प्रकर्ष मालवीय विपुल की कविताएं
21वीं सदी में होने के बावजूद आज भी आबादी का एक तबका ऐसा है जिसका जीवन अभावग्रस्त है। ऐसे जीवन को संघर्ष और अभाव के बीच ही पनपना और आगे बढ़ना होता है। संघर्ष उनकी नियति होती है। बिना किसी शिकवा शिकायत के वे अभाव के बीच ही वे रहना सीख जाते हैं और इस तरह आगे बढ़ते हैं। ऐसा जीवन संवेदनशील कवि की निगाहों से बच नहीं पाता है और कवि उसे अपनी कविताओं में दर्ज करता है। प्रकर्ष मालवीय 'विपुल' युवा और सामर्थ्यवान कवि हैं। अपने समय की नब्ज पर पैनी नजर रखते हैं। उनकी कविताओं में प्रवहमानता दिखाई पड़ती है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रकर्ष मालवीय 'विपुल' की कुछ नई कविताएं।
प्रकर्ष मालवीय 'विपुल' की कविताएं
नागरिकता, संसद और मंदिर
सुना है! किसी भयंकर बाढ़ में बह गई थी
एक बेहद उन्नत प्राचीन सभ्यता
शायद, बाढ़ ही में डूब गई थी ‘शापित’ द्वारका
निश्चित ही बहुत उन्नत है हमारी सभ्यता
हर साल बाढ़ में बहने के बावजूद बची रह जाती है।
ऐसा लगता है
नावें बचा लाती हैं हवा में उड़ान भरने वाली सभ्यता को
हर साल डूबने से।
निश्चित ही बड़े खुशहाल हैं लोग
बड़े खुशहाल हैं जानवर
तभी तो साल दर साल
तबाही के बाद भी बचे रह जाते हैं।
बाढ़ के उतरने पर खोज निकालेंगे ये
कीचड़ में दबे
टूटे फूटे बर्तन, नागरिकता के दस्तावेज़ और
अपने परिजनों के शव।
ऐसी आफ़त के समय
एक गैंडे और आदमी को साथ साथ
किसी टापू पे शरण लिए देख
मेरा यह विश्वास दृढ़ हुआ कि
इस देश को नागरिकता पंजीकरण की तत्काल आवश्यकता है।
ढह गई छः मंज़िला इमारत एक
बह गई कुछ झुग्गियाँ
कल तक जो मकान मालिक थे
वे जो कल तक सड़क पर आना
अपना काम नहीं समझते थे
एकाएक सड़क पर आ गए आज वे
तंत्र के मलबे में अब भी दबे हैं कुछ जन
जल्द ही निकाल लिए जाएँगे उनके शव
और इस तरह समझ आया
इस जनतंत्र को
एक नए संसद भवन की तत्काल आवश्यकता है।
महामारी ने अपने पैर पसारे
और अधिनायकवाद ने उसके कंधे की सवारी की
मर गए असंख्य जिन्हें ईश्वर पर थी अटूट आस्था
बच गए असंख्य जिन्हें ईश्वर पर ना थी कोई आस्था
कुछ बचते बचते मर गए
कुछ मरते मरते बच गए
किसी ने कहा अलाने ईश्वरीय कोप से मर गए
तो किसी और ने कहा फलाने ईश्वर की कृपा से बच गए
जो मर गए उनके परिजनों ने ईश्वर की शरण ली
जो बच गए उन्होंने ईश्वर का आभार प्रकट किया
और इस तरह मेरा यह विश्वास प्रबल हुआ
हमारी आस्था को एक मंदिर की तत्काल आवश्यकता है।
राहुल गांधी के नाम
अभी-अभी उसे किसी पब में देखा गया
शायद! वह शराब पीता है
या नहीं पीता है शायद
या पता नहीं कुछ कहा नहीं जा सकता।
कुछ दिनों पहले वायरल हुई थी उसकी एक तस्वीर
आइसक्रीम खाते हुए बाल सुलभ मुस्कुराहट के साथ
उसके अंदर का बच्चा अब भी जीवित है शायद!
