स्वप्निल श्रीवास्तव का संस्मरण 'लुम्बिनी से चितवन'

 





यात्राओं ने ही मनुष्य को सही मायनों में मनुष्य बनाया है। यात्रा हमेशा हमें नए तरह के अनुभवों से समृद्ध करती है। यह हमारे दिल दिमाग के बंद कपाट को खोल कर उसे विस्तृत आयाम प्रदान करती है। विदेशों में तो यह परम्परा ही है कि लोग वर्ष में एक दो बार जरूर घूमने घामने निकल जाया करते हैं। अलग बात है कि हम भारतीय लोग अपनी समस्याओं के दलदल में ही इस तरह फंसे होते हैं कि यात्राओं के बारे में सोच तक नहीं पाते। कवि स्वप्निल श्रीवास्तव यात्राजीवी रहे हैं। उन्होंने तमाम यात्राएं की हैं। इसी क्रम में हाल ही में उनका नेपाल के चितवन नामक जगह पर जाना हुआ। इस यात्रा का वृत्तान्त उन्होंने लिखा है जो हम आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव का संस्मरण 'लुम्बिनी से चितवन'।


'लुम्बिनी से चितवन'


    

स्वप्निल श्रीवास्तव

  

जब फैजाबाद से यात्रा शुरू की थी तो मौसम चटख था। बीच में बारिश हुई थी, थोड़े दिन के लिए ठंड लौट आयी थी। अब ऐसा कोई खतरा नही था। वैसे मौसम के मिजाज का कोई पता नही चलता, वह मनुष्यों के मिजाज की तरह आकस्मिक रूप से बदलता रहता है। फैजाबाद से बस्ती के रास्ते में अचानक आकाश बादलों से भर गया और बारिश होने लगी, सड़क पर ओले  बरसने लगे, शरीर को ठण्ड भी महसूस होने लगी। अगर जरा भी पूर्वाभास होता तो स्वेटर आदि बैग में रख लेता। बस्ती के आगे रूधौली पहुंचा तो गाँव की सड़क नजर आयी, वहाँ कुछ टैंपो खड़े थे। जी ललचाने लगा लेकिन बीच की यात्रा त्याग कर उधर जाना उचित नहीं है। जाने के रास्ते में मेरी तहसील भी पड़ी, वह राप्ती नदी के तट पर बसा हैं। बाढ़ आते ही तहसील में  गांठ भर पानी फैल जाता है। बाँसी के बारे में मेरे इलाके में एक कहावत प्रचलित है।


बाँसी गले की फांसी, बेतिया गले का हार 

घोसियारी कभी न छोड़िए जब तक मिले उधार।


घोसियारी मेरे गाँव के पास का एक कस्बा है, वहाँ के बनियें उधार दे कर ग्राहकों को फँसाते हैं। वहाँ उधारी खूब चलती है। लोग जल्दी उधारी नहीं लौटाते, मुंह छिपा कर बाजार करने आते  हैं। बनियों के आदमी साक्षात यमदूत की तरह उन्हें बाजार में  खोजते रहते और उन्हें सरेआम बेइज्जत करते हुए कहते हैं - जब गांठ में दम नहीं था तो उधार क्यों लिया? सोमवार के बाजार के दिन ऐसे मनोरंजक दृश्य अक्सर दिखाई देते हैं।


  

मेरे जनपद में तीन प्रमुख नदियां हैं, राप्ती, बूढ़ी राप्ती और बाणगंगा। बारिश के दिनों गाँव इन नदियों की कृपा से जलमग्न हो जाते हैं। सबसे ज्यादा कहर बूढ़ी राप्ती ढाती है, नाम बूढ़ी राप्ती लेकिन किसी जवान नदी का कान काटती है। जनपद  के निचले इलाके को तराई कहते हैं। वहाँ की मुख्य फसल धान –जड़हन हैं, इस इलाके का काला नमक चावल जगप्रसिद्ध है। जिसके घर में बने तो घर महमहा जाये। इस चावल की खुशबू छिपाये नही छिपती। अगर इस चावल को कोई अपने साथ  ले जा रहा हो तो उसकी महक जाहिर हो जाती है। संयोग से मेरे दोनों बुआ का विवाह इसी इलाके में हुआ था, बड़ी बुआ नेपाल की तराई में ब्याही गयी जबकि दूसरी बुआ का लग्न बर्डपुर के इलाके में हुआ। बुआ का गाँव मौजूदा कपिलवस्तु के पास है  जिसका पुराना नाम पिपरहवा है। इस स्थान की खोज पुरातत्ववेत्ता के. एम. श्रीवास्तव ने की थी, तभी दुनिया को शाक्य वंश की राजधानी का पता चला। जब इस जगह का पता चला तो मैं बुआ के घर से सायकिल ले कर उस जगह को देखने गया था और भीगते हुए लौटा था। लोगों ने कहा – अजीब पागल लड़का  है, पता नही क्या खंडहर में देखने गया था। उनके लिए खंडहर मलबे का ढेर था। लेकिन मेरे लिए वह पवित्र स्थान था, उस विशाल साम्राज्य को त्याग कर बुद्ध जीवन के अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर के लिए साधना में लग गये थे।


