प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी का आलेख एक कम्प्लीट आलोचक मैनेजर पांडेय 

 

मैनेजर पांडेय 


बीते 6 नवम्बर 2022 को हिन्दी साहित्य के प्रख्यात आलोचक प्रोफेसर मैनेजर पांडेय का निधन हो गया। मैनेजर पांडेय ने हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना को, सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के आलोक में, देश-काल और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अधिक संपन्न और सृजनशील बनाने का काम किया। दुनिया भर के समकालीन विमर्शों, सिद्धांतों और सिद्धांतकारों पर उनकी पैनी नजर रहती थी। वैश्विक विवेक और आधुनिकता बोध उनकी आलोचना की प्रमुख विशेषताएं हैं। आलोचक जगदीश्वर चतुर्वेदी ने उनसे केवल शिक्षा ही प्राप्त नहीं की, बल्कि उन्हें नजदीक से देखा और परखा। इसी क्रम में जगदीश्वर जी ने पाण्डेय जी पर एक संस्मरण लिखा है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं जगदीश्वर चतुर्वेदी का संस्मरण 'एक कम्प्लीट आलोचक मैनेजर पांडेय'।



एक कम्प्लीट आलोचक मैनेजर पांडेय 



जगदीश्वर चतुर्वेदी

              


प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडेय की मृत्यु हम सबकी व्यापक क्षति है।आलोचक के मरने पर आम तौर पर लोग वैसे ही दुखी हैं, जैसे अन्य किसी की मृत्यु पर दुखी होते हैं। लेकिन मैनेजर पांडेय की मौत नहीं हुई है। वे अपनी सुनियोजित आलोचना दृष्टि और आलोचना ग्रंथों से हिन्दी आलोचना को जिस ऊँचाई पर ले कर गए हैं उसे देखने, समझने और विकसित करने की ज़िम्मेदारी हम सबकी है। मेरे लिए वह एक महज़ आलोचक नहीं हैं बल्कि हिन्दी के कम्प्लीट आलोचक हैं। फेसबुक पर जिस तरह से उनके शिष्यों, परिचितों और साहित्यानुरागियों ने लिखा है, वह श्रद्धांजलि के अनुसार तो ठीक है, लेकिन एक कम्प्लीट आलोचक की मृत्यु के अनुसार अधूरा है।


        

आलोचक कभी मरता नहीं है। कम्प्लीट आलोचक तो एकदम नहीं मरता। आलोचक का जीवन तो आलोचना है। आलोचना उसे दीर्घकाल तक ज़िंदा रखती है। उनकी पहचान आलोचना से बनी थी न कि प्रोफेसर की कुर्सी से। आमतौर पर कुर्सी गई प्रोफ़ेसर ख़त्म। इन  दिनों  हिन्दी प्रोफ़ेसरों का जो हाल है वह बेहद चिन्ताजनक है, इनमें वे लोग भी शामिल हैं जो मैनेजर पांडेय के छात्र रहे हैं। उनकी मौत पर दुख व्यक्त कर रहे हैं लेकिन आचरण में वे एकदम पांडेय जी से एकदम भिन्न व्यवहार कर रहे हैं। मोदी की तानाशाही का समर्थन कर रहे हैं।


 

           

लोकतंत्र में आलोचक अपना संसार बहुत ही जटिल परिस्थितियों में रचता है। सत्ता के दवाब, लोभ, इनाम और कैरियर की चतुर्मुखी भूख ने इन दिनों हिन्दी जगत ही नहीं समूचे भारतीय भाषाओं के जगत को अपनी गिरफ़्त में ले लिया है। अधिकांश प्रोफ़ेसर-लेखक इस चतुर्मुखी भूख से लड़ना नहीं चाहते। उससे लड़ने की कला सीखना नहीं चाहते। मैनेजर पांडेय ने अपने तरीक़े से इस चतुर्मुखी भूख से लड़ने का बीड़ा उठाया और  उसमें वह सफल हुए। विनम्रता से दर्ज करना चाहता हूँ कि नामवर सिंह ने बाधाएँ न खड़ी की होतीं तो मैनेजर पांडेय कुछ और भी अधिक कर पाते। 

