राकेश कुमार मिश्र का आलेख 'साहित्य और संगीत : कुछ नोट्स'।

 



कला हमें जीने का सलीका ही नहीं सिखाती बल्कि हमें एक बेहतर मनुष्य भी बनाती है। कला का यह तरीका सघन होता है इसलिए इसका प्रभाव स्थाई होता है। कला की जड़ें समाज में ही पसरी होती हैं। वहीं से वह अपने लिए खाद पानी जुटाती है। इसीलिए जब हम कला के किसी भी रूप से रू ब रू होते हैं तो उसमें अपने सुख, दुःख, जीवन, अनुभव आदि को किसी न किसी रूप में साकार पाते हैं और उससे खुद को जुड़ा हुआ पाते हैं। इसी तरह कला सार्वजनीन होती है। राकेश कुमार मिश्र ने कला खासकर साहित्य और संगीत पर विचार करते हुए छोटे छोटे कुछ नोट्स लिए हैं, जो अत्यन्त मूल्यवान हैं। कला को जानने, सीखने और अनुभव करने का यह भी एक अलग तरीका है। भले ही ये नोट्स छोटे छोटे हों लेकिन ये संवेदनशील मन को कुरेदते हैं और सोचने के लिए बार बार विवश करते हैं। राकेश जी का पहली बार पर एक लेखक के रूप में आगाज हमारे लिए सुखद है। शुभकामनाओं के साथ साथ हम इनका स्वागत करते हैं। तो आइए आज 'पहली बार' पर पढ़ते हैं राकेश कुमार मिश्र का आलेख 'साहित्य और संगीत : कुछ नोट्स'।



साहित्य और संगीत : कुछ नोट्स



राकेश कुमार मिश्र 



कला को जीने का समय सबसे महत्वपूर्ण समय है। इसका मतलब यह नहीं कि कला के दूसरे क्षणों का महत्व नहीं है। कला की ‘तैयारी’ मुझे कला के ‘सम्प्रेषण’ से कहीं ज्यादा आकर्षित करती है। मेरे लिये कला की ‘तैयारी’ का यह मतलब नहीं है कि किसी कला या अपने काम पर बहुत व्यवस्थित हो कर काम करना। पर इसके बजाए कला के हर छोटे से छोटे हिस्से को जानने की कोशिश करना। जब कोई भी कलाकार काम करना शुरू करता है तो यह देखना दिलचस्प होता है कि वह किस तरह से अपने काम के हर छोटे और मामूली हिस्से को जानने, समझने और बेहतर बनाने की कोशिश कर रहा है। चाहे कला का कोई भी माध्यम हो, सृजन का सुख और प्रसव पीड़ा दोनों ही जीवन भर किसी कलाकार के साथ रहता है। कला के ‘सम्प्रेषण’ के बाद कला कलाकार के हाथ में नहीं रह जाती। कला का ‘सम्प्रेषण’ कला की विदाई भी है। अपने कला का ‘सम्प्रेषण’ करते समय कलाकार अपने कुछ निहायती निजी अनुभवों को विदा कर रहा होता है, इस भरोसे के साथ कि शायद इन अनुभवों को कोई जानने, समझने और हिस्सा बनने की कोशिश करेगा। कल सत्यजीत रे की 'अप्पू ट्राइलॉजी' देखने के बाद घंटों ‘कला की तैयारी’ वाले पक्ष पर सोचता रहा। ‘कला सम्प्रेषण’ का जीवन कितना छोटा है?


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कला बोध से अबोध की यात्रा है। कला के साथ रहने के लिए बोध से ज्यादा अबोध होने की ज़रूरत है। अबोधपन वो स्थिति है जिसमें ये एहसास लगातार बना रहता है कि मुझे क्या-क्या नहीं पता। और मैं कितना कम जानता हूं। बिना अबोधपन के कला के साथ नहीं रहा जा सकता। बोध का भाव कुछ-कुछ संतोष की तरह लगता है पर ये भटका भी सकता है। अबोधपन ही असल में किसी कलाकार को बचाए रखता है।



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कला के किसी भी रूप के पास जाते हुए डर लगता है। हर कला एक ऐसी दुनिया है जहाँ से लौटना संभव नहीं है। और यह बात उन्हीं लोगों पर लागु होती है जिन्होंने कला के किसी रूप को ईमानदारी से छुआ है।