उसके कुछ रोज़ पहले उसे छुट्टी मनाते पकड़ा गया था।
उसे छुट्टियाँ बिताने का बड़ा शौक़ है
वह अक्सर काम से छुट्टी ले कर
पहुँच जाता है कभी पहाड़ों की गोद में
तो कभी किसी नदी की ज़ुल्फ़ सँवारने
कभी हरे भरे पेड़ों से कुछ नमी उधार लेने
जो अक्सर दिख जाती है
उसकी आँखों में जब वह
किसी पीड़ित को गले लगाता है।
तमाम रेगिस्तानी निर्जन बेदिल लोगों के बीच
वह अकेला दीख पड़ता है जिसके पास
एक अदद दिल होने की सबसे प्रबल संभावना है।
जाने कैसा मर्द है वह
कि मर्दानगी के गौरव के काल में भी
अपनी बहन द्वारा चालित गाड़ी में बैठ कर
उसकी मर्दानगी शर्मिंदा नहीं होती!
यौन कुंठा से ग्रस्त तमाम पुरुषों में इस बात की है चर्चा
कि वह कब करेगा शादी?
उसे अक्सर किसी महिला के साथ देख कर
उसकी महिला मित्र होने की अटकलें लगाई जाती है
और वह इन सब बातों से बेपरवाह पहुँच जाता है
अपनी नानी के पास
तब, कुछ देर के लिए वह भरत हो जाता है
जो लौट आता है अयोध्या संकट के वक़्त।
वह किसी बच्चे से भी
उसी सहजता से बतियाता है
जैसे किसी आर्थिक विशेषज्ञ से
उसकी भाषा में व्याकरणात्मक ग़लतियाँ बेहद कम होती हैं
उसने कभी नफ़रती भाषण नहीं दिए
और न ही कभी लैंगिक, जातीय, नस्लीय टिप्पणी की
गाली गलौज करते हुए भी नहीं देखा गया क़भी वह
शायद! इसीलिए कहा जाता है
कि वह जनता से उसकी भाषा में संवाद नहीं कर पाता।
उसने कई बेवक़ूफ़ियाँ कीं
कई भयानक ग़लतियाँ भी
लेकिन उनसे कभी इंकार नहीं किया।
नाकामियाँ उसे विरासत में मिली
वह सीधा खड़ा दिखाई ज़रूर पड़ता है
लेकिन उसके कंधे दबे हुए हैं
उसके पूर्वजों की नाकामियों से
वह लिए फिरता है अपने पूर्वजों का किया-धरा अपने सिर।
राजनीति के रंगमंच पर केंद्र में पैदा होने के बावजूद
वह अकेला है जो नेपथ्य में भी असहज नहीं है।
वह उन तमाम मानवीय कमज़ोरियों से परिपूर्ण है
जो एक सामान्य मानव को इंसान बनाती हैं
देवत्व नहीं है उसके पास
और ना है अपनी कमज़ोरियों को छिपाने का हुनर।
अनगिनत देवताओं और नायकों के देश में
जहाँ सभी बड़े और महान काम करना है-
ईश्वर के ज़िम्मे।
जहाँ असाधारण कार्य साधारण मनुष्यों से अपेक्षित नहीं
जहाँ सफल होना ही जीवन का एकमेव लक्ष्य है।
उस देश में-
वह अकेला आदमी है
जिसका जीवन असफलताओं से भरा है
जिसे उसकी विफलताओं ने गढ़ा है
जो असफल लोगों का आदर्श बना खड़ा है।
नहीं! हे भारत माता!
हमें ऐसा नेता नहीं चाहिए
जो बिल्कुल हमारी ही तरह हो
जो हमारी तरह साधारण ग़लतियाँ करे,
साधारण इच्छाएँ रखे.
बल्कि, हमें ऐसा भाग्य विधाता चाहिए
जो हो देवत्व से भरपूर
मर्दवादी अहंकार जिसका आभूषण हो
जिसे हम ईश्वर का अवतार बता सकें
और अपने कथित दुश्मनों को ठिकाने लगा सकें।
रीढ़ और नाक
(माँ की स्मृति में)
1
तुम और मैं
नाभिनाल से नहीं जुड़े थे।
शायद!