      

गैर-अकादमिक कारणों से पांडेय जी को नामवर जी ने समय पर प्रोफ़ेसर नहीं होने दिया। तरह-तरह से आए दिन अलोकतांत्रिक आचरण किया। इसके बावजूद मैनेजर पांडेय ने अपने सभ्य आचरण में बदलाव नहीं किया। नामवर सिंह के प्रति कटुता या शत्रुता पैदा नहीं की।

          

आलोचक का सभ्यता अर्जित करना और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता अर्जित करना ये दो बड़े काम हैं। पांडेय जी को ये दो लक्ष्य अर्जित करते हुए किस तरह के आत्मसंघर्ष से गुजरना पड़ा था, उनमें से कुछ क्षणों या घटनाओं का मैं स्वयं गवाह रहा हूँ। मैंने नामवर सिंह और मैनेजर पांडेय के विचारों की भिड़न्त में अनेक मर्तबा नामवर सिंह को सामंत की तरह आचरण करते पाया है और पांडेय जी को लोकतांत्रिक पाया है। नामवर सिंह का मैं जानबूझ कर ज़िक्र कर रहा हूँ। क्योंकि नामवर सिंह को जिस तरह पांडेय जी की आलोचक के रुप में मदद करनी चाहिए थी, उनके लेखन पर लिखना चाहिए था, विभाग में उनके कैरियर के विकास में जिस तरह की मदद करनी चाहिए थी वह नहीं की।जबकि पांडेय जी हमेशा नामवर जी का सम्मान करते थे, उनकी आलोचना पर सम्मानजनक ढंग से बोलते थे।

            

एक वाक़या बताना ज़रूरी है। यह घटना सन् 1980 की है।नामवर जी के पैर में जेएनयू में सुबह घूमते हुए गहरी चोट लग गई थी, इसके कारण वे विभाग में कक्षा लेने नहीं आ सकते थे, उन्होंने सुझाव दिया कि विद्यार्थी घर आ कर कक्षा कर लें।अधिकांश छात्र इस पर सहमत हो गए, मैं निजी तौर पर इसके ख़िलाफ़ था। मैंने कहा था कि घर जा कर कक्षा नहीं करूँगा।विभाग में ही किसी शिक्षक को नामवर सिंह का कोर्स पढ़ाने के लिए दे दिया जाये। इस पर नामवर जी मुझ पर नाराज़ हो गए, मेरा एम. ए. का दूसरा सेमिस्टर था। कोर्स था ‘मार्क्सिस्ट एप्रोच टु लिटरेचर’, अंत में मैनेजर पांडेय को यह कोर्स पढ़ाने की ज़िम्मेदारी दे दी गई। मजेदार बात यह है कि इसके पहले नामवर जी ही इसे पढ़ाते आ रहे थे। पहली बार पांडेय जी को मार्क्सवाद पढ़ाने का मौक़ा मिला। हम लोगों ने उनसे ही मार्क्सवाद पढ़ा। नामवर जी ने पढ़ाने के लिए बेहतरीन कोर्स अपने नाम रखे हुए थे। खैर, इसके बाद अनेक चीजें घटीं, जिनसे अपने शिक्षकों के व्यक्तित्व और चारित्रिक वैशिष्ट्य को समझने का अवसर मिला।

        


