के. विक्रम राव का आलेख 'गरचे टेलीफोन न बनता!'

 

ग्राहम बेल 


आज यह सोचना ही कठिन लगता है कि क्या होता अगर दुनिया में टेलीफोन न होता। टेलीफोन का आविष्कार वह आविष्कार है, जिसने मानव जीवन और इस दुनिया को पूरी तरह बदल कर रख दिया। आज हम टेलीफोन से मोबाइल युग में पहुंच चुके हैं। हर हाथ में मोबाइल ने समूचा परिदृश्य को ही सहज बना दिया है। पल भर में दुनिया की खबरें हमारे सामने होती हैं। सात समन्दर पार अपने किसी प्रियजन से बात करना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आज टेलीफोन की 148वीं जन्मगांठ पर विशेष रूप से पहली बार पर वरिष्ठ पत्रकार के. विक्रम राव का आलेख 'गरचे टेलीफोन न बनता!' प्रस्तुत किया जा रहा है। 

 

गरचे टेलीफोन न बनता!

तो कैसा आलम होता?


के. विक्रम राव 

      

सोचिए यदि टेलीफोन न होता तो? दुनिया दूरियों में खो जाती। पृथकता गहराती। फासले लंबाते। मानवता बस चिंदी चिंदी ही रह जाती। मगर आज ही के दिन (10 मार्च) ठीक 148 साल पूर्व एक घटना ने सब कुछ बदल डाला। तभी 29-वर्षीय एलेक्जेंडर ग्राहम बेल ने टेलीफोन को इजाद किया। उनका तुक्का भिड़ गया। उनकी टोपी में तुर्रा तभी से लग गया। एकदा वे तार का एक सिरा पकड़े अलग कमरे में दूसरा छोर पकड़े मित्र से बोले : “वाटसन मैं मिलना चाहता हूं।” चंद लम्हों में ही वाटसन आ गए और हर शब्द दुहराये जो उन्होंने सुने थे। बस दूरभाष अवतीर्ण हो गया। वह आज के मोबाइल का पहला रूप था। ग्राहम बेल की विवशता थी कि उसकी मां और पुत्री बधिर थीं। एक वाणी चिकित्सक होने के नाते ग्राहम बेल बहरों से संकेतों द्वारा बातें करने का प्रयास करते थे। यही इस युगांतरकारी अविष्कार की जननी रही।

      

      

ग्राहम ने “बेल कंपनी” स्थापित की। सफर मीलों चला। पेटेंट मिला। मगर अमेरिका के विधि अधिकारियों ने अड़चने पैदा की। अंततः कामयाबी मिल ही गई। तेरह साल की आयु में ही ग्रेजुएट बनने वाले ग्राहम बेल तीन साल बाद मशहूर संगीत अध्यापक भी बन गए। अर्थात ध्वनि, वाणी और संचार के निष्णात। उन्होंने कम्युनिकेशन तकनीक में भी दूरगामी और लाभकारी अविष्कार किए। संचार क्रांति के जनक कहलाये। उन्हें बधिरों पर दया आती थी। उनसे लगाव था। कारण? उनकी मां, पत्नी और घनिष्ठ मित्र सभी कान की अपंगता से ग्रसित थे। पर ग्राहम बेल ने अपंगता को अभिशाप नहीं बनने दिया। दूरसंचार यंत्र उसी के परिणाम हैं।


Alexander Graham Bell's telephone patent[

   