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मणि कौल की डाक्यूमेंट्री 'सिद्धेश्वरी' (1989) देखते हुए बहुत कुछ समझ में नहीं आया। जो समझ में आया वो है उनकी तैयारी। तमाम कलाओं से उनका अथाह प्रेम। सिनेमा की दुनिया में रहते हुए भी कोई दूसरी कलाओं से किस हद तक संवाद स्थापित कर सकता है, मणि कौल जी का रचना संसार इसका सुंदर उदहारण है। मणि सर कठिन हैं। पर उन तक बार-बार पहुँचने का मन करता है।


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क्या निर्मल वर्मा को पढ़ने का एक तरीका ये हो सकता है कि आप कई दिनों तक भूखे रहें? अन्न, जल और वायु से दूर रहें और फिर निर्मल वर्मा को पढ़ें। मुझे लगता है कि निर्मल वर्मा को पढ़ते हुए आपको अन्न, जल और वायु तीनों मिलता है | निर्मल वर्मा का साहित्य “अमृत-मंथन” से निकला साहित्य है। निर्मल वर्मा की हर कहानी वेद की किसी सूक्ति की तरह लगती है, जिसका अर्थ खोजने में शायद पूरा जीवन निकल जाए। अपने तमाम अबोलेपन और अनकहेपन के बावजूद निर्मल वर्मा उस पीड़ा को हमारे सामने रख देते हैं जो हमें मनुष्य होने के कारण भोगनी पड़ती है। हमारी गलती सिर्फ इतनी है कि हम मनुष्य हैं। हमारी एक देह है और यह देह इस संसार से जुड़ी हुई है।


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रघु जी (हिंदी के महत्वपूर्ण कथाकार स्वर्गीय रघुनंदन त्रिवेदी) को पढ़ते हुए चेखव की बार-बार याद आती है। किसी सुंदर वाक्य की तरह यह बात भी कितनी सुंदर है कि रघु जी चेखव को बेहद पसंद करते थे। रघु जी के देहांत के बाद उनके घर से जो दस्तावेज़ मिले उनमें चेखव की कई कहानियाँ भी शामिल थी। उन्होंने हिंदी कहानी में अपने लिए अलग तरह की जगह बनाई। उनके कहानियों में भाषा का खिलवाड़ नहीं है बल्कि भाषा को साधने की गज़ब की ललक है। रघु जी इंक पेन से लिखते थे। जब मैंने पहली बार उनकी हैंडराइटिंग देखी तो ये लगा जैसे स्कूल जाने वाला कोई बच्चा पूरे एकाग्रता से अपना होमवर्क लिख रहा हो।


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कला को समझने एक तरीका ये भी हो सकता है कि कला को समझने की कोशिश ना की जाए। कला को समझने जैसी कोई स्थिति होती भी नहीं। कला तक पहुँचा जा सकता है। बिना किसी पूर्वाग्रह के किसी कलाकृति या कलाकार तक पहुँचा जाये तो कोई रास्ता निकल सकता है। कला या कलाकार तक पहुंचने का रास्ता कलाकृति को समझने का रास्ता नहीं।

 


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कला के दो पक्ष हैं। पहला पक्ष है : अभ्यास पक्ष। दूसरा पक्ष है : वैचारिक पक्ष। एक कलाकार जो अपने अभ्यास पक्ष में पारंगत है, कोई ज़रुरी नहीं कि वह अपने वैचारिक पक्ष में भी उतना ही पारंगत हो। यह बात सिर्फ कला पर ही लागू नहीं होती बल्कि यह बात दुनिया के हर पेशे और काम पर लागू होता है। कम से कम हर इंसान को अपने काम के अभ्यास पक्ष और वैचारिक पक्ष के बारे में पता होना चाहिए।



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भारतीय शास्त्रीय संगीत का जो रियाज़ वाला पक्ष है, वह मुझे सबसे ज़्यादा आकर्षित करता है। बिना रियाज़ किए आप अच्छा गायक या वादक नहीं हो सकते। और गुरु का काम है कि वह अपने शिष्य को रियाज़ करना सिखाए। रियाज़ का रास्ता मुश्किल है। इतना मुश्किल इसलिए कि यह जीवन भर करना है। हाल ही में हमारे समय के प्रतिष्ठित शास्त्रीय गायक मधुप मुद्गल जी का 'द हिन्दू' (15 दिसम्बर, 2018) में छपा इंटरव्यू पढ़ रहा था। एक जगह उन्होंने कहा कि, “नए गायकों को कम-से-कम बारह घंटे रियाज़ करना चाहिए”। यह कथन लगातार मेरे दिमाग में बना रहता है। इस कथन को समझने की कोशिश करता रहता हूँ। बारह घंटा रियाज़ करने का क्या मतलब है? भले ही मैं शास्त्रीय गायक नहीं बनना चाहता, लेकिन क्या मेरे पास इतना धैर्य है?

