अरुणेश शुक्ल का आलेख 'पहाड़/प्रेम /विरोध की अनिर्वचनीय कवि'

 

रुचि बहुगुणा उनियाल




व्यक्तिगत अनुभूतियां अपने पीछे एक व्यापक फलक लिए होती हैं। चूकि ये अनुभूतियां समाज में रहते हुए ही अर्जित होती हैं इस वजह से इनका एक सार्वजनीन अभिप्राय होता है। इन्हीं अर्थों में महिला हो या दलित, आदिवासी हो या अल्पसंख्यक सबका अनुभव एक अलग आख्यान रचता है। रुचि बहुगुणा उनियाल ऐसी ही कवयित्री हैं जो पहाड़ी क्षेत्र में रहते हुए काव्य सृजन कर रही हैं। दूर से देखने पर पहाड़ भले ही लुभाते हों, वास्तविकता यह है कि पहाड़ी जीवन एक कठिन साधना का जीवन होता है। युवा आलोचक अरुणेश शुक्ल रुचि की कविताओं का मूल्यांकन करते हुए उचित ही कहते हैं कि 'रुचि बहुगुणा उनियाल इन कवियों में एक प्रमुख नाम है जिन्होंने अपने काव्य सौष्ठव, प्रेमिल संवेदनशील भाषा, वैचारिक परिपक्वता व सबसे बढ़कर पहाड़ी स्त्री के जीवन के प्रामाणिक यथार्थ वर्णन से अपनी अलग पहचान बनाई है। उनकी कविताओं में पहाड़, पहाड़ के रूप-रंग, सतरंगी धूप-छाँह, पहाड़ी जीवन के सुख-दुःख आदि गहरे तक अन्तर्विन्यस्त हैं और एक नयी अभिव्यक्ति पाते हैं।' अरुणेश हर महीने पहली बार के लिए एक कवि का आलोचनात्मक मूल्यांकन करेंगे। तो आइए इसी श्रृंखला में आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रुचि बहुगुणा उनियाल की कविताओं पर अरुणेश शुक्ल का आलेख 'पहाड़/ प्रेम/विरोध की अनिर्वचनीय कवि'।


'पहाड़/ प्रेम/ विरोध की अनिर्वचनीय कवि'


अरुणेश शुक्ल


वर्तमान हिन्दी कविता के व्यापक परिदृश्य को देखते हुए यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि स्त्री कविता आज हिन्दी कविता का मुख्य चेहरा है। स्त्री कविता ने हिन्दी कविता के भूगोल और शिल्प को बदल कर रख दिया है। स्त्री कविता ने हिन्दी कविता को प्रेम का शिल्प प्रदान किया है प्रेम के दैहिक, आत्मिक, अशरीरी आदि तमाम भावों व अनुभवों को परिपक्व स्त्री दृष्टि से देखा व रचा है। यह देखना अत्यंत सुखद है कि अब स्त्री कविता का अर्थ सिर्फ़ नारीवाद की आक्रामक भाषा, नारेबाजी व कहन की बेचैनी नहीं रह गयी है बल्कि एक संतुलित, सुकोमल और प्रेम को व्यंजित व वहन करने वाली ऐसी कविताओं में रूपांतरित हो गया है जो अपने डीप नैरेशन में गहरी राजनीतिक कविताएँ भी हैं। 


