शांडिल्य सौरभ की कविताएं
शांडिल्य सौरभ |
शांडिल्य सौरभ की कविताएं
नये दृश्य
मैं उस दृश्य पर तब तक टिकना चाहता हूँ जब तक
मैं ओझल न हो जाऊँ
दृश्य का ओझल होना मृत्यु है जिसमें बहुत से लोग शामिल हैं
मेरा ओझल होना एक नये जीवन के साथ वापस आने का बहाना है जिसमें बहुत से लोग शामिल हैं
एक ही दृश्य के कारण बहुत से लोग ग़ायब न हों
मास सुसाइड है यह तो
हम सब एक एक दृश्य उठायें वापस आने के लिये
जब फसलें लहलहा उठेंगी और धान के खेत के चूहे तृप्त हो जायेंगे;
चिरनिद्रा में जायेंगे और तब दिवास्वप्न से दूर नये दृश्य उभरेंगे।
हिरोशिमा दिवस पर
साम्राज्यवाद अपना सच्चा चेहरा
अपने अपनों को भी नहीं बताता
ट्रू मैन सच्चाई कहाँ जानता था पूरा पूरा
युद्धों में बक़ौल सेनापति –
"हम हर मोर्चे पर बढ़त लिये हैं"
सैनिक की समझ में इस बढ़त में उसका भी योगदान है
एक दिन उसकी भी गाथा लिखी जायेगी
परिजन जश्न के गीत गायेंगे
नागरिक अभिनंदन होगा
नहीं पूछे जायेंगे प्रश्न
सवाल नहीं उठाने वाला नागरिक
उंगली है ख़बरों के पन्ने पलटने के निमित्त
कागज़ी मुद्रा गिनने के निमित्त
और इस तरह सेनापति का कथन घूमता रहा परिवार समाज राज्य में
जीतते रहे, हर मोर्चे पर जीतते रहे, हर टुकड़ी जीतती रही, देश जीतता रहा, जठजोड़ जीतते रहे
और पूरा शहर ख़ाक में मिल गया एक धमाके के बाद
रीढ़विहीन नागरिकों के हाथों
अभिनंदन ग्रंथ लिखे जाते रहेंगे साम्राज्यवाद के।
मैं छूटता गया लगातार
जो आगे बढ़ते गये
उनकी नज़रों में मैं
छूटता गया
लगातार. . .
हाँ मैंने गीत गाये
कविताएँ लिखीं
सीखा कुछ नये शब्द
अनगढ़ भाषा के।
भोर में जुगनू देखा
और रंग-विरंगी तितलियाँ
दोपहर में . . .
शाम को चिड़ियों को लौटते देखा
घोंसले में . . .
रात को सपना देखा।
हर सम्भव प्रयास किया
बची रहे
देखने की ललक।
अजी!
आँखें तो उदाहरण मात्र हैं . . .
हाँ
स्वीकारता हूँ
मैं छूटता गया
लगातार।
परन
एक
प्रकृतिहंता परिजनों का नाश करते हैं
समय के वलय को तोड़ते हैं
टूटे वलयों को जोड़ना प्रकृति से जुड़ना है
पथ परिजनों के साथ मुड़ता है
हर मोड़ पर मेरे परिजन है
दो
तमंचे बम क्रमशः आज़ाद और शाहिद ए आज़म
समय के छोर को जोड़ने की कोशिश में हैं
वह मेरे हैं मैं उनका
तीन
गोड्से वह गोली है जिसने
झिलझिल वलय को तोड़
एक गोली से बहुत से छोर बनाये
हर छोर नाथूराम है
चार
वृत्त के बाहर से चली गोली
पृथ्वी पर जहाँ टिकती है वहाँ मैं हूँ
पांच
सतह (उबड़-खाबड़ ही सही) पर हर मोड़ पर हम साथ हैं
छः
सारे रास्ते जीवन की ओर जाते हैं जहाँ इंतज़ार है
छांह है, एक गिलास पानी है, बातें हैं।
प्रतिरोध में
पूरे चाँद ने कहा
उसी छत पर निकलेंगे जिसके नीचे
लोग रहते हों।
बाज़ार का क्या भरोसा?
आज रहे,
कल उठ गया!!
