राही डूमरचीर का आलेख 'क्षण में सभे उजार'
रणेंद्र |
आलोचक का काम केवल रचना को विश्लेषित कर उसकी खूबियां और खामियां गिनाना ही नहीं होता अपितु उसके हवाले से उन तथ्यों, समस्याओं और विचारों को उद्घाटित करना होता है जो उस समय और समाज को गहरे तौर पर प्रभावित कर रहे होते हैं। विकास किसे अच्छा नहीं लगता। किसे नहीं लुभाता। लेकिन भ्रष्ट तन्त्र की कारीगरी तो देखिए, उसने इसके भी मायने बदल दिए हैं। विकास के क्रम में वह क्षणिक बदलाव तो जरूर दिखाई पड़ता है जो हमें तात्कालिक तौर पर प्रभावित करता है लेकिन वह हकीकत नहीं दिखाई पड़ती जो समाज और राष्ट्र को खोखला करती रहती है। रणेंद्र हमारे समय के चर्चित कथाकार और उपन्यासकार हैं। अपनी रचनाओं के द्वारा उन्होंने उस आदिवासी समाज की हकीकत को सामने रखा है जो अभी तक लौह पर्दे के अन्दर छिपा हुआ था या कह लीजिए छिपाया गया था। राही डूमरचीर ने रणेंद्र की कहानी ‘बाबा कौए और काली रात’ के अंतर्पाठ के क्रम में एक महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा है। राही का आलोचकीय दृष्टिकोण हमें आश्वस्त करता है कि हिन्दी आलोचना का भविष्य सुरक्षित हाथों में है। पहली बार पर राही के रचनात्मक आगाज का हम स्वागत करते हैं। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं राही डूमरचीर का आलेख 'क्षण में सभे उजार'।
क्षण में सभे उजार
(अंतर्पाठ : ‘बाबा कौए और काली रात’)
राही डूमरचीर
मेरे लिए रणेंद्र पर या उनके साहित्य पर लिखना मुश्किल काम है। कोई रचनाकार जब आपके जिए हुए यथार्थ और उसकी तकलीफ़ों को स्वर देता है, तब उस पर लिखना आसान नहीं होता है। रणेंद्र की कई कहानियाँ हैं, जिनको पढ़ना व्यक्तिगत तौर पर तकलीफ़ की उस विभीषिका से दोबारा गुज़रने जैसा होता है। इसलिए वापस उन कहानियों से गुज़रना और आलोचनात्मक विवेक को बनाए रखना दुष्कर कार्य है। इन बातों के अलावा यह भी सच है कि उनकी रचनाओं ने प्रेरित और सही अर्थों में संस्कारित भी किया है। आदिवासियों की दिखने वाली दुनिया के अन्दर मौजूद यथार्थ के विभिन्न परतों और उनके अंतर्विरोधों को और बेहतर ढंग से समझने की अंतर्दृष्टि भी दी है। बावजूद इसके यह संभव है कि इस कहानी पर विचार करते हुए जिस आलोचनात्मक ईमानदारी की ज़रूरत होती है, उसे न बरत पाऊँ। जो लिखना चाहता हूँ ठीक-ठीक न लिख पाऊँ, कहने में बात बदल-बदल जा सकती है।
रणेंद्र ने अपने उपन्यासों से हिंदी कथा जगत में एक विशेष पहचान बनाई है और कथा इतिहास में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है। उनकी कहानियों की चर्चा भी ख़ूब हुई है पर उपन्यासों की तुलना में कहानियों की चर्चा कम हुई है (यह मेरी जानकारी का अभाव भी हो सकता है)। यहाँ निवेदन बस इतना है कि रणेंद्र की कहानियों को ज़रूर उनके उपन्यासों की पृष्ठभूमि के बतौर पढ़ा जाना चाहिए पर उन्हें सिर्फ़ इतना भर ही नहीं माना जाना चाहिए। हम सब जानते हैं कि दोनों विधाएँ अलग-अलग रचनात्मक अनुशासन, मानसिकता और श्रम की माँग करती हैं, इसलिए न सिर्फ़ रणेंद्र के सन्दर्भ में बल्कि किसी भी रचनाकार के सन्दर्भ में इस सामान्यीकरण से बचा जाना चाहिए।
