मनोज कुमार पांडेय की प्रेम कविताएँ

 


 

 परिचय

 

मनोज कुमार पांडेय

                                                                                

 

 7 अक्टूबर 1977 को इलाहाबाद के एक गाँव सिसवाँ में जन्म। लम्बे समय तक लखनऊ और वर्धा में रहने के बाद आजकल फिर से इलाहाबाद में।

 

कुल पाँच किताबें - शहतूत, `पानी, `खजाना और `बदलता हुआ देश (कहानी संग्रह), प्यार करता हुआ कोई एक (कविता संग्रह) - प्रकाशित। देश की अनेक नाट्य संस्थाओं द्वारा कई कहानियों का मंचन। कई कहानियों पर फिल्में भी। अनेक रचनाओं का उर्दू, पंजाबी, नेपाली, मराठी, गुजराती, मलयालम तथा अंग्रेजी आदि भाषाओं में अनुवाद। कहानी और कविता के अतिरिक्त आलोचना और सम्पादन के क्षेत्र में भी रचनात्मक रूप से सक्रिय।

 

कहानियों के लिए स्वयं प्रकाश स्मृति सम्मान (2021) वनमाली युवा कथा सम्मान (2019), राम आडवाणी पुरस्कार (2018), रवीन्द्र कालिया स्मृति कथा सम्मान (2017), स्पन्दन कृति सम्मान (2015), भारतीय भाषा परिषद का युवा पुरस्कार (2014), मीरा स्मृति पुरस्कार (2011), विजय वर्मा स्मृति सम्मान (2010), प्रबोध मजुमदार स्मृति सम्मान (2006)। 

 

 

मनोज कुमार पाण्डेय 

 

 

कुछ अनुभूतियां सार्वजनिक होते हुए भी बिल्कुल व्यक्तिगत होती हैं। प्यार ऐसी ही अनुभूति है। प्यार होने पर ही इसकी अनुभूति होती है। तभी इसका वह रूप दिखाई पड़ता है जो वस्तुतः इसकी मूल प्रकृति होती है। जीवन सहकार भरा जीवन लगने लगता है। प्रेमी युगल अपना अस्तित्व मिटा कर एक दूसरे में खो जाना चाहते हैं। यह एक तरह की आध्यात्मिक अनुभूति है। इसे प्रेम करने वाला ही समझ सकता है जिसके बारे में कबीर कहते हैं 


कबीरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।

शीश उतारे भूईं धरै सोई पैठे मन माहिं।।


मनोज कुमार पाण्डेय आम तौर पर एक कहानीकार के रूप में चर्चित हैं। लेकिन इन्होंने कुछ बेहतरीन कविताएं भी लिखी हैं। हाल ही में मनोज का एक कविता संग्रह राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं मनोज कुमार पाण्डेय की कविताएं, जो उनके इसी संग्रह से ले गई हैं।




मनोज कुमार पांडेय की प्रेम कविताएँ    

 

 

 

 

अनुक्रम

 

 

ये मेरा कौन सा रूप था छुपा हुआ

बगल में रूप धरे बैठा होता वियोग

तुझे याद करता हूँ नदी की तरह

एक नया फूल ढूँढ़ता हूँ रोज

एक दिन खो जाऊँगा तुममें कहीं

प्यार में रुलाई

मैं हमेशा तुम्हें ढूँढ़ता हूँ

देर तक मुस्कराता हुआ चुप रहा

एक बहुत लंबी रुलाई

पलाश

 

  

 

 

ये मेरा कौन सा रूप था छुपा हुआ

 

 

प्यार में हूँ तो बहुतों का प्यार याद आता है

रोता हूँ

तो बहुतों के आँसू याद आते हैं

प्यार में होना एक और दुनिया में होना है

 

 

चलता हूँ तो बहुतों के साथ चलता हूँ

अपने अकेलेपन को खोता हुआ

तड़पता हूँ तो बहुतों की तड़प याद आती है

मेरी उनकी तड़पों के बीच ये रिश्ता कब बना

 