हम डाकिये
उमर के चौथेपन में भी उन्होंने इतने झूठ बोले कि हताश यमराज ने पोस्टकार्ड पर सफ़ेद पेंसिल से बज़ाय भैंसे के
सांढ़ की तस्वीर उकेर कर उनके पते पर पोस्ट किया
डाकिया अवसन्न हो गया क्योंकि उस पर पता परलोक का था और पोस्टकार्ड आयी इहलोक को थी
डाकिया इहलोकिय पते पर पहुँचा
डाकिये का मासूम लेकिन डर मिश्रित किंचित विस्मयपूर्ण चेहरा वह देर तक देखते रहे
आँखों से टटोलते हुये जैसे पढ़े लिखे अधिकांश बुज़ुर्ग स्क्रीन पर स्टॉक मार्केट से चिपके पादते रहते हैं
अथवा
कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा के रोडमैप का इस मुद्दे पर उपहास उड़ाते कि
'यार! यह गुजरात और हिमाचल क्यों छोड़ा राहुल ने? और 9 तो केवल दक्षिण के हैं! और ये कम्युनिस्ट!? और बिहार में फिर लालू आ गया। जंगलराज फिर आ गया। और ये कांग्रेस चिपकी पड़ी है। ईडी वालों ने फिर कब बुलाया है?
कांग्रेस .. लालू ... बंगाल....केरल .....
अट्टहास
हिंदुत्व मुंजे सावरकर हेडगेवार आरएसएस बीजेपी भाजपा भाजप
क्रूर अट्टहास
मोनोलॉग का समापन इस वाक्य से हुआ कि जब तक हम कांग्रेस में थे, कांग्रेस कांग्रेस थी। अब हम बीजेपी हैं। उसके बाद अट्टहास।
नारद मर गया क्या?
- मुझे कैसे पता हो सकता है?
अच्छा!
डाकिया जल्दी में निकला
उन्होंने मेरी पीठ टटोलते कहा
हम डाकिये को बख़्शीश देते हैं पर तुम्हीं सोचो
मैं तुम्हारे लिये पोस्टकार्ड भेज दूँ तो!
हम सब के हिस्से गले में फंसी गालियाँ हैं
कई कई पोस्टकार्ड हैं।
स्वभावानुरूप
पहले ऐसा नहीं था यार
बात को समझो!
पहले आम के आकार के पत्थर गिरते थे ऊपर से
ईश्वर गिराते थे
नीचे उनके पुतले आम के नुकीले हिस्से को घिस कर
शालिग्राम बना देते थे।
अब ईश्वर को कहाँ पसंद कि
ईश्वर का ही पुतला
पत्थर को घिस घिस कर ईश्वर बना दे!
पहले आम आम नहीं होता था
आमानुरूप पत्थर होते थे
आम तो ईश्वर ने खुद को बचाये रखने के लिये बनाया।
पिटबुल पालकों के लिये
जिस पिटबुल कुत्ते ने
एक सज्जन बेटे की माँ को एक घंटे तक नोचा
ऐसा नोचा कि पेट के अंदर का कुछ हिस्सा बाहर आ गया
और माँ मर गयी
पिटबुल को म्युनिसिपल्टी वाले ले गये थे
मरी माँ के सज्जन बेटे ने
हत्यारे कुत्ते को बाहर लाने की गुहार लगायी
आज कुछ देर पहले
पिटबुल पूरा बाहर आ गया
माँ की आत्मा तर गयी
हरेली
पशुधन की पीठ पर आलता में डुबो कर गिलास से निशान लगते हुए
प्रार्थना करता हूँ उनके स्वास्थ्य का
उनकी सींगों पर घी मलता हूँ
प्रार्थना करता हूँ इनके निरोग रहने का
परिवार के सदस्यों में शामिल इन्हें
बगरांडा - नमक खिला रहा हूँ
तुम ज़रा सा सहयोग कर रही हो
सारा काम निर्बाध पूरा हो जा रहा है
कुलदेवता एवं ग्रामदेवता की प्रार्थना के लिए थाल तैयार देना
मैं तब तक
सारे खंडे धो - पोंछ दूँगा
आदि वैज्ञानिकों का स्मरण करूँगा
गया में रहते हुए
सरहपा से दीक्षित होने में तुम्हारी भूमिका प्रणम्य है।
दुःख
दो ख़राब स्थितियों के बीच
कम ख़राब का चयन करते हुये जीना है!
