बलभद्र का आलेख 'भोजपुर के किसान-संघर्षों के शिल्प और ताप की कहानियां'

 

विजेंद्र अनिल


 


आमतौर पर विजेंद्र अनिल की ख्याति भोजपुरी के एक लोकप्रिय कवि की है। उनकी कई एक काव्य पंक्तियां लोक की जुबान पर रच बस गई हैं उनकी कविताएं भोजपुर क्षेत्र के लोक गीतों में ढल गई हैं। कम लोगों को यह मालूम होगा कि विजेंद्र अनिल एक सशक्त कथाकार भी थे। वैसे भी कवि जब कहानी लिखता है तो उसकी कथा संरचना स्थापित कहानीकार से बिलकुल अलग स्वरूप लिए होती है। कवि आलोचक बलभद्र एक उम्दा रिसर्चर भी हैं। उन्होंने कुछ उन दुर्लभ पन्नों को खोज निकाला है जिन पर विजेन्द्र अनिल की कहानियां मिली हैं। बलभद्र ने विजेन्द्र अनिल की कहानियों पर एक विश्लेषण परक आलेख लिखा है जिसे आज हम अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज हम पढ़ते हैं बलभद्र का आलेख 'भोजपुर के किसान-संघर्षों के शिल्प और ताप की कहानियां'। यह आलेख प्रसंग के 2008 के अंक में छपे आलेख का किंचित संशोधित परिवर्द्धित रूप है।


 

भोजपुर के किसान-संघर्षों के शिल्प और ताप की कहानियां

 

                                   

बलभद्र


ऐसे रचनाकार कम होते हैं जिनकी रचनाएँ अपने रचयिता को पीछे छोड़ देती हैं। विजेन्द्र अनिल एक ऐसे ही गीतकार थे। गाँव-देहात, खेत-खलिहान तक उनके गीतों की पहुँच है। बिहार, उत्तर प्रदेश, जहाँ-जहाँ किसान संघर्ष हैं, वहाँ-वहाँ उनके गीत हैं। उनके गीतों को जन-कंठों ने यहाँ से वहाँ तक पहुँचाया। ये गीत गरीबों, किसानों और खेत-मजदूरों के संघर्ष के अनिवार्य अंग हैं। उनके गीत लोगों के होठों पर रच-बस गए हैं। लोग गाये जा रहे हैं और उन्हें पता नहीं है कि ये दरअसल किनके लिखे हुए हैं। बहुधा तो यह भी देखने को मिलता है कि उनके किसी गीत की एक या दो पंक्तियों को ले कर लोगों ने एक दूसरा ही गीत रच डाला है। यह भी देखने में आता है कि जनगीतों का कोई संकलन है और उसमें उनके भी एक-दो गीत हैं। ढूँढते थक जायेंगे पर उनका नाम उसमें नहीं मिलेगा। इससे उनके गीतों की पहुँच, लोकप्रियता और शक्ति का अंदाजा लगता है। कभी-कभी तो यह भी देखने को मिल जाता है कि धुर विरोधी कोई आदमी भी उनके गीत की किसी पंक्ति को धीरे-धीरे गुनगुना रहा है। उसके एकांत में गीत चुपके से आ धमकते हैं - 

 

'राउर शासन के नइखे जवाब भाई जी 

रउवा कुर्सी से झरेला गुलाब भाई जी।' 

 

लोकभाषा, लोकप्रिय धुन एवं गीतों की लोकस्वीकृति के चलते ऐसा होना बहुत लाजिमी है।


विजेन्द्र अनिल मूलतः कहानी और गीत के आदमी थे। उनकी कहानियों की भाषा हिंदी और गीतों की भाषा हिंदी और भोजपुरी दोनों है। पर, ज्यादा लोकप्रिय भोजपुरी के ही गीत हुए। उनकी कहानियों और गीतों की विषय-वस्तु लगभग एक ही हैं। देखने में आता है कि उनकी कहानियों में भी बीच-बीच में गीत आते हैं। ये गीत उनके ही लिखे हुए हैं। कहानी और गीतों को देखते हुए लगता है कि लेखक के भीतर अनवरत एक कथा चल रही है। उस कथा में गीत भी आते हैं। अलग से नहीं, कथा के अंग के रूप में, कथा को अर्थवान बनाते हुए। 'अमन-चैन' कहानी में कथा और गीत की कलात्मक संगति देखते ही बनती है। दो विधाओं की ऐसी युक्तिसंगत संगति फणीश्वरनाथ रेणु के यहाँ मिलती है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि उनके भोजपुरी गीतों को यदि एक क्रम में सजाया जाए और उसे थोड़ा तोड़ा-फोड़ा जाए और कथा के शिल्प में ढाला जाए तो कहानी क्या, एक उपन्यास बन सकता है। उनके अधिकांश गीत कथात्मक हैं।  '15 अगस्त के दिनवा' और 'अझुराइल रहबs कब ले लोटा-थरिए में' जैसे गीतों में आजाद भारत में लोकतंत्र और विकास की जो उल्टी गंगा बहती है, उसकी त्रासद-करुण कथा उभरती है।