 

ये मेरा कौन सा रूप था छुपा हुआ

मेरे भीतर जो दिखा दिया तूने

 

 

 

 

बगल में रूप धरे बैठा होता वियोग

 

 

बगल में बैठा होता रूप धरे वियोग

बना ठना तेरा ही रूप बनाए

मै पड़ जाता हूँ बार-बार गफलत में

जानता हूँ कि ये मेरी जान है बगल में बैठी हुई

 

 

दो बातें करता हूँ और छूता हूँ

देखता हूँ टकटकी लगाए चूमने को बढ़ता हूँ

सब कुछ साफ साफ दिखने लगता है उसी पल

नहीं है ये मेरी जान

उसका रूप धरे बैठा है वियोग

 

 

उसे धरने को तेरा ही रूप मिला था मेरी जान

 

 


 

 

 

तुझे याद करता हूँ नदी की तरह

 

 

तुझे याद करता हूँ नदी की तरह

पीता हूँ तेरा पानी और तुझमें डूब जाता हूँ

 

 

तुझे याद करता हूँ हवा की तरह

साँस लेता हूँ और जीता हूँ

 

 

तुझे याद करता हूँ रोशनी की तरह

देखता हूँ दुनिया  कहीं घूम आता हूँ

 

 

तुझे याद करता हूँ अँधेरे की तरह

गुम होता हूँ तेरे खयाल में और सो जाता हूँ

 

 

तुझे याद करता हूँ पहाड़ की तरह

सारी ऊँचाइयाँ तेरी दी हुई हैं

 

 

तुझे याद करता हूँ सागर की तरह

न देखी गहराई ऐसी कहीं न विस्तार

 

 

तुझे याद करता हूँ पेड़ की तरह

तू है तो हरियाली है हवा है साँस है

 

 

तुझे याद करता हूँ पृथ्वी की तरह

अछोर है तू मेरे पैर बहुत छोटे

 

 

तुझे याद करता हूँ जिंदगी की तरह

तू है तभी मैं हूँ मैं हूँ तभी तू है 

  

 

 

एक नया फूल ढूँढ़ता हूँ रोज

 

 

एक नया फूल ढूँढ़ता हूँ रोज

कि देख सकूँ हर दिन

एक नए फूल की तरह खिला तुम्हारा चेहरा

एक नई बात खोजता हूँ रोज

कि वह तुम्हें नई लगे

साथ में मेरा भी जादू रहे बरकरार

 

 

तुम्हारी रुचियों के बारे में तुमसे ज्यादा सोचता हूँ

क्या पढ़ रही हो तुम इन दिनों

चाहता हूँ तुमसे पहले उसे पढ़ डालूँ

यही बहाना सही

पर तुमसे बातें कर पाऊँ खूब खूब

 

 

तुम्हारी पसंद के रंग के पहनता हूँ कपड़े

कि देखो तुम मुझे उन रंगों के बहाने ही

मोबाइल में है तुम्हारी पसंद की रिंगटोन

तुम्हारी पसंद के गीत गुनगुनाता हूँ 

 

 

क्या करूँ तब भी नहीं बचा पा रहा अपना प्यार

 

 

मुझे याद नहीं कि तुमसे पहले

कौन से गीत गुनगुनाता था मैं

मेरा पसंदीदा रंग कौन सा है

कौन सी किताबें हैं जो अपने लिए चुनी थी मैंने

कि कौन सा है मेरा पसंदीदा फूल

जिसकी जगह किसी जरबेरा ने ली आ कर

 

 

हर पल गुम हो रहा हूँ तुममें

और तुम्हें खोता जा रहा हूँ

 

 

 

एक दिन खो जाऊँगा तुममें कहीं

 

 

तुम्हारी आँखें महासागर हैं

मैं पीड़ा का एक घनीभूत बिंदु भर हूँ

जिसका अक्स

कभी कभार तुम्हारी आँखों में पड़ता है

 

 