मैं अपने आप से यह सवाल लगातार पूछना चाहता हूँ कि मैं पढ़ने-लिखने के लिए कितना रियाज़ कर रहा हूँ?


(10)


किसी अभिनेता का सबसे बड़ा सपना क्या हो सकता है? 

जवाब : वह कुछ ऐसा करे कि दर्शक और अभिनेता के बीच जो अदृश्य दीवार है, वह ध्वस्त हो जाये। अभिनेता होना उस जादू की खोज है, जिस जादू में कोई अभिनेता अपने दर्शक को डूबा कर आश्चर्य के पहाड़ पर उसे अकेला छोड़ दे। अभिनय जादू और सहजता की आराधना है। यानी कोई अभिनेता अपने अभिनय में इतना सहज हो जाए कि ‘असल’ और ‘अभिनय’ का फर्क खत्म हो जाए। टौड फिलिप्स द्वारा निर्देशित फ़िल्म 'जोकर' (2019) देखते हुए बार-बार ये सवाल दिमाग में आया कि अभिनय को कैसे समझा जाए? 'जोकर' के अभिनय में वाकिन्स फिनिक्स के अभिनय को सिर्फ अच्छा कह देना आलस्य का जश्न होगा। फिनिक्स ने भविष्य के अभिनेताओं के लिए अभिनय के उस रास्ते को खोला है, जिस रास्ते पर चलना किसी अभिनेता के लिए आसान नहीं होगा। टौड फिलिप्स ने अपनी फ़िल्म में लाफ्टर के हर उस रंग को दिखाया है, जो सिर्फ अंधकारमय ही नहीं डरावना भी है। पूरी फ़िल्म में वाकिन्स फिनिक्स को अपनी हँसी को रोक पाने की असफल कोशिश में देखा जा सकता है। जोकर की भूमिका में फिनिक्स अपने तबाह होते जीवन में अनेक लोगों से मिलता है, जो उसके हँसी को अपमान की तरह देखते हैं। जोकर के हँसी पर थोड़ा ठहर कर सोचे तो पाएंगे कि वह किसी और पर नहीं बल्कि ख़ुद पर हँस रहा है। अपने जीवन के उन तमाम त्रासदियों पर हँस रहा है, जो अभिशाप बन कर उसके साथ हैं।



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आदिवासी समाज कथाओं का अथाह समंदर है। इस समाज के पास हर अवसर, घटना और वस्तु के लिए कथा है। ये कथायें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक नए संस्करण में पहुँचती हैं। हर पीढ़ी इस कथा में कुछ नया जोड़ देती है। मध्य प्रदेश के भोपाल में स्थित आदिवासी संग्राहलय को देखते हुए आदिवासी जीवन के व्यापकता का बोध बार-बार होता है।


इस संग्राहलय का एक हिस्सा ये बताता है कि किस तरह पृथ्वी का जन्म हुआ? और पास ही स्थित एक दूसरा कोना अपने पूर्वजों को याद करने की कोशिश है। शायद ये भारत का पहला संग्रहालय है, जिसमें लाइटिंग का इतना शानदार इस्तमाल किया गया है।



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अमित दत्ता का सिनेमा चित्रकारी का विस्तार है। उनकी फ़िल्म 'नैन सुख' (2010) को देखते हुए लगा कि मैं किसी बड़े कैनवास पर बने विशालकाय चित्र को देख रहा हूँ। 'नैन सुख' फ़िल्म का एक-एक फ्रेम किसी मिनिएचर पेंटिंग की तरह मेरे भीतर बना रहता है। किसी मिनिएचर पेंटिंग में जो डिटेलिंग हमें देखने को मिलती है, उस तरह की डिटेलिंग अमित दत्ता के इस फ़िल्म में भी है। ये सिर्फ संयोग नहीं है कि अमित दत्ता ने महत्वपूर्ण फ़िल्मकार मणि कौल को गुरु के तौर पर देखा है। मणि कौल के सिनेमा की तरह अमित दत्ता के फिल्मों में भी मौन भाषा के रूप में उपस्थित है। दोनों के सिनेमा में संवाद कम से कम हैं। दोनों ही फिल्मकार दृश्यों में उपस्थित मौन के कारण बार-बार ध्यान खींचते हैं।