गाँव के गरीबों, किसानों और मजदूरों की पीड़ा, प्रश्नाकुलता और प्रतिरोध के संदर्भ उनके गीतों और कहानियों में उभरते हैं। उनकी रचनाओं के केन्द्र में है भोजपुर के किसान संघर्षों का वैचारिक ताप। यह भोजपुर केवल भोजपुर में ही नहीं, जहाँ-जहाँ संघर्ष है वहाँ-वहाँ है। उनकी कहानियाँ केवल कथाकार के मानस की उपज नहीं हैं, बल्कि वे उस जमीन की उपज हैं जहाँ की ये कथा कहती हैं।


छोटे किसानों और खेत-मजदूरों के घर-परिवार, उनके रिश्ते-नाते, उनके बैल, हल, जुआठ, भूख-प्यास, उनके प्रेम, हंसी-मजाक, उनकी तमाम तरह की दुश्वारियाँ इनकी कहानियों में आई हुई हैं। उनके नायक बिल्कुल दबे-कुचले परिवेश के भीतर के हैं। जिन्हें आमतौर पर दब्बू, पिछलग्गू, पवनी-परजा समझा जाता रहा है, जिनकी अब तक कोई सामाजिक हैसियत नहीं बन पाई है, उनमें नायकत्व की संभावना की तलाश, उनकी परिवर्तित मानसिकता की तलाश, उनके भीतर एक नये आदमी के जन्म की पूरी परिघटना को विजेन्द्र अनिल ने एक रचनात्मक संस्पर्श दिया है।


हिन्दी के कई ऐसे चर्चित कहानीकार हैं, जिन्होंने इन तत्त्वों की ओर ध्यान दिया है। लेकिन बहुतेरे के साथ कठिनाई कुछ ऐसी है कि वे दूर से, बहुत दूर से तथ्यों का विवेचन-विश्लेषण करते हैं। गांव और खेत-खलिहानों को कुछ तो स्मृतियों के सहारे और कुछ सूचनाओं के सहारे परखते हैं। वहां की उभरती नई वास्तविकताओं को उनके मूल आलोचात्मक संदर्भों में नहीं ग्रहण कर पाते। उनकी स्थिति कुछ उस किसान की तरह है जो छाता ओढ़ कर खेत की मेंड़ पर टहल तो लेता है, पर खेत में उतरता नहीं। फसलों के बीच उतर कर नहीं देखता कि भीतर क्या कुछ हो रहा है। अथवा, नौकर-चाकर के जरिए खेत की खबर ले लिया करता है। विजेन्द्र अनिल उस तरह के कथाकार बिलकुल नहीं हैं।

 


 


उनकी 'फर्ज' कहानी में देखने की बात है कि 'दीयर' में जो एक 'जुझारू सभा' होती है, जिसमें किसानों और मजदूरों के साथ बुद्धिजीवी भी शामिल हैं, अपनी विश्वसनीयता के साथ केवल और केवल इन्हीं की कहानियों में हैं। 'अमन-चैन' में भी एक ऐसी ही सभा बाग में होती है। सभाएँ, जुलूस, प्रदर्शन और हड़ताल तो अब तक शहरों में, सरकारी दफ्तरों के सामने हुआ करते थे। लेकिन, यहाँ सभा गाँव में एकदम खेत- बधार के बीच होती है। केवल मिल मजदूर ही नहीं, खेत मजदूर भी हड़ताल करने लगे हैं। झंडे केवल चुनाव में ही नहीं, आम दिनों में भी लहराने लगे हैं। केवल बाबू-बबुआन ही नहीं, गाँव के गरीब-गुरबे भी लहराने लगे हैं। ये कहानियाँ इन नई वास्तविकताओं को प्रकट करती हैं। गाँव और खेत-खलिहानों का जीवन अब सपाट नहीं रहा। राजनीति की एकध्रुवीयता यहाँ अब टूटने लगी है। गाँव और खेत-खलिहान राजनीति के केंद्र बनते जा रहे हैं। 'उपाध्याय' के घर के पिछवाड़े 'विस्फोट' होता है और खेत में ट्रैक्टर का चलना बंद हो जाता है। गाँवों में शक्ति के जो परंपरागत केन्द्र हैं वे अब टूटने लगे हैं और यह सब संभव हो रहा है सदियों से वंचित-उपेक्षित तबकों के संघर्ष के बूते। गाँव में आकार लेती एक नई वर्गीय चेतना को उनकी कहानियाँ संगठित करती हैं।

