मैनेजर पाण्डेय का आलेख क्या आपने 'वज्र-सूची' का नाम सुना है?

 



प्राचीन भारतीय व्यवस्था में जो विसंगतियां थीं, उन पर प्रहार किए जाने की एक सशक्त परंपरा मिलती है। इसी क्रम में वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था पर कड़े प्रहार किए गए। इस क्रम में अश्वघोष की 'वज्र सूची' एक ऐसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसमें तार्किक तरीके से उन अतार्किक परंपराओं पर प्रहार किया गया है जो भारतीय समाज व्यवस्था को क्षति पहुंचाने वाली थी। दुर्भाग्यवश 'वज्र-सूची' का हिन्दी में केवल एक अनुवाद मिलता है। यह अनुवाद किसी जनवादी या मार्क्सवादी लेखक द्वारा नहीं, बल्कि संस्कृत के एक विद्वान रामायण प्रसाद द्विवेदी के प्रयत्न से सम्भव हो पाया। 

लगभग दो हजार वर्ष पहले 'वज्र-सूची' की रचना हुई थी, लेकिन वह आज भी जाति प्रथा के विरुद्ध संघर्ष के लिए अत्यंत जरूरी और प्रेरणादायक रचना है। इस ग्रन्थ पर एक महत्त्वपूर्ण आलेख प्रख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है। यह आलेख एन. बी. टी. द्वारा मैनेजर पाण्डेय के 'संकलित निबन्ध' पुस्तक से साभार लिया गया है।

कल मैनेजर पाण्डेय का निधन हो गया। उनकी स्मृति को नमन करते हुए आइए आज हम पहली बार पर पढ़ते हैं उन्हीं का एक बेजोड़ आलेख "क्या आपने 'वज्र-सूची' का नाम सुना है?"


क्या आपने 'वज्र-सूची' का नाम सुना है?

 


मैनेजर पाण्डेय 

 


वज्र-सूची अश्वघोष की रचना है अश्वघोष का समय पचास ई. पू. से पचास ई. तक माना गया है। इस तरह वे आदिकवि वाल्मीकि के परवर्ती और कालिदास के पूर्ववर्ती हैं। अश्वघोष केवल महान कवि और नाटककार ही नहीं हैं, वे बौद्ध दर्शन की तेजस्वी आलोचनात्मक चेतना की परंपरा के प्रवर्तक और क्रांतिकारी सामाजिक चिंतक भी हैं।


अश्वघोष की अनुपम सर्जनात्मक प्रतिभा का प्रमाण 'बुद्धचरित' और 'सौंदर नंद' जैसे महाकव्यों में मिलता है। ये महाभारत और रामायण जैसे विकसनशील महाकाव्यों से अलग हैं। उनसे संस्कृत में कलात्मक महाकाव्यों की परंपरा प्रारंभ होती है। महाकाव्य के साथ-साथ गीत और संगीत की रचना में अश्वघोष की कुशलता 'गंडी स्तोत्र गाथा' नामक गेय कविता में मिलती है, जिसके गायन की लोकप्रियता का उल्लेख प्रसिद्ध चीनी यात्री इत्सिंग ने किया हैं। अश्वघोष संस्कृत के आरंभिक नाटककारों में सबसे प्रमुख हैं। उनके तीन नाटकों की खंडित पांडुलिपियों को प्रो. त्युंगसे ने गोबी के रेगिस्तान में स्थित तुरफान नामक स्थान से खोज निकाला। इसमें पहला नाटक, 'शारिपुत्र प्रकरण' है। यह नाटक कई रूपों में 'मृच्छकटिक' का पूर्वाभास देता है। दूसरा प्रतीक नाटक है, क्योंकि उसमें कीर्ति, धृति, बुद्धि आदि पात्र हैं। तीसरा नाटक शारिपुत्र प्रकरण से काफी मिलता-जुलता है। इन तीनों के अतिरिक्त अश्वघोष के दो और नाटकों का उल्लेख मिलता है। 'राष्ट्रपाल' नामक नाटक का उल्लेख राहुल जी की प्रसिद्ध कहानी 'प्रभा' में हैं। इन काव्यों और नाटकों के साथ अवदान और जातक की शैली में लिखा हुआ उनका 'सूत्रालंकार' नामक एक कथा-काव्य भी है। अश्वघोष की अत्यंत प्रसिद्ध दार्शनिक कृति है 'महायान श्रद्धोत्पाद', जिसमें विज्ञानवाद और शून्यवाद का विवेचन है।


वज्र-सूची को छोड़ कर अश्वघोष की कोई रचना मूल संस्कृत रूप में उपलब्ध नहीं है, 'महायान श्रद्धोत्पाद' का केवल चीनी अनुवाद मिलता है। सूत्रालंकार का चीनी में अनुवाद कुमार जीव ने सन् 405 में किया था। अब वह केवल चीनी अनुवाद में ही उपलब्ध है या फिर चीनी से जापानी और फ्रांसीसी अनुवाद के रूप में। 'गंडीस्तोत्र गाथा' का चीनी प्रतिलिपि के आधार पर संस्कृत रूप मिला है। 'बुद्धचरित' भी अपूर्ण रूप में ही प्राप्त है। यह कुल अट्ठाईस सर्गों का महाकाव्य है लेकिन, संस्कृत में केवल आरंभ के चौदह सर्ग ही मिलते हैं। 'सौंदर नंद' की जो दो प्राचीन हस्तलिखित प्रतियां मिलती हैं; वे नेपाल में हैं।

 


 