 


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आबिदा परवीन की आवाज़ इबादत की आवाज़ है। आबिदा की आवाज़ में हीर सुनते हुए लगता है, वो पूरे मन और शिद्दत से ख़ुदा को बुला रही हैं। आबिदा की आवाज़ में हीर सुनते हुए आसमान के सारे पर्दे खुलने लगते हैं। इस आवाज़ को सुनने के बाद हम एक एसे रास्ते पर निकल पड़ते हैं, जहाँ सिर्फ विरह है।


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पिछले कुछ सालों से गांधी जी लगातार मेरे जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। वो जल्दी में नहीं हैं और मैं भी जल्दी में नहीं हूँ। गांधी जी की किताब 'हिन्द स्वराज' मैंने हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों में पढ़ा है। इसके अलावा आशीष नंदी, त्रिदिप सुहृद, शिव विश्वनाथन, रामचन्द्र गुहा जैसे चिंतकों को लगातार पढ़ने की कोशिश की है। पर हमारे समय के महत्वपूर्ण इतिहासकार प्रोफेसर सुधीर चन्द्र की किताब 'गांधी : एक असम्भव सम्भावना'  (2011) को पढ़ते हुए लगा की मैं वाकई में कुछ नया पढ़ रहा हूँ। ये किताब गांधी जी के अन्तिम दिनों के बारे में है। इस किताब को पढ़ते हुए ये देखना और जानना बहुत दर्दनाक है की गांधी जी अपने अन्तिम दिनों में किस हद तक परेशान थे। वो किस हद तक अकेला पड़ गए थे। किस हद तक ख़ुद को थका हुआ महसूस कर रहे थे। इसमें कोई शक नहीं कि गांधी जी के कई रूप थे। पर गांधी जी की अपने अंतिम पड़ाव पर जो स्थिति थी, वो कई तरह के सवाल पैदा करता है। प्रोफेसर सुधीर चन्द्र की किताब सिर्फ गांधी जी के अन्तिम दिनों के बारे में नहीं है, बल्कि गांधी जी को ‘देखने’ के बारे में है। साथ ही, ये किताब गांधी जी को देखते हुए ख़ुद को ‘देखने’ के लिए भी उकसाती है। ये एक बड़ी जिम्मेदारी है कि, “हर कोई अपने को देखे, बगैर यह देखे कि दूसरे अपने को देख रहे हैं या नहीं”। गांधी जी इस किताब में कुम्भ मेला में छोड़ दिए गए उस बुजुर्ग असहाय वृद्ध की तरह दिख रहे हैं, जिसे अब कोई लेने नहीं आएगा। पर अचरज होता है की इतनी हताशा में भी कोई उम्मीद कैसे खोज सकता है? उनका तन-मन लगातार टूट रहा है। आधा पेट खा कर वो बंगाल में पैदल घूम रहे हैं। ये सब कुछ किसी सिनेमा की तरह आँखों के सामने से गुजरता है। इतिहास और वर्तमान का फर्क खत्म होने लगता है।

 
 
संपर्क : राकेश कुमार मिश्र, 
असिस्टेंट प्रोफेसर, अंग्रेज़ी विभाग, 
एम. एन. कॉलेज, विसनगर, मेहसाणा, 
उत्तर गुजरात (384315)  
 

मोबाईल : 875812794

ईमेल : rakeshansh90@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. राकेश कला-साहित्य आदि के दुनिया के रहवासी हैं। उनमें इन माध्यमों के प्रति अपार धैर्य है। वे अपनी चिंतन यात्रा को एक जिज्ञासु भाव से दर्ज करते चलते हैं। इन टीपों में कहीं जानने की बेचैनी तो कहीं उनसे एक सहज भाव सम्बन्ध बना कर सीखने का पर्यवेत्सुक निगाह है। बहुत बधाई राकेश भाई को और इन टिप्पणी को यहाँ प्रस्तुत करने के लिए संतोष भैया को भी। वे मोती चुनते हैं।

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  2. भाई, संतोष भैया के लिए जो बात आपने कही है, वो एकदम सटीक है। गांधीनगर में रहते एक आप ही थे जिससे कला और साहित्य पर इतनी खुलकर बात हो पाई। *पहली बार* पर छपना मेरे लिए हर तरह से कुछ नया सीखने का अनुभव है। आप सभी का संग - साथ और प्रोत्साहन बना रहे 🙂

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