हम जुड़े थे
रीढ़ की हड्डी से
मेरी रीढ़ दरअसल
तुम्हारी ही रीढ़ का विस्तार है।
और इसीलिए
यह दर्द भी तुम्हारा ही है
जो अब मुझे मिल गया है
दर्द जो सीधी रीढ़ वालों को होता है शायद।
दर्द जो तुम्हारी अनुपस्थिति में भी उपस्थित है
दर्द जिसने मुझे और तुम्हें एकाकार किया हुआ है
दर्द जिसने तुम्हें मुझमे ज़िंदा रखा हुआ है
दर्द जो जीवन का शाश्वत संगीत है।
2
रीढ़ जो आदमी को आदमी बनाती है
रीढ़ जो ऊँची से ऊँची मंज़िल पर और
कठिन से कठिन समय में
आदमी को सीधे खड़ा रहने का हौसला देती है
रीढ़ जो सिर्फ़ होने भर से नहीं होती
रीढ़ जो अक्सर होते हुए भी नहीं होती
रीढ़ जो दुनिया में आदमी की सफलता में
सबसे बढ़ी बाधा भी है और साधन भी
रीढ़ जो संबल है, स्वाभिमान है
रीढ़ जो वीरों का अभिमान है
रीढ़ जो लचीली हो तो सफलता की कुंजी है
रीढ़ जो चापलूसों और चाटुकारों की पूँजी है
रीढ़ जो मुझमे तुम्हारी अस्थिमज्जा से बनी है
रीढ़ जो तुम्हारी मालिश से तनी है।
3
सुना है! रीढ़ और नाक का कोई सम्बंध है
जिनकी रीढ़ सीधी होती है
उनकी नाक बहुत ऊँची होती है
दुनिया जिनकी रीढ़ नहीं झुका पाती
उनकी नाक पर हमले करती है
और तुम भरपूर लड़ीं अपनी नाक के लिए
अपनी सीधी और तनी हुई रीढ़ के साथ
और यही सिखाया-
जिनकी रीढ़ झुक जाती है
उनकी नाक खुद ब खुद टूट कर गिर जाती है।
मंगलेश डबराल जी के प्रति
जिस तरह रैक से किताबें झांकती हैं
ठीक उसी तरह झांकता है कवि
अपनी कविता के बाहर
कविता को पकाते हुए
और कविता के पूरी तरह पकते ही
कवि चमकती आँखों से देखता है चारों तरफ़
कि कोई तो होगा जिसे पके हुए की सुगंध आ रही होगी
जो कवि की साँसो से फैलती है वातावरण में।
कोई तो होगा जिसे दिखेगा कवि के चेहरे का ओज-
सृजन का ओज
जैसे किसी गर्भिणी स्त्री के चेहरे पर होता है-
मातृत्व का ओज।
तड़पता है कवि कविता के जनन के लिए उसी तरह
जैसे प्रसव पीड़ा में तड़पती है स्त्री।
और फिर
साधना की आँच पर पकी कविता
रख देता है दुनिया के सामने
जैसे संपूर्ण धैर्य इकट्ठा कर
स्त्री रख देती है अपना सर्वोत्तम सृजन
दुनिया के सामने।
फिर एकाएक लौट जाता है कवि
अपने अंतस में स्थित वेदना की भट्टी में से
चेतना के अधजले टुकड़े बीनने
उनके अंदर की बची आग को सृजन की तेज़ लपटों में बदलने।
जैसे ब्रह्मांड का कोई तारा
अपनी संपूर्ण चमक बिखेर कर
समा जाता है अपने ही गुरुत्व में।
जैसे लौट जाती हैं किताबें रैक में
अपने अंदर की संपूर्ण ऊर्जा
मानव मस्तिष्क में स्थानांतरित कर।
और दुनिया कहती है-
वो देखो एक तारा टूट गया
एक कवि मर गया!