"अश्वघोष की कृतियां कभी इस देश में अत्यंत लोकप्रिय थीं। फिर धीरे-धीरे वे यहां से गायब हो गईं। कृतियों के गायब होने की यह प्रक्रिया केवल अश्वघोष तक सीमित नहीं रही है। इसके शिकार दूसरे बौद्ध दार्शनिक और कवि भी हुए हैं। नागार्जुन, आर्यदेव, असंग, बसुबंधु, दिग्नाग, धर्म कीर्ति, शांतिदेव आदि की अधिकांश रचनाएं इस देश से गायब हो गईं, और अब उनका केवल तिब्बती, चीनी, जापानी, अनुवाद ही उपलब्ध है या फिर अनुवादों अथवा प्रतिलिपियों के आधार पर उनका पुननिर्मित रूप। अगर इन कृतियों का चीनी और तिब्बती में अनुवाद नहीं होता तो भारत के साहित्य और दर्शन के इतिहास में अश्वघोष और दूसरे कवियों तथा दार्शनिकों का नाम लेने वाला भी कोई नहीं होता। आखिर ऐसा क्यों और कैसे हुआ? क्या यह केवल बौद्ध परंपरा की रचनाओं के साथ हुआ है या अन्य धार्मिक- दार्शनिक विचारकों की रचनाओं के साथ भी? बौद्धों के अतिरिक्त चार्वाक, आजीवक और अन्य अनेक भौतिकवादी - अनात्मवादी विचारकों की रचनाएं भी अब इस देश में नहीं मिलतीं। तिब्बती और चीनी अनुवादों तथा प्रतिलिपियों के सहारे बौद्ध दर्शन और साहित्य की अनेक कृतियों का ज्ञान तथा पुनर्निर्माण संभव हुआ है, लेकिन चार्वाक, आजीवक आदि के विचारों को जानने के लिए उनके विरोधियों के शब्दों के सिवाय और कोई साधन नहीं है। यह भारतीय समाज में विचारों के इतिहास की एक ऐसी विडम्बना है; जिसकी उपेक्षा करके उस इतिहास के अंतर्विरोधों की पहचान संभव नहीं है। है


भारतीय समाज और संस्कृत के इतिहास में वैदिक पौराणिक परंपरा की केंद्रीय स्थिति और प्रभुत्ववादी भूमिका रही है। लेकिन समय-समय पर उसको चुनौती देने वाले विचारक भी पैदा होते रहे हैं। वैदिक पौराणिक विचारधारा की आलोचना चार्वाक, आजीवक और दूसरे भौतिकवादी - अनात्मवादी विचारक करते रहे हैं। लेकिन वैदिक पौराणिक विचारधारा और उसके आधार पर निर्मित सामाजिक व्यवस्था की सबसे अधिक मूलगामी, समग्र और उग्र आलोचना बौद्ध दार्शनिकों ने की है। बौद्धों ने वैदिक पौराणिक परंपरा की केवल आलोचना ही नहीं की है, उसके विकल्प के रूप में नई विचारधारा का विकास भी किया है। यही कारण है कि बौद्धों से वैदिक पौराणिक परंपरा के प्रतिनिधियों का संघर्ष केवल विचारधारात्मक ही नहीं रहा वह कभी-कभी आलोचना के अस्त्रों की टकराहट से आगे बढ़ कर सशस्त्र संघर्ष तक जा पहुंचा है। ऐसी स्थिति में अगर वैदिक पौराणिक परंपरा के प्रतिनिधियों द्वारा विरोधी विचारों वाली रचनाओं का अस्तित्व मिटा देने की कोशिश हो तो क्या आश्चर्य! 


प्रायः वैदिक-पौराणिक परंपरा के प्रतिनिधि अपने विरोधी और विकल्पी विचारों के साथ जो व्यवहार करते रहे हैं, उसकी प्रक्रिया ध्यान देने लायक है। इस प्रक्रिया में सबसे पहले विरोधी विचार का उग्र विरोध होता है। अगर वह विरोध के बाद भी नष्ट नहीं होता तो उसे विकृत करके बदनाम करने की कोशिश होती है। इसके बाद भी यदि विरोधी विचार जीवित रहता है, तो उसके विरोध की धार की को नष्ट कर के अपने भीतर समेट लेने का प्रयत्न चलता है। विरोध, विकृति और समाहार की इस सर्वग्रासी प्रक्रिया का शिकार चार्वाक, आजीवक और बौद्ध ही नहीं, कबीर जैसे कवि भी हो चुके हैं। वैदिक पौराणिक परंपरा की यह प्रवृत्ति इस देश में आलोचना की संस्कृति का स्वभाव बन गई है।


आज भी जो लोग वैदिक पौराणिक परंपरा को ही भारतीयता के स्वत्व का सार समझते हैं, वे बाकी सभी नई-पुरानी परंपराओं को परायी या अन्य मान कर खारिज कर देते हैं। और तो और मार्क्सवाद के भारतीयकरण पर भी इस प्रवृत्ति की गहरी छाया है। जब डॉ. राम विलास शर्मा कहते हैं कि 'संस्कृत साहित्य, सब नहीं तो अधिकांश, हमारा राष्ट्रीय साहित्य है', और यह भी कि 'महाभारत और पुराण भारतीय राष्ट्रीयता के आदिस्रोत हैं तब वे बौद्ध साहित्य को भारत के राष्ट्रीय साहित्य में शामिल नहीं करते, यही नहीं, डॉ. राम विलास शर्मा के अनुसार वाल्मीकि और व्यास की एक उपलब्धि है बौद्ध मत को निर्मूल करना। आश्चर्य की बात तो यह है कि जो लोग संस्कृत को भारतीय संस्कृत का पर्याय मानते हैं, वे भी संस्कृत में लिखे बौद्ध साहित्य को अपनी परंपरा से बाहर रखते हैं। क्या परंपरा की इस छंटाई में संकीर्ण सांस्कृतिक दृष्टि के साथ-साथ धार्मिक विद्वेष भी सक्रिय नहीं है?