जो न भी पड़े तब भी कोई बात नहीं

तब भी तुम्हारी आँखें महासागर

मैं पीड़ा का एक घनीभूत बिंदु भर

 

 

और और घनीभूत होता हुआ

एक दिन खो जाऊँगा तुममें कहीं

  

 

 


 

 

प्यार में रुलाई

 

 

प्यार में जब रुलाई आती है तो यूँ ही अचानक नहीं आती

उसके पहले संकेतों की लंबी शृंखला होती है

 

 

रुलाई के पहले एक आदिम डर आता है

रुलाई के पहले एक आशंका आती है

प्रिय की अच्छी बुरी स्मृतियों से जुड़ती हुई

रुलाई से पहले दिखाई पड़ता है अपना एकाकी तन

और दूर दूर तक कोई दिखाई नहीं पड़ता

 

 

रुलाई के पहले याद आते हैं अच्छे बुरे संयोग

रुलाई के पहले याद आते हैं अच्छे बुरे लोग

जिन्होंने प्यार की राह में काँटे बिछाए या फूल

रुलाई के पहले आँखों में भर जाती है धूल

 

 

या फिर हो सकता है ऐसे भी कि

तन को छुए सूरज की कोई गर्म किरन

और रुलाई आ जाय

तन को भिगोए बारिश की रिमझिम फुहार

और रुलाई आ जाय

 

 

रुलाई आने के पहले कानों में नहीं बजता करुण संगीत

रुलाई आने के पहले जगह बेजगह भी नहीं देखती

रुलाई तब भी आ सकती है जब ट्रेन में बैठा हो कोई

ट्रेन भागी चली जा रही हो धड़धड़धड़

दिख रहे हों खेत मैदान पेड़ चिड़िया और तालाब

उन सब के बीच दिख रहे हों लोग

और अचानक बगल की पटरी पर गुजरे

धड़धड़ाती हुई कोई रेल

गुम हो जायँ पल भर के लिए सारे दृश्य

और रुलाई आ जाय

 

 

लगी हो एक अबूझ अछोर प्यास

दरिया मना कर दे देने से अपना पानी

एक खारा समंदर उग आए हलक में

बहे आँखों से हो कर के

 

 

आटो में बैठकर चले जा रहे हो सिर झुकाए

बगल से सट कर गुजरे एक नया नया प्रेमी जोड़ा

बेशक वे सीख ही रहे हों प्रेम करना

उन्हें देखे आँख और आँखों से बह निकले पानी

 

 

प्यार में जब रुलाई आनी होती है तो आ ही जाती है

और रुलाई के इतने कारण एक साथ होते हैं

कि कोई एक कारण नहीं होता

प्यार में रुलाई को आना होता है

तो आ ही जाती है रुलाई

 

 

 

मैं हमेशा तुम्हें ढूँढ़ता हूँ

 

 

मैं हमेशा तुम्हें ढूँढ़ता हूँ

जैसे एक हाथ दूसरे हाथ को ढूँढ़ता है

 

 

तुम्हारे बिना यह जिंदगी वैसे ही है

जैसे एक हाथ से ही करने हों सारे काम

एक ही आँख से देखनी हो दुनिया

एक ही पैर से घिसटा जाय इधर उधर बेमतलब

दूसरे पैरों की जगह झूठ मूठ की बैसाखी लगाए हुए

जैसे एक ही फेफड़े से ली जाय साँस और डरते रहा जाय

एक ही फेफड़ा है न जाने कब छोड़ दे साथ

 

 

जैसे एक बहरा कोलाहल हो जिसमें फँसी हो जिंदगी

जैसे खूब प्यास लगी हो और पानी मिले खौलता हुआ

पीने पर पड़ जाएँ हलक में फफोले निकल जाए जान

जैसे बादल घिरे और गरजे तो डर लगे कँपकँपी हो

बारिश हो तो पानी की बजाय बरसाए कंकड़ पत्थर

 

 

मैं हमेशा तुम्हें ढूँढ़ता हूँ

जैसे लिखने के लिए स्याही ढूँढ़ती है निब

जैसे जलने के लिए आग ढूँढ़ती है ऑक्सीजन

 