हिन्दी की स्त्री कविता अब देह के दायरे से काफ़ी बाहर निकल चुकी हैं। वह ऐसे अनछुए विषयों पर कविता लिख रही हैं जो हिन्दी स्त्री कविता की मनोभूमि की बुनावट में बदलाव का प्रमाण देता है। भारत के छोटे-छोटे गाँवों, कस्बों, रेगिस्तानी, पहाड़ी तकरीबन हर क्षेत्र से स्त्री कवि निकल कर बाहर आयी हैं और अपनी कविताओं की ताज़गी, टटकेपन व कहन तथा कथ्य के विशिष्ट तरीकों से पाठकों, आलोचकों सबका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। अभी कुछ वर्षों पूर्व तक पहाड़ का नाम लेने से हमें कविता में सिर्फ मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, लीलाधर जगूड़ी जैसे नाम दिखाई देते थे। पहाड़ की कविता का प्रतिनिधित्व एक तरीके से यही कवि करते थे। ध्यान देने योग्य बात है कि इनमें स्त्री कवि, कविता व दृष्टि का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। हम पहाड़ की स्त्रियों को भी कविता में पुरुष दृष्टि या पितृसत्तात्मक नज़रिए से ही चित्रित पाते थे। किन्तु पिछले कुछ वर्षों में देश के पहाड़ी क्षेत्रों मसलन उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर से तमाम स्त्री कवियों ने हिन्दी कविता के पटल पर अपनी मज़बूत, सार्थक, स्वायत्त और वैचारिक उपस्थिति दर्ज़ करायी है। रुचि बहुगुणा उनियाल इन कवियों में एक प्रमुख नाम है जिन्होंने अपने काव्य सौष्ठव, प्रेमिल संवेदनशील भाषा, वैचारिक परिपक्वता व सबसे बढ़कर पहाड़ी स्त्री के जीवन के प्रामाणिक यथार्थ वर्णन से अपनी अलग पहचान बनाई है। उनकी कविताओं में पहाड़, पहाड़ के रूप-रंग, सतरंगी धूप-छाँह, पहाड़ी जीवन के सुख-दुःख आदि गहरे तक अन्तर्विन्यस्त हैं और एक नयी अभिव्यक्ति पाते हैं। उनकी कविताएँ पहाड़ी स्त्री के सुकोमल प्रेम के साथ-साथ, उसके पठार जैसे धीरज व हाड़तोड़ दैनंदिन श्रम का एक सर्वथा अलग पाठ रचती हैं। 


रुचि बहुगुणा उनियाल के अब तक दो काव्य संग्रह, 'मन को ठौर', और ढाई आखर की बात' प्रकाशित हैं। यह कविताएँ पहाड़ी जीवन का विश्वसनीय साक्ष्य रचती हैं। 'मन को ठौर' संग्रह में अपनी कविता, 'पहाड़ी औरतें' में वह पहाड़ी औरत की दिनचर्या के बहाने उसका समस्त जीवन हमारी आँखों के सामने दृश्यमान कर देती हैं। इस कविता की शुरुआती पंक्तियों में जो प्रयोग रुचि ने किया है वह विशिष्ट काव्य वैभव और नूतन काव्य चेतना का सशक्त प्रमाण है। 


'पहाड़ की औरतें 

सूरज को जगाती हैं 

मुँह अँधेरे 

बना कर गुड़ की चाय

और उतारती हैं सूर्य रश्मियों को

जब जाती हैं धारे में'। 


यहाँ पहाड़ की औरतें सूरज को जगाती हैं यह पंक्ति अद्भुत है और हमारी चेतना में अटक सी जाती है। प्रचलित काव्य व सामाजिक परिपाटी में सूर्य लोगों को जगाता है किन्तु यहाँ पहाड़ की औरतें सूर्य को जगाती हैं। यह मेरी सीमित जानकारी में अपने ढंग का पहला और अनूठा काव्य प्रयोग है। यह है स्त्री दृष्टि! जब चीज़ों को स्त्री दृष्टि से देखा जाता है तो कई निर्मित सामाजिक सत्य का बिलकुल दूसरा पाठ हमारे सामने आता है। सूरज को पहाड़ी स्त्रियों द्वारा जगाना सदियों से सूरज को ले कर व उसके बहाने बनाई गई पितृसत्तात्मक दृष्टि का ऐसा प्रत्याख्यान है जो जहाँ एक तरफ स्त्री के काम के घंटे तय किए जाने का एक नया प्रस्थान बिंदु प्रस्तावित करती है, वहीं यह भी बताती है कि दुनिया की चालक शक्ति मूलतः स्त्री ही है। गुड़ की चाय जहाँ पहाड़ी जीवन को रेखांकित करती है वहीं सूरज को जगाना पति और परिवार को जगाने का भी अर्थ व्यंजित करता है। रुचि इस कविता इन शुरुआती पंक्तियों में ही प्रस्तावित कर देती हैं कि जैसा आमतौर पर नारीवाद भी मानता है कि स्त्री का न कोई अपना सरप्लस समय होता है और न ही उसके घरेलू काम की स्वीकृति वैसा नहीं है। अब तक यह माना जाता रहा है कि स्त्री का जीवन पुरुष की दिनचर्या से निर्धारित होता है। पर यह कविता यह बताती कि हकीकत यह है कि स्त्री की दिनचर्या व क्रियाकलाप से ही पुरुषों का जीवन, काम के घंटे निर्धारित व तय होते हैं। सिर्फ़ इन्हीं चंद पंक्तियों के माध्यम से रुचि पितृसत्तात्मक दृष्टि जो कि स्त्री श्रम के नकार की है उसके बरक्स एक स्त्री दृष्टि ले कर आती हैं जो उस पितृसत्तात्मक दृष्टि को उलट देती है या उसे उसकी असली जगह दिखा देती है। अपनी इस कविता में वह पहाड़ी औरतों के माध्यम से रीति-रिवाज, स्मृति, आदि सबके पीढ़ीगत हस्तांतरण की बात को भी रेखांकित करती है। 