'वज्र-सूची' अश्वघोष की ऐसी रचना है जो संयोगवश मूल और पूर्ण रूप में प्राप्त है। कुछ लोग इसे अश्वघोष की रचना नहीं मानते, लेकिन, अधिकतर विद्वानों की राय में 'वज्र सूची' अश्वघोष की रचना है। उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक से अब तक विभिन्न भारतीय और यूरोपीय भाषाओं में वज्र-सूची के अनेक अनुवाद छपे हैं। उन सभी अनुवादकों के अनुसार यह अश्वघोष की ही रचना है। लोकमान्य तिलक, राजेंद्र लाल मित्र, राहुल सांकृत्यायन और हजारी प्रसाद द्विवेदी भी 'वज्र-सूची' को अश्वघोष की रचना मानते हैं। हिन्दी में इसका जो एकमात्र अनुवाद उपलब्ध है, उसकी भूमिका में अनुवादक रामायण प्रसाद द्विवेदी ने अनेक तथ्यों और तर्कों के सहारे इसे अश्वघोष की रचना सिद्ध किया है। वज्र-सूची का पहला श्लोक और अंतिम वाक्य दोनों कह रहे हैं कि वह अश्वघोष की ही कृति है।


'वज्र-सूची' के साथ कभी-कभी 'वज्र-सूची उपनिषद्' की चर्चा होती है। कुछ लोगों का अनुमान है कि अश्वघोष की 'वज्र-सूची', 'वज्र-सूची उपनिषद्' की टीका है। लेकिन यह ही है, वास्तविकता नहीं, क्योंकि दोनों की रचना संबंधी दृष्टि, पद्धति और प्रयोजन में कोई मेल नहीं है, बल्कि स्पष्ट विरोध है। अश्वघोष की रचना के पीछे गौतम बुद्ध के समतावादी और वर्ण-विरोधी विचारों की प्रेरणा है, जबकि 'वज्र-सूची उपनिषद्' वैदिक पौराणिक परंपरा का पोषक है। अवश्वघोष की 'व्रज-सूची', का लक्ष्य है ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद पर उग्र आक्रमण, जबकि 'वज्र-सूची उपनिषद्' में घुमा-फिरा कर ब्राह्मणवाद की रक्षा की गई है। डॉ. रूपा कुलकर्णी ने मराठी में 'वज्र-सूची' का अनुवाद किया है और साथ में उसके महत्त्व का विस्तार से विवेचन भी। उन्होंने 'वज्र-सूची उपनिषद्' की तुलना करते हुए ठीक ही लिखा है कि वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध अश्वघोष की 'वज्र-सूची' के बढ़ते हुए प्रभाव को मिटाने और ब्राह्मणवाद को बचाने के लिए बहुत बाद के समय में वज्र-सूची उपनिषद् की रचना हुई लगती है।


आखिर वज्र-सूची में ऐसा क्या है, जो एक ओर वर्ण-व्यवस्था तथा जाति प्रथा के समर्थकों को बेचैन करता है तो दूसरी ओर वर्ण तथा जाति की व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करने वाले को प्रेरणा और शक्ति देता है। प्राचीन भारतीय साहित्य में 'वज्र-सूची' संभवत: पहली ऐसी रचना है, जिसमें वर्ण भेद तथा जाति भेद पर टिकी व्यवस्था, उस व्यवस्था के नियामक संचालक ब्राह्मण वर्ण, उनकी विचारधारा और उस विचारधारा के पाखंड का पर्दाफाश किया गया है।

 


 


आइए, पहले हम 'वज्र-सूची' के भीतर झांक कर देखें कि उसमें क्या है? यह छोटी-सी रचना है, जिसमें कुल तिरपन श्लोक हैं और लगभग चालीस गद्य खंड। इसमें अश्वघोष के लिखे श्लोक कम ही हैं। उन्होंने अपनी बात गद्य में कही है और उसके समर्थन के लिए प्रमाण के रूप में वेद, स्मृति और सबसे अधिक महाभारत के कथनों को उद्धत किया है। इस पद्धति के प्रयोजन पर ध्यान देना जरूरी है। वर्ण-व्यवस्था के नियामक संचालक ब्राह्मण जातिभेद को बनाए रखने और शूद्रों पर तरह-तरह के अत्याचार करने के लिए जिन ग्रंथों का सहारा लेते रहे हैं, उन्हीं ग्रंथों से वर्ण और जाति के भेद का खंडन करने वाले कथनों को सामने ला कर अश्वघोष ने ब्राह्मणों को यह चुनौती दी है कि या तो वेद, स्मृति और महाभारत के इन कथनों को प्रमाण मानते हुए वर्ण भेद तथा जाति भेद को तोड़ो या फिर इन ग्रंथों की पवित्रता और प्रामाणिकता का आग्रह छोड़ो। यह एक तरह से वैदिक - पौराणिक विचारधारा का विखंडन (deconstruction) है, जिसमें उस विचारधारा की आंतरिक असंगतियों की पोल खोलने के लिए उसके तार्किक छलों और धार्मिक रहस्यमयता के आवरणों को तार-तार किया गया है।