मैं एक साल (1980-81) कौंसलर था। इस दौरान मुझे निजी तौर पर उनसे अनेक बार मूल्यवान मदद मिली। एक वाक़या याद आ रहा है। स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज (भाषा संस्थान) के डीन थे नामवर जी। बोर्ड ऑफ स्टैडीज की एक ज़रूरी बैठक हुई जिसमें दस साल के भाषा संस्थान के विभिन्न भाषाओं के  पाठ्यक्रम का मूल्यांकन कर के नया पाठ्यक्रम बनाना था। हम सब पाँचों छात्र प्रतिनिधि उसका अंग थे। उन दिनों सोनिया सुरभि गुप्ता कौंसलर कन्वीनर थीं। जो इन दिनों जामिया मिलिया में स्पेनिश की प्रोफ़ेसर हैं। मैं निजी तौर पर पांडेय जी के पास गया और विभिन्न विषयों के विभागों के कोर्स के प्रसंग में बातचीत की, वे बोर्ड के सदस्य नहीं थे। उल्लेखनीय है भाषा संस्थान में हिंदी, उर्दू, जर्मन, फ्रेंच. अंग्रेजी, भाषा विज्ञान, जापानी, कोरियाई, चीनी, दर्शन आदि की पढ़ाई और रिसर्च होती थी। प्रोफ़ेसर सदस्य होते थे। पांडेय जी के अलावा जिस शिक्षक से विचार विमर्श में मदद ली वह थे जर्मन भाषा के प्रोफ़ेसर अनिल भट्टी। उस विचार विमर्श के दौरान पांडेय जी के व्यापक अध्ययन का पहली बार अनुभव हुआ, उनके सुझावों से हमें बहुत मदद मिली। आज स्थिति यह है कि हिंदी के प्रोफ़ेसर ठीक से हिंदी का ही पाठ्यक्रम बनाना नहीं जानते। कालांतर में पाठ्यक्रम में गिरावट जेएनयू में भी देखी गई। खैर, वह एक अलग विषय है। कहने का आशय यह कि पांडेय जी विभिन्न भाषाओं में लिखे जा रहे महत्वपूर्ण लेखन से वाक़िफ़ ही नहीं थे, उसको पढ़ा भी था।

          


अपने साढ़े छह साल के जेएनयू छात्र जीवन में मैंने अनेक मर्तबा मैनेजर पांडेय जी को जिस रुप में आचरण करते देखा, वह स्वयं में प्रशंसनीय है और हम सबके लिए आदर्श है। कई बार ऐसी अवस्था हुई जब जेएनयू प्रशासन के ख़िलाफ़ हम छात्र आंदोलन करते थे, हमें पांडेय जी का बिना शर्त समर्थन मिलता था। वहीं दूसरी ओर नामवर सिंह और केदार नाथ सिंह ने कभी छात्रों की माँगो, उनके ऊपर हो रहे अत्याचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद नहीं की।

       


मुझे एक अन्य घटना याद आ रही है, यह घटना भारत के विश्वविद्यालय इतिहास की महानतम घटना है। मई सन् 1983 में छात्रों का व्यापक आंदोलन हुआ। कुलपति का घेराव घर पर चल रहा था। सभी प्रमुख प्रगतिशील प्रोफ़ेसर एकजुट हो कर वीसी पी. एन. श्रीवास्तव के समर्थन में थे, चंद प्रोफेसर थे जो छात्रों के साथ थे, उनमें मैनेजर पांडेय भी शामिल थे। उनके अलावा जी. पी. देशपांडे, पुष्पेश पंत, गिरिजेश पंत, प्रभात पटनायक, उत्सा पटनायक, हरिवंश मुखिया, सुदीप्त कविराज भी छात्रों की माँगो का समर्थन कर रहे थे। आधिकारिक तौर पूरी सीपीआई शिक्षक लॉबी वीसी के साथ थी। ये सभी लोग अंतरराष्ट्रीय राजनीति, समाज विज्ञान में प्रोफ़ेसर थे। सभी प्रतिक्रियावादी-आरएसएस वाले भी वीसी के साथ थे, इनमें अधिकांश साइंस स्कूलों में प्रोफ़ेसर थे। हिंदी में नामवर सिंह खुल कर वीसी का समर्थन कर रहे थे। यह उनका घोषित सबसे बुरा राजनीतिक आचरण था। ये बातें लिखने का आशय किसी शिक्षक का अपमान करना नहीं है, सिर्फ़ एक बात रेखांकित करना है कि प्रोफ़ेसर के सही नज़रिए की पहचान की कसौटी है छात्र संकट के समय उसका आचरण। छात्र संकट के समय वह किसकी ओर है? 

