ललन चतुर्वेदी की कविताएं



ज्यादा लिखना कभी भी बेहतर होने का पैमाना नहीं होता। महत्त्वपूर्ण होता है बेहतर लिखना, भले ही कम लिखा गया हो। ललन चतुर्वेदी हमारे समय के ऐसे ही कवि हैं जिन्होंने चुपचाप अपने लेखन को केंद्रित करते हुए बेहतर लिखा है। एक दो संग्रह प्रकाशित होने के बावजूद ललन आज हिन्दी के चर्चित कवियों में से एक हैं। वे मिट्टी से जुड़े हुए कवि हैं। जीवन से जुड़े कई सूक्ष्म अनुभूतियां उनके पास इस तरह आती हैं कि हम चकित रह जाते हैं। हाल ही में ललन चतुर्वेदी का नया कविता संग्रह 'यह देवताओं के सोने का समय है' प्रकाशित हुआ है। पहली बार पर हम उनके इस संग्रह से कुछ चुनिंदा कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं।


ललन चतुर्वेदी की कविताएं



दुनिया के खूबसूरत लफ्ज़ उम्र कैद की सजा काट रहे हैं

संसार की सबसे खूबसूरत उपमाएँ
संसार की सबसे खूबसूरत भावनाएँ
संसार के सबसे खूबसूरत शब्द
किताबों और बयानों में कभी नहीं मिलते
उनके भाग्य में नहीं लिखा है
तहखाने से बाहर आना


अकसर अपने रचे प्रेम पत्रों को पढ़ता हुआ
पुरुष होने के बावजूद मैं लाज से गड़ जाता हूँ
अकेले कमरे में सहम-सहम कर इन्हें पढ़ते हुए
मेरे सामने खड़ी हो जाती है प्रेयसी
और पूछती है सवाल-
बच्चू! - इतना आसान है क्या प्यार करना?


अकेले में भी नजरें झुक जाती हैं
मैं पत्रों को फाइल में बंद कर
पुराने टिनही बक्से में  रख देता हूँ 
और लगा देता हूँ अलीगढ़ी ताला


दुनिया के सारे खूबसूरत लफ्ज़
उम्र कैद की सजा काट रहे हैं
दुनिया के पवित्र दस्तावेज
नदियों की गोद में गाद बन गए हैं
आग की लपटों  में जो खूबसूरत लौ है
वे इन्हीं प्रेम पत्रों के विद्युतकण हैं


अपनी तमाम विरासत
अपने पुत्र को खुशी-खुशी सौंप कर
कूच करता हुआ पिता
अपने प्रेम पत्रों को अपनी संतान के हवाले
करने का साहस क्यों नहीं जुटा पाता?


अपने प्रेम पत्रों का पुनर्पाठ करते हुए
बरबस, विवश पिता की याद आती है
और सोचने लगता हूँ -
कहाँ गायब हो ग‌ए उनके प्रेम पत्र
और फिर हमारी आँखें
सतर्क हो जाती है कि कहीं
मेरी ही संतान यह न पूछ बैठे कि
गाहे-बगाहे आधी रात में
इस कोठरी के नीरव वातावरण में
पिता जी आपका चेहरा
जीरो वाट के पीले बल्ब जैसा क्यों हो जाता है?  
             
 

कुछ तो बोलो

कुछ तो बोलो धर्मराज!
कुछ तो बोलो अद्वितीय धनुर्धर!
चुप क्यों हो महाबली गदाधारी!
नकुल, सहदेव!
क्यों बैठे हो सिर झुकाए
पितामह! गुरुदेव!
आप भी मौन हैं
मैं हूँ, आपकी  ही पांचाली
कह भी दीजिए न कि तू कौन है?


देखो, देखो, सभासदों!
दु:शासन कितना निकट आ गया
हे भगवान! अब क्या बचा?
अब साड़ी का आखिरी सिरा भी सरकने को है


ओहह्!
सुन दुर्योधन का यह क्रूर अट्टहास!
फटती क्यों नहीं यह धरती?
क्या, मेरे नग्न होने के पहले ही हो ग‌ए सब नग्न!


हे सखा! हे गोवर्धन!
अब न संभल पाएगा 
पहुँच रही है न तुम तक मेरी पुकार?
जोह रही हूँ तुम्हारी बाट
कहाँ हो तुममेरे सखा!