   

आज वह जगह आबाद हो चुकी है और एक पर्यटक स्थल की तरह विकसित हो चुका है। बुद्ध–प्रेमी कई देशों से वहाँ आते रहते हैं। बुआ अब इस दुनिया में नही हैं। वह जीवित होती तो कहता –बुआ जिसे तुम मलबे का ढेर कहती थी, वह दुनिया की मशहूर जगह बन चुकी है। वहाँ विश्वविद्यालय स्थापित हो चुका है।

     



 

छोटी बुआ का परिवार शहर में बस चुका है जबकि बड़ी बुआ के परिवार के लोग अब भी गाँव में रहते हैं। बड़ी बुआ का गाँव  लुम्बिनी के सन्निकट है। यह अद्भुत है कि दोनों बुआयें बुद्ध – स्थल के पास रहती थी। बचपन ने उन जगहों पर आना जाना था और बुद्ध मेरे प्रिय बन चुके थे। बड़ी बुआ के पाँच बेटे थे जिन्हें पांडव कहा जाता था। चार दिवंगत हो चुके है, सबसे छोटे बेटे मुरली भैया मुझे अक्सर बुलाते रहते हैं। वे अनुरागी जीव हैं। उनकी शुरूआती शिक्षा मेरे गाँव के समीप के स्कूल में हुई थी। सबसे छोटे होने के कारण वे मेरे पिता के लाडले  थे, उन्ही के प्रेम से बशीभूत होने के बाद मेरा आवागमन बना रहता है। यह यात्रा इसी की कड़ी थी। आज के समय में कौन–किसे बुलाता है, बाज लोग इस डर से नहीं बुलाते कि कहीं कोई आ न जाय।


  

बहरहाल मैं बस और, आटो से होते सिद्धार्थनगर मुख्यालय पहुँच चुका था। इस जगह का नाम पहले नौगढ़ था, इसे तेतरी बाजार के नाम से जाना जाता है। अब भी पुराने लोग इस जगह को प्राचीन नाम से संबोधित करते है। जब से कपिलवस्तु का पता चला, इस नाम का नामकरण सिद्धार्थनगर हुआ। बस्ती सूबे के बड़े जिले में शुमार था, कोई अगर ककरहवा से बस्ती कचहरी पहुंचना चाहे तो जाने में एक दिन का खर्च हो जाता है लेकिन इस जनपद के बनने से लोगों को सहूलियत हो गयी है। ककरहवा में पहुंचते-पहुंचते बारिश और ओलों का स्वागत जारी था। सिद्धार्थनगर से बस की कोई सुविधा नहीं थी, इसलिये टैंपो से लटक कर आना पड़ा। बारिश और ओलों से छिपते–छिपाते आधा–तीहा भींग चुका था। कहा जाता है कि मनचाहे काम में बहुत विघ्न आते हैं। मैं भी जिद्दी किस्म का आदमी था, ऐसी चुनौतियों से डरने वाला नहीं था। ककरहवा के बाद नेपाल शुरू हो जाता है, सड़क पार करिए तो नेपाल की संस्कृति के दर्शन शुरू हो जाते है। जगह–जगह मयखाने सजे रहते है, इस पर से उस पार जब कोई जाता है तो चाय की जगह मय पीता हैं। भारत में खुलेआम पीने की आजादी नही है लेकिन यहाँ इसकी छूट है। यहाँ का समाज खुला है, स्त्री–पुरूष साथ–साथ पीते हुये दिखाई दे सकते हैं। यह मंजर जरूर हमारे यहाँ के कुलीन परिवारों में दिखायी देता है। एक समाजशास्त्री मित्र का कथन है कि निम्नतम और उच्चतम वर्ग की जीवन शैली में खुलापन एक जैसा होता है, उनकी संस्कृति भी  समान हैं।



नेपाल में ज्यादातर मयखाने स्त्रियाँ संभालती है। मय और स्त्री के सम्मिलित आकर्षण से लोग चले आते हैं। वहाँ खूब भीड़ जुटती है। गैर नेपाली लोगों  के लिए या नया अनुभव होता है।

  

ककरहवा से जब नेपाल की सीमा में पँहुचा तो सिपाही मेरी  तलाशी के लिये आ चुके थे। उन्होंने मेरा बैग टटोला, उन्हें कोई आपत्तिजनक वस्तु नहीं मिली। मैने उनसे मजाक किया कि क्या आपको मैं संदिग्ध लगता हूँ? यह सुन कर वह मुस्कराने लगा, बोला – सर मैं सिर्फ अपनी डियूटी बजा रहा हूँ। पहले के दिनों में, मैं ककरहवा से बुआ के गाँव पैदल चला जाता था उन दिनों का उत्साह ही अलग था। अब उम्र और आलस्य से यह संभव नही है। बार्डर पर खड़े टैंपो से मोलभाव किया तो वह तैयार हुआ। बारिश थम चुकी थी लेकिन हवा में ठंड थी। गाँव को जाने वाले कच्चे रास्तों में बहुत किचिर–पीचिर थी। कहीं पानी इकट्ठा हो गया था तो कही कीचड़ का साम्राज्य था। थोड़ी देर बाद फिर बारिश होने लगी। आश्चर्य यह था कि जहां बुआ का पुराना मकान था, उस जगह पर नया मकान बन रहा था। सोचता रहा कि लोग कहां गए? थोड़ी देर बाद वे लोग आ गए थे।