आदर्श नागरिक
गणित की कक्षा में मुझे
पाठ समझ नहीं आया था
पूछना चाहता था एक प्रश्न
किंतु झिझक रहा था
तभी मेरे बग़ल में बैठा सहपाठी
पूछ बैठा वह प्रश्न
जो मुझे पूछना था
अध्यापक ने कसके झिड़क दिया उसे-
‘नालायक, गधे, इतनी सी बात नहीं समझता?
क्यूँ बाप के पैसे में आग लगा रहा है,
तेरे जैसे बैल की जगह कक्षा में नहीं खेत में है।’
खी खी कर हँसी पूरी कक्षा उस पर
मैंने मन ही मन धन्यवाद दिया उसे
मेरे हिस्से की लानत उसने अपने हिस्से ले ली।
कार्यालय में मुझसे
मेरे अधिकार क्षेत्र से बाहर कार्य लिया जा रहा था
बिना उसके लिए समुचित वेतन दिए
मैं लड़ना चाहता था
अपने अधिकारी से
उसके मुँह पर दे मारना चाहता था इस्तीफ़ा
तभी मेरे सहकर्मी ने अधिकारी से बहस कर ली
उसी मुद्दे पर जो मुझे भी प्रभावित करता था
अधिकारी ने निकाल बाहर किया उसे नौकरी से-
‘और किसे चाहिए पूरा वेतन?
जिस कुर्सी पर तुम बैठे हो उसके लिए
हज़ार खड़े हैं दफ़्तर के गेट पर,
तुमसे अधिक योग्य और कर्मठ!’
सुना है आत्महत्या कर ली उसने आर्थिक तंगी में!
मैंने धन्यवाद दिया उसे
जिसने मेरे हिस्से की बेरोज़गारी अपने सर ले ली।
मैं प्रेम करता था एक लड़की से
कहना चाहता था उससे अपने दिल की बात-
तो क्या हुआ जो हम एक जाति के नहीं,
तो क्या हुआ जो तुम विधर्मी हो,
प्रेम का तो कोई धर्म, कोई जाति नहीं.
मैं कह पाने के लिए हिम्मत जुटा पाता उसके पहले ही
मेरा विवाह तय कर दिया गया उस लड़की से
जिसके पिता उपहार में दे रहे थे एक चमचमाती गाड़ी
जिसकी सवारी के लिए उसके पहियों के तले
कुचलनी थी मुझे मेरी आत्मा
जबकि मैं कुचलना चाहता था समाज की यह कुप्रथा
जिसमें ढोल, नगाड़ों और पटाखों के शोर में दबा दी जाती है
दिल की धड़कनें।
तभी सरकार ने बना दिया क़ानून
प्रेम विवाह के विरुद्ध-
‘कालकोठरी में डाल दिया जाएगा उसे
छीन ली जाएगी नागरिकता
देशद्रोह की लगेंगी धाराएँ
जिसने प्रेम करने का अपराध किया!’
मैंने धन्यवाद दिया अपने परिवार को
मुझे कालकोठरी में जाने से बचा लिया था जिसने।
और इस तरह
हर उस मौक़े पर जब मुझे
सवाल करना था
बोलना था
चीखना था
लड़ना था
मैं चुप रहा।
और बचा लिया खुद को
बेइज़्ज़त, बेरोज़गार, देशद्रोही होने से
तो क्या हुआ जो मैंने
बोलना, पूछना, लड़ना और चीखना नहीं सीखा?
कोरोना कालीन कुछ कविताएँ
चाँद का अपराधबोध
रात का सन्नाटा
सम्पूर्ण निस्तब्धता
शीतल वायु भी अवसाद फैलाती
ऐसे में पदचाप सहस्त्र पैरों की
दूर तक सुनाई देती रही
चर्र चर्र चर्र चर्र, पट पट पट पट
विस्थापित गृहस्थी लादे साइकिल की घंटी
ट्रिन-ट्रिन, ट्रिन-ट्रिन बहुत देर तक बजती रही
शहर के स्थापित गृहस्थों की नींद बार बार टूटती रही
और फिर इस सूनी सड़क पे
बहुत दिनों बाद मद के कुछ घूँट ले कर
रफ़्तार का दीवाना एक
निकला उधर से
और एकाएक बंद हो गईं सारी आवाज़ें.......
