जोशना बैनर्जी आडवानी के काव्य-संग्रह ‘अंबुधि में पसरा है आकाश’ पर यतीश कुमार की समीक्षा 'आँसू की धार की बची छाप की कहानी'
जोशना बैनर्जी आडवानी |
कवयित्री जोशना बैनर्जी आडवानी का एक नया काव्य-संग्रह ‘अंबुधि में पसरा है आकाश’ प्रकाशित हुआ है। जोशना की कविताएं कुछ अपने ही ढर्रे की कविताएं हैं। यतीश कुमार उचित ही लिखते हैं कि "जोशना को पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे वो साधना से सपनों के बीच टहलती कवयित्री हैं। दर्शन उनकी सहेली हैं और कविता के एकांत में उनसे मिलने आ जाती हैं। उसी भटकन और तन्मयता के बीच उनकी कल्पना शक्ति जागृत होती हैं और कविताएँ जन्मती हैं जिनमें इन सभी का अंश समाहित है।" आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं जोशना बैनर्जी आडवानी के काव्य-संग्रह ‘अंबुधि में पसरा है आकाश’ पर यतीश कुमार की समीक्षा 'आँसू की धार की बची छाप की कहानी'।
आँसू की धार की बची छाप की कहानी
यतीश कुमार
शब्द ‘भात’ से संसार भर के दर्शन को एक ही कविता में समेटना एक विलक्षण काम है। जोशना की इस कविताई विलक्षणता का प्रमाण शुरुआती कविताओं से ही मिलने लगता है। इन कविताओं से गुजरते हुए पाठक एक ऐसे नए घर में प्रवेश करता है जिसका दरवाज़ा उन्मुक्त गगन की ओर खुलता है। यहीं से आपको धरती पर बीतती घटनाओं का एक कैनवास मिलता है। जोशना उस कैनवास में कविता के रंग भरती हैं और सृजन में उभरता है उनका दूसरा काव्य-संग्रह ‘अंबुधि में पसरा है आकाश’।
कैनवास पर उतरती-उभरती कविताएं कब पूजा-अर्चना में बदल जाती है पता नहीं चलता। आप ‘रतिकान्त रुष्ट हैं हमसे’ पढ़ते हुए इस बात से सहमत हो जाएंगे। अगली कविता में इस आराध्य को बृहस्पत के गुणगान करते पाएँगे और नीलांबर को पीतांबर में बदलते देखेंगे। हल्दी में पका और रंगा प्रेम आपके जख्मों में सीवन भर देगा। यहाँ कविताओं में प्रेम का लेप है, जिसे इसी के राग में पकाया और गाया जा रहा है। यहां बाउल का वैराग्य मिलेगा और इस वैराग्यता में संगीत समाहित। मीरा जैसी वैरागनी बन जब कविता रची जाती है तभी वह ‘जाने कहाँ है मेरा कुटुम्ब’ बन पाती है। ऐसे में खोयी आँखों में बिछड़े प्रेम को ढूँढ़ने निकली कवयित्री के वियोग का योग ब्रह्माण्ड भर के प्रेम के बराबर हो जाता है।
कवि की दृष्टि से दुनिया देखने का सुख
अलहदा है। कवि आँखों की पुतलियों की संरचना को मछली के जाल में बदल देती है, आकाश से शब्दों की बारिश
कर देती है और रंगों की छींट से ऋतुओं की पोशाक में रंग भर देती है। उसे प्रसन्न
मानुस का वैराग्य दिखता है। चित्रों में देखती है चित्रकार की आँखें और देखती है
कलाकार में एक पूरी खाई। यहां भी कवयित्री कल्पना को अपना रंग देती है और उस रंग
में पाठक सराबोर हो रहे होते हैं।
