मार्कण्डेय की कहानी 'पान-फूल'

 


 

मार्कण्डेय अपनी तरह के अलग कथाकार रहे हैं। नई कहानी आंदोलन में उनकी कहानियों का आस्वाद अलग है। उनका मानना था कि रचनाएं सहज भाव से रची जानी चाहिए। रचनाओं पर विचारधारा थोपने को वे कतई पसन्द नहीं करते थे। क्योंकि खुद उनके मुताबिक विचारधारा कहानी को उसके सहज अंजाम तक पहुंचाने की बजाए उसे भटका देती है। ‘पान फूल’ उनका पहला कहानी संग्रह है। और इसी क्रम में 'पान फूल' उनकी पहली कहानी भी है। अपने पहले कहानी संग्रह 'पान फूल' की भूमिका में मार्कण्डेय जी स्पष्ट रूप से लिखते हैं- “सामाजिक संदर्भों का वास्तविक चित्रण नए कथाकारों की कहानियों का प्रमुख तत्व बन गया। जीवन के सुख-दुःख को इन्होंने संदर्भों से उठा कर अपनी कहानियों का विषय बना लिया। जाहिर है कि कहानी की रचना-प्रक्रिया के क्षेत्र में यह बड़ा परिवर्तन था और इसने नई कहानी को सीधे प्रेमचंद से जोड़ दिया।” आज मार्कण्डेय की पुण्य तिथि पर उनकी स्मृति को नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं मार्कण्डेय की कहानी पान फूल।



'पान-फूल'



मार्कण्डेय



"माँ, मैं बाहल नहीं जाऊँगी। मुझे डल लगता हैऽ ऊंऽ... ऊंऽ... ऊंऽ..."


जानकी ने कपड़े पर तेज चलती हुई सुई को रोक कर देखा, तो नीली बिदक गयी है और नन्हें-नन्हें गुलाब के फूल से गालों पर एक बाँह सटा कर दहलीज के पाये से सटी-सटी सुफेद धुले फ्राक को चूने में घिस रही है। वह मन ही मन तनिक नाराज हुई और उठ कर अपनी नीली के पास तक चली गयीं, "तो कहाँ से गढ़ दें दूसरा बच्चा तेरे लिए? कुल ले-दे कर बड़े जोग-जतन पर तू ही तो एक जनमी, वह भी इस उमिर में, और आस-पास कोई घर भी तो नहीं है।' उसने बच्ची को गोद में उठा कर, उसके फूले-फूले गालों को चूम लिया और कहने लगीं, "देख, बाहर रामू होगा, उसे ले ले और बाग के पास वाली फुलवारी में घूम आ!"


नीली जब घर के बाहर निकली, तो पूसी कुतिया के अलावा दरवाजे पर कोई नहीं था, जो अपनी अगली टाँगों पर गर्दन फैलाए उसी की तरफ एकटक देख रही थी। एकाएक नीली को देख कर उसका मन खिल उठा। वह पूँछ हिलाती, दुलराती, इठलाती उठ खड़ी हुई और नीली के पास जा कर उसे सूँघने लगी। नीली की आँखों में प्रसन्नता छलक आयी और उसने पूसी के सुनहले मुलायम रोयों में अपनी नन्हीं-नन्हीं अँगुलियाँ सहला दीं। कुतिया की खुशी कुछ और बढ़ गयी और उसने अपना धूल-भरा पंजा उठा कर बच्ची के फेन-से धुले फ्राक पर रख दिया। नीली ने दोनों पंजों को उठा कर अपनी गर्दन पर रख लिया और मधुर आलिंगन के एक क्षण के बाद दोनों धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगीं।


क्वार का उतरता पखवारा था। अभी शाम नहीं हुई थी, पर सूरज जल्दी-जल्दी अपनी किरणों के जाल को समेट रहा था। अगल-बगल सनई और ज्वार-बाजरे के बड़े-बड़े पौधे चुप-चाप डरे-से खड़े थे। सनई के फूलों की पंखुड़ियाँ और चकवड़ की पत्तियाँ, जैसे किसी दुख में डूब कर सिकुड़ गयी थीं। हवा बहुत थक कर आम की पत्तियों पर सो गयी थी। रास्ता किसी मधुर स्वप्न में डूबा हुआ था और इधर-उधर हुई काँस का मन बुढ़ापे के कारण लटक गया था।


नीली रह-रह कर काँस के फूलों को नोच लेती, फिर उसके डंठल को दाँतों से काट-कर फेंक देती थी। पूसी कभी-कभी रुक जाती और नीली की आँखों में देख कर मानो कहती, "बड़ी बे-दर्द हो सखी। क्यों इन बेगुनाहों को तोड़ती हो?" और फिर कभी आगे, कभी पीछे हो कर चलने लगती।