रात का गहराता सन्नाटा
बढ़ती हुई निस्तब्धता
शीतल वायु कुछ और विषैली हुई
ऐसी कि आसमान में चौकीदारी करते
चाँद की भी आँखें डबडबाने लगें
शीतलता में उसे भी झपकी आने लगे
ऐसे में रेल की पटरी पर
दिन भर भटकते पैरों की भी साँसे फूलीं
छोटे छोटे पाँव बेचारे चाँद को देख निंदासे हो गए
थकान मिटाने को वहीं पटरी पर सो गए
और फिर उधर से निकली
ज़रूरी रसद लिए एक निर्दोष ट्रेन
और ग़ैर ज़रूरी फूलती साँसे शांत हो गईं
वे अब और नहीं फूलेंगी कभी.......
सुबह हुई
सूरज को अपनी गठरी में लादे
वो फिर आगे बढ़ गए
कारवाँ उनका चलता रहा
चाँद अपराधबोध से ग्रस्त
आसमान में लटका रहा।
पुच्छल तारे
1
नहीं रही अरवीना
नहीं रहा अनवर
नहीं रहे दयाबक्श।
वे इतिहास के निर्माता हो सकते थे
महज़ तारीख़ें भर नहीं बल्कि इतिहास को
दिशाबोध कराने वाले ध्रुव तारे!
लेकिन अफ़सोस कि सारे वाजिब कारणों के होते हुए भी
वे इतिहास में कहीं नहीं हैं
उनके पेट के विज्ञान ने उनका भूगोल बदल डाला
वे अंतरिक्ष के दिग्भ्रमित पिंड होकर रह गए
जो भटक गए अपने परिक्रमण पथ से
छिटक गए अपनी धुरी से
और रोटी के शक्तिशाली ध्रुवों के गुरुत्व में उलझ गए
अफ़सोस! ज़िंदा रहने की जद्दोजहद में
भूख के अथाह ब्रह्मांड में वे कहीं खो गए।
2
उन्होंने रोटी माँगी
हमने उन्हें भूख दी
उन्होंने पानी माँगा
हमने उन्हें प्यास दी
उन्होंने भूखे बच्चे के लिए दूध माँगा
हमने उन्हें सस्ती दर पे क़र्ज़ दिया
उन्होंने घर जाना चाहा
हमने उन्हें इंतज़ार दिया।
कहाँ पता था उन्हें कि
उम्मीद की जिस गाड़ी में वे
कंधे पर भूख का बस्ता टांगे चढ़ रहे हैं
उसी गाड़ी से भूख के उसी बस्ते में बांध कर
‘संभावित संक्रमित’ कह कर
किसी लावारिस बम की तरह
भूखे पेट ही किसी अनजाने प्लैट्फ़ॉर्म पर उतार दिए जाएँगे?
कहाँ पता था?
गाड़ी की खिड़की से अपने गांव की बाट जोहती आँखें
अपने गंतव्य पर पहुँचने से पहले ही पथरा जाएँगी?
3
वे बचाए जा सकते थे
थोड़े से पानी
कुछ रोटियों
साधारण दवा की एक गोली
और बहुत थोड़ी सी मानवीयता से
वे बचाए जा सकते थे
लेकिन नहीं बचाए जा सके।
अरवीना की बेटी जो
अपनी माँ की साड़ी से खेल रही है
नहीं जानती फ़र्क़ साड़ी और कफ़न में
और जाने भी कैसे
फ़र्क़ रह भी कहाँ गया है?
नहीं समझ पा रही वो कि कुछ दिनों पहले तक
उसकी माँ की पर्वत रूपी छाती से निकलने वाली
जीवनदायिनी दुग्ध की नदियाँ सूख क्यों गईं?
दर असल! वह खेल नहीं रही
बल्कि ढूँढ रही है -
भूख का वह बांध
जिसने उसके हिस्से का पोषण रोक लिया है!
4
नहीं छपी ये खबर किसी भी प्रमुख अख़बार में
तो क्या अरवीना, अनवर और दयाबक्श
यूँ ही भुला दिए जाएँगे
अंतरिक्ष के किसी आवारा पिंड की तरह?