आदिवासियों पर आज विपुल और बेहतरीन कथा-लेखन हो रहा है पर उनमें रणेंद्र की अंतर्दृष्टि मानीख़ेज़ नज़र आती है। एक कहानीकार के तौर पर वह सिर्फ़ आदिवासी दुनिया का ब्यौरा नहीं देते, वहाँ की अनदेखे स्थितियों-परिस्थितियों, पारिस्थितिकी के उद्घाटन से चौंकाते भी नहीं। आदिवासी विश्वदृष्टि में यकीन रखने वाला रचनाकार ऐसी कोई कोशिश अनायास भी नहीं कर सकता। इसलिए वह सबसे पहले बेहद आत्मीयता से आदिवासी और उनकी दुनिया से हमारा परिचय कराते हैं और फिर उनकी समस्याओं और उनके कारणों की बहुस्तरीयता को हमारे सामने लाते हैं। जितनी शिद्दत से वह आदिवासी दुनिया के हित में अपनी रचनात्मकता को निर्मित करते हैं उतनी ही शिद्दत से वह उनके अंतर्विरोधों की तरफ़ इशारा भी करते जाते हैं। जिस कहानी पर यहाँ विचार किया जा रहा है वह कहानी ‘छप्पन छुरी बहत्तर पेंच’ शीर्षक कहानी-संग्रह में शामिल है। इस किताब के ब्लर्ब पर योगेन्द्र आहूजा एक ज़रूरी सवाल उठाते हुए पूछते हैं, “जब हम कहते हैं हिंदी कहानी, तो हमारा आशय क्या होता है? हिंदी में लिखी गई कोई भी, कैसी भी कहानी...”[1] इसका जवाब वह ख़ुद देते हैं कि ऐसा आशय हम बिल्कुल नहीं ले सकते और फिर वह कहानी के लिए ज़रूरी चीज़ों पर प्रकाश डालते हैं। इसी तर्ज़ पर अगर यह पूछा जाए कि आदिवासी कहानी से हमारा क्या आशय होता है? आदिवासियों के बारे में लिखी गई कोई भी कहानी, कैसी भी कहानी? जवाब स्पष्ट है कि हम ऐसा बिल्कुल नहीं कह सकते। फिर हम आदिवासी कहानी किसे कहेंगे? मेरे ख़याल से आदिवासी कहानी वह है जिसमें आदिवासी विश्वदृष्टि अंतर्धारा की तरह मौजूद हो। जिसमें आदिवासियत की पहचान उसके अंतर्विरोधों के साथ की गई हो और उसके बिखरते जा रहे कारणों की पड़ताल अपनी ऐतिहासिकता के साथ दर्ज हो। साथ ही उसमें आदिवासियत को बचाए जाने की एक तर्कसम्मत ज़िद मौजूद हो। सर पर पगड़ी बाँधा हुआ हर व्यक्ति जैसे किसान नहीं हो जाता, किसान पर लिखी हुई हर रचना महान नहीं हो जाती वैसे ही आदिवासियों पर लिखी हर कहानी आदिवासी कहानी नहीं हो सकती।
‘बाबा कौए और काली रात’ एक ऐसी ही आदिवासी अंतर्दृष्टि से उपजी हुई कहानी है। एक ऐसी कहानी जो आदिवासियत की ज़रूरत को स्पष्ट करती हुई, उनकी दुनिया के बर्बाद होते जाने को चित्रित करती हुई, हमें गहरी बेचैनी से भरती है। इस कहानी में एक तरफ़ लोकतंत्र के तथाकथित नुमाइंदे हैं दूसरी तरफ़ अपने जीवन-व्यवहार में लोकतंत्र को जीने वाले आदिवासी हैं। एक तरफ़ सामुदायिकता है तो दूसरी तरफ़ इसे तोड़ने के लिए हर संभव फिराक में लगे अवसरवादियों-दलालों का समूह है। इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी कि जो आज हमारी पारिस्थितिकी के नींव और संरक्षक हैं, वही हमारी व्यवस्था में सबसे ज़्यादा शोषित होने को अभिशप्त हैं। पारिस्थितिकी ही सुरक्षित नहीं रहेगी तो यह व्यवस्था कैसे बचेगी, हमारी-आपकी दुनिया कैसे साँस लेगी? हम यह कब समझेंगे कि अपनी बेहद मामूली स्वार्थों के चक्कर में हम उनको पीड़ित करने में सहभागी हो रहे हैं, जो हमारी बच्चियों के बच्चियों का भी भविष्य बचा रहे हैं।