 

 


 

 

 

देर तक मुस्कराता हुआ चुप रहा

 

 

मैं बैठा किसी से बात कर रहा था

उन्हें हर बात दोहरानी पड़ रही थी

फिर भी नहीं मिल रहा था सही जवाब

थोड़ी देर में पूछ ही लिया क्या हुआ मित्र

कुछ परेशान से हो कहीं खोए हो क्या बात है

मैं उस समय तुममें खोया था और जल रहा था

 

 

 

मैं चिल्ला चिल्ला कर रोने को था जब पानी आया

भीतर ही भीतर दाब रहा था रुलाई

दो पीस बर्फी चाय और नमकीन ने मेरी मदद की

 

 

 

मेरी आँखों में दुनिया भर के दुश्मन दृश्य तैर रहे थे

जब मैं कर रहा था कविता कहानी पर बात

यही दुनिया है और यही इस दुनिया का जीवन

रोता हूँ तो उन आँसुओं से तार जोड़ता है कोई और

कितने वाकए हैं मेरे जीवन के जो जुड़ते हैं तुमसे

उन्हें कई बार मैं ही जोड़ देता हूँ किसी और के साथ

 

 

 

बाहर निकला हवा थी जिसमें तेरी महक थी भरी

मैं सिहर कर कँपकँपाया तो साथ चल रहे दोस्त ने थामा

क्या हुआ पूछा मैंने कहा हवा सुंदर बह रही है

और उसमें हिल रहे हैं अमलतास के फूल

मेरे भीतर भी कुछ हिल सा गया था

दोस्त ने अजीब नजरों से देखा मुझे और मुस्कराया

मैंने भी उसकी नकल की और देर तक मुस्कराता हुआ चुप रहा 

 

 

 

बहुत लंबी रुलाई

 

 

बहुत लंबी रुलाई हूँ मैं

एक अनंत साँस में फैली हुई

एक कंपन है जिससे लिपटकर

थरथरा रहा है सब कुछ

 

इसी थरथराहट में मैं भी हूँ

मेरी रुलाई भी

 

 

 

 

 

पलाश

 

 

यह फरवरी होती है कि एक दिन

हम अचानक देखते हैं उनके लाल तप्त होंठ

साल के बाकी समय वे धूसर दिखते हैं

विरक्त सब कुछ से

 

वे अभिसार की कामना में नग्न होते जाते हैं पूरी तरह

कई बार तो अपना आखिरी पत्ता तक उतार फेंकते हैं व्याकुल हो कर

धूप चटक होती जाती है वे लाल होते जाते हैं

इतना रंग इतनी कामना इतनी आग कहाँ छुपी रहती है उनके भीतर

 

 

यह उनकी विकल पुकार है प्रेम की

यह हमारे पुरखों की वेदना का लहू है

मैं अपने उन्हीं पुरखों का अंश

पागल भटकता हूँ तुम्हारे लिए हर पल

 

 

मैंने समय की समझ खो दी है

कभी भी हो जाता हूँ लाल

कभी भी दिखने लगता हूँ धूसर

कभी भी होता हूँ नग्न और रोता हूँ तुम्हें पुकारता हुआ

 

 


सम्पर्क 

 

फोन : 08275409685

टिप्पणियाँ

  1. बहुत दिनों बाद इतनी प्रेम कविताएं पढ़ी। सब लाजवाब...प्रेम पगी कविताओं के लिए साधुवाद!

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  2. रूलाई बहुत भेदने वाली कविता है।

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  3. बहुत सुंदर कविताएँ।मन में उतरती हुई।

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  4. Beautiful poems👏👏 heart touching ❤️❤️

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  5. प्रेम की अनेक रंगों से हमारा माकूल परिचय कराने वाली कवितायें । हार्दिक शुभकामनायें!

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  6. अत्यंत भावपूर्ण संग्रह है, भाईसाहब। बहुत बधाई आपको

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