दोनों के अपने तर्क हैं
अपनी बहस है
अपने लोग हैं, अपने भक्त, अपनी भीड़
दोनों बड़े चालू पुर्जा तंत्र हैं
दोनों छोटे मोटे देवता
इस बरस भक्तों में सेंध लगी है
और सोंधेपन का मुग़ालता दोनों ओर है
इस सोंधेपन का सिद्ध भोक्ता
भरम में नहीं रहता
उसका जी कभी कड़वा हुआ था
जिनने संदेह से एक बार भी देखा हो
दोनों देवताओं को
भीड़-भाड़, अंत्र-तंत्र के परे रहा है
आरती मंगल पूजा अर्चना
फूल अच्छत मिश्री मक्खन
मेरा देवता श्रेष्ठ की होड़ बढ़ती है अपार
दोनों का ब्राह्मणवादी मन दृढ़ है अपार
दोनों की सेना की महिमा अपरंपार
देख देख कर्मकांड
पीटता है हर वह सिद्ध भोक्ता अपना कपार
*********
मैं दोनों को खारिज़ करने का साहस जुटाता हूँ
दुःख है
दुःख है
दुःख है
यह वक्त बहुत कमीना है!
डर
डमी शेर की पीठ पर बैठा एक बड़ा सा टिड्डा ख़तरनाक लगता है
टिड्डे तब और ख़तरनाक होते हैं जब फसलों की बालियों पर बैठ जाते हैं
वह अक्सर तो दाने लगने के पहले ही पूरी फ़सल चट कर जाते हैं
ऐसे ही टिड्डों के उत्पात से सिहर जा रहा है मन
यदि तुमने देश को शेर का पुतला मान लिया है तब तो मुझे टिड्डों से पहले तुमसे डरना चाहिये
तुम्हरा इस देश को शेर तो क्या किसी मनुष्य का पुतला मान लेने से
पुतले पर बैठा कोई भी टिड्डा टिड्डा ही क्यों रहे!
फिर वह स्वयं को शेर क्यों न कहे?
अब कल्पना से एक चित्र बनाओ अपने मन में जिसमें एक डमी शेर के ऊपर
सच का एक बहुरूपिया जीव बैठा हो!
इस विचित्र से सपने से उपहास का नहीं, डर का भाव पैदा होना चाहिये।
चोर्बागेव के लिये
दही उतना ही था जितने में मुश्किल से काम चल जाए
नमक था काम भर
कुछ खीरे, कुछ कद्दू, एक बड़ा टुकड़ा भूरे का
मिर्च भी दस
हल्दी, मसाले, बर्तन - बासन सब थे ही।
न जाने क्या हुआ,
उन्हें रायता बनाने की सूझी।
रायता ही!
ख़ैर . . .
रायता बनाया गया।
लोगों ने चटखारे लिए
जिसे तीखा कम लगा उसने मिर्च लिया ऊपर से
किसी ने मिर्च लगा दिया किसी को।
रायता बनता ही गया।
हद्द तो तब हो गई जब
एक नए कहा -
इसमें लवणभास्कर चूर्ण डालो
उसने तो बाक़ायदा लाभ गिनाए लवणभास्कर के
कोई पूछ रहा था -
जब मसाले थे ; क्या तरकारी नहीं बनाई जा सकती थी?