‘बाबा, कौए और काली रात’ कहानी अख़बार में छपी एक ख़बर से शुरू होती है और फ्लैशबैक में जाते हुए बताती है कि यह तीन बेहद अज़ीज़ दोस्तों की कहानी है। बिफैया उराँव (उराँव आदिवासी), शनिचरा (बिरहोर आदिम जनजाति), और सुरेश (सदान) की दोस्ती, सिर्फ़ उनकी यारी की वजह से नहीं बल्कि किसी भी स्तर के अन्याय या शोषण के प्रतिकार में खड़े रहने के जज़्बे की वजह से मशहूर थी। जिन्होंने ढ़ीपाकुजाम को बसाया, खेती करना, सब्जी उपजाना, मधुमक्खी पालना, रीझ-रंग सिखाया, उन्हें ही अपने हक़ के लिए अगर मार-पीट के तरीकों का सहारा लेना पड़े तो समझा जा सकता है कि स्थिति कितनी भयावह हो चुकी है। पढ़े-लिखों को अपने पढ़े-लिखे होने का बहुत अभिमान होता है और इस कारण उन्हें ख़ुद के सभ्य और सुन्दर होने की गज़ब की ख़ुशफ़हमी होती है। तिस पर तुर्रा यह कि आदिवासी जाहिल होते हैं । ऐसा ही एक सुन्दर व्यक्ति शिक्षक होते हुए छात्रवृत्ति की चोरी करता है और उस चोरी की सज़ा उसे नहीं मिलती, सज़ा मिलती है उसकी चोरी सामने लाने वाले उन तीनों दोस्तों को। पढाई, पैसा, पॉवर और जाति का ऐसा गठजोड़ कि जिले के किसी भी अन्य स्कूल में उनका नामांकन नहीं हो पाता। नतीजतन सच के साथ खड़े होने वालों को पढाई छोड़ने के लिए मजबूर हो जाना पड़ता है। कितनी ख़ुशी मिली होगी उस सुन्दर शिक्षक को इस बात से, इसका शायद अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है। बिफैया की माँ ने बिल्कुल सही कहा ऐसे सुन्दर इंसान के बारे में कि “’बाकी भारी बदमास रहे उ चरका (गोरा) सूअर। ऐसन नाम काटलक कि इ तीनों कर जिला भर में कोनो इस्कूल में नाम नयँ लिखा सकलें तोर आजा...’।“[2] इससे क्या हुआ? आजी के ही शब्दों में हुआ यह कि “ई तीनों के खूब-बगरा पढ़ावे के उन कर सपना छितरा गेलक।“[3] एक आदिवासी जो उन तीनों बच्चों को ख़ूब पढ़ाना चाहता था, उसका सपना बिखर जाता है, बस इतना ही हुआ। राष्ट्र के स्वास्थ्य के लिए शायद यह बात क्या कोई मायने नहीं रखती पर सरकार और सुन्दर लोग पूरी तबीयत से आदिवासियों को ‘मुख्य धारा’ में शामिल होते देखना चाहते हैं।
जिनकी संस्कृति में लूट-लोभ के अलावा कुछ नहीं, जिनका स्वाभिमान लोगों का ओहदा और औकात देख कर रंग बदलता है, वे चाहते हैं कि स्वाभिमानी आदिवासी अपना स्वाभिमान उनके पास गिरवी रख दें। एवज़ में अहसान भी मानें और उनके मातहत हो कर ज़िन्दगी जिएँ। यह कैसे संभव था? वहाँ आदिवासी-सदान (ग़ैर आदिवासी समुदाय जो आदिवासियों के साथ ही छोटानागपुर अंचल में बसे) की एकता की धमक ऐसी थी कि “तीनों के ब्लॉक ऑफिस के कैम्पस में कदम रखते ही खलबली-सी मच जाती थी। मोटरसाइकिल वाला ठग-ठेकेदार, बिचौलिया कमीशनखोर, सब कोई न कोई बहाना कर के खिसक लेते। तीनों के मन-मिजाज का कोई ठिकाना नहीं था। ओवरसियर-किरानी के कॉलर पकड़ने में तनिको देर नहीं लगता था बाबा को। सुरेश काका को तो बीडियो-सीओ से बहसा-बहसी, मुँहामुँही करने में बहुत मजा आता।... शनिचरा काका को तो न जाने कैसे थाना-कचहरी की धारा सब कंठस्थ हो गई थीं।“[4]