'वज्र-सूची' में अश्वघोष के आक्रमण का मुख्य लक्ष्य है ब्राह्मण-वर्ण; क्योंकि और सबका प्रभु समझता है। वह अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए तरह-तरह के वही वर्ण व्यवस्था का निर्माता और संचालक है। वह अपने को सभी वर्गों में श्रेष्ठ तर्क गढ़ता है। अश्वघोष ने ऐसे सभी तर्कों को एक के बाद एक सामने रख कर उनकी निस्सारता और निरर्थकता सिद्ध की है। वे बहस की प्रक्रिया इस प्रश्न से शुरू करते हैं, "आप कहते हैं कि ब्राह्मण सभी वर्णों में श्रेष्ठ हैं, तब मैं पूछता हू कि ब्राह्मण कौन होता है? क्या आत्मा ब्राह्मण है? क्या शरीर ब्राह्मण है? क्या मनुष्य जन्म से ब्राह्मण होता है या वह ज्ञान के कारण ब्राह्मण होता है? क्या वह आचरण के कारण ब्राह्मण है या आजीविका और व्यवसाय के कारण? क्या कोई वेद जानने के कारण ब्राह्मण होता है?" प्रश्नों की इस बौछार से बड़ा-से-बड़ा तर्कशास्त्री पंडित भी बेचैन और परेशान हो जाएगा। ये प्रश्न जितने सीधे हैं, उतने ही चुभने वाले हैं। इन सभी प्रश्नों की छानबीन करते हुए अश्वघोष ने एक ओर जीवन जगत की वास्तविकताओं से और दूसरी ओर श्रुति, स्मृति और महाभारत आदि से प्रमाण देकर यह सिद्ध किया है कि आत्मा, शरीर, जन्म, आजीविका और वेदों के ज्ञान के कारण कोई ब्राह्मण नहीं होता।


अश्वघोष की विचार-प्रक्रिया की एक विशेषता यह है कि वे ब्राह्मणवाद के तर्कों का खंडन करने के लिए जितना प्राचीन साहित्य की ओर देखते हैं, उससे अधिक अपने समय के समाज के अनुभवों और प्रकृति की वास्तविकताओं पर ध्यान देते हैं। उनकी इस पद्धति को समझने के लिए कुद उदाहरणों को देख लेना उपयोगी होगा। जाति प्रथा का मूल आधार है जन्म का भेद। वैसे जाति का मूल अर्थ भी जन्म ही है। लेकिन जन्म से जाति के संबंध की स्थिति सरल-सीधी नहीं है, उसमें अनेक पेंच हैं। अश्वघोष ने जन्म से जाति के संबंध की जटिलताओं का विवेचन करते हुए जाति-भेद के जन्म संबंधी आधार को ध्वस्त किया है। वे कहते हैं कि पुराने ऋषियों में से किसी का जन्म हाथी से, किसी का कुश से, किसी का घड़े से, किसी का पक्षी से और किसी का शूद्र स्त्री से हुआ माना जाता है। वे सभी ब्राह्मण स्वीकार किए गए। ऐसी स्थिति में जन्म को जाति का आधार मानना व्यर्थ है। इसके बाद वे उस समय के भारतीय समाज में फैली वर्णसंकरता की वास्तविकता का उल्लेख करते हुए जन्म से किसी को ब्राह्मण और किसी को शूद्र मानने का विरोध करते हैं। 


ब्राह्मणों ने वर्णभेद को स्थायी, अकाट्य और संदेह से परे रखने के लिए उसे कई तरह से ईश्वरीय व्यवस्था बनाया। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बांहों से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई है। इसके आधार पर ब्राह्मण स्वयं को श्रेष्ठ और शूद्र को सबसे नीच कहते हैं। अश्वघोष ने इस रहस्यमयी कल्पना से जुड़े वर्ण भेद का विस्तार से खंडन किया है। इस प्रसंग में उनका एक तर्क अत्यंत दिलचस्प है। अश्वघोष कहते हैं, “आप (ब्राह्मण) को मालूम होना चाहिए कि जैसे एक वृक्ष से पैदा होने वाले फलों में कोई ऊंच-नीच का भेद नहीं होता, वैसे ही एक ही पुरुष (ब्रह्मा) से उत्पन्न संतानों में कोई वर्ण-भेद क्यों? उदाहरण के लिए 'कटहल' को लीजिए। कटहल के पेड़ में जड़ से डाली तक फल लगते हैं। ऐसा नहीं होता कि डाली पर लगने वाले फल को ब्राह्मण फल और जड़ में लगने वाले फल को शूद्र फल कहा जाए। वे सभी एक ही वृक्ष के फल हैं, इसलिए एक समान माने जाते हैं, उसी प्रकार एक ही ब्रह्मा से पैदा होने के कारण मनुष्यों के बीच वर्ण-भेद गलत है ।"


वैसे तो पूरी 'व्रज-सूची' वर्ण-व्यवस्था के समर्थकों को रह-रह कर चुभती है। लेकिन कभी-कभी अश्वघोष के तर्क सचमुच कठोर, तेज और घातक वज्रमयी सूई की तरह चुभ कर तिलमिला देने वाले हैं। ब्रह्मा के मुंह से पैदा होने के कारण ब्राह्मण की श्रेष्ठ संबंधी मान्यता की एक असंगति की ओर संकेत करते हुए अश्वघोष कहते हैं कि “अगर ब्राह्मण की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुंह से हुई है तो प्रश्न होगा कि ब्राह्मणी की उत्पत्ति कहां से हुई है? निश्चय ही उसकी भी उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से ही हुई है। खेद है। तब तो वह आपकी बहन हुई। फिर उसके साथ स्त्री-प्रसंग ? यह तो लोक-विरोधी आचरण होगा।"