  

घर का सामान पास में बनी पर्णकुटी में जमा कर दिया गया था।दो कुटीरों में स्त्री–पुरूष समुदाय से अपना ठिकाना बना रखा था। किचन अलहदा था, पहले जब आता था तो किचन से धुएं उठते थे, उसकी जगह गैस सिलेंडर है। हालाकि उस इलाके की  तरक्की बहुत धीमी थी। बारिश हो रही थी ,बारिश की बूंदे फूस पर गिर रही थी, उससे सोंधी-सोंधी गंध उठ रही थी। विस्तर पर रजाई–कंबल लगे हुए थे। शाम होते–होते मैं ठंड से कड़कड़ा गया था, तो भैया ने कहा - तुम्हारा इंतजाम करता हूँ। मैंने पूछा –क्या गाँव में इसकी कोई दुकान है? जबाब में उन्होंने कहा -  कोई चीज मिले न मिले, यह चीज आसानी से मिल सकती हैं, सामिष का बंदोबस्त पहले से किया जा चुका था। फूस के छप्पर  में जो नींद आयी, वह इतनी गहरी थी कि सात बजे सुबह को नीद खुली, वैसे मैं अमूमन चार–पाँच के बीच उठ जाता था।


 

सुबह लुम्बिनी जाने की योजना थी लेकिन रात से ही वर्षा हो रही थी। लोगों से मना किया कि इस  बारिश  में कहाँ जाओगे? मैनें कहा –मैं जरूर जाऊंगा, भले ही छाता ले कर जाना पड़े। हार कर उन्होंने आटो रिक्शा बुलवाया, उसके चालक का नाम था इम्तियाज। बारिश और ठंड से बचने के लिये दो–तीन छाते, रेनकोट साथ थे। मैंने एक शाल भी ओढ़ने के लिये ले लिया था।

  



  

बुद्ध का जीवन आसान नहीं था तो क्यों उनका दर्शन आसान हो?लुम्बिनी कई कि. मी. के विस्तार में फैला था। बुआ का गाँव लुम्बिनी सांस्कृतिक परिषद के अंतर्गत आ चुका था। लुम्बिनी में बौद्ध देशों जैसे चीन, जापान, वियतनाम, थाईलैंड, लंका के बौद्ध मंदिर बने थे, उनकी स्थापत्य कला दिव्य थी। परिसर में संबंधित देशों की रेजीडेंसी बनी हुई थी, जिसमें बौद्ध के अनुयायी ठहरते थे। मुख्यमंदिर तो बुद्ध का जीवनस्थल था, वहाँ जो भी जाता, उसके मुख पर अपूर्व श्रद्धा झलकती थी। वहाँ पहुँच बुद्ध का जीवन और उनकी साधना की याद आती थी। वे महामानव थे, उन्होंने मानवता के कल्याण के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर दिया था। मेरे मन–मस्तिष्क में बुद्ध के धम्म पद और विचारों की ध्वनि गूँजती रही।

   


जिस विपरीत मौसम में हम चले थे, अब वह खुशगवार हो गया  था। धूप निकल आयी थी। हमारी प्रबल इच्छा फलवती हो रही थी। यह मेरी पहली यात्रा नहीं थी, बचपन से अब तक मैं दर्जनों यात्राएं कर चुका था। हर बार के अनुभव नए होते थे।


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चितवन जाने के लिए सुबह लुम्बिनी से नारायण घाट के लिये बस पकड़नी थी लेकिन वहाँ से सीधी बस नहीं जाती, बताया गया कि लुम्बिनी से भैरहवा जाया जाये, वहीं से आगे के लिये बस पार्क से बस ली जाय। हम लोग जिसे बस अड्डा या बस स्टेशन कहते है, उसे बस पार्क जैसा शब्द दिया गया था। भैरहवा मेरे लिये अपरिचित स्थल नहीं था। गोरखपुर और महाराजगंज में नौकरी करते हुये मैं अनेक बार जा चुका था। उस समय वहाँ टुटहे रिक्शे चलते थे। भारत–नेपाल की सीमा का यह शहर नेपाल का प्रवेश द्वार था, यह  विश्व बाजार था जहां दुनिया भर के विदेशी सामान मिलते थे। उस समय जापानी सामानों की धूम थी, अब चीनी सामानों का कब्जा है। नेपाल के बाजार क्या, दुनिया के सभी बाजारों में चीनी सामान पटे हुये हैं जो  यूज एंड थ्रो संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। राजतन्त्र के विदाई के बाद नेपाल में माओवादी व्यवस्था आयी, उससे नेपाल के जीवन में मूलभूत परिवर्तन हुए लेकिन भारत के प्रति नेपाल की प्रेम–निष्ठा जरूर कम हुई है, चीन का प्रभाव बढ़ा है। दोनों देशों के बीच जो अप्रिय विवाद हुए उसकी खटास नेपालियों में देखी जा सकती है।