अभी यहाँ अवकाश नहीं है कि सदानों के इतिहास और उनकी आदिवासियों के साथ के सामंजस्य को विस्तार से बताया जा सके पर इतना समझा जाना चाहिए कि आज झारखण्ड में आदिवासी-सदान के बीच जिस तरह का फ़र्क़ दिखाई पड़ता है, वह हमेशा से नहीं था। इस फ़र्क़ से राज्य और राज्य के लोगों की ज़िन्दगी में बहुत गहरा फ़र्क़ पड़ा है। दोनों समुदाय झारखण्ड की सामूहिक संस्कृति के संवाहक रहे हैं, समुदायों के सह-अस्तित्व के प्रतीक रहे हैं, “कुड़मी महतो लोगों ने उराँवों को सब्जी की खेती सिखाई थी। तो धान के बत्तीस किस्मों से उराँवों ने उनका परिचय कराया था।“[5] यह संग-साथ होने-रहने भर तक का मामला नहीं है। यह आदिवासी-सदान की ज़िन्दगी की असली जीवन-धारा रीझ-रंग का भी मामला है, “कभी-कभी गाँव के अखड़ा में अजीब समाँ बंधता। बाबा माँदर, शनिचरा काका बाँसुरी और सुरेश काका और अयो भवप्रीता के एक से बढ़ कर एक गीत उठाते।“[6] पूरा गाँव इस साथ रहने की लय-ताल से बँधा था, फलस्वरूप पूरे गाँव की ज़िन्दगी सुकून से कट रही थी।
आदिवासी – सदान की यह एकता मुनाफ़ाख़ोर, मौक़ापरस्त और सुविधाभोगी राष्ट्रवादी लोगों के रास्ते में बाधक थी। इसे तोड़े बिना वहाँ की संपदा, संसाधन और श्रम की लूट असंभव थी। इसलिए ‘राष्ट्रहित के लिए चिंतित’ चालाकों ने सुरेश को यह समझा लिया कि जो चीज़ लड़ाई और केस-मुक़दमा से सुलझा रहे हो उसे आराम से ब्लॉक का प्रमुख बन कर सुलझाया जा सकता है। जब हाथ में सत्ता होगी तो घर बैठे समाज का कल्याण किया जा सकेगा। यह सदानों को आदिवासियों से दूर करने की प्रारम्भिक कोशिश थी और जो आगे चल कर ख़ूब सफल हुई और बेहद त्रासद साबित हुई। ढ़ीपाकुजाम की त्रासदी उस एकता के टूटने की त्रासद गाथा है।
जिन लोगों ने सुरेश को प्रमुख बनाने के लिए सारा ज़ोर लगा दिया, राष्ट्रवादी पार्टी के भैय्या जी जैसे दबंग नेता के ख़िलाफ़ खड़े हो गए, जिस गाँव ने और परिवार ने उन्हें पहचान दी, प्रमुख बनने के बाद सबसे पहले उन्हें ही वह भुला देते हैं। सुरेश अपना वह सब कुछ भूल जाते हैं जो उन्हें विरासत में मिली थी। वह अपने दोस्त बिफैया की माँ का दूध, बिफैया के पिता का पितृत्व, अपने प्यार सोनामणि और भवप्रीता के गीत तक को भुला देते हैं। गाँव के सबसे मातबर व्यक्ति बिफैया के पिता, जिन्होंने तीनों बच्चों को अपनी गोद में पाला था, उनका यह सोचना कितना तकलीफ़देह है कि “उनका ही एक बेटा सुरेश उनके भावना को समझ नहीं पाया। बेटे ने भाव को नहीं, मुनाफे को तरजीह दी।“[7] बिफैया के पिता की यह सोच राज्य का भविष्य बन गया। मुनाफ़े की चाहत ने कुछ लोगों को अर्श पर पहुँचाया और बाकियों को अपनी ज़मीन तक से बेदख़ल होने पर मजबूर कर दिया। उनकी ज़मीन पर बाहर से आये लोगों की हँसती-खेलती दुनिया आबाद हुई और गीतों की तरह अलमस्त जीने वाले वहाँ के मूल बासिंदों को, बाहर जा कर ठोकर खाने और मरने पर मजबूर होना पड़ा। यह सोचना भी तकलीफ़देह है कि गीतों को अपना जीवन समर्पित करने वाला, ढ़ीपाकुजाम अखड़ा की जान, सुरेश जैसे रीझवार गीतों से दूर हो कर ‘विकास भगवान’ की सेवा में ख़ुद को समर्पित कर देते हैं। अपने लोगों के लिए हमेशा खड़े रहने वाले सुरेश अब विकास के लिए ‘राष्ट्रवादी’ तरीकों को ढूँढने और उसे सफल बनाने में मशगूल हो जाते हैं। सुरेश के प्रमुख बनने से जिन मित्रों की ताक़त सबसे ज़्यादा बढ़नी थी, न्याय के हक़ में जिनकी उपस्थिति को और मजबूत होना था, उनमें से एक शनिचरा सौ मील दूर ईंट भट्टा का मजदूर बन कर टुअर (अनाथ) की तरह मरते हैं और बिफैया ब्लॉक में सुरेश के सामने पेट्रोल डाल।कर ख़ुद को आग लगा लेते हैं। जिस जगह पर तीनों दोस्तों के आने भर से अफसर-ठेकेदार जान छुड़ा कर भागने लगते थे, ठीक उसी जगह से अपने जिगरी दोस्त बिफैया के जलते हुए शरीर के सामने से सुरेश गाड़ी में बैठकर निकल भागते हैं।