नहीं!
मैं अपनी कविता में जीवित रखूँगा उन्हें
सैकड़ों वर्षों में कभी कभार दिखाई देने वाले
पुच्छल तारे की तरह
ताकि सनद रहे
मेरे हिस्से की भूख लेकर वे गुज़र गए
उनके हिस्से की रोटी ले कर मैं ज़िंदा हूँ।
आत्मनिर्भरता की ओर
जब मैं बना पिता
डाक्टर साहिबा लेकर आईं
फूलों की पंखुड़ियों सी कोमल तौलिए में
लिपटी मेरी संतान
और बढ़ाया मेरी तरफ़
यक़ीन जानिए मैंने डर के मारे
नहीं लिया था उसे गोद में
कि कहीं गिर ना जाय मुझसे छूट कर
ये रुई के फ़ाहे की तरह सुक़ोमल नवजात।
फिर दिन पर दिन
सुनता ही रहा अम्माँ से
अनुदेश कई तरह के कई बार
कि कैसे उठाना है उसे गोद में
कि कैसे एहतियात से होती है शिशुओं की देखभाल
कि शिशु को नहीं उठा लेते
यूँ ही एक हाथ से पकड़ कर
कि गोद में शिशु की गर्दन को अवश्य सहारा दो
कि दिन में तीन समय उसकी मालिश अवश्य हो
ताकि नवजात के हाथ, पैर, और रीढ़ मज़बूत हो
दृढ़ता से सीधे खड़े हो कर भविष्य से संवाद कर सके वो
शहर के सबसे अच्छे स्कूल में उसका दाख़िला हो
मेरी संपूर्ण पूँजी से मेरी बुढ़ापे की लाठी बन सके वह
फिर देखी तस्वीर एक
जिसमें एक पिता ने उठा रखी है अपनी
वैसी ही सुक़ोमल संतान हाथ के बल
फेंका जा रहा है वह नवजात
बाक़ी सामानों के साथ
वाहन की छत पर
जबकि वह अपने पिता की गृहस्थी में
अनेकों देनदारियों के बीच अकेली पूँजी है
कुछ महीनों की उम्र में भी यह पहला मौक़ा नहीं है जब
इस नवजात ने की है यूँ अभाव की लहरों की सवारी
पुश्तैनी आदत है इस नवजात की
झंझावातों में इस तरह के करतब दिखाने की
पुश्त दर पुश्त रक्त में संचित है उसके
ऐसी आँधियों में तिनके की तरह उड़ना
गिरना, फिर उठना और चल पड़ना
कि उसका जन्म ही आँधियों में हुआ है
उसके बाप का भी और बाप के बाप का भी।
ना तो उसका बाप कभी स्कूल गया ना दादा
और उसके भी जाने की आशंका कम ही है
(निश्चिंत है फ़ैक्ट्री का मालिक)
लेकिन यूँ ही हवाओं में तैर कर सीखेगा वह
गुरुत्व, गति, वेग और द्रव्यमान के नियम
यूँ ही खिल उठेगा वह अमलतास की तरह
जब जब ज़िंदगी उसके सर पर ताप बनके बरसेगी
उसे भविष्य की आँधियों में जमे रहने के लिए
खाद पानी की दरकार नहीं
उसे ज़िंदगी पूरे इत्मिनान से ऊष्णता से सींचेगी
अपने कंधे मज़बूत करने के लिए
उसे तीन समय मालिश की फ़ुर्सत कहाँ
उसके कच्चे कंधे अपने बाप के क़र्ज़ चुकाते चुकाते
पकेंगे और एक दिन चुक जाएँगे
वो यूँ ही बढ़ेगा, यूँ ही चलेगा,
और फिर भी ज़िंदा बचा रहेगा
शहरों के इंजन को अपने पसीने के ईंधन से चलाने को
ऐसे ही फिर किसी आँधी में तिनके की तरह उड़ जाने को
मोबाईल - 09389352502
08765968806
बहुत ही सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत आभार
हटाएं