  


नेपाल के सीमावर्ती इलाके में रहने वाले लोगों को मघेसी कहा जाता है। इस क्षेत्र की जमीन उपजाऊ है। भारत से इस इलाके का रोटी-बेटी का संबंध है। उनके त्योहार और परम्पराएं समान हैं, भाषा अवधी और भोजपुरी है। भारत के बहुत से लोगों की यहाँ दुकानें खुली हैं। ज्यादातर व्यवसायी वैश्य, मारवाड़ी  जाति के हैं, वे बाहर से यहाँ आ कर अपने व्यवसाय को सम्पन्न बनाया। मूल नेपाली के भीतर उन्हें ले कर ईर्ष्या का भाव है। नेपाल के लोग नौकरी के लिए भारत आते हैं, उन्हें बहादुर नाम से पुकारा जाता है, जिसे पढे–लिखे नेपाली अच्छा नहीं मानते हैं, इस बिडम्बना को मोदनाथ प्रश्रित ने 'नेपाली बहादुर' कविता में व्यक्त किया है - कुछ पंक्तियां देखें –


बहादुर जल्दी झाड़ू लगाओ

बहादुर अभी कुत्ते को अभी नहलाया नहीं

बहादुरअभी तक नाली और पाखाना नहीं साफ किया है

बहादुर, कपड़े और बर्तन तुमने अभी तक नहीं धोये 

बहादुर, रात के दस बज गये हैं 

बंदूक ले कर फाटक पर खड़े हो जाओ ..।  


जब भी मैंने यह कविता पढ़ी भावुक हो गया था।

   


बस पार्क बहुत पुराना नहीं है, उसके परिसर में काफी जगह थी जहां आसानी से बस को पार्क किया जा सकता है। भैरहवा अब एक मलिन शहर नहीं रहा, वहाँ ग्रामीणों की आमद बहुत कम थी। सड़क पर कारें दौड़ रही थी, आम लोगों के लिए ई रिक्शा की सुविधा थी। यह 21वीं सदी का आधुनिक शहर बन चुका था, लोगों के कपड़े चमकदार हो चुके हैं। लड़के और लड़कियाँ  आधुनिकतम कपड़े पहनते हैं।

      

    

ये  सड़कें हैं या धीमी गति के समाचार

  

नारायण घाट जाने के लिए बस मिल चुकी थी ,यह बुटवल से होते  हुए जाती थी। भैरहवा से बुटवल का रास्ता बीस कि. मी. लंबा था। दोनों तरह पेड़ लगे हुए थे, यह टू लेन का रास्ता था, बीच में पेड़ थे जिस पर फूल खिले हुए। बुटवल अब विकसित शहर  बन चुका था, उसमें होटल और अनेक तरह की आधुनिक सुविधाएं थी। चालीस–पचास मिनट के बाद बस वहाँ के बस पार्क में खड़ी हो गयी। बस देर तक खड़ी थी जिससे ऊब हो रही थी। संतरों का मौसम खत्म हो गया था, अब वहाँ अंगूर बिक रहे थे। फेरी वाले पालीथिन में वजन के हिसाब से अंगूर बेच रहे थे। जैसे बस ने रेंगना शुरू किया, मेरी बोर्ड पर नजर पड़ी –जिस पर लिखा था -बुटवल से नारायण घाट- 124 किलोमीटर। मैंने अंदाजा लगाया कि बमुश्किल तीन या चार घंटे में पहुँच जाएगी  लेकिन यह मेरा भ्रम था। टू लेन का रास्ता बनने के कारण रास्तों पर अवरोध था इसलिए बसों  की परिक्रमा बढ़ गयी थी। एक दो किलोमीटर के अंतराल पर लिखा हुआ था– अगाड़ी डाइवर्सन यानी आगे मोड है। रास्ते में कई दर्जन मोड मिले जिससे शरीर भी मुड़ जाता था। सड़क पर गड्ढे  भी इफ़रात थे जिससे शरीर की हड्डियाँ हिल जाती थी। धूल के बगुले उड़ते थे। जगह, जगह बुलडोजर गश्त लगा रहे थे। हर तरफ छोटे–बड़े पुल बन रहे थे, उस पर मजदूर काम पर लगे हुये थे। उनकी शक्ल को देख कर लगता था कि वे भारत  से आये हुये मजदूर हैं। सड़के धीमी गति  के समाचार की तरह थी, कोई जल्दी नहीं दिखाई दे रही थी। लोगों ने बताया कि यह पंचरंगी कार्यक्रम पिछले कई वर्षों से चल रहा हैं। बारिश में यह रास्ता विकराल हो जाता है। नेपाल तो  भारत का सहोदर है, उनकी गतिविधियां एक जैसी हैं। 