जिस विकास को सुरेश एकमात्र सच मानने लगते हैं, उसका असर यह होता है कि उनके ही गाँव के “सारे टोलों में हर दूसरे-तीसरे घर में ताला लटक गया था। देखिए तो ज्यादातर बूढ़ा-बुजुर्ग, बर-बीमार, देहचोर-निकम्मे, नशेड़ी-गंजेड़ी ही गाँव में बच गए थे।...चोरी-चकारी भी होने लगी थी। घर के पीछे के बाड़ी से कद्दू-कोंहड़ा तक लोग चुराने लगे थे।“[8] और यह सब उस समाज में घटित हो रहा था जिस ‘आदिवासी समाज में मेहनत करने को दूसरे समाज की तरह छोटा काम नहीं माना जाता, अच्छी नजर से देखा जाता। हाँ! बिना मेहनत किए खाने वाले को जांगर-चोर, दिकू टाइप माना जाता’। [9]
एक ऐसे समरसतापूर्ण समाज का कुछ लोगों के हित के लिए बर्बाद हो जाना, आहिस्ते-आहिस्ते जीवन, गीत, अखड़ा सब का रोज थोड़ा-थोड़ा टूट कर गिरना, वहाँ के लोगों का परदेश में जा कर टुअर की तरह मरना, छाती फाड़ने वाला अनुभव होता है। एक बात बार-बार दोहराई जाती है कि विकास के लिए किसी न किसी को तो कीमत चुकानी ही पड़ती है। समझ में नहीं आता कि फिर यह विकास कैसे है? बचपन में सुनता था कि पुल बनाने लिए बच्चों की मुंडी काट कर उसकी नींव में डाला जाता है, तभी वह मजबूत और स्थिर खड़ा रहता है। कभी अपने आस-पास के किसी बच्चे की मुंडी कटते नहीं देखी तो इसे गप्प मान कर जीता रहा। पर आज जब उसकी सच्चाई को अपने ही लोगों की छाती पर घटित होते देख रहा हूँ, तब समझ में आ रहा है कि पुल भी हमारे ही इलाके में बनेगा, हमारी ही नदी पर बनेगा और मुंडी भी हमारी ही काटी जाएगी। जो पुल पर चढ़ कर हमारे इलाकों को लूटने आएंगे, वह इसे विकास कहेंगे।
सवाल यह है कि किसका विकास? राष्ट्र का, जिनसे राष्ट्र है उन लोगों का या फिर किसी ख़ास व्यक्ति या समूह का? रणेंद्र ने विकास की इस सच्चाई को कितना सटीक नोट किया है। जब बिफैया मनरेगा में किए गए अपने काम की मजदूरी की बाबत पूछने के लिए ब्लॉक पहुँचते हैं, तब वहाँ मौजूद दलाल बीडीओ से उसकी बात न मानने की वजह बताते हुए कहते हैं- “दसों साल से यही पापी ब्लॉक का विकास रोक कर रखा था।“[10] रणेंद्र की यह टिप्पणी राष्ट्रवादी-विकास के मॉडल पर एक गंभीर टिप्पणी है। ब्लॉक ही राष्ट्र होता है क्या और ‘पापियों’ की पहचान करने में सरकारी पदाधिकारियों की मदद करने वाले ये लोग कौन हैं? सच तो यह है कि सरकारें बदलती हैं, पदाधिकारी बदलते हैं पर ब्लॉक रूपी राष्ट्र में ये राष्ट्र-सेवक हमेशा मौजूद रहते हैं। योजनाएँ इनके ही मार्फ़त और मर्ज़ी से ही राष्ट्र-कल्याण के मार्ग पर प्रशस्त होती हैं।