अश्वघोष धार्मिक आग्रह, श्रद्धा अथवा अंधविश्वास के सहारे पाठकों के मन में अपनी बात नहीं बैठाना चाहते। वे अपने पाठकों से तर्क, विवेक और सच को स्वीकार करने के साहस की मांग करते हैं। उन्होंने 'वज्र-सूची' के अंत में लिखा है कि मैंने जो कुछ कहा है, वह अगर तर्कसंगत हो तो उसे समझदार लोग स्वीकार करें, अन्यथा अगर युक्तिसंगत न लगे तो त्याग दें।


वज्र-सूची वर्ण-भेद और जाति-भेद के विरुद्ध वैचारिक संघर्ष का घोषणा-पत्र है। अश्वघोष के अनुसार दुःख-सुख, जीवन-प्रज्ञा, व्यवसाय व्यापार, जन्म-मरण, भय-काम आदि में सब श्रेणी के लोग बराबर हैं। इसलिए समाज में किसी भी आधार पर जाति-भेद का होना गलत है। वे भारतीय समाज के जाति-भेद का ही विरोध नहीं करते, संसार भर में, मानव मात्र की समानता का आग्रह करते हैं। अश्वघोष स्पष्ट घोषणा करते हैं कि 


"शीलं प्रधान न कुलं प्रधानं कुलेन कि शीलविवर्जितेन।' 


अर्थात इस संसार में मनुष्य का महत्त्व जन्म या वंश से नहीं, उसके कर्म और आचरण से जुड़ा हुआ है।


'व्रज-सूची' जाति-प्रथा के अमानवीय भेदभाव के विरुद्ध दो-टूक शैली और बेलौस भाषा में गंभीर बहस करने वाली रचना है। इसकी तर्क शैली सरल, लेकिन सीधे मार करने वाली है। इसमें न कहीं धार्मिक रहस्यवाद है और न कहीं अमूर्त दार्शनिक ऊहापोह। पूरी पुस्तक सवाल-जवाब की ऐसी शैली में लिखी गई है कि लेखक की बात कम पढ़े-लिखे लोगों के मन में भी सहज रूप में बैठ जाएगी। यहां विवाद की कला में अश्वघोष की कुशलता जितनी आकर्षक है, उतनी ही मारक भी। विवाद की इस कला और दृष्टि का विकास दर्शन में नागार्जुन तथा धर्मकीर्ति की कृतियों में मिलता है और सरहपा तथा कबीर की कविता में भी।

 

भारत में सामंतवाद के इतिहास और आज के भारतीय समाज में सामंती अवशेषों के प्रभाव पर अंग्रेजी और हिन्दी में बहुत कुछ लिखा गया है। लिखने वाले भारतीय विद्वान हैं और विदेशी भी इतिहासकार हैं और समाजशास्त्री भी, साहित्यकारों ने भी इस पर काफी कुछ लिखा है। भारतीय सामंतवाद का एक मुख्य लक्षण है वर्ण-व्यवस्था और जाति-प्रथा। इस वर्ण-व्यवस्था का अस्तित्व बहुत पुराना है तो इसके विरोध की परंपरा भी कम पुरानी नहीं है। वर्ण व्यवस्था के विरोध की परंपरा की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है 'वज्र-सूची_। यह देख कर आश्चर्य होता है कि जाति-प्रथा और उसके विरोध पर लेख और पुस्तकें लिखने वाले समाजशास्त्री, इतिहासकार और साहित्यकार भी अश्वघोष की 'वज्र-सूची' से अपरिचित हैं, जबकि इसका चीनी, जर्मन, अंग्रेजी, बंगला, मराठी, तमिल और हिन्दी में भी अनुवाद मौजूद है। असल में इस देश के अधिकांश समाज वैज्ञानिकों की यह आदत बन गई है कि वे भारतीय समाज की समस्याओं पर लिखते समय भी यूरोप की भाषाओं में, विशेषतः अंग्रेजी में लिखी किताबों को ही मार्गदर्शक मानते हैं। वे भारतीय भाषाओं में लिखी हुई नई-पुरानी पुस्तकों को पढ़ना जरूरी नहीं समझते। यही कारण है कि जाति प्रथा पर लिखने वाले अधिकांश समाजशास्त्री 'वज्र-सूची' का नाम भी नहीं जानते।