    


भाषा की लिपि देवनागरी है लेकिन मात्राओं में छेड़–छाड़ दिखाई देती हैं। बड़े ‘आ" की जगह “अ" लिखा जाता है। जैसे आशीष की  जगह अशिस लिखा जाता है। इसी तरह बड़ी ऊ की मात्रा के साथ परहेज किया जाता हैं। मूनलाइट की जगह मुनलाइट, लाज (रहने का स्थान) लज, हीरा के स्थान पर हिरा। “ष" का भी दमदार प्रयोग है। एवरेस्ट न लिख कर एभरेष्ट लिखा जाता है। इस कठिन यात्रा में मैं नेपाल के व्याकरण में उलझ कर व्यक्त बिता रहा था।

     


सवाल तब भी मौजूद था कि यात्रा की  ऊब से कैसे बचा जाए।उसका हल खोजना शुरू कर किया। हमारी कठिनाई यह है कि हम रास्ते से आगे देखते है और दायें–बाएं देखने की जहमत नहीं उठाते इसलिए बहुत कुछ छूट सा जाता है। मैंने देखा कि रास्ते  के दोनों तरफ घने जंगल और जगह–जगह झरने थे। मैंने अपनी दृष्टि उधर केंद्रित कर दी। रास्ते में पहाड़ दिखने शुरू हो गये थे और मनोरम लगने लगे थे। पहाड़ियों की चोटियाँ धूप में चमक रही थी। जंगल में परिंदे कलरव कर रहे थे। इस तरह मैं धीरे–धीरे ऊब से बच रहा था। मैंने  अपने कुंडल में कस्तूरी खोज ली थी।

   


सड़क–मार्ग पर भलुही, शीतल नगर, खैरैनी, सोनवल, देवदह, दाऊनने जैसी दिलचस्प जगहें मिली जिसमें देवदह का बड़ा महत्व है। यह जगह बुद्ध की ननिहाल है जहां उनकी माँ माया प्रथम संतान को जन्म देने के लिए कपिलवस्तु से निकली थी लेकिन प्रसव पीड़ा के कारण लुम्बिनी में बुद्ध का जन्म हुआ। कुछ लोग।इस स्थल को महराजगंज जनपद में खोजते हैं। दाऊनने नामक जगह बाल्मीकि से संबंधित है। बताया जाता है  कि वहाँ बाल्मीकि ने साधना की थी, इस  जगह पर  मायादेवी भी आती थी। प्राचीन काल में इस जगह को त्रिकूट पर्वत के नाम से जाना जाता  था।   

   


यह संभवत; बुटवल और नारायण घाट के  बीच का रास्ता था। बस की उछल–कूद में खाया हुआ सब हजम हो गया था। यह छोटा सा होटल पहाड़ को काट कर बनाया गया था। यहाँ भारतीय मुद्रा के 137 रूपये में भरपेट भोजन मिलता था, भोजन में पनियल दाल, एक दो तरह की सब्जी, सलाद और चटनी मिलती थी। रोटी की जगह भात मिलता था। होटल में वाइन और  बीयर पीने की सुविधा थी। लोग उसे मिनरल वाटर की तरह पी रहे थे। थकान और ऊब से बचने के लिए यह माकूल औषधि थी।  बाहर से आये हुए लोग इसका विधिवत सेवन कर रहे थे। यहाँ कोई बंदिश नही थी।


   

पेट के चूहे जब शांत हो गए तो मैंने ड्राइवर से पूछा कि अब नारायनघाट कितनी दूर है तो उसने बताया कि अभी वहाँ पहुँचने में दो घंटे लग जायेगे। यह सुन कर मेरी तबीयत बुझ सी गय सोचा कि यह रास्ता है या शैतान की आंत, लगातार बढ़ता जा रहा है। इतनी धीमी रफ्तार तो अपने यहाँ के बसों की नही होती जबकि दोनों देश सहोदर हैं। मैं रास्ते में आ रहे जंगलों और पहाड़ों से दिल लगाता रहा।


  

कवि मित्र सुभाष राय के सौजन्य से ज्ञानचन्द्र श्रीवास्तव का पता मिल गया था। बुआ के घर तक उनका फोन मिल जाता था लेकिन जैसे–जैसे आगे बढ़ा मोबाइल से संपर्क टूटता गया। नेपाल में भारत के मोबाइल बंद हो जाते हैं। होटल पहुँचने पर वाई–फ़ाई मिल जाता है तो संपर्क बहाल हो जाता है लेकिन अभी होटल पहुंचने में देर थी। बहरहाल अपने सामान्य ज्ञान से चितवन पहुँच सकता था लेकिन अनजान जगहों पर किसी का  सहयोग मिल जाए तो अच्छा होता है। टैक्सी से लेकर होटल वालों का भंवर जाल चारों तरफ फैला रहता है, वे सैलानियों को हर तरह से लूटने के फिराक में लगे रहते हैं। मैंने सोचा कि चितवन नारायणघाट के पास होगा लेकिन चितवन तक पहुँचने में तीन किस्त में गाड़ी बदलनी पड़ी। नारायणघाट से भरतपुर जाना था जो नेपाल का तीसरे नंबर का बड़ा कस्बा था, वहाँ से हाई वे पहुँच कर चितवन के लिए गाड़ी लेनी थी। जहां गाड़ी ने मुझे छोड़ा था, वह जगह चितवन नहीं सौराहा थी। यह देख कर मैं थोड़ा सनक गया था, एक सभ्य से लगने वाले आदमी से पूछा तो जबाब मिला कि आप ठीक जगह पर पहुंचे हैं। सौराहा में ही चितवन नेशनल पार्क स्थित है, यह सुन कर मुझे राहत हुई।