ग्राहम बेल को न केवल टेलीफोन, बल्कि ऑप्टिकल-फाइबर सिस्टम, फोटोफोन, बेल और डेसिबॅल यूनिट, मेटल-डिटेक्टर आदि के आविष्कार का श्रेय भी जाता है। ये सभी ऐसी तकनीक पर आधारित हैं, जिसके बिना संचार-क्रंति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। अलेक्जेंडर ग्राहम बेल को शायद अंदाजा नहीं रहा होगा जब उस जमाने की अपेक्षाकृत कम चर्चित उनकी दूसरी खोज मेटल डिटेक्टर आने वाले समय में आतंकवाद सहित अन्य प्रकार के अपराधों से लड़ने में कारगर उपकरण साबित होने वाली है। पुलिसिया जांच में आज बड़ी कारगर है। टेलीफोन की खोज के बाद बेल उसमें सुधार के लिए प्रयासरत रहे और 1915 में पहली बार टेलीफोन के जरिए हजारों किलोमीटर की दूरी से बात की। “न्यूयार्क टाइम्स” ने इस घटना को काफी प्रमुखता देते हुए इसका ब्यौरा प्रकाशित किया था। इसमें न्यूयार्क में बैठे बेल ने सैनफ्रांसिस्को में बैठे अपने सहयोगी वाटसन से बातचीत की थी। उनकी विभिन्न खोजों पर उनके निजी अनुभवों का भी प्रभाव रहा। मसलन जब उनके नवजात पुत्र की सांस की समस्याओं के कारण मौत हो गयी तो उन्होंने एक मेटल वैक्यूम जैकेट तैयार किया जिससे सांस लेने में आसानी होती थी। उनका यह उपकरण 1950 तक काफी लोकप्रिय रहा और बाद के दिनों में इसमें और सुधार किया गया। अपने आसपास कई लोगों को बोलने एवं सुनने में कठिनाई होते देख उन्होंने इस दिशा में भी अपना ध्यान दिया और सुनने की समस्या के आकलन के लिए आडियोमीटर की खोज की। उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों के अलावा वैकल्पिक ऊर्जा और समुद्र के पानी को मीठा बनाने की दिशा में भी काम किया।

     

ग्राहम बेल की जीवनी लिखने वाले कैरलोट ग्रे के अनुसार बेल के नाम 18 पेटेंट दर्ज हैं। इसके अलावा 12 पेटेंट उनके सहयोगियों के साथ दर्ज हैं। इन पेटेंटों में टेलीफोन, फोटोफोन, फोनोग्राफ और टेलीग्राफ शामिल हैं। उन्होंने आइसबर्ग का पता लगाने वाला एक उपकरण भी बनाया था। जिससे समुद्री यात्रा करने वाले नाविकों को खासकर अत्यधिक ठंडे प्रदेशों में विशेष मदद मिली।



The master telephone patent, 174465, March 7, 1876


      

अक्सर पत्रकारी नजरिए से हमें ख्याल आता है कि यदि ग्राहम बेल के ईजाद न होते तो मीडिया दुनिया ही विकलांग रहती। यही सवाल मेरी यांत्रिकी इंजीनियर बेटी (रेलवे बोर्ड में राष्ट्रीय धरोहर विभाग की कार्यकारी निदेशिका) विनीता ने वर्षों पूर्व मुझसे पूछा था : “पिता जी यदि ग्राहम बेल न होते तो?” मेरा खरा जवाब था : “आज वैश्विक मीडिया गूंगी रहती।” मगर संचार क्रांति में निरंतर विकास देखकर आह्लादित होना हर पत्रकार के लिए स्वाभाविक है। एलेक्जेंडर ग्राहम बेल को सलाम। पेशेवर दृष्टि से टेलीफोन से जुड़े दो कार्टून याद आते हैं। एक में दिखा : दूसरी छोर से चोगा उठाने वाले का जवाब रहा : “गलत नंबर है।” तो फोन करने वाले ने पूछा : “आपने उठाया ही क्यों?” (न्यूयार्क टाइम का कार्टून : 5 जून 1937)। दूसरा प्रसिद्ध कार्टून पत्रिका “पंच” (लंदन) का है। पति चोगा पकड़े पत्नी पर चिल्लाता है : “किसने इस टेबल की धूल पोछी? मैंने उस पर एक नंबर नोट लिखा था।” फोन और अखबार का रिश्ता प्राचीन है, अटूट है। आज भी।


(इस पोस्ट में प्रयुक्त फोटोग्राफ्स विकिपीडिया से साभार लिए गए हैं।)



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