जाति प्रथा शोषण, दमन और उत्पीड़न की ऐसी अमानुषिक व्यवस्था है, जिसे देख कर समाज के बारे में सजग, संवेदनशील और सहृदय रचनाकारों-विचारकों के मन में बेचैनी और विद्रोह की भावना पैदा होती रही है। ऐसी ही बेचैनी और विद्रोह की पहली सशक्त अभिव्यक्ति 'वज्र-सूची' में हुई है। इसकी अगली कड़ी सिद्धों और नाथों की कविता में मिलती है। लगता है कि सहजयानी सिद्ध सरहपा अश्वघोष की 'वज्र-सूची' से जरूर परिचित रहे होंगे, क्योंकि उन्होंने ब्राह्मणों की जो आलोचना की है, उसकी तर्क शैली 'वज्र-सूची' जैसी ही है। सरहपा कहते हैं, "ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख हुए थे- जब हुए थे, तब हुए थे। इस समय तो वे भी दूसरे लोग जिस तरह से पैदा होते हैं, वैसे ही पैदा होते हैं। तो फिर ब्राह्मणत्व कहां रहा? यदि कहो कि संस्कार से ब्राह्मण होता है तो चांडाल को भी संस्कार दो, वह भी ब्राह्मण हो जाए। वेद पढ़ने से कोई ब्राह्मण होता है तो क्यों नहीं चांडाल को भी वेद पढ़ कर ब्राह्मण हो जाने देते? सच पूछो तो शूद्र भी तो व्याकरण आदि पढ़ते हैं और इन व्याकरणादि में वेद के शब्द हैं, फिर शूद्रों का भी तो वेद पढ़ना ही हो गया और यदि आग में घी देने से मुक्ति हो तो सबको क्यों नहीं देने देते ताकि सब मुक्त हो जाते? होम करने से मुक्ति होती है या नहीं, धुआं लगने से आंखों को कष्ट जरूर होता है।" जाति प्रथा के विरुद्ध विद्रोह की इस परंपरा का अधिक व्यापक रूप कबीर की कविता में है। कबीर के विद्रोह के दायरे में हिंदू समाज की जाति प्रथा के साथ-साथ मुसलमान समाज का रूढ़िवाद भी है और हिंदुओं-मुसलमानों के बीच का भेदभाव भी। इन सबके विरुद्ध एक साथ विद्रोह के लिए असाधारण विवेक और साहस की जरूरत थी, जो कबीर में है। अश्वघोष से सरहपा और कबीर की एकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि तीनों ही वर्ण-व्यवस्था के सिरमौर बने ब्राह्मणों पर ही सबसे अधिक चोट करते हैं।

 


 


 'वज्र-सूची' काफी लंबे समय तक इतिहास के अंधेरे में रहने के बाद 19वीं शताब्दी में एक बार फिर प्रकाश में आई। जब भारत में नवजागरण की चेतना के विकास के साथ जाति प्रथा के विरुद्ध संघर्ष की आवाज उठने लगी, तब 'वज्र-सूची' के महत्त्व की पहचान फिर शुरू हुई। यह स्वाभाविक ही था कि 19वीं सदी में जाति प्रथा से लड़ने वाले अपनी परंपरा की खोज करते हुए उस रचना को पहचानें जो वर्ण-व्यवस्था और जाति-भेद पर पहला वज्राघात है। सन् 1829 में राजा राममोहन राय ने बंगला में 'वज्र-सूची' के अनुवाद और प्रकाशन को शुरू किया, लेकिन वह अधूरा ही रहा। बाद में 'वज्र-सूची' के अनुवाद और उस पर विचार-विमर्श का एक अटूट सिलसिला चल पड़ा। सन् 1829 से 1839 के बीच अंग्रेजी में कई अनुवाद हुए सन् 1860 में वेबर का अनुवाद जर्मन में छपा ।


भारतीय भाषाओं में 'वज्र-सूची' के अनुवाद और भाष्य की कहानी अत्यंत दिलचस्प है। वह भारतीय नवजागरण के बारे में बहुत कुछ कहती है और विभिन्न भाषा-भाषी क्षेत्रों के नवजागरण की चेतना के रूप तथा स्वर का राज-रहस्य भी खोलती है। 'वज्र-सूची' के अनुवाद और विवेचन का काम सबसे अधिक मराठी में हुआ है। डॉ. रूपा कुलकर्णी ने मराठी में 'वज्र-सूची' का अनुवाद और विवेचन किया है। उसमें 'वज्र-सूची उपनिषद्' और 'वज्र-सूची' पर हुए अब तक के विचार-विमर्श का विस्तृत ब्यौरा दिया गया है। रूपा कुलकर्णी के अनुसार 17वीं सदी में तुकराम की शिष्या संत बैहणा बाई (सन् 1628-1700) ने अभंग में 'वज्र-सूची उपनिषद्' का भाष्य किया था, उसके बाद अनेक संतों और विचारकों ने 'वज्र-सूची उपनिषद्' का भाष्य और अनुवाद किया। उन्नीसवीं सदी के मध्य से मराठी में अश्वघोष की वज्र-सूची के अनुवाद और विवेचन का क्रम शुरू हुआ जो आज तक चल रहा है। मराठी में 'वज्र-सूची' पर विचार की व्यापकता और उसके प्रभाव की गहराई का अंदाज इस बात से लगता है कि एक ओर उसके अनुवाद, प्रकाशन और प्रसार की चिंता महात्मा ज्योतिबा फुले करते हैं तो दूसरी ओर सावरकर भी उसकी व्याख्या करना जरूरी समझते हैं। महाराष्ट्र में 'वज्र-सूची' की चिंता वहां जाति प्रथा के विरुद्ध संघर्ष और आंदोलन की चेतना से जुड़ी हुई है, इसलिए महाराष्ट्र में जब भी जाति-प्रथा के खिलाफ आंदोलन तेज हुआ है, तब 'वज्र-सूची' के अनुवाद और विवेचन के काम में भी तेजी आई है। इधर हाल के कुछ वर्षों से साहित्य तथा संस्कृति के क्षेत्र में दलित आंदोलन के उभार के साथ एक बार फिर मराठी में 'वज्र-सूची' के महत्त्व पर बहस तेज हुई है ।