जोशना की रचनाएँ संदर्भों की ख़ान हैं। पढ़ते हुए कई बार अनिल अनलहातु की कविताएँ याद आईं। दोनों रचनाकारों का शिल्प बिलकुल भिन्न है पर दोनों जगह ही कविताओं में संदर्भ का वैश्विक, साहित्यिक विस्तार है। इन कविताओं के साथ बढ़ते हुए, शब्दों की छाया में चलते किरदार हमेशा मिलेंगे।
कुछ कविताओं में बचपन का प्यार अपनी तोतली भाषा में अपनी बात, अपना प्रेम सामने रख रहा
है। ऐसी पंक्तियां जिसकी पवित्रता कभी राख़ नहीं बनने पायेगी। जोशना जब लिखती हैं ‘आमी तोमाके भालोबाशी’ के बदले में एक बच्चा ‘आमी
तोमाके भालो दिवाली’ बोल कर भाग निकले। वहीं, कुछ कविताएँ ऐसी
हैं जहां शीर्षक केंद्र में इस तरह है जैसे हर पंक्ति एक नया दृश्य रचे और लौट कर केंद्र
की ओर मुड़ जाए। ऐसा अक्सर फूलों के मामले में होता है जब सारी पंखुड़ियाँ केंद्र
की ओर मुखर होती हैं और अंत में एक डंठल हाथ में रह जाता है फूल के साथ। इसे ‘निचला ओंठ अधिक चंचल है’ कविता के माध्यम से और
स्पष्टता के साथ समझा जा सकता है, जहां तमाम बातें लौट कर ओंठ
पर आ ठहरती हैं।
संग्रह में
देशज शब्दों के साथ- साथ पौराणिक शब्दों का सुंदर प्रयोग ना सिर्फ शब्द-कोश को
समृद्ध करता है बल्कि कई बार शब्दों का यह प्रयोग अचंभित भी करता है। प्रेम कविता
में सकारात्मक पक्ष के साथ नेपथ्य में कहीं-कहीं विरोधाभास चलता है। यह विरोधाभास
एक कला की तरह आता है, एक प्रयोग की दिखता है। एक जगह लिखा गया है
‘देव होंगे परन्तु आशीर्वाद न होगा
अग्नि होगी परन्तु कोई फेरा न होगा
हमें भिजाये बिना ही मेघ रहेंगे हमारे बीच’।
यहाँ यह पंक्तियाँ दरअसल सकुचाहट को बयान कर रही हैं पर नेपथ्य में कोई किसी और को याद कर रहा है । कभी लगता है कविता दृश्य नहीं, स्थिति बयान कर रही है और कभी दृश्य पर दृश्य। ‘ढाँप दो निशानाथ को’ पढ़ते समय भी यही लगा जब जोशना लिखती हैं कि पृथ्वी पूरी तरह पहले जैसी हो जाए और भाषा भी तब लगा जैसे चलचित्र अपनी अंतिम दृश्य पर आकार स्थिर हो गया है।
कविताओं में संस्मरण है कि कहानियाँ यह एक विस्मयी विषय हो सकता है पर ये सच है कि इन कविताओं में कभी बारी-बारी से तो कभी समानांतर दोनों चलते हैं डेग दर डेग। उदाहरण के लिए ‘धितांग’ कविता ही लें जहां लिखा है-
मेरे जीवन का पहला धितांग था
मैं हरिप्रिया न बन सकी।
या फिर बिरला तारामंडल में अपने बाबा को न देख पाना।
जोशना की कविताएँ प्रेम में बहते आँसू का चित्रण हैं। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि ये कविताएँ बहे आँसू की धार की बची छाप की कहानी है। यूं भी कि यह गूँगी रुलाई का अंतर्नाद या फिर बिना आँसू के रुदन का कोरस है। एक के बाद एक कविताएँ प्रेम और विछोह के बीच पेंडुलम सी कभी इस ओर मिलेंगी तो कभी उस छोर, जहाँ लिखा मिलेगा
‘आहत होने में असमर्थ रह कर राख हो जाऊँ
दूर गाँव की कोई औरत मुझे बासन पर घिस दे’।
संग्रह की कविताओं में विचारों की नवीनता है। पुरानी पहचान लिए कविताएँ हवा की हर लहर के साथ एक अलग ख़ुशबू के साथ लौटती है। ‘अर्ध’ कविता हो या ‘हवा’ या कि ‘तरूण्य’ एक मुड़े पन्ने की अकड़ लिए कविताएँ ख़ुद को याद दिलाने की पुकार लिए मिलेंगी।