            


जेएनयू में उन दिनों अधिकांश प्रोफ़ेसर संकट की घड़ी में सत्ता के साथ जुड़े रहते थे। मई 1983 की घटना भारत के विश्वविद्यालयों के इतिहास में असाधारण दमन-उत्पीडन की घटना है। इसे सामान्य घटना के रुप में न देखें। जेएनयू अनिश्चित काल के लिए बंद कर दिया गया, पाँच हज़ार पुलिसकर्मियों की फ़ौज ने कैम्पस घेर कर वीसी के घेराव को तोड़ा, जबकि घेराव शांतिपूर्ण था।शांतिपूर्ण छात्र आंदोलन पर हमला विरल घटना थी। एक साल के लिए जेएनयू में नए सत्र के दाख़िले नहीं लिए गए। सभी नीतियाँ बदल दी गईं। कैंपस में तानाशाही नियम लागू कर दिए गए। सभी विद्यार्थियों को चौबीस घंटे में होस्टल ख़ाली करने का आदेश जबरिया लागू किया गया, देखते ही देखते पूरा कैंपस श्मशान में तब्दील कर दिया गया। तकरीबन चार सौ छात्र गिरफ्तार कर के तिहाड़ में 15 दिन के लिए बंद कर दिए गए, उनमें नोबल पुरस्कार विजेता अभिजित बैनर्जी भी शामिल था, ऐसे प्रतिभाशाली छात्र भी थे जो बाद में आईएएस बने। इन सभी 400 छात्रों पर 18 से अधिक धाराओं में झूठे मुक़दमे दर्ज कर दिए गए, जबकि उनका कोई अपराध नहीं था, वे बसंत विहार पुलिस स्टेशन जुलूस लेकर गए थे और माँग कर रहे थे घेराव को तोड़ने के नाम पर पुलिस ने जिन 31 छात्रों को गिरफ्तार किया है उनको तुरंत छोड़ा जाए। मैं उन दिनों एस.एफ.आई. जेएनयू यूनिट का अध्यक्ष था, सभी संगठनों के छात्र नेता, छात्र संघ की लीडरशिप तिहाड़ जेल में बंद थी। छात्र नेताओं में मैं अकेला बाहर था। यह संगठन का फ़ैसला था कि यदि गिरफ़्तारी होती है तो मुझे बाहर रह कर छात्रों को संगठित करना है, ज़मानतें करानी होंगी। हम लोगों ने कठिनतम परिस्थितियों में उस आंदोलन को बाहर ज़िंदा रखा, इसके वाबजूद ज़िंदा रखा, जबकि कैंपस ख़ाली हो चुका था। उस संघर्ष के दौरान मैनेजर पांडेय उन चंद शिक्षकों में थे जिन्होंने छात्रों के आंदोलन का समर्थन किया था। उस आंदोलन में शामिल छात्रों पर जो मुक़दमे चले उनमें मैं, सहयोगी छात्रों के साथ लगातार अदालत जाता रहा, हमें दो साल लगे उन मुक़दमों को ख़त्म कराने में । मैं जब 1984 में छात्र संघ अध्यक्ष बना तब वी सी पी. एन. श्रीवास्तव को मुकदमे वापस लेने के लिए मजबूर करने में सफलता मिली। स्थिति की भयावहता का अंदाज़ा इससे लगाएँ कि कैंपस में चंद शिक्षकों को छोड़ कर  सभी प्रोफ़ेसर वी सी के साथ थे। आंखें बंद कर के उसका समर्थन कर रहे थे। उस समय आतंक का आलम यह था कि सारे नियम, यहां तक कि दाख़िला नीति तक बदल दी गई थी। बड़ी संख्या में छात्रों को निष्कासित किया गया।छात्र जुलूस में नहीं आते थे। स्थिति की भयावहता का आलम यह था कि जुलूस में मुश्किल से पांच-सात छात्र आते थे, सभी संगठनों के सदस्यों में आतंक का व्यापक असर था, आंदोलन पर से आस्थाएँ उठ गई थीं। ऐसी परिस्थितियों में कैंपस और छात्र आंदोलन को पुनः जीवंत बनाना सबसे कठिन काम था। छात्रों में आत्मविश्वास पैदा करना मुश्किल काम था लेकिन हमने वह सब किया जो जेएनयू के गौरव को पुनः पाने के लिए ज़रूरी था। इस काम में हमें जेएनयू के पूर्व छात्रों की बहुत मदद मिली। यहाँ उनके नाम नहीं लिख रहा हूँ। लेकिन उनकी अकल्पनीय मदद और चंद जुझारू प्रतिवादी प्रोफ़ेसरों की मदद के बिना जेएनयू के गौरव को नए सिरे से स्थापित करना संभव नहीं था। इस घटना को अधिकतर नए छात्र नहीं जानते, वे सिर्फ़ कन्हैया कुमार कांड जानते हैं। मोदी युग में जितने हमले हुए हैं उनका जिस बहादुरी से सामना छात्रों-शिक्षकों ने किया है वह प्रेरणा की चीज है। पर पुराने संघर्षों को नहीं भूलना चाहिए।