जैसे ही कोई तीसरा - चौथा
यह सवाल दुहराएगा
रायता फनक जाएगा।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्वर्गीय कवि विजेंद्र जी की हैं।)
सम्पर्क
शांडिल्य सौरभ
धनकौल निवास
सिद्धार्थ पूरी कॉलोनी
रोड नम्बर - २
मानपुर गया, बिहार
पिन - 823003
संतोष चतुर्वेदी जी द्वारा ब्लॉग पर लगाई गई शांडिल्य सौरभ जी की कविताएं पढ़ीं। उनमें से कुछ कविताएं सौरभ जी की वॉल पर पूर्व में भी पड़ी हुई हैं, साथ ही समसामयिक परिदृश्य और घटनाओं पर आपकी टिप्पणियों में तीव्रता व सजगता को अक्सर पढ़ने का अवसर मिलता रहा है । अपने समय को देखने की गजब समझ है आप में । जैसे समय से आगे चलकर घटनाओं के संभावित प्रभाव को पढ़ लेना हो। भाषा के प्रयोग में नयापन ,व्यंजना और तर्क का अनूठा संगम है।
जवाब देंहटाएंकविता 'दृश्य' का ओझल होना और दृश्य से ओझल होना दोनों में अंतर को स्पष्ट करना विचारणीय है।
'हिरोशिमा दिवस पर' साम्राज्यवाद का घिनौना चेहरा याद दिलाने की कवायद है , कि मृत्यु का तांडव अंतिम हत्यार है। भय और सत्ता का चोली दामन का साथ ऐसे में जो इस क्रूर समय में साम्राज्यवाद का साथ देता है ,सवाल नहीं उठाता उसकी उंगलियां उठती भी हैं तो खबरों के पन्ने पलटने या फिर कागजी मुद्राएं गिनने में सटीक और यथार्थवादी दृष्टिकोण है।
'परन' के सभी खंड सामाजिक विद्रूपता में अपनेपन को खोजने की जद्दोजहद है ।न्याय-अन्याय के बीच झूलता सत्य थका जरूर है असहाय नहीं। चांद का खूबसूरत 'प्रतिरोध' दर्ज कराता कवि 'डाकिया' के माध्यम से सामाजिक स्थितियों पर व्यंजनापूर्ण खाका खींचता है तो 'स्वभावानुरूप' लोग की ओर दौड़ता मन कहीं ना कहीं मानता है ईश्वर नहीं यह प्रकृति है जो प्रपंच रचने का मौका देती है अवसरवादियों को ईश्वरीय सत्ता में लिप्त रहने के लिए आमजन को बाध्य करने का।
घटनाएं अपने आप में हीं समाज का विद्रूप सच छुपाए होती हैं 'पिटबुल' के माध्यम से खूंखार जानवर का जेल से छुड़ाने मालिक का यह भूल जाना कि यह जानवर उसकी मां का हंता है लेकिन उसे यह याद रहता है कि जानवर अबोध है। समाज अबोध द्वारा की गई हत्या को भी क्षमा कर देता है।
'हरेली' अपने लोग और ग्रामीण जीवन की ओर लौटते हुए उन सब के प्रति कृतज्ञता से भर उठना है जिन्होंने किसी न किसी रूप में दक्षता प्रदान की।
'दुख' निर्वाचन की स्थितियों को स्पष्ट करती कविता अपने- अपने पक्ष को बल देती जनता और दोनों और श्रेष्ठता के प्रपंच में फंसता भोक्ता । कवि खारिज तो करना चाहता है प्रपंच को पर कोई विकल्प नहीं दिखता क्यों कि समय की आड़ में सब दब जाता है।
'डर' एक सपने को देख उसके साकार रूप की कल्पनाओं को सांकेतिक रूप से बयान करती समसामयिक परिदृश्य को सामने रखती हुई कविता।
'चोर्बागोव के लिए' रायता का जिक्र,अपने पूरे व्यंग्य के साथ रायता फैला देने से हैं। अक्सर ऐसा देखा गया है जब स्थितियां नियंत्रण से बाहर हो जाती हैं तो सब गडमड हो जाता है बतौर कवि ... "रायता पनक जाएगा।"
जैसा कि शांडिल्य सौरभ जी के लिए हुए संदर्भ जाने पहचाने हैं लेकिन आपकी भाषा में इन संदर्भों को पढ़ना, उनके मौलिक अनुभवों को देखने जैसा है।
ब्लॉग के माध्यम से इन कविताओं को पढ़ाने के लिए संतोष चतुर्वेदी जी का आभार शांडिल्य सौरभ जी को बहुत-बहुत बधाई।
रूपेंद्र राज तिवारी।।
सौरभ जी की रचनाएं मजबूत शिल्प के साथ उतरती हैं,एक विचार एक चिंतन को प्रस्तुत करते हुए वे अपने बयानों में बेहद सपष्ट हैं। न केवल कवि अपितु वे एक सजग नागरिक के रूप में भी सामने आते हैं और आश्वस्त करते हैं कि वे अपनी बात कहने में संकोच नहीं करेंगे
जवाब देंहटाएंदेश-दुनिया पर यह काव्य -दृष्टि सूक्ष्मदर्शी है।
जवाब देंहटाएंस्वागत!
सलाम दिल से!