 


'फर्ज' में उन्होंने सोद्देश्य लेखन की अवधारणा को काफी हद तक स्पष्ट करने की कोशिश की है। इस संदर्भ में उनकी एक अचर्चित कहानी 'एक और संगीता' की अंतिम पंक्तियों की तरफ ध्यान देना जरूरी है। वे पंक्तियाँ हैं- "अब तक तुमने अपनी कहानियों और कविताओं में जो कुछ लिखा है, वह एक झूठ है- ठीक वैसे ही, जैसे वह संगीता एक झूठ थी जिसकी खूबसूरती ने तुम्हें पायल बना दिया था। जमीन पर उतरो, जमीन की बातें लिखो।" 'फर्ज' में अखिलेश नामक एक पात्र है जो दस बीघे जमीन का मालिक है। वह किसानों और मजदूरों के संघर्षों के साथ है, अपनी अग्रणी भूमिका के साथ। दमन और तनाव के क्षणों में भी वह निजी स्वार्थों से अधिक महत्त्व जनता के स्वार्थों को देता है और दीयर में होने वाली आम सभा में जाने का निर्णय लेता है। विजेन्द्र अनिल यहाँ लेखक की जनपक्षधरता, जन और जनांदोलनों के आपसी अंतर्सम्बन्धों की मार्मिक अभिव्यक्ति करते हैं। अखिलेश को विजेन्द्र अनिल का प्रतिरूप समझा जा सकता है।



उनकी कहानियाँ शासन और सरकार की सामंतपरस्ती को उजागर करती हैं, संसद और विधानसभाओं के सामंती शक्तियों से लगाव को उजागर करती हैं। यह पूरा का पूरा तंत्र गरीब-विरोधी है, किसान-विरोधी, मजदूर-विरोधी पूरापूरी अमानवीय है। सामंतों, दबंगों, लम्पटों और माफियाओं के लिए विकास के नाम पर खजाने खुले हुए हैं। गरीबों को कोई लाभ नहीं मिल पाता, पर गरीब भी अब जागरूक हुए हैं। इनकी चालबाजियों को समझने लगे हैं। फर्ज, माल-मवेशी, विस्फोट, अमन-चैन, बैल आदि कई कहानियाँ इन्हीं तथ्यों को उजागर करती हैं।

 

 

वर्ग संघर्ष का तीखा रूप उनकी कहानियों में उभरता है। एक खलबली है पूरे इलाके में। 'अमन-चैन' में सामंतों द्वारा रचाया गया क्रूर जनसंहार है। कहानी जनसंहार से शुरू होती है। लेकिन यह कहानी की शुरुआत नहीं है। यह तो उसका अंत है। कहानीकार का तो मकसद जनसंहार की योजना का चित्रण करना है। जनसंहार तो शासकवर्गीय घृणा की चरम परिणति है। यह जनसंहार क्यों? कौन-कौन लोग हैं इस योजना में शामिल? इस वर्णन में कहानी अपना स्वरूप और विस्तार ग्रहण करती है। राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण, यादव इतनी जातियों के लोग हैं इस जनसंहार की पृष्ठभूमि में। उनके मददगार हैं- दारोगा, बीडीओ और डॉक्टर। अलग-अलग जातियों के इन लोगों का वर्गीय स्वार्थ एक है। ये सब-के-सब बड़ी जोत वाले हैं, जमींदार हैं और गाँव और प्रदेश की राजनीति में दबदबा रखने वाले हैं। ये 'किसान रक्षा वाहिनी' नाम से एक निजी सेना का भी संचालन करते हैं। 'फर्ज' कहानी में भी यही सेना है। बिहार में निजी सेनाओं के उदय एवं उनकी कारगुजारियों का एक काला अध्याय है। इस 'रक्षा वाहिनी' के लोग गरीबों पर जुल्म ढाते हैं और जनसंहार रचाते हैं। किसानों और मजदूरों की वर्गीय एकता खंडित करने के लिए जनसंहार उनका अंतिम विकल्प होता है। इस कहानी में शासक वर्ग की तरफ से जिस अमन-चैन की चर्चा है, वह दरअसल उनकी लूट और शोषण की अखंडता और एकछत्रता की वकालत और तरफदारी करता है। यह कहानी 'अमन-चैन' के शासकवर्गीय निहितार्थों को प्रकट करती है। लेकिन, देखने की बात है कि किसानों और मजदूरों के संघर्षों के पक्ष में भी व्यापक जनगोलबंदी है। कहानी में इसकी भी चर्चा है और यह चर्चा कहीं और से नहीं, जनसंहार की योजना बनाते सामंतों के ही बीच से उठती है। यहाँ महत्त्वपूर्ण है कि जनसंहार की योजना बनाते लोगों में इस जनगोलबंदी को लेकर किस-किस तरह की प्रतिक्रियाएँ हैं? कैसी बेचैनी है, कैसी आशंकाएँ हैं? वे इस उभार को कितनी गंभीरता से ले रहे हैं? कहानी को केवल निष्कर्ष के आधार पर समझने से कहानी की बारीकी पकड़ में नहीं आ पाती। बारीकियाँ तो डिटेल्स में उभरती हैं।