इस कहानी में बहुत सारे दीगर प्रसंग भी हैं जो हमें गंभीरता से विचार करने के लिए आमंत्रित करते हैं। मसलन जो व्यक्ति प्रकृति के इतने क़रीब है कि कौवों तक से दोस्ती कर लेता है, उसे टोनहा (जादू-टोना करने वाला) कहा जाता है। प्रकृति से उसके लगाव को उसके ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाता है, यह इस कहानी का एक बेहद ज़रूरी प्रसंग है। इसके अलावा डायन बता कर गाँव-संपत्ति से बेदख़ली, तकनीक के प्रयोग से सरकारी योजनाओं का लोगों तक सीधे लाभ पहुँचाने की कोशिश, आदिवासी बच्चों के लिए छात्रवृत्ति की व्यवस्था, पंचायत स्तरीय चुनाव और उसमें राजनीतिक पार्टियों की भागीदारी जैसे कई प्रसंग हैं, जिनकी ज़मीनी हक़ीक़त को वह अपनी इस कहानी में बख़ूबी चित्रित करते हैं।
रणेंद्र अपनी कहानियों में आदिवासी जीवन की चुनौतियों और तकलीफ़ों को उसकी पूरी सम्पूर्णता में चित्रित करने वाले कहानीकार हैं पर वह सिर्फ़ उनके दुःख-तकलीफ़ों को चित्रित करने वाले या निराशा को कहानी में स्थापित करने वाले कहानीकार बिल्कुल नहीं है। वह यथार्थ को नजदीक से और अपनी आँख से देखने वाले रचनाकार हैं। वह यथार्थ को एकायामी नहीं नहीं मानते। इसलिए वह यह नहीं मानते कि सारे सरकारी अधिकारी ख़राब ही होते हैं, कुछ ऐसे भी होते हैं जो अपने दायित्त्व के प्रति गंभीर होते हैं। जब कमीशन नहीं देने की वजह से बिफैया के खाते में पैसा नहीं जाता। वह अपनी शिकायत ले कर बीडीओ के पास जाते हैं। बीडीओ कम्प्यूटर ओपरेटर को जब तलब करते हैं तब, “कम्प्यूटर बाबू कुछ-कुछ सर्वर डाउन, नेट फेल जैसा भुनभुनाने लगा। बीडीओ साहब को मर्ज समझ में आ गई, उनका पारा सातवें आसमान पर, ‘जो लोग पैसा खिलाया उन लोगों का हिसाब ऑनलाइन करते वक्त सर्वर डाउन नहीं था, केवल इनके ही टाइम में सर्वर डाउन हो जाता है’।“[11] बीडीओ बिफैया को विश्वास दिलाते हैं कि दो दिन में आपके अकाउंट में पैसा चला जाएगा। सुन्दर लोग ऐसे अफसरों को बाहर से आया हुआ बेवकूफ अधिकारी समझते हैं। वह शिक्षक जो छात्रवृत्ति का पैसा गबन करके अभावग्रस्त इलाके में ताजमहलनुमा मकान बना लेता है, उनके लिए वह ‘पढ़ा-लिखा समझदार’ है। जो पढाई का सदुपयोग अपनी तिजोरी गर्म करने में लगाता है, वही असली पढ़ा-लिखा माना जाता है। उसका सम्मान और रसूख होता है।
आख़िरकार उस ‘नासमझ’ बीडीओ की कोशिश को वहाँ मौजूद ‘समझदार’ और ‘ज़िम्मेदार’ दलाल लोग सफल नहीं होने देते। ऐसा होने देना उनके उसूलों के ख़िलाफ़ था। सरकारी प्रयास के बावजूद पैसा समय से बिफैया के खाते में नहीं पहुँच पाता। परिणामस्वरूप बिफैया अपने मित्र शनिचर को वापस लाने नहीं जा पाते और अपनी डीह से मीलों दूर वह ख़ून की उल्टियाँ करते मर जाते हैं, बिफैया की माँ अपने एक और बेटे शनिचर के मौत की ख़बर से मौत के थोड़े और क़रीब चली जाती हैं और न्याय के पक्ष में अंत तक डटे रहने वाले स्वाभिमानी बिफैया उराँव ख़ुद को आग लगा कर विकास की वेदी में ख़ुद को स्वाहा कर लेते हैं। उनकी मौत का बहुत कारुणिक चित्रण किया है रणेंद्र ने इस कहानी में, जो बताता है कि असल में वह आत्मदाह नहीं था बल्कि वह बिफैया उराँव की सोची-समझी सांस्थानिक हत्या थी। यह जानना सचमुच दिलचस्प है कि जिस विकास की वेदी के लिए आदिवासी की आहुति ले ली जाती है, उसकी आग पर कैसे पकता होगा विकास का भोग ? लोग उस भोग का उपभोग कैसे करते होंगे और उसका उपभोग कर कैसे ख़ूब प्यार करने वाले पति और पिता कहाते होंगे?