आशय यह कि स्त्री अपने भीतर अपने क्रियाकलाप में और स्मृतियों में भी पूरी एक दुनिया बचा कर रखती है जो वह 'कमर झुक जाने पर नाती-पोतों को सौंप देती है। दरअसल रुचि तमाम कविताओं से यह बात स्थापित करती है कि स्त्रियां कभी स्मृतिहीन नहीं होती। इस कठिन समय में जबकि स्मृतियों को योजनाबद्ध तरीके से मिटाया जा रहा है तब स्त्रियाँ अपने व अपनी पूर्वजा स्त्रियों, नानी, मामी, माँ, सास आदि की स्मृतियों को, जो वह हज़ारों सालों से पीढ़ी दर पीढ़ी सहेजती आ रही हैं। के माध्यम से प्रतिरोध का एक नया अस्त्र गढ़ती हैं। रुचि की इस कविता में 


'पहाड़ी औरतें असमय ही

हो जाती हैं बूढ़ी

क्योंकि उन्हें तजुर्बा चढ़ाई का 

और रपटीली ढलानों का भी'। 





दरअसल यहाँ यह कविता पहाड़ की स्त्रियों की परिधि से बाहर के माध्यम से प्रतिरोध का एक नया अस्त्र गढ़ती हैं। दरअसल यहाँ यह कविता पहाड़ की स्त्रियों की परिधि से बाहर समूची स्त्री जाति के दुःख व अदम्य जिजीविषा को व्यक्त करने वाली कविता में रूपांतरित हो जाती है। दरअसल सिर्फ़ पहाड़ की ही नहीं हर जगह की स्त्रियाँ असमय बूढ़ी हो जाती हैं क्योंकि जीवन के उतार-चढ़ाव, दुःखों जिम्मेदारियों को वह अपने कंधों पर चुपचाप ढोती हैं। बिना किसी शिकायत व आकांक्षा के। 'तजुर्बा चढ़ाई का और रपटीली ढलानों का भी' यह पंक्ति सिर्फ़ पहाड़ी भूगोल को वर्णित नहीं करती बल्कि समूची स्त्री जाति के संघर्षमय भूगोल में रूपांतरित हो जाती है। वह आगे लिखती हैं, 


'पहाड़ी औरतों के 

चेहरे की झुर्रियों में 

पूरा पहाड़ दिखाई देता है 

लदा होता है उनके कंधों पर 

बोझ पहाड़ जैसा 

पहाड़ की औरतें 

नहीं डरती चढ़ाइयों को देख कर 

यूँ ही नहीं घबराती 

उतरती रपटीली पगडंडियों पर चलने से 

क्योंकि वो रोज ही 

भरती हैं कुलांचे 

किसी कस्तूरी मृग सी उन रास्तों पर'


वस्तुतः रुचि की यह कविता अपने वितान में समस्त स्त्री जाति के दुःख व संघर्षों का प्रतिनिधित्व करती है। दरअसल यहाँ पहाड़ी औरतों का अर्थ अपनी बहुव्यंजनात्मकता में पूरी दुनिया की औरतों से है। पहाड़ी स्त्री पर कविता है तो उसकी झुर्रियों में पूरा पहाड़ दिखाई देता है। यहीं यह अर्थ सुनाई देता है कि स्त्रियों की झुर्रियों में उनकी सारी घरेलू ज़िम्मेदारियों का पहाड़ दिखाई देता है। उनके कंधों पर ज़िम्मेदारियों, सामाजिक दायरे कानूनों व नियमों का बोझ लदा होता है। पर वह इन सबसे घबराती या डरती नहीं हैं क्योंकि कस्तूरी मृग सी वह रोज इन रास्तों पर कुलांचे भरती हैं। अर्थात अपने भीतर सृजन, सुख व कोमलता का, जिम्मेदारी का समुद्र समेटे रहती है। 