मेरे उठे हुए हाथों को समर्पण समझने की भूल कर रहे हो दुर्योधन!
पूरे ब्रह्माण्ड में गूँजेगा यह अरण्य रोदन
प्रार्थना के ये कातर स्वर
धनुष की टंकार में होंगे परिणत
और एक दिन युद्धभूमि  में
नृत्य करेंगे श्रृगाल
उत्सव मनायेंगे काक और श्वान


तुम्हें ज्ञात नहीं
जब नीति और न्याय
करने लगे मूक-बधिर का अभिनय
तब आना निश्चित है प्रलय
व्यर्थ नहीं जाते स्त्री के आँसू और पूरवैया बयार


सुनो सभासदों!
यह चुप्पी है बेहद ख़तरनाक
तुम्हारी चुप्पी लिख रही है
महाभारत की पटकथा।



ताश का खेल 

(एक)

दहले को दहला देता है गुलाम 
गुलाम की सिट्टी-पिट्टी गुम कर देती है बेगम 
नजरें झुका लेती है बेगम बादशाह के सामने 
हद तो तब हो जाती है जब सब पर भारी हो जाता है एक्का 
लेकिन वह भी बेरंग हो जाता है रंग की दुग्गी के सामने 
सदियों से हम खेल रहे हैं यही खेल। 


(दो)

एक दिन जोकर ने तोड़ी सदियों की अपनी चुप्पी
सारे पत्ते हो गए निस्तब्ध, अवाक़
सुन कर उसकी माँग-
मुझे भी मुख्यधारा में शामिल करो 
कब तक मुझे रखोगे अलग-थलग 
तुम जो कर सकते हो 
क्या वह मैं नहीं कर सकता 
हर जगह बखूबी मैं अपनी भूमिका निभाने लगा हूँ
सभ्यों की महफिल में आने-जाने लगा हूँ
गौर से देखो मान-सम्मान पाने लगा हूँ
बेगम ने सहमति में सिर हिलाया 
बादशाह को भी यह ख्याल बहुत पसंद आया
गुलाम हुकुमतामिला के लिए मानो पहले से तैयार बैठा था 
जोकर खुश हो गया 
आजकल वही करता है 
हार जीत का फैसला। 





 

पिता परिवार में विनिवेश के खिलाफ थे

आदर्श पुत्र होने के नाते
मुझे यह नहीं पूछना चाहिए कि
क्यूँ पिता ने पैदा कर दिए छ: संतान


पिता जन्मजात गरीब थे
गरीबी के लिए उन्हें कसूरवार ठहराना
किसी निर्दोष को फाँसी देना होगा


वह उस ईमानदार बाप के बेटे थे
जो महात्मा गाँधी मार्ग पर चलते रहे आखिरी साँस तक 
कालनेमी मित्रों ने उन्हें कर दिया पागल
आखिरी दिनों में उन्हें करना पड़ा भिक्षाटन 
हालाँकि बाकी था उनमें तब भी बहुत जीवन 
फिर भी वह मृत घोषित कर दिये गये


जैसे किसी उद्योगपति के बेटे को मिलती है अकूत संपत्ति
वैसे ही पिता जी को विरासत में मिली गरीबी


पिता जी कायर नहीं थे
गरीबी के साथ वह लड़ते रहे द्वंद्व-युद्ध 
बहुधा वह भारी पड़ते थे गरीबी पर 
गरीबी उनके सामने बेपर्द हो कर शरमा जाती थी


पिता जी हारने के बाद भी लौटते थे विजेता की तरह
फिर से करने लगते थे अगले युद्ध की तैयारी
पिता जी विरथी थे, आयुधविहीन थे
मगर अपने संकल्प में वह कभी नहीं हारे
उदास क्षणों में बिखेरते हुए मुस्कान
पढ़ देते थे कोई ओजपूर्ण कविता
और सभी दंग रह जाते थे  


लेकिन दुश्मनों के षड्यंत्र और अपने ही  संस्कारों के कारण
वह हार गए आखिरी जंग  


पिता जी असमय चले ग‌ए
मगर मेरे मन में प्रतिष्ठित हैं शहीद विजेता की तरह
पिता जी ने कभी नहीं कही अपने मन की बात


पिता जी ने घनघोर  गरीबी में कभी नहीं कहा-
अब मुझसे नहीं चलेगा इतना बड़ा परिवार
और तुम्हें पढ़ने के लिए भेज दूँगा फुफा जी के पास 
यह कभी नहीं कहा कि बालिग हो ग‌ए हो और अपना रास्ता देखो
उन्होंने यह भी नहीं कहा कि उनकी बेटियाँ  मौसियों के यहाँ पलेंगी


पिता जी नहीं चाहते थे
उनकी गरीबी में कोई करे अपनी पूँजी का निवेश
वह नहीं देना चाहते थे किसी को
अपने परिवार की एक प्रतिशत की भी हिस्सेदारी