  


मैंने आटो वाले से होटल का पता पूछा तो उसने कहा कि मैं आपको उस होटल में ले चलता हूँ जहां इंडियन लोग रूकते हैं। मुझे उसके सौजन्य से होटल मिल गया था, होटल के आसपास हरियाली थी। पेड़–पौधे और फूलों की क्यारियाँ खिल रही थी, कुछ परिंदे चहक रहे थे। सबसे पहले  मोबाइल को वाई–फ़ाई से  जोड़ना था, उसके अभाव में शेष दुनिया से संपर्क भंग हो गया  था, उनसे बात करनी जरूरी था। फैजाबाद बात हो गयी, अब ज्ञान जी से बात होनी थी, उनसे भी बात हो गयी थी, उन्होंने मुझे बताया कि होटल पहुंचते-पहुंचते रात हो जाएगी और आने का कोई मतलब भी नहीं निकलेगा। इसलिए उन्होंने सुबह आने का वादा किया।

 


रात खुशगवार थी। पास की नदी और जंगलों से आ रही हवाओं में वनस्पतियों की खुशबू थी। सुबह हुई तो परिंदों की चहचाहट सुनाई देने लगी, बहुत से लुप्त परिंदों को बहुत दिनों बाद देख रहा था। यहाँ जंगल बचे हुए थे तो चिड़ियाएं बची हुई थीं।


 


    

कोई अपने मुल्क का आदमी मिल जाता है तो बहुत संतोष मिलता है। ज्ञान जी मूल रूप से गाजीपुर के रहने वाले थे, वे नेपाल में नौकरी करते थे। वे अच्छे  से  नेपाली बोलते थे कि मुझे भ्रम हो जाता था कि वे नेपाल के नागरिक हैं। वे नेपाल के जनजीवन में घुलमिल गये थे। चूंकि वे कालेज में अध्यापक थे, इसलिए वे सौराहा में जिधर जाते थे, उनके अभिवादन में हाथ  उठ जाते थे। हम सबसे पहले नदी के तट पर गये, उसके तट को मुंबई के मैरीन ड्राइव की तरह बनाया गया था। नदी के पास कलात्मक ढंग से चट्टानें सजी हुई थी, पहाड़ी नदियों के पास इस तरह के मंजर अक्सर दिखायी देते हैँ। नदी की कुछ नावें मगरमच्छ की तरह तैर रही थी और कुछ सैलानियों के इंतजार में थी। यहाँ हर तरह के सैलानी थे, विदेशी सैलानियों के गले में दूरबीन लटकी हुई थी। उनके चेहरों पर रौनक थी, वे नदियों, जंगलों और परिंदों को देखने के लिए कई दिन तक रूकते थे। जबकि हमारे देश के पर्यटक उस जगह को छू कर चले जाते थे।

  


ज्ञान जी ने कहा कि अच्छा हो आप लोग सफारी से जंगल की सैर कर लें, छोटा भाई मेरे साथ था। उन्होंने कहा आप लोग देख लें, मैं तो कई बार देख चुका हूँ। सौहारा में उनका एक शिष्य मिल गया जिसने सफारी का इंतजाम करवा दिया था। सफारी की सैर डेढ़ बजे होनी थी, हमारे पास दो घंटे का समय था। मैंने पूछा कि क्या घूमने के लिये कोई समय निर्धारित है? जबाब दिलचस्प था, उन्होंने बताया यह जंगल के जानवरों का लंच टाइम है। इस समय का उपयोग कैसे किया जाय। मुझे ख्याल आया कि यहीं –कहीं ओशो का आश्रम था, वक्त काटने के लिये उनके आश्रम जाने का ख्याल बुरा नहीं था। एक समय में मैं उनका मुरीद था, वे अपने प्रवचनों दुनिया भर के लेखकों, दार्शनिकों के उद्धरण देते थे। उनसे असहमत तो हुआ जा सकता है लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनके पास चमकदार भाषा थी। ओशो विवादस्पद स्वामी थे, उनके बारे में तमाम कहानियां प्रचलित  थी।

   