 

 

विजेन्द्र अनिल को आमतौर पर निष्कर्षवादी नजरिए से देखा जाता रहा है। फलतः कहानी की अंतरंग खूबियाँ हाथ से फिसल जाती हैं। उनकी एक कहानी है 'जन्म'। इसमें एक गरीब किसान परिवार है। उसके यहाँ पुत्र का जन्म होता है। ऐसे अवसर पर परजा-पवनी कुछ पाने की उम्मीद में हैं। लेकिन, उस किसान की हालत बिल्कुल खराब है। छोटे किसान और उनकी परजा-पवनी दोनों को आर्थिक रूप से एक-दूसरे के निकट देखा गया है। सामाजिक स्तर पर भिन्नता होते हुए भी आर्थिक स्तर पर अभिन्नता की स्थिति है। इस स्थिति बोध को लेखक विकसित करना चाहता है। 'आधे पेट' कहानी में जो परिवार है वह बुनियादी तौर पर टूटा हुआ परिवार है। बुनियादी सुविधाओं से वंचित यह मजदूर परिवार है, जहाँ खटना है और 'आधे पेट' खा कर सो रहना है। स्थितियों की समग्र समझ के साथ दाम्पत्य की व्यावहारिकता और मिठास भी झलकती है। पति कहता है पत्नी से- 'आज तुम फिर आधे पेट खा कर सो गई।' पत्नी कहती है- 'अपने बारे में क्यों नहीं सोचते? कल फिर मजदूरी करने जाना है न? इस तरह आधे पेट खा कर कितने दिन मजदूरी कर सकते हो?' दोनों के कथनों में 'आज', 'कल' और 'फिर' और 'आधे पेट' का खास मतलब है। पीड़ा के भीतर इस अंतरंग मिठास को समझे बगैर कहानी के मर्म को पूरी तरह नहीं समझा जा सकता। उनके गीतों में भी ऐसी अंतरंगता और मिठास मिलती है। एक पत्नी अपने पति के बारे में सोचती है कि उनके तन पर कपड़ा रहे, पाँवों में पनही और समाज में सम्मान -

 

'मनवा करेला मोरा सामीजी के देहिया न उघार रहित हो 

ए भइया, गोड़वा में रहित पनहिया सभा में उहो जइतन हो।" 

 

कहानियों की तरह उनके गीत भी राजनीतिक हैं। यहाँ राजनीति का संदर्भ घर, परिवार, खेत खलिहान, हल, कुदाल, बैल-बधिया, प्रेम, जुलूस, सभा आदि से बनता है। विजेन्द्र अनिल अपने समय के तल्ख सवालों से आँख से आँख मिलाते हुए टकराते हैं। रूप और विचार को ले कर यहाँ कोई उलझन नहीं है। जीवन और संघर्ष के छन्द के अनुरूप उन्होंने रचना-छन्द को अपनाया है। उनकी रचनाएँ जनता और जनांदोलनों की थाती हैं, क्रांतिधर्मी सौन्दर्यशास्त्र के मानकों को रचती और व्याख्यायित करती हैं। 

 

  

बलभद्र

 

      

 

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