्‍दगी इसे याद रखूँगी।'



प्‍लीज अलका, मुझे गलत मत समझो। आज दिवाकर लौट आएँगे, सब ठीक हो जायेगा। मैं खुद आ कर तुम्‍हें सारी बात बताऊँगी, मैंने कुछ नहीं किया।


‘मेरे यहाँ आने की तकलीफ मत करना।’ अलका ने बेरुखी से कहा।


‘अरे सुनो तो।’


‘अब सुनने को बाकी ही क्‍या है?’ अलका बोली, ‘याद रखो, एक मासूम लड़की को पुलिस के हवाले करके तुमने नीचता का ही परिचय दिया है।’


प्रिय पाठको,


यह चखचख अब लम्‍बी खिंचेगी। अभी तो सिर्फ अलका का फोन आया है। वे लोग भी डायल घुमा रहे हैं, जिन्‍होंने रूबी, ड्राइवर और बढ़ई को भिजवाया था। रूबी का पिता, जो इस मायने में बहुत सिद्धांतवादी था कि बेटी की कमाई से दारू नहीं पियेगा, उसके लिए चाहे उसे रिक्‍शा ही क्‍यों न चलाना पड़े, सुबह सुबह दारू के दो गिलास गटक कर संध्‍या से भिड़ने के लिए अपने डगमगाते कदमों से घर से निकल चुका था। ड्राइवर गोपाल की बूढ़ी माँ भी लाठी टेकते हुए पड़ोसियों के साथ संध्‍या के घर की तरफ ही बढ़ रही थीं। शान्ति की ननद भी शान्ति के दोनों छोटे बच्‍चों को ले कर इस हुजूम में शामिल हो गयी थी। गोपाल की माँ तपेदिक की मरीज थी, बीच रास्‍ते में उसकी साँस फूल गयी तो उसे एक पुलिया पर बैठा कर कुछ लोग उत्तेजना में आगे बढ़ गये थे। सभासद की जाति के शुभचिन्‍तक सभासद की तलाश में निकल चुके थे। चुनाव सिर पर थे और इस समय जाति विशेष का साथ दे कर सभासद बहुत से मत पक्‍के कर सकता था।


यहाँ एक ब्रेक लेना मुनासिब होगा। आप इसे टी ब्रेक भी कह सकते हैं। पुराने जमाने में पुस्‍तक के साथ कलात्‍मक बुकमार्क फ्री मिला करते थे, आजकल यह परम्‍परा लुप्‍त हो गयी है। पाठक लोग पोस्‍ट कार्ड, कलम या कागज के पुर्जे को खोंस कर बुकमार्क का काम ले लेते हैं। आजकल बाजार में मंदी छायी हुई है, हर शै के साथ कुछ न कुछ फ्री मिल रहा है, जैसे साबुन के साथ एक और साबुन, तेल के साथ शैम्‍पू, शैम्‍पू के साथ कंघा, पतलून के साथ शर्ट, जूते के साथ मोजे, कटोरी के साथ चम्‍मच, मगर किताब के साथ कुछ मुफ्त नहीं मिलता, बुकमार्क तक नहीं। मालूम नहीं इस समय टी ब्रेक में कौन सी चाय पी रहे हैं, चाय के एक ब्रांड के साथ चाकलेट फ्री मिल रही है। मेरी ये बीच बीच की टिप्‍पणियाँ आप यही सोच कर पढ़ जाइए कि ये कहानी के साथ फ्री मिल रही हैं।


आपको उत्‍सुकता हो रही होगी कि कहानी में आगे क्‍या हुआ? चोर पकड़े गये या नहीं? चोरी में गया सामान बरामद हुआ या नहीं? आपको हैरत होगी, कथाकार के लिए ये तमाम प्रश्‍न अब गौण हो चुके हैं। वह जानता है कि चोरी गया सामान वापिस नहीं आता, आता भी है तो अक्‍सर नकली निकल जाता है। मेरी राय है, हम लोग अब संध्‍या के यहाँ न लौटें, जहाँ इस समय हंगामा हो रहा है और उम्‍मीद है देर तक होता रहेगा। क्‍यों न हम लोग थाने चलें, जहाँ घरेलू सेवकों की तफ्तीश शुरू होने वाली है। इधर हिन्‍दी कथाकारों की पाँत में कुछ आई. पी. एस. अधिकारी भी शामिल हो गये हैं, वे ऐसी तफ्तीश पर पूरा उपन्‍यास लिख सकते हैं। मैं आपको तफ्तीश पूर्व के माहौल की एक झलक दिखा कर विदा लेना चाहूँगा। मुलाहिजा फरमाएँ।


‘क्‍या नाम है?’


‘सान्‍ती।’


‘बाप का नाम?’


‘संकर।’


‘कहाँ रहती हो?’


‘संकर घाट।’


‘तेरे बाप का घाट है क्‍या?’


वह सिर झुकाये खड़ी रही।


‘शादीशुदा हो?’