ओशो आश्रम शहर से दूर नही था, उसकी दूरी पैदल तय की जा सकती थी। आश्रम एकांत में स्थित था, वहाँ खूब हरियाली और फूलों के बागान थे। आश्रम में एक युवा स्वामी मिले जो इस आश्रम में साधना सीखने आये थे लेकिन वहाँ उन्हें रोजगार मिल गया था, उनका स्वभाव बहुत अच्छा था। उन्होनें हमें ब्लैक टी पिलायी और आश्रम में घुमाया। हमने उनके साथ फ़ोटो खींची। वे आश्रम के साधना कक्ष तक ले गये, जहां साधना की कक्षाएं चल रही उनकी ध्वनियाँ हमें आकर्षित कर रही थी।

 

 

चितवन हिमालय की तलहटी में स्थित था, वह 93000 हेक्टेयर  क्षेत्र में अवस्थित था। चितवन नेपाल के कई जिलों में आच्छादित था। चितवन की स्थापना 1983 में हुई थी, 1984 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर का दर्जा दिया। बिहार की सीमा के पास के चितवन के इलाके में बाल्मीकि आश्रम स्थित है। तमसा नदी नेपाल और बिहार की सीमा को बाटती है। मुझे चितवन अच्छा शब्द लगा जो चित्त को आकर्षित करे, ऐसा वन। सचमुच चितवन अपने नाम को सार्थक करता है। इस जंगल में शेर, मगरमच्छ हिरण, गैंडे, हाथी भेड़िये जैसे वन्य जीवों के साथ विभिन्न तरह की चिड़ियाएं पायी जाती हैं। यहाँ साइबेरिया तथा अन्य देशों से चिड़ियाएंनआती हैं। यह क्षेत्र वनस्पतियों से भरा हुआ था जिससे हर्बल दवाएं बनायी जाती हैं। चितवन में गंडक और राप्ती नदी बहती है और तमाम झीलें थी जिसमें गैंडों ने अपना घर बनाया हुआ था।

 


हमारी सफारी यात्रा दो बजे के बाद हुई। एक लंबी खुली हुई जीप थी जिसमें दर्जन भर सैलानी बैठे हुए थे। धूप थोड़ी तेज हो गयी थी, वह  हमारे कंधों और सिर पर गिर रही थी लेकिन हम उत्साह से लबरेज थे इसलिए वह हमारे लिये बाधा नहीं थी। सफारी जीप थोड़ी देर बाद जंगल की चौकी पर रूकी और उसमें गाइड जैसा दिखने वाला आदमी चढ़ा, नाम था बुद्धिराम महतो वह जगह–जगह जीप रोक कर जगहों की जानकारी देता रहता था। सबसे पहले हमें हिरणों और चीतलों के झुंड मिले, जैसे हम मोबाइल कैमरा तानते थे, वे भाग जाते थे। उनकी छलांग लंबी थी, उन्हें लगता था कि हम उन पर बंदूक तान रहे हो। हिरण स्वभाव से मासूम जीव है और वह शेर का आहार बनता है। हिरणों को देख कर मुझे मायावी स्वर्ण–मृग की याद आ गयी जिसके पीछे मर्यादा पुरूषोत्तम भागे थे। वे मृग का शिकार नही कर पाये इसी बीच सीता का अपहरण हो गया। इस मिथक से हिरण की छवि धूमिल हो गयी थी।

   


यात्रा में हमें लामी ताल मिला जिसमें गैंडों की रिहाइश थी, गाइड ने जीप रोक दी और गैंडों के चरित्र के बारे में बताने लगा। उसने बताया कि यह ताल गैंडों से भरा हुआ है, उनकी संख्या सात सौ के आसपास हैं। मैंने उससे पूछा गैंडे क्या खाते हैं? उसने बताया कि उनके मुख्य आहार जंगल की वनस्पतियाँ हैं। उसने कहा कि प्रकृति ने उनकी व्यवस्था की हुई है, यह जो पेड़ हैं उन्हें राईनों एपल ट्री कहा जाता है, वे इसके फल खाते हैं। गैंडे स्वभाव से शाकाहारी होते हैं। जिसे आप सींघ समझ रहे हैं, वह वास्तव में बालों का एक गुच्छा है। उसने यह कह आश्चर्य  में डाल दिया कि इनकी उम्र सौ साल से ज्यादा होती है। ये हाथी से अधिक घास खाते हैं, ये हाथी के बाद जंगल के वजनी और बड़े जीव हैं। गैंडों को चिड़ियाघर में देखा था लेकिन आज साक्षात देख रहा था। गैंडों की त्वचा मोटी होती है। आम जीवन में संवेदनहीन और थेथर लोगों गैंडों की उपमा दी जाती है। इनका चरित्र राजनेताओं से मिलता है।

  


चलते–चलते जंगल का घना इलाका आ गया, गाइड ने चुप रहने का इशारा करते हुए कहा – यह शेर का साम्राज्य है। लेकिन शेर कहां है? जबाब मिला कि शेर बहुत कम दिखाई देते हैं। मैं जिन जिन बाघ अभ्यारण में गया हूँ, वहाँ बाघ नहीं दिखाई दिए हैं। क्या हम जंगलों में सिर्फ बाघ ही देखने जाते है? वहाँ तमाम तरह के पशु–पक्षी मिलते हैं जिनसे जंगल आबाद रहता है तो क्यों एक हिंसक जानवर को देखने का आग्रह करते हैं।  शेर तो जंगल का राजा है, उसे खुद प्रस्तुत होना चाहिए। यह अजीब सी मानसिकता है, जिससे हम डरते उसके दर्शन के लिये लालायित रहते हैं।