'असल में पहाड़ी औरतें 

रखती हैं एक पूरा पहाड़ 

अपने अंदर 

उनके गुठ्यार में 

लिखी होती हैं पहाड़ की पीड़ाएँ'। 


सारी स्त्रियाँ सिर्फ़ पहाड़ की स्त्रियाँ ही नहीं, अपने अंदर दुःख का, साहस का, जिजीविषा का, धैर्य का पहाड़ रखती हैं। जिनकी अभिव्यक्ति वह (पहाड़ /समूचे स्त्री जाति के दुःख आदि) आँगन लीपते हुए उन लाइनों में करती है जो लीपे जाने के दौरान बनती है। एक अर्थ यहाँ यह भी निकलता है कि स्त्री पीड़ा में भी, दुःख में भी सृजन ही करती है। सिर्फ और सिर्फ सुन्दर का सृजन, जो घर को ही नहीं समूची दुनिया को सुन्दर बनाता है।


रुचि की एक और अत्यंत महत्वपूर्ण कविता जो उनकी निडर राजनीतिक दृष्टि व अभिव्यक्ति का प्रमाण देती है, वह है, 'ईश्वर तुम अपने होने से इंकार कर दो'। संग्रह में यह कविता इसी शीर्षक से छपी है। पर इससे पहले यह कविता 'ईश्वर तुम आत्महत्या कर लो' शीर्षक से कई जगहों पर छप चुकी थी। इस कविता में वह यह सवाल करती है ईश्वर से कि, 


'यदि यह दुनिया तुम्हारे खेल है तो तुम्हें नहीं लगता? 

कि खेल एकतरफ़ा होता जा रहा है 

कि कमज़ोर के आँसुओं से अब 

तुम्हारी सत्ता डिगने की कगार पर है? 

इसके पहले कि कमज़ोर...... 

जिनकी प्रार्थना 

तुम्हारे वजूद को बचाए हुए है 

उतार दे तुम्हें सिंहासन से तंग आ कर 

नकार दे तुम्हारा ईश्वर होना'। 


ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ रुचि यह कहती है ईश्वर का अस्तित्व कमज़ोर की प्रार्थनाओं से ही बरकरार है। दरअसल ज्ञान व सत्ता के गठजोड़ ने ईश्वर का जो भी स्वरूप निर्मित किया है यह उसको स्थापित कमज़ोरों के भय पर ही किया गया। उनका यही भय प्रार्थनाओं के शिल्प में ईश्वर के वजूद को बचाए हुए है। उनकी प्रार्थनाएँ न यहां कोई सुनता है और न ही ईश्वर, जो तथाकथित रूप से उन्हीं के लिए बनाया गया है। इसलिए प्रथमतः प्रतिरोध के स्वर पर रुचि ने इस कविता का शिल्प प्रार्थना के शिल्प में नहीं रखा है। यह सिर्फ शिकायत भी नहीं है वरन् ईश्वर को आज के सच से, उसकी निष्क्रिय भूमिका से साक्षात्कार कराता हुआ उसके नकार का शिल्प है। इसमें आक्रामकता नहीं वरन् आक्रोश और निराशा का मिलाजुला सौम्य किन्तु मजबूत स्वर है। जिसे रुचि आज कह रही है कि खेल एकतरफ़ा हुआ जा रहा है, दरअसल वह हमेशा एकतरफ़ा ही था। धर्म गरीबों और कमज़ोरों की शरणस्थली भले ही रही हो किन्तु सत्तासीन व वर्चस्वशाली तबके के लिए पॉवर बनाए रखने का एक सॉफ्ट और कभी-कभी कठोर उपकरण ही रहा है। ईश्वर के लिए यह दुनिया खेल या लीला हो न हो परन्तु वर्चस्वशाली तबके के लिए यह दुनिया और उसमें भी कमज़ोर व वंचित तबके के लोग खेल का मैदान व विषय ही रहे हैं। इसलिए दूसरे शब्दों में रुचि कहती है कि ईश्वर अब बूढ़े माँ बाप की तरह लाचार हो गया है, जिसे उनकी संतानें कभी भी वृद्धाश्रम छोड़ सकती हैं। यहीं जो कविता में अनकहा रह गया है और इस पंक्ति की विडम्बना इस कविता को समकालीन संदर्भों से जोड़ती है व बड़ा बनाती है। अब संतानें करोड़ों-अरबों का महल बनवा रही उनके लिए। उनका राजनीति, व्यापार सब जगह उपयोग कर रही। रुचि ठीक कहती हैं कि 