शांति ने गर्दन हिला कर हामी भरी। वह सहमी थी। जि़न्‍दगी में पहली बार थाने आई थी।


‘तब तो खायी खेली हो।’ वह कुर्सी से उठा और मेज पर डंडा पीटते हुए बोला, ‘क्‍या नाम है उस साले का? क्‍या करता है?’



उसने पास आ कर ठुड्डी ऊपर उठा दी, ‘जालिम सिंह है नाम मेरा। खैरियत चाहती हो तो सब कुछ साफ साफ उगल दो।’


उसकी आँखों से आँसू झरने लगे तो दीवान ने ठुड्डी छोड़ दी और सिर से पैर तक उसका जायजा लेने लगा। सीने पर पल्‍लू ठीक करती हुई वह और सिकुड़ कर खड़ी हो गयी।


‘साली नाम नहीं लेती अपने मर्द का, बाकी सब कुछ ले लेती है। मुझे सब मालूम है, तुम्‍हारी मिली भगत से हुई है यह चोरी।’


इस बेबुनियाद आरोप से वह तिलमिला कर रह गयी।


‘दारोगा जी बम्‍बू करेंगे तभी तुम्हारा मुँह खुलेगा।’ जालिम सिंह हथेली पर सुर्ती मलने लगा। शान्ति की तरफ देख कर वह बहुत बेशर्मी से हँस रहा था।


जालिम सिंह का सुर्ती फाँक कर इत्मीनान और तफसील से तफ्तीश जारी रखने का इरादा था। वह दारोगा जी के आने से पहले अपना महत्‍व बता देना चाहता था। अब तक के तमाम प्रश्‍न उसने दारोगा जी की शैली में किए थे। वह पूछताछ जारी रखता कि अचानक कमरे में जैसे भूचाल आ गया और जालिम सिंह को अपनी पूछताछ अधूरी छोड़ कर वहाँ से अनुपस्थित हो जाना ही बेहतरी के लिए जरूरी लगा। जालिम सिंह की पूछताछ बहुत नाजुक मोड़ पर थी जब थाने में दस पंद्रह लोगों के साथ सभासद महोदय ने प्रवेश किया। उनके पीछे पीछे भीगी बिल्‍ली बना एक सिपाही भी नजर आया जो रूबी, बढ़ई और ड्राइवर को तफ्तीश के लिए थाने में हाजि़र करने ला रहा था। सभासद को दलबल के साथ देख कर जालिम सिंह अचकचा कर रह गया। वह सभासद को पहचानता ही नहीं था, उसकी हैसियत से भी परिचित था। एस. ओ. साहब उस के यहाँ अक्‍सर सामान भिजवाते रहते थे। थाने में विलायती शराब को सामान ही कहा जाता था। कई बार तो जालिम सिंह सभासद के यहाँ सामान पहुँचाने जा चुका था।


सभासद सत्तारूढ़ दल से ताल्‍लुक रखता था और थाने को भी इसको खबर थी कि यह प्रदेश के गृह मंत्री का मुँहलगा सभासद है और सभासद का वार्ड मंत्री जी के निर्वाचन क्षेत्र में ही पड़ता था। सभासद ने हुसूती का कुर्ता पायजामा पहन रखा था और वह बड़े नेताओं की तरह चलना सीख चुका था। वह अपने मोबाइल से बात करता हुआ थाने में घुसा। उसकी बातचीत से पता चल रहा था कि किसी पुलिया के निर्माण की निविदाएँ आज ही खुलने वाली हैं। इस ठेके को ले कर वह बहुत उद्धिग्‍न था और किसी भी सूरत में उसे हथिया लेना चाहता था। शक्ति प्रदर्शन के लिए वह जल्‍द से जल्‍द नगर महापालिका पहुँच जाना चाहता था।


वह थाने में घुसता चला गया और न जाने कहाँ से एक इन्‍सपेक्‍टर को पकड़ लाया। इन्‍सपेक्‍टर ने उससे कमरे में रखी एकमात्र कुर्सी पर तशरीफ रखने का आग्रह किया और किसी तरह समझा बुझा कर विदा कर दिया कि इन लोगों को केवल पूछताछ के लिए थाने में तलब किया गया है और तफ्तीश पूरी होते ही इन्‍हें छोड़ दिया जायेगा।


इतना याद रखिए इन्‍सपेक्‍टर साहब कि ये सब मेरे परिवार के लोग हैं। इन पर आँच नहीं आनी चाहिए। सभासद ने विजयी भाव से लोगों की तरफ देखा था और हाथ जोड़ते हुए विदा हो गये थे।


अपने पड़ोसियों, हितैषियों और परिवार के सदस्‍यों के बीच तीनों अभियुक्‍त सहमे ठिठुरे खड़े थे। सभासद के आश्‍वासन से उनके चेहरे पर छाये दहशत के बादल छँटने लगे। एस. ओ. साहब की प्रतीक्षा में लोग कमरे के बाहर धूप में बैठकर पान, सुर्ती और सिगरेट-बीड़ी का सेवन करने लगे।



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'