वह ऐसे नाविक थे
जो डूबते हुए जहाज को किनारे लगा  देता था 


पिता जी कहा करते थे बहुत मुश्किल से बनता है परिवार
परिवार में उन्हें किसी का भी हस्तक्षेप स्वीकार नहीं था
परिवार में उन्हें  किसी प्रकार का विनिवेश स्वीकार नहीं था।
                            


 

यहाँ रोना मना है 

नृत्य में
रास में, रंग में
आनंद, उमंग में 
दुनिया डूबी हुई है 
तुमुल तरंग में 
कि यहाँ रोना मना है


हँसो कि 
तुम्हारे संग-साथ
हँसे पूरा परिवार,
हँसे पूरा समाज 
हँसे सारा संसार 
कि यहाँ रोना मना है


क्या हुआ 
जो चिता जल रही 
मौत जश्न मना रही
पीर तेरी अपनी है 
जंजीर तेरी अपनी है 
कि यहाँ रोना मना है 
लोग बुरा मान जायेंगे 
कुछ समझा-बुझा कर 
उदास महफिल से चले जायेंगे 
कुछ पीछे में कहकहे भी लगायेंगे 
तेरे मन का दर्द किसने जाना है?
कि यहाँ रोना मना है 


चुप भी रहो 
कुछ भी मत कहो 
नहीं सुनेंगी पाषाण प्रतिमाएँ
अच्छे बच्चे रोया नहीं करते 
यह जुमला पुराना है 
हँसो, जैसे भी हो हँसो
कि यहाँ रोना मना है। 

           
  
पैसा दिल्ली से आता है!

मुजफ्फरपुर की लीची मशहूर है
वैसे ही हाजीपुर के केले
अपने ही देश के क‌ई इलाके हैं
जिन्हें कहते हैं धान का कटोरा
कहीं के कपड़े तो कहीं की मिठाइयाँ
मौके-बेमौके आ जाते हैं ज़ुबान पर


किसान रह-रह कर ताकता है आकाश का मुँह 
जहाँ मँडराते रहते हैं काले-काले बादल
जो गरजता है बहुत, बरसता है कम
ललचा-ललचा कर लौट जाता है
बार-बार खेतों के पास आ कर


महीने के आखिर में नौकर
नोट गिनते हुए मालिक का देखता है मुँह 
इधर काम वाली ताड़ती रहती है मालकिन का मूड
सालोंसाल से जिनके वेतन में नहीं हुई है बढ़ोतरी


होती रहती है बहुधा आकाशवाणी-
'पैसे पेड़ पर नहीं फलते।'


किसान उगाते हैं अन्न, फल-फूल
मजदूर लुटाते हैं अपना श्रम
वे नहीं रख सकते अपने पास अन्न, फल-फूल
उन्हें यह भी मालूम नहीं
कहाँ पहुँच जाएगा उनके गेहूँ का दाना
और कैद हो जाएगा किस चमकदार ब्रांड में 


मजदूर को मालूम नहीं
भारत के किस-किस कोने में गिरा होगा उसके श्रम का स्वेद
सब कुछ बिखरा हुआ है 
इसी भारत भूमि पर एक कोने से दूसरे कोने तक
लेकिन लक्ष्मी एक ही जगह है कैद 


यह मार्च की आखिरी तारीख है
खाता बंद कर रख दिया गया है
एक तारीख वाली हलचल के बदले सन्नाटा है
हालाँकि बहुतों के शब्दकोश में
एक और इकतीस तारीख में कोई फर्क नहीं होता
फर्क इस बात से पड़ता है कि पैसा दिल्ली से आता है
क्या पैसे के पेड़ उगते हैं दिल्ली में? 




                


आदमी

कुछ बेतरतीब बिखरे शब्द
जब कोशकार ने सजाए तो कोई क्रम बना
भावों के अनुसार
कभी मात्रा बदली, कभी अर्थ बदला
कभी कॉमा, विसर्ग, हलंत लगे
फिर भी पूरा कहाँ हुआ
आदमी एक अपूर्ण वाक्य है
जिंदगी भर अर्थ की तलाश में भटकता हुआ।
         


आदमी की तरह

छोटे लोगों के बीच
बड़े आदमी की तरह
बड़े लोगों के बीच
छोटे आदमी की तरह
आखिर आदमी कब जिएगा
आदमी की तरह?