योगेन्द्र आहूजा रणेंद्र के कहानीकार की विशेषता को रेखांकित करते हुए बताते हैं कि रणेंद्र की कहानियों में ‘व्यक्त यथार्थ ऐसा अनखोजा, अग्निमय, उत्तेजनायुक्त है कि कह सकते हैं कि यह हिंदी कहानी का नया चेहरा है। इन कहानियों को ध्यान से पढ़ा जाना तमाम विभ्रमों और छलावों से भरे हमारे समकाल को पढ़े जाने के लिए अपरिहार्य है।’[12] विभ्रमों और छलावों से भरे समय की सच्चाई को रणेंद्र सुलझी हुई दृष्टि और लहजे में हमारे सामने अपनी कहानियों में प्रस्तुत करते हैं। यह कहानी उनकी इस ख़ासियत का प्रमाण है। बिफैया का षड्यंत्र का शिकार होकर ख़ुद को मार डालना हमें कई सारे सवालों के सम्मुख ला खड़ा करता है। उनकी मौत पूरी कहानी को हमारे सामने एक बड़े सवाल में तब्दील कर देता है। उनका जलता हुआ शरीर हमारे सभ्य, सुसंस्कृत, दायित्त्ववान और प्रेमी होने तक पर फिर से और ठीक से सोचने के लिए मजबूर करता है। रणेंद्र एक ऐसा भविष्य चाहते हैं जो विकास से नहीं ख़ुशहाली से जाना जाए। विकास के लिए लोगों की भरी-पूरी खुशियाँ न छीनी जाए। कहानी की शुरुआत में ही बिफैया की मौत और उनके लिए चल रहे न्याय की लड़ाई पर उनकी एक मार्मिक टिप्पणी है, “हवा नहीं चलने से झंडा फहराने की जगह लटका हुआ था मानो हमारी तरह उसका चेहरा भी मायूसी से उतरा हो।"[13] हम में से ऐसा कोई नहीं होगा जो तिरंगे को शान से लहराते हुए नहीं देखना चाहता लेकिन इस उदासी के ख़िलाफ़ लड़ कौन रहा है, ये असल सवाल है।
यह कहानी ज़रूर बिफैया के जलते हुए शरीर पर ख़त्म होती प्रतीत होती है पर जैसा कि मैंने पहले भी निवेदन किया था कि रणेंद्र अपनी कहानियों से निराशा का संचार या उसे निष्कर्ष रूप में स्थापित करने वाले कहानीकार नहीं हैं। इस बात को समझने के लिए हमें इस कहानी की शुरुआत की तरफ़ जाना होगा। यह कहानी जो हमें नैरेट कर रही है, वह अभी बची हुई है। डायन-बिसाही के तमाम आरोप झेलते हुए भी जिस आयो (माँ) ने उसे पढ़ना-लड़ना सिखाया है, वह बुधनी उराँव भी अभी बची हुई हैं और लड़ भी रही हैं। उनकी न्याय पाने की लड़ाई और ललक कम नहीं हुई है। बदली हुई परिस्थितियों में लड़ाई का ढंग बदला है पर हौसला वही है, वे डटी हुई हैं रोहतासगढ़ के सिनगी दई, चम्पु दई और कइली दई की तरह।
बहुत बढ़िया समीक्षा
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