रास्ता एक ओर बल खा कर पगडंडी बन गया था, जो पिछली रात की आकाशी गंगा-सा बाउली बाउली के भीट पर चढ़ कर चुपचाप खड़े-खड़े मुस्कराने वाले शीशम और शिरीष के पेड़ों की ठंडी छाँह में सो गया था और दूसरा नीली की फुलवाड़ी के फाटक से सटे छितवन (सप्तपर्ण) की मादक खुशबू में डूब कर मतवाला हो छितरा गया था-सड़क बन गया था।


नीली अभी मोड़ पर नहीं पहुँची थी कि पूसी ने एक गिलहरी का पीछा किया और फुलवाड़ी की बगल वाली पगडंडी से बाउली पर हो रही-बिलकुल घाट से सटे अशोक के पेड़ की जड़ के पास, टुकुर-टुकुर देखती देखती। नौली भी मुड़ी, पूसी ने उसे देखा तो उछल-कूद बंद कर दी। लेकिन बार-बार जमीन को सूँघती रही।


नीली ने बाउली का घांट देखा-मटियाहा-मटियाहा-सा और किनारे तक फफके पुरइन के पत्तों को भी, जिस पर जगह-जगह पानी की गीली मोती की आभा, सूरज की किरणों से कुछ सुनहली हो रही थी। कमल के फूल भी थे, पर सफेद नहीं, लाल-लाल और कुछ उदास उदास। सामने कनइल की डालियाँ पानी की सतह को चूम रही थीं, पर सब सुनसान और एकाकी......।


पूसी भीट से नीचे उतरी.... उसका मन कुछ चंचल हो उठा। इधर-उधर चकपका रही थी, तब तक एक कुत्ता निकला, भूका और दौड़ कर उसकी गरदन पकड़ कर उठा लिया, फिर जमीन पर पटक कर ददेरने लगा। केंऽ.... केंऽ...... पेंऽ.... पेंऽ....को आवाज आयी, नीली दौड़ी, तो उसने देखा, पूसी विपत में फैस गयी है और कुत्ता उसे तेरतरह रगड़ता जा रहा है। पहले वह डरी, फिर एकाएक दौड़ी और पूसी को उसने अपनी गोद में छिपाना चाहा। कुत्ते के मुँह पर उसने हाथों से मारा। कुत्ते ने बँधी बँधायी मुट्ठी मुँह में ले ली और कच-से दबा दिया। मुलायम फूल-जैसे हाथों में से खून फूट पड़ा और नीली चिल्ला उठी। कुत्ता कुछ दूर खड़ा-खड़ा भूकता रहा। पास ही की खपरैल वाली नन्हीं बखरी से एक औरत निकली, उसके पीछे उसकी छोटी बच्ची भी थी। नीली को देखा तो चिल्ला पड़ी, "मेरी रानी बिटिया!" और दौड़ कर उसने नीली को गोद में भर लिया, पर नीली ने पूसी को छोड़ा नहीं, दूसरे हाथ से उसकी धूल झाड़ती रही।


स्त्री बहुत डर गयी थी। वह नीली के घर पर सेवा-टहल का काम करती है और यह कुत्ता उसी का था। नीली ने कहा, "पालो माँ, मेलो पूछी को उठा लो, घल पहुँचा दो।" पारो का जी भर आया, उसने नीली को गोद में उठा लिया। "यह कौन है पालो माँ?" नीली ने पारो की बच्ची की ओर अँगुली से इशारा किया।


"यह रितिया है बिटिया। मेरी बेटी।"


"ती हम इछे भी छाथ ले चलेंगे।" नीली ने मुस्कराने का प्रयत्न करते हुए कहा। पारो नीली को घर पहुँचाने चली तो रितिया और पुसिया भी साथ-साथ आई। बाउली के किनारे पहुंचते हो नीली ने कहा, "लीती, यह देखो कमल के फूल।" रितिया ने बाउली की ओर देखा, फिर माँ के पीछे-पीछे चलने लगी।





उस रात नीली को बहुत तेज बुखार हो आया और हाथ से लगातार खून बहता रहा। जानकी और उसके पति बहुत परेशान हुए, पर बच्ची होश में न आयी। अगल-बगल बात फैल गयी। बहुत से लोग दौड़ कर रानी बिटिया को देखने के लिए आये। गाँव के वैद्य जी, हकीम जी, कुत्ता काटने पर झारने वाले; सभी आये पर कोई फायदा नहीं हुआ। जानकी जली-जली आँखों से पारो को देखती, पूसी पर निगाह डालती और चुप हो जाती। लगता, जैसे कह रही हो, "बच्ची को अच्छी हो लेने दो, तो तुम दोनों की ख़बर लिवाती हूँ।" रितिया बड़ी उत्सुकता से नीली की ओर देखती-शायद बिटिया आँखें खोल दे और पुसिया कूँऽऽ  कूँऽऽ करती हरदम चारपाई के चारों ओर चक्कर काटती रहती। एक बार वह जानकी के आगे पड़ गयी, उसने एक लात जमा दी। कुतिया रो उठी- पेंऽऽ.... पेंऽऽ.... और कुछ दूर चली गयी, फिर लौटी और रितिया की गोद में जा कर चुपचाप बैठ गयी।