            


एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मैनेजर पांडेय ने पश्चिम की आलोचना, खासकर साहित्य के समाजशास्त्र पर मूल्यवान किताब लिखी। यह सभी भारतीय भाषाओं में अनूठी किताब है।कविता और किसान के अंतस्संबंध की मध्य काल में सबसे पहले खोज की और सूरदास के काव्य और किसानों से जोड़ कर रिसर्च की।   

      


अवधारणा में लिखने की परंपरा का विकास किया। पांडेय जी जिस समय आलोचना में दाखिल होते हैं उस दौर में अवधारणाओं में न सोचने की बीमारी आ चुकी थी। पांडेय जी जब भी लिखते अवधारणा को केन्द्र में रख कर लिखते। काश, उनके शिष्य और हिंदी आलोचक एक यही बात उनसे सीख लेते और अवधारणाओं में लिखते तो हिंदी का बड़ा उपकार होता।अवधारणाओं में न सोचने के कारण हिंदी आलोचना सिर्फ़ शब्दों का खेल हो कर रह गयी है। उसका कोई असर नहीं होता।


           

पांडेय जी ने मार्क्सवाद का सर्जनात्मक ढ़ंग से आलोचना में सिद्धांत और व्यवहारिक आलोचना के रुप में विकास किया।मार्क्सवादी नज़रिए से लिखते समय जड़ मार्क्सवादी लेखन और पार्टीगत मार्क्सवादी लेखन इन दोनों से मार्क्सवाद और आलोचना की रक्षा की। उनकी कृतियाँ हिंदी आलोचना की अमूल्य निधि हैं। हम आलोचना कैसे लिखें, यह उनसे सहज ही सीख सकते हैं। उन्होंने 28 किताबें लिखीं। उनके लिए कोई सरकारी ग्रांट नहीं ली। कोई बड़ा यूजीसी प्रोजेक्ट नहीं लिया।वे किताब लिखने के लिए छुट्टी ले कर घर पर नहीं बैठे, शिमला नहीं गए। निरंतर पढ़ाना और नए विषयों पर किताबें लिखना, यह उनके दैनंदिन जीवन का अंग था। आलोचना दिनचर्या थी, संस्कार थी। उन्होंने छात्रों के साथ मित्रता का सम्बन्ध बनाया और सत्ता से सारी ज़िन्दगी दूरी बनाए रख कर लोकतंत्र की सेवा की। उनकी मौत से हम सब आहत हैं।






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