कविताओं की आँखें कई बार पहले दृश्य देखती-गढ़ती हैं। सब का समाचार सुनाते हुए अंत में अपनी व्यथा पर अपूर्ण खड़ी हैं, जिसे पूरा करने का जिम्मा पाठकों का है। विषय की पुड़िया आपके हाथों में सौंपते हुए यह कविताएं कहती हैं कि इसे अकेले में खोलना, किसी में भस्म तो किसी में जादू मिलेगा। इस भस्म को माथे पर लगा कर मलंग हो जाना। चाहे ‘रवीन्द्र कानन में घूमते हुए’ हो या ‘किस आँखों में है आलय मेरा’ या उसके मन की छोटी- छोटी ‘अनुकांक्षा’ जिसे अबिन्द्र नाथ का इंतज़ार है कि वे आकर बदलेंगे उसके माथे की पट्टियाँ।
जोशना को पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे वो साधना से सपनों के बीच टहलती कवयित्री हैं। दर्शन उनकी सहेली हैं और कविता के एकांत में उनसे मिलने आ जाती हैं। उसी भटकन और तन्मयता के बीच उनकी कल्पना शक्ति जागृत होती हैं और कविताएँ जन्मती हैं जिनमें इन सभी का अंश समाहित है। अनगिनत प्राचीन संदर्भों से यह भी पता चलता है कि जोशना ने अपनी लेखन में पाठक मन को जरा सा भी पिछड़ने नहीं दिया है। समय को साधती हुई आगे बढ़ती कविताओं में समय के ही फूल मिलेंगे, युगों के बदलते मौसम का अनुभव सार मिलेगा। इन कविताओं का अपना गठन है जिसका शिल्प जोशना के ही बस में है।
संतुष्टि के साथ बतौर पाठक यह सुझाव भी कि कविताओं की संख्या में थोड़ी कटौती
संग्रह को और पठनीय बनाने में मददगार होती। साथ ही, संदर्भों की
टिप्पणी साथ-साथ नीचे फुटनोट में चलती तो हम जैसे सामान्य पाठक कविताओं का रस
ज़्यादा ले पाते। कविताएँ स्त्री मन से गठित हैं और प्रेम में भी स्त्री-दृष्टि का
पक्ष प्रत्यक्ष अनुभूत ज़्यादा हो रहा है। एक कवि का समान दृष्टांत अनुभव बयान
करने से दर्शन की विविधता ज़्यादा प्रेषित होती है।
‘मैं काग़ज़ पर सशरीर गिर
पड़ी हूँ’ में जब पढ़ता हूं
‘जहाँ थी कविताएँ
अब एक बुलाहट है
नमक छोड़ गयी हैं कविताएँ
जिनमें खारे का छींट है
यहाँ हाथ रखोगे तो
एक मीन की तरह बिछल उठेगा दुःख
इस मीन को शांत रहने दो
इस नमक में इश्क़ है’।
इस कविता को इस काव्य-संग्रह का भाव सार समझते हुए मैं यहीं रुका रहा और कविता अपने भाव से कहीं ज़्यादा बात करती रही। नमक और इश्क़ दोनों को बारहा चखने का आनंद ही इस संग्रह का हासिल है। जोशना को उसका हासिल मुबारक! यह दुःख रचने का सुख मुबारक! सृजन का अनुभव रस और शब्दों की यह यात्रा मुबारक!
काव्य-संग्रह : अंबुधि में पसरा है आकाश
कवयित्री : जोशना बैनर्जी आडवानी
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
यतीश कुमार |
संपर्क
मोबाइल : 8420637209
बेहतरीन कवितायें. नये भाव भूमि रचती.बधाई.
जवाब देंहटाएंव
बहुत सुंदर समीक्षा। यतिश सर को इस समीक्षा के लिए बधाई
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति सर
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