दिन चढ़ आया, पर नीली को होश नहीं आया। लोग कहते, "बड़ा जुलुम हो गया भाई, बड़े-बड़े मुश्किल से तो ठाकुर के एक लड़की हुई, वह भी बेचारी....." और वे भय के मारे सिर झुका लेते।


मकान में चारों ओर उदासी छा गयी थी। धीरे-धीरे लोगों के मन से नीली के जीवन की आशा हटने लगी थी-बड़ी दुखी, बड़ी त्रस्त हो कर। रितिया और पूसी जैसे रह-रह कर यही सोचती थीं-नीली अब उठती है, अब उनसे बातें करती है।


इसी बीच शहर का डाक्टर आ गया। लोग दौड़े आये। उसने बच्ची को देखा, तो कहने लगा, "बड़ा खून निकल गया है और बुखार भी तेज है। दिल धीरे-धीरे बैठ रहा है। यदि कोई खून दे सके.....


यंत्र रख दिय गये थे और जानकी तथा उनके परिवार वालों का रक्त लिया जा रहा था। सब की जाँच हो रही थी, पर एक-एक कर सब का खून बेकार सिद्ध होने लगा। धीरे-धीरे कमरा खाली हो गया.... पूसी कुहकी और पूँछ हिला कर डाक्टर के पतलून से जा सटी। दोनों पंजे उठाए..... डाक्टर बड़ी उदास-सी हँसी हँस कर रह गया..... कुतिया चुपचाप वहीं बैठ गयी। तब तक डाक्टर ने देखा, दो नन्हें, पतले हाथ बढ़े हैं, पर अनबोले-खामोश।


डाक्टर ने देखा, तो उसी तरह मुस्कराया और खून निकालने वाला यंत्र उठा कर बच्चों की आँखों के आगे कर दिया, "देखती है, इसे चुभाया जाता है।" यह सोचता था लड़की डर जाएगी, पर वह मुस्कराती रही बस इतना ही उसके मुँह से निकला, "रानी बिटिया... अच्छी हो जाएँगी न?"


डाक्टर का मन जैसे किसी ऐसे भाव से छू गया, जो खतरनाक न होने पर भी कलेजे को कंपा देता है। उसने यंत्र लगाया पर लड़की टस से मस न हुई। खून देखा गया... ठीक निकला और कुछ मिनट बाद ही नीली ने आँखें खोल दीं।


रितिया और पूसी ने उसे बड़ी ही रुआसी, किन्तु प्रसन्न आँखों से देखा..... डाक्टर का मन भारी हो आया। जानकी ने रितिया को सीने में कस लिया। नीली के बाप तो जैसे खुशी से पागल हो गये।


नीली, रितिया और पूसी अब हमेशा साथ रहतीं। कभी गुड़िया का ब्याह रचाया जाता, तो कभी बड़े सवेरे मुँह अंधेरे ही नीली और रीती फुलवारी वाले पारिजात के फूल बटोरने पहुँच जातीं। वहाँ कोई तितली देखतीं, तो उसके पीछे मचल पड़ती। फिर पूसी ही क्यों पीछे रहती, उछल उछल कर, मुँह बना कर इधर-उधर दौड़ती। "पूछी आज तेली छादी होगी, और तू लीती, एक माला तो बना दे।" नोली कहती और पूसी सजधज कर दुलहिन बन जाती। फिर बाग के एक-एक कोने में बउलिगा के एक-एक पेड़ के पास उनकी उछल-कूद लगी रहती।


कभी नीली मन लटका कर कहती, "देख लीती मैं बीमाल थी न, तो तूने खून दिया था और अब तू बीमाल क्यों नहीं होती, मैं खून दूंगी तुझे, मेली लानी!" और वह गम्भीर हो जाती। पूसी पूँछ हिलाने लगती, पर रीती हँस पड़ती और कहने लगती, "मैं फिर-फिर खून दूँगी और बीमार नहीं पडूंगी।"


"नहीं पलेगी, तो तुझे बीमाल कलूँगी औल खूब हाथ काट कलके तुझे खून दूंगी।" नीली गुस्से में ही कहती और फिर दोनों आपस में एक दूसरे के कंधे पर हाथ रख कर इधर-उधर घूमने लगतीं।