'अपना होना तुम्हें संदिग्ध लगता होगा न

जब देखते 

ये दुनिया वैसी रह नहीं गई 

जैसी तुमने बनाई थी'। 


अब जो यह मानेगा कि दुनिया ईश्वर ने बनाई थी उसकी शिकायत जायज़ है। जो यह मानते कि दुनिया ने ईश्वर को बनाया, आस्थावान लोग भी इस यथार्थ से परिचित हो गए हैं कि ईश्वर अब कर्ता की भूमिका में नहीं रहा। पूँजी के सामने वह बेबस है इसीलिए कविता के अंत में वह स्वीकार करती है कि ईश्वर भीरू है, वह अपनी भीरूता से पराजित है अतः मनुष्य उसके होने से, उसकी सत्ता को नकार दे, ईश्वर को आत्महत्या कर लेनी चाहिए, या अपने होने से इंकार कर देना चाहिए। दूसरे शब्दों में यह गैर काव्यात्मक शब्दों में लोक का सहारा ले कर कहें, तो ईश्वर को, आज के यथार्थ को और अपनी भूमिका को जो कि न कर पाने की है, को देखते हुए चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए।


प्रेम रुचि की कविता का अपना जोनर है। वहाँ उनकी कविता व काव्य कौशल अपने सर्वश्रेष्ठ फॉर्म में नज़र आता है। 'मधुगंध' कविता में स्त्री के प्रेम, इन्तज़ार, समर्पण, भय आदि सबको वह चित्रित करती है। वह जानती है कि इस समाज में स्त्री का प्रेम करना अपराध है। 'और मैं दोषी ठहरा दी जाऊँगी तुम्हें प्यार करने के लिए'। और इसका नतीजा एक अन्धड़ सा उठता है मन में/ और मैं लाचार हो जाती हूँ। परन्तु यह लाचारी पराजय बोध में ही नहीं बदलती बल्कि उसकी परिणति सृजनात्मक रूप में प्रेम कविताओं के रूप में होती है। स्त्री मधुगंधिनी बन जाती है। रुचि की प्रेम कविताओं में संस्कृत काव्य परम्परा की शब्दावली की झलक व थाती स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। वह इस निष्ठुर समाज को प्रेम का अर्थ समझाने में असमर्थ है बावज़ूद इसके उनका प्रेम मंजिष्ठा राग वाला प्रेम है, जो भक्ति व आध्यात्मिक प्रेम की ऊँचाईयों को स्पर्श करता है। पहाड़ रुचि के भीतर बसता है पहाड़ उनके भीतर अंतस में अस्तित्ववान है अतः उसकी विशेषताएं भी उनके भीतर हैं तो भला प्रेम उससे अछूता कैसे रह सकता है। उनका प्रेम भी विशिष्ट है। वह लिखती है, 


'एक सादा पहाड़ी स्त्री के लिए प्रेम होना 

मानो पाप-पुण्य के घेरे के इतर ईश्वर से सीधा मिलन हो

फिर भी स्त्री मन की झिझक कैसे छूटे?' 