            

काम का आदमी

जो हमारी नजरों में नहीं होते अमूमन 
जो कभी 'लाइमलाइट' में नहीं होते अमूमन 
नहीं होती जिनसे अपेक्षाएँ हमारी अमूमन 
गाढ़े वक्त में वे प्रकट हो जाते हैं देवदूत की तरह
बचाते हैं वही हमारी लाज, इज्जत 
बँधाते हैं त्रासद क्षणों में वही ढाढ़स 
हमारी आँखें जिनमें देखा करती हैं सिर्फ खाद 
कसौटी पर अकसर वही उतरते हैं सोना। 
                      

गिरना

कोई भी गिरे
चोट लगती है


बालक गिरता है
बनी रहती है उठने की संभावना
जवान गिरता है
बढ़ सकता है संभल कर
वृद्ध जब गिरता है
नहीं निकल पाता निराशा के गर्त से


जब गिरता है कुर्सी पर बैठा आदमी
गिरता जाता है गति से, गिरता ही जाता है
कामना कीजिए
कुर्सी पर बैठा आदमी कभी नहीं गिरे।




               


बाघ

ईश्वर के बारे में सोचते हुए
मैं बाघ के बारे में सोचने लगता हूँ 
बाघ के बारे में सोचते हुए
मैं मनुष्यों के बारे में सोचने लगता हूँ
मनुष्यों के बारे में सोचते हुए
अचानक मेरी सोच बदल जाती है
तब सोचने लगता हूँ -
बाघ मनुष्यों से क्यों दूर रहते हैं।
                  


लड़की

लड़कियों के बारे में सोचते हुए
मैं लड़कों के बारे में सोचने लगता हूँ 
लड़कों के बारे में सोचते हुए
मैं प्यार के बारे में सोचने लगता हूँ
प्यार के बारे सोचते हुए
मैं बलात्कार के बारे में सोचने लगता हूँ
बलात्कार के बारे में सोचते हुए
मैं हत्या के बारे में सोचने लगता हूँ
हत्या के बारे में सोचते हुए फिर से
मैं लड़कियों के बारे में सोचने लगता हूँ 
और सोचने लगता हूँ -
पैंतीस टुकड़े देह के
कितने टुकड़े नेह के?
             
 

परिपक्वता का पाठ

उसकी आँखों पर चश्मा नहीं है
लेकिन मजाल है कि चावल में शेष रह जाए कंकड़
जब तक अदहन नहीं उबलता वह चावल नहीं डालती बटलोही में
उसकी कलाई पर नहीं बँधी है घड़ी
पर ठीक समय पर ढक्कन हटा कर
टो लेती है एक चावल
और मांड़ का गाढ़ापन देख कर 
कर लेती है चावल सीझने का अनुमान
फिर कपड़े से पकड़ कर पतीले को झट से पसा देती है भात
एक बार आँचल से पोंछ लेती है चेहरे का पसीना
अनायास उसके चेहरे पर फ़ैल जाती है मुस्कान


ऐसी स्त्रियों के जीवन में रहने के बावजूद
हम छाँट नहीं पाते शब्दों के बीच से कंकड़
और हड़बड़ी में फैला देते हैं कागज पर
अधपकी कविता
करते रहते हैं बारहा अनर्गल प्रलाप
इतना भी धैर्य नहीं कि थोड़ी देर पकने दें शब्दों को धूप में
भीगने दें थोड़ी सी बारिश में


शब्दों में रस और मिठास भरती है प्रतीक्षा
थोड़ा सा मौन करता है ध्यानाकर्षण
संवाद का अनिवार्य हिस्सा है मौन
हम जिन स्त्रियों परचस्पा कर चुके हैं बातूनी का विशेषण 
मुग्ध हो जाते हैं उन्हें मौन भाव से सुनते देख कर
हम स्त्रियों से सीख सकते हैं परिपक्वता का पाठ।

                           


हीरो 

चंद मिनटों के लिए 
ओढ़ ली किसी की खुशियाँ
जी लिया किसी का गम 
दिखा दिया दिलेरों सा हौसला 
जीत ली जीवन की जंग 
गा दिये औरों के रचे गीत 
औरों का ही था मधुर संगीत 
बोल दिए औरों के लिखे संवाद 
जो खुद थे औरों के सहारे 
वे बन गए हीरो हमारे।
               


गर्वोक्ति 

न उधो का लिया 
न माधो का दिया 
न किसी का भला 
न बुरा ही किया 
चलती रही साँस जब तक 
जिया 
इसी तरह देव दुर्लभ मनुष्य पद 
श्रीमान ने विभूषित किया!


             







सम्पर्क

मोबाइल : 

9431582801

टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छी कविताएं. दुनिया के खूबसूरत लफ्ज उम्र कैद की सजा काट रहे हैं लाजबाब है.
    स्वप्निल श्रीवास्तव

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  2. बहुत ही सारगर्भित कविताएँ !

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर कविताएं हैं

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