रोज उनका एक-न-एक नया कार्यक्रम बनता रहता। असाढ़-सावन का महीना था। बड़ी बारिश हो रही थी। रीती रात दिन नीली के ही घर रह जाती। दोनों रोज गुड़ियों का एक नया खेल रचाया करतीं।


एक दिन रीती ने कहा, "नीली, तेरी गुड़िया और मेरे गुड्ढे की शादी हो जाए।"


"हो जाए।" नीली ने हँसते-हँसते कहा, "पल भाई, पूछी मेली ओल छे ही लहेगी।"


"क्या हुआ, ठीक है।" रीती ने कहा। बात जानकी तक पहुँची।


खूब धूम-धाम से तैयारी होने लगी। जानकी और पारो भी इस शादी में शामिल होगी, ऐसा तय हो गया। दिन निश्चित हो गया, पर दो चीजों का अभी कुछ तय नहीं हुआ।


रीती ने कहा, "पान तू लाएगी।"


"औल फूल तू न!" नीली ने हँसते-हँसते कहा और अपनी गुड़िया को सुनहरे तारों वाली साड़ी पहनाने लगी।


शादी बउलिया वाले देवता के यहाँ होगी। नीली के बाप ने जगह साफ करवा दी। बैठने का इन्तजाम भी हो गया। जानकी ने कहा, "कुछ खाना-पीना भी हो जाए, तो क्या बुरा हो पारो?" "जैसी मर्जी हो, रानी जी! मैं तो तैयार ही हूँ" पारो ने कहा। तब तक नीली दौड़ती हुई आयी और "पालो माँ, पालो माँ!" कह कर उससे चिपक गयी।


जानकी उसे देख कर हँसी, "पारो! नीली अब तुम्हारी भी लड़की है। पहला जनम तो इसे मैंने दिया, पर दूसरा जनम रीती ने ही।" पारो हँसने लगी।


नीली गंभीर हो गयी, "लीती ने मुझे दूछरा जन्म दिया है..... औल मैंने... औल मैंने!" वह उदास हो गयी। उसी समय पूसी आयी और उसके हाथ-पाँव चाटने लगी। वह उठी और हँसती हुई बाहर चली गयी।


आज सुबह ही शादी होने को थी। नीली के पिता ने खाने-पीने का पूरा इन्तजाम कर लिया था। दरवाजे पर भीड़ लगी हुई थी।


अभी सूरज की किरणें पूरी लाल भी नहीं हो पायी थीं, पर उनका प्रभाव बाउली वाले शीशम की टहनियों पर साफ उतर आया था। रात को ओस के भार से थके हुए पौधों की पत्तियाँ धीरे-धीरे सीधी हो रही थीं और शेफाली की ढुरन थम गयी थी... पानी पर लहराते हुए पुरइन के पत्तों की शोभा के आगे स्वर्ग की मुक्ता भी पीछे पड़ गयी थी। हाँ, कमल के अधमुँहें फूल अभी बहुत प्यासे थे। शायद किरणों के उतरने का इन्तजार था।





नीली, रीती और पूसी बाउली पर पहुँच गयीं। देवता अभी सो रहा था। उन्होंने इधर-उधर देखा, शेफाली की ओर नजर दौड़ायी "लीती तू फूल यहाँ छे ले ले। देख मैं पान तो ले आयी, अभी जब गुलुई की डाल निकलेगी, तो जलूलत लगेगी न!" नीली ने कहा।


जमीन पर गिरे फूल? नहीं नीली। आज मैं कमल के फूल ले आऊँगी।" और वह बाउली की ओर मुड़ गयी। नीली कुछ कहना ही चाहती थी कि रीती पानी में उतर गयी.... घुटने से कमर..... कमर से गले, फिर अथाह पानी और पुरइन का जाला। रीती कमल के पास पहुँच गयी.... फूल हाथ में तो आ गया पर वह...? नीली चिल्लायी, "लीतीऽ... लीतीऽऽ!" और इतने में पूसी पानी में कूद पड़ी। रीती कुछ ऊपर आयी, उसने हाथ फटफटाये, कुतिया पकड़ में आ गयी। "लीतीऽ... लीतीऽऽ... मेली... मुझे...." और फिर छप्..... की आवाज, फिर एक शून्य, निरंतर शून्य।


जानकी, उसके पति, पारो और अन्य सैकड़ों लोग बाजे-गाजे से बाउली पर पहुँचे। खाना-पाना सब पहुँच गया और एक पालकी में गुडुई-गुडुवे की डाल भी पहुँच गयी, पर इन प्राण-हीन दुलहिन-दुलहे के माता-पिता? पारो ने जानकी की ओर देखा और जानकी ने पारो की ओर। सबों ने देखा, पानी की सतह पर एक कमल का फूल और दो लगे हुए पान तैर रहे थे।


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

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