पहाड़ी स्त्री के लिए प्रेम ही सर्वस्व है प्रेम ही ईश्वर है यह ठोस, दृढ़ निश्चय व यथार्थ है उसके जीवन का। इस दृढ़ता में नारी सुलभ झिझक भी शामिल है। पर इस झिझक के बावजूद उसकी प्रेमिल कामनाएँ रीतियों और परम्पराओं की बाड़ तोड़ती है। यह कामनाएँ निश्चित रूप से सामाजिक दबावों के सामने विद्रोही होने के बावजूद भी पूरी नहीं हो पातीं क्योंकि स्त्री का प्रेम करना उसका दोषी होना है। बावजूद इसके उसका मन प्रेमी के दर्शन की प्रतीक्षा में है। कि सिर्फ़ एक बार मन होने पर जब वह पलट कर देख लेगा तो आँखों के साथ मन और प्राण भी तृप्त हो जाएंगे। वस्तुतः रुचि के यहाँ प्रेम नैतिक, आध्यात्मिक व भक्ति सी ऊँचाई वाला है। पर है तो आधुनिक चेतन कवि ही। अतः वह प्रेम के पूरे पितृसत्तात्मक विमर्श को समझती हैं और उसे अपनी कविता 'यात्रा' में डिकोड भी करती हैं। इसमें वह यह बताती हैं कि कैसे स्त्री के जीवन में पुरुष एक दोस्त बन कर आता है, फिर प्रेमी बनता है और फिर पति। विवाह के पश्चात वही स्त्री जो स्वच्छंद पक्षी की भांति उड़ती थी वह प्रेम में खुशी-खुशी बंदी बन जाती है, बना ली जाती है। प्रेम के नाम पर स्त्री सब कुछ सहन करती है। ऐतिहासिक विकास क्रम में पितृसत्ता ने प्रेम के रूप में स्त्री शोषण का सबसे सॉफ्ट, कारगर और सशक्त हथियार गढ़ा है। प्रेम के सहारे ही वह न सिर्फ़ पुरुष वर्चस्व को मज़बूत करता है बल्कि स्त्री पर होने वाली तमाम तरह की दैहिक, मानसिक, यौनिक आदि हिंसाओं को वैध ठहराने का तर्क भी गढ़ता है। इस तर्क की अभेद्य किलेबन्दी वह विवाह नामक संस्था से करता है, विवाह के बाद स्त्री की हालत क्या होती है उसे व्यक्त करते हुए रुचि कहती हैं, 


'रिश्तों की भीनी

महक की जगह, तुम्हारे गुस्से और अधिकार की

अग्नि से उठती आँच से 

जल गए उसके नाज़ुक पंख 

अब परकटे परिंदे की तरह 

घर की चारदीवारी में 

पौ फटने से ले कर 

लौ बुझने तक की यात्रा करती है स्त्री

अब उसकी यात्रा

तुम से शुरू हो कर

तुम पर ही खत्म हो जाती है'। 


यहाँ रुचि विवाह संस्था की पूरी स्त्री विरोधी राजनीति व कार्यप्रणाली को डिकोड कर उसका प्रत्याख्यान व क्रिटिक रचती हैं। वैसे भी विवाह संस्था को स्त्री का वधस्थल कहा ही है नारीवादियों ने। क्योंकि विवाह संस्था में यौनिकता व स्त्री देह पर बंधन के सामाजिक नियम तथा पॉवर इम्बैलेंस स्त्री को दोयम दर्जे में अनिवार्यतः पहुँचाता ही है। विवाह संस्था रची भी स्त्री की देह पर नियंत्रण हेतु ही गई थी। विवाह संस्था प्रेम के सहारे स्त्री से उसका व्यक्तित्व, पहचान, समय सब कुछ छीन लेती है। लेकिन एक सचेत कवि के रूप में रुचि जानती है कि दुनिया में उम्मीद खासकर सुन्दर की उम्मीद भी प्रेम से ही है। प्रेम की तरलता ही है वह जो देह को हवा से भी हल्का कर देती है। प्रेम की तरलता लयात्मक रूप में रुचि की कविताओं की संरचना में गहरे अन्तर्विन्यस्त है। जिसमें शब्द, संगीत और हृदय की धड़कनों की मिली-जुली लय है। कई बार कविता में उनके यहाँ प्रेम हमें अलग ही दुनिया या ट्रांस में ले जाता है, जहाँ हम सिर्फ़ उसे महसूस कर सकते हैं। वह अनिर्वचनीय प्रेम की कवि हैं। रुचि का प्रेम अपनी शर्तों पर किया गया प्रेम है, 