 




सफर में गंडक, धार्मिक भाषा में नारायणी नदी दिखाई दी। धार्मिक प्रवृति के लोगों ने नदी को प्रणाम किया। यह नेपाल की मुख्य नदी है, जिसके साथ अनेक धार्मिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। नदी में खूब पक्षी थे लेकिन वह सड़क से दूर थी इसलिए वह देखने तक सीमित थी। गाइड ने बताया कि सीजन में यहाँ दुनिया भर के देशों से पक्षी आते हैं और विदेशी पर्यटक इन्हें देखने आते हैं। मेरा गाइड से सवाल था कि लोग कैसे देखते होंगे जबकि हमें उतर कर देखने की सुविधा नहीं है। उसने जबाब दिया कि सैलानी पैदल जंगल घूमते हैं, उनके साथ दो गाइड होते हैं। इस हेतु विशेष अनुमति लेनी पड़ती है। उसके इस जवाब से मुझे थोड़ी शर्म आयी कि हम इतने बड़े इलाके की जीप से सैर करते हुए थक जाते हैं और ये सैलानी कई दिनों तक जंगल घूमते  रहते हैं।

  


जीप झील के पास आकर रुक गयी, गाइड ने बताया कि इन झीलों में मगरमच्छ रहते हैं। हमने गौर से उन्हें देखा वे अपने बड़े–बड़े और खूंखार जबड़ों से हमारा स्वागत कर रहे थे। यह हमारी सफारी का हाल्ट स्टेशन था जहां चाय-पानी अल्पाहार का इंतजाम था। हमने गाइड को कोल्ड ड्रिंक का बोतल दिया जिसे उसने नानुकुर करते  हुए ग्रहण किया। हमारे एक सहयात्री शराब का सेवन कर रहे थे उन्होंने गाइड को कृतार्थ करने की कोशिश की, उसने कहा कि अगर मैं आपका प्रस्ताव मान लूँगा तो नौकरी से हाथ धोना पड़ जाएगा। ऐसा कहते हुए उसने हाथ जोड़ लिये। यात्रा में कई  दिलचस्प किस्से घटित होते रहते है, उससे यात्रा का आनंद बढ़ता रहता है। मगरमच्छ के  आँसू, का  मुहावरा खूब प्रचलित है, अब वे राजनीति की सामग्री बन गये है। गैंडे और मगरमच्छ हमारी सियासत में बहुत मिलते हैं।

 


चितवन में हाथी प्रजनन केंद्र बहुत प्रसिद्ध है, एक तरह से वह हाथियों की नर्सरी है। वहाँ वे परिवार की तरह रहते हैं। हाथी के छोटे बच्चे बहुत सुघड़ लगते हैं। वे एक दूसरे से किलोल करते  रहते हैं। बच्चे आदमी के हो या जानवर के, उनकी दुनिया अलग होती है। जैसे–जैसे वे बड़े होते हैं उनका स्वभाव बदलता रहता  है, उनकी अबोधता काम होती जाती है। इतने हाथी और बच्चे एक साथ देख कर तबीयत किलक उठी। चितवन और सौराहा में जगह-जगह गैंडों और हाथियों की मूर्तियाँ लगी हुई हैं। हमने खुद गैंडे के चौराहे पर अपनी फ़ोटो खिचवायी। इस जंगल पुराण में वर्णन करने योग्य बहुत सी बातें थी। जंगल का सौन्दर्य और उसकी हरीतिमा अप्रतिम थी। जंगल के रास्ते सँकरे थे, वे सब जंगल विभाग के कब्जे में थे। जंगल की सुंदरता और स्वाभाविकता को बनाए रखने के लिए रास्तों पर छेड़छाड़ नहीं की गयी थी। हम सब  शहरों के जंगल में  रहते  हैं जिसे  काट–छाट कर आधुनिक बना दिया गया है। यह जरूरी नही कि जानवर सिर्फ जंगलों में रहते हैं, अब शहरों में भी आदमखोरों की आमद हो गयी है। वे अखबार की खबरों में बने रहते हैं। संपादक उनकी शिकार–कथा प्रमुखता से प्रकाशित करते हैं। जिन लोगों ने जंगल उजाड़ कर जंगल के जानवरों को बेघर कर दिया है, वे कभी–कभी हमारी आबादी में आते रहते है। हमारे सभी समाज के लोग उनकी तकलीफ़े नहीं समझते, उन्हें मार कर अपनी बहादुरी साबित करते रहते हैं।

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 स्वप्निल श्रीवास्तव

510-  अवधपुरी कालोनी ,अमानीगंज

फैजाबाद – 224001 

मोबाइल -9415332326

 

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