अगर आप 'वज्र-सूची' की चिंता और चर्चा के प्रसंग में मराठी की परंपरा से हिन्दी की तुलना कीजिए तो मालूम होगा कि हिन्दी में 'वज्र-सूची' का केवल एक अनुवाद छपा है। वह भी सन् 1985 में। यह देख कर आश्चर्य होता है कि हिन्दी की परंपरा में सरहपा और कबीर के होने के बावजूद हिन्दी नवजागरण के साहित्य में 'वज्र-सूची' की चर्चा का एकदम अभाव है। उसका अनुवाद और विश्लेषण की बात है, कहीं उल्लेख भी शायद ही मिले। आखिर ऐसा क्यों है? इस सवाल दूर का उत्तर खोजने के लिए हिन्दी नवजागरण के वास्तविक स्वरूप की पहचान और कल्पित रूप की छानबीन जरूरी है, जो यहां संभव नहीं है। फिर भी कुछ बातों की ओर संकेत आवश्यक है।


हिन्दी में 'वज्र-सूची' की उपेक्षा केवल एक किताब की उपेक्षा नहीं है। वह भारतीय समाज में सामंतवाद के सबसे मजबूत और घिनौने अवशेष जाति प्रथा की उपेक्षा है, जाति-प्रथा की क्रूरता और वीभत्सता की उपेक्षा है और जाति प्रथा के उन्मूलन के लिए कटिबद्ध एक क्रांतिकारी दृष्टि की उपेक्षा है। इस उपेक्षा के कारण हिन्दी नवजागरण की चेतना लंगड़ी हुई है, उसका सामंतवाद विरोधी स्वर दुर्बल हुआ है।


हिन्दी नवजागरण में जाति प्रथा के विरोध की चेतना अत्यंत कमजोर रही है, क्योंकि यहां जाति-प्रथा के विरुद्ध न कोई प्रभावशाली जन आंदोलन चला है और न उसके विरोध में वैचारिक संघर्ष की शक्तिशाली परंपरा ही बनी है। हिन्दी नवजागरण के निर्माण की प्रक्रिया में जाति प्रथा से जुड़ी चिंता और चेतना पर ध्यान दीजिए तो मालूम होगा कि स्थिति अत्यंत दयनीय है। जिन लेखकों और पत्रिकाओं को हिन्दी नवजागरण के निर्माण का श्रेय दिया जाता है, उनकी जाति-व्यवस्था संबंधी दृष्टि और भूमिका प्रायः निराशाजनक ही है। उन्नीसवीं सदी की ही नहीं, 20वीं सदी के आरंभिक दो दशकों की हिन्दी की महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में जाति-व्यवस्था के विरुद्ध वैचारिक संघर्ष की कोई विशेष चिंता नहीं मिलती। हिन्दी नवजागरण के निर्माण में 'सरस्वती' और 'मर्यादा' की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इन दोनों पत्रिकाओं में और जो कुछ हो, लेकिन जाति प्रथा का गंभीर विश्लेषण और इसके अंत का आह्वान करने वाला कोई लेख नहीं है।


असल में हिन्दी नवजागरण का बुद्धिवाद जाति प्रथा का सामना होने पर सहमा सा दिखाई देता है। कभी-कभी तो वह जातिवाद का साथी बन गया है। यह तथ्य है कि 19वीं सदी और 20वीं सदी के आरंभिक दो दशकों तक हिन्दी में ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों के हितों की चिंता करने वाली अनेक पत्रिकाएं निकलती थीं, उन पत्रिकाओं के कई संपादक हिन्दी नवजागरण के निर्माता माने जाते हैं । लेकिन यह सचाई है कि उस समय शूद्रों की अपनी कोई पत्रिका न थी। हिन्दी के नवजारणकालीन लेखन में जाति की भावना को मिटाने की कोशिश के बदले कई बार जाने-अनजाने उसे जगाने के प्रमाण मिलते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' हिन्दी नवजागरण की चेतना की एक उपलब्धि है, लेकिन उसमें कवियों और लेखकों का परिचय देते समय प्रत्येक की जाति जरूर बताई गई है। यह प्रवृत्ति आचार्य शुक्ल के पहले मिश्र बंधुओं के इतिहास में है और आचार्य शुक्ल के बाद लिखे गए हिन्दी साहित्य के इतिहासों में भी मौजूद है। जाति प्रथा के प्रसंग में जिस नवजागरण की चेतना का यह हाल हो, वह 'वज्र-सूची' की चुभन कैसी बर्दाश्त कर सकती है? हिन्दी में 'वज्र-सूची' की उपेक्षा के पीछे एक और कारण है बौद्ध दर्शन की सामाजिक दृष्टि के प्रति विरोध का भाव। यह विरोध का भाव हिन्दी नवजागरण की अधिकांश निर्माताओं और व्याख्याकारों के लेखन में मौजूद है। इस विरोध का मूल स्रोत वैदिक पौराणिक परंपरा और उसकी विचारधारा में गहरी आस्था है। यही कारण है कि हिन्दी में 'व्रज-सूची' की चर्चा उन्हीं दो लेखकों ने की हैं, जिनके मन में बौद्ध दर्शन की सामाजिक दृष्टि के प्रति विरोध का भाव नहीं है, बल्कि गहरी सहानुभूति है। ये लेखक हैं, राहुल सांकृत्यायन और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी। राहल जी ने 'प्रभा' नाम की कहानी में अश्वघोष के व्यक्तित्व, विचार और रचनाशीलता के निर्माण की प्रक्रिया की पुर्नरचना करते हुए, 'ब्रज-सूची' के लेखन के ऐतिहासिक संदर्भ और प्रेरणा-स्रोत की ओर संकेत किया है। यही नहीं, राहुल जी ने 'तुम्हारी क्षय', 'दिमागी गुलामी' और 'भागों नहीं दुनिया को बदलो' आदि रचनाओं में जाति-प्रथा पर आक्रमण करते हुए उसे भारतीय समाज से उखाड़ फेंकने का आह्वान भी किया है।


आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'वज्र-सूची' का उल्लेख 'हिन्दी साहित्य की भूमिका' में किया है। उन्होंने कबीर दास के जाति-पांति विरोधी विचारों की पूर्ववर्ती परंपरा की खोज करते हुए 'वज्र-सूची: को याद किया है। जाति प्रथा का उग्र विरोध करने वाले कवियों की परंपरा में कबीर और अश्वघोष के बीच सरहपा भी हैं। द्विवेदी जी ने इस पूरी परंपरा की ओर संकेत करते हुए लिखा है कि "जाति-भेद से जर्जरीभूत इस देश में जो कोई महासाधक आया है, उसे यह प्रथा खटकी है। ऐसे बहुत से प्राचीन ग्रंथ हैं, जिनमें जाति-भेद को उड़ा देने पर जोर दिया गया है। पर संस्कृत की पुस्तकें साधारणतः ऊँची जातियों के लागों द्वारा लिखी गई होती है, जिसमें लेखक केवल तटस्थ विचारक की भांति होता है, स्वयं नीचे कहे जाने वाले वंश में उत्पन्न नहीं होने के कारण उसमें भुक्तभोगी की उग्रता और तीव्रता नहीं होती। सहजयान और नाथपंथ के अधिकांश साधक तथाकथित नीच जातियों में उत्पन्न हुए थे, अतः उन्होंने इस अकारण नीच बनाने वाली प्रथा को दार्शनिक की तटस्थता के साथ नहीं देखा। कबीर दास के विषय में यही बात ठीक है। फिर भी उच्च वर्ण के लोगों ने सदा तटस्थता का ही अवलम्बन नहीं किया है। कभी-कभी उन्होंने भी उग्रतम आक्रमण किया है। अश्वघोष (कालिदास के भी पूर्ववर्ती) कवि की लिखी हुई 'वज्र-सूची' एक ऐसी ही पुस्तक है ।"


 

यहां ध्यान देने लायक बात यह है कि द्विवेदी जी हिन्दी साहित्य की कबीरवादी परंपरा का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बौद्ध-दर्शन और साहित्य की सामाजिक दृष्टि में देखते हैं। द्विवेदी जी हिन्दी के ऐसे अकेले आलोचक हैं, जिन्होंने हिन्दी साहित्य की इस सचमुच मूलगामी परंपरा के निर्माण में बौद्ध-दर्शन और साहित्य के योगदान को स्वीकार करते हुए उसका गंभीर विवेचन किया है। द्विवेदी जी उन लोगों से एकदम अलग हैं, जो ऋग्वेद और तुलसी दास को ही हिन्दी जाति की उपलब्धि मानते हैं, लेकिन इन दोनों के बीच के अश्वघोष और कबीर को जानबूझ कर भूल जाते हैं। 'हिन्दी साहित्य की भूमिका' के परिशिष्ट में पालि और संस्कृत के लिखे बौद्ध साहित्य का जो विश्लेषण है, वह वास्तव में हिन्दी साहित्य की दूसरी परंपरा के मूल स्रोत की खोज है। डॉ. नामवर सिंह जिसे दूसरी परंपरा कहते हैं, वह अगर पहली परंपरा से केवल भिन्न ही नहीं है, बल्कि उसके विरोध में विकल्प बन कर खड़ी परंपरा है तो फिर उसका निश्चय ही एक महत्त्वपूर्ण आधार बौद्ध दर्शन और साहित्य है ।


आज से लगभग दो हजार वर्ष पहले 'वज्र-सूची' की रचना हुई थी, लेकिन वह आज भी जाति प्रथा के विरुद्ध संघर्ष के लिए अत्यंत जरूरी और प्रेरणादायक रचना है। आज भी भारतीय समाज में जातिवाद की जकड़न बनी हुई है। हिन्दी क्षेत्र में इसका जोर और आतंक सबसे अधिक है। सामूहिक रूप से हरिजनों की हत्या करने और उन्हें जिंदा जलाने की सबसे अधिक घटनाएं आज भी हिन्दी क्षेत्र में ही हो रही हैं। ऐसी स्थिति में जातिवाद के विरुद्ध जन आंदोलन और वैचारिक संघर्ष की जरूरत आज भी बनी हुई है। जाति प्रथा मूलतः अधिनायकवादी और दमनकारी प्रवृत्तियों से जुड़ी हुई है। इस देश में लोकतंत्र की रक्षा और विकास के लिए जातिवाद का विरोध आवश्यक है। आजकल जातिवाद जितना समाज में है, उससे अधिक लोगों के मन में है । इस स्थिति से संघर्ष जितना जरूरी है, उतना ही कठिन भी है। इस कठिन संघर्ष में 'वज्र-सूची' का महत्त्व असंदिग्ध है। लेकिन हिन्दी में उसके महत्त्व की पहचान अभी शुरू ही हुई है, वह भी किसी प्रगतिशील, जनवादी या मार्क्सवादी लेखक द्वारा नहीं, बल्कि संस्कृत के एक विद्वान रामायण प्रसाद द्विवेदी के प्रयत्न से, जिन्होंने 'वज्र-सूची' का हिन्दी में पहला अनुवाद किया है और उसकी सहानुभूतिपूर्ण समीक्षा भी लिखी है।


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