'अब मुझे समझना हो

तो तुम्हें ख़ुशबू में रूपांतरित होना होगा 

ताकि विलीन हो सको मुझमें 

और पढ़ने के लिए कुछ नहीं है'। 


वह प्रेम को रूहानी मिलन के औदात्य तक ले जाती हैं जहाँ 


'हाँ तुमसे प्यार करती हूँ 

यह स्वीकार करते हुए प्रेमिका के होंठों से सुन्दर 

दूसरा दृश्य प्रेमियों के लिए कोई न रहा कभी '। 


यहाँ हमें रुचि की अद्भुत दृश्य रचना व कल्पनाशीलता का साक्ष्य मिलता है। उनकी कविताएँ प्रेमियों की 'हाँ-ना  के मध्य ओट में छिपी हज़ारों प्रेम व विरह की कविताएँ हैं'। दूसरे शब्दों में रुचि की कविताएँ प्रेम, समर्पण, विरह आदि का आख्यान हैं, जिनमें समर्पित मानिनी नायिका सर्वत्र है। उनकी प्रेमिल अभिव्यक्तियाँ उस पहाड़ी शहर में गूँजती हैं 'जहाँ प्रेम को जीवन की आवश्यकताओं के अंतिम पायदान पर रखा जाता है'। वहाँ भला उन्हें कौन सुने और समझेगा। पर वही प्रेम काव्य रूप में दुनिया देख और समझ रही है। समझ रही है उसमें कामनाओं की खदबदाहट। जिन उदास कविताओं में में रुचि ने मन के समस्त संताप उतार कर रख दिए हैं। उनकी सबसे खास बात यह है कि वह पाठक को उदास नहीं करतीं, बल्कि इस भौतिकतावादी प्रेम के समय में प्रेम के एक सर्वथा आध्यात्मिक, समर्पणशील  व प्रेमिल आख्यानों की याद दिलाती है, उससे रूबरू कराती हैं जैसे प्रेम खासकर स्त्री प्रेम महत्तम् ऊँचाई पर होता है। वैसे भी प्रेम तो स्त्रियों ने ही किया है व बचाया भी है, पुरुषों ने तो राजनीति की है, स्त्री देह का भोग ही किया है। 


रुचि की कविता में प्रेम समर्पण की उस नैतिक ऊँचाई व स्वीकारोक्ति को प्राप्त करता है जहाँ 'प्रयाण से पहले मात्र प्रेमी के स्पर्श से ही आत्मा मुक्त हो जाएगी'। यहीं रुचि कविता में अशरीरी लगते प्रेम को शरीरी बना देती हैं। आख़िर प्रेम का यथार्थ देह भी है। देह के बिना तो प्रेम निर्गुण है। बहरहाल रुचि की काव्य भाषा वैसे तो आम बोलचाल की खड़ी हिन्दी है जिसमें गढ़वाली शब्दावली भी रची-बसी है। लेकिन उनकी भाषा को वैशिष्ट्य संस्कृत काव्य परम्परा की वह तत्सम शब्दावली देती है जो अपने भीतर पूरी ऐन्द्रिकता, प्रकृति को समेटे हुए है। वह हर हाल में विरह का दुःख खत्म करना चाहती हैं। 


'इससे पहले कि मेरी आत्मा धैर्य की डोर छोड़ दे

तुमसे विरह का दुःख खत्म होना चाहिए'। 


वह धर्मवीर भारती के 'कनुप्रिया' तक जन्म-जन्मान्तर इंतज़ार करने वाली प्रेमिका नहीं हैं। वह स्पष्ट कहती हैं कि 'प्रतीक्षा की अवधि भी तो तय करनी चाहिए न'। दरअसल रुचि की कविताएँ प्रेम व पहाड़ के माध्यम से तमाम दुनियावी सुख-दुःख को समेटे हुए कोमल भाव, पदावलियों व सुकोमल शब्दावलियों की ऐसी कविताएँ हैं जो अपने भीतर पहाड़ का ही ठोसपन, दृढ़ता व ऊँचाई लिए हुए हैं। यह प्रेम में डूबी स्त्री की ऐसी अभिव्यक्तियाँ हैं जिसके प्रश्न पितृसत्ता को असहज करने वाले हैं। रुचि लड़की को जब कैक्टस सा होना चाहती हैं तो ज़ाहिद तौर पर उसके कांटे पितृसत्ता को चुभेंगे ही।






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