स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख 'पुरबिहे कवि की कविताई'।

 



कथ्य और भाषा के स्तर पर प्रयोग करने वाले कवियों में केदारनाथ सिंह का अपना अलग स्थान है। वे लोक और लोक जीवन से जुड़े हुए कवि हैं। इसीलिए मिट्टी की गंध सहज ही उनके यहां मिल जाती है। वे खुद को पुरबिहे कहने में किसी भी किस्म के संकोच का अनुभव नहीं करते। अपनी मातृ भाषा भोजपुरी को वे जीते थे। उनकी कविताएं इसकी गवाह हैं। आज केदार जी की पुण्य तिथि पर उन्हें नमन करते हुए पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख 'पुरबिहे कवि की कविताई'।


(केदारनाथ सिंह हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि हैं, उनकी संवेदना व्यापक है इसलिए आलोचकों ने अपनी अपनी दृष्टि के अनुसार उनका मूल्यांकन किया है। मेरा विचार यह है कि वे मूल रूप से लोकसंवेदना के कवि हैं। इस आधार पर उनके मूल्यांकन की कोशिश की गयी है। 19 मार्च उनकी पुण्यतिथि है, उन्हें  याद करते हुए यह लेख  प्रस्तुत है। - लेखक)


पुरबिहे कवि की कविताई

                  

स्वप्निल श्रीवास्तव

       

हिंदी में दो तरह की संवेदना के कवि हैं। पहले वे जो नगर-क्षेत्र में रहते हुये नागर जीवन के बीच की हलचल, वहां के नागरिकों के सुख–दुख को अपने काव्य का विषय बनाते हैं। शहर में जन्में या उस तरह के भाव रखने वाले कवि, नागर जीवन के यथार्थ को शिद्दत के साथ व्यक्त करते हैं। दूसरे तरह के कवि लोकजीवन और सम्वेदना के कवि हैं – जिनके भीतर लोकजीवन के सुखद और त्रासद अनुभव हैं। ये दोनों श्रेणी के कवि एक दूसरे के विरोध में नहीं हैं बल्कि वे हिंदी कविता का एक सम्पूर्ण दृश्य रचते हैं। कवि जिस तरह के संसार में रहता है उसी  दुनिया से अपने अनुभव चुनता है। जो लोग लोकजीवन या नागर जीवन की कविता को एक दूसरे से अलग करते हैं, वे कविता के साथ अन्याय करते हैं। हिन्दी कविता में अज्ञेय है तो दूसरी तरफ नागार्जुन। दोनो अपने कवि स्वभाव में भिन्न है।दोनों कवियों की अपनी–अपनी जगह है। उनका जीवन यथार्थ और संघर्ष अलग है। इसी तरह प्रेमचंद और रेणु की स्थिति है। ये कवि-लेखक एक दूसरे के विरोध में नहीं हैं। भारतीय समाज एक जैसा नहीं है। उसमें विविधता है। इसलिये लेखन में विविधता और जीवन दृष्टि जुदा होगी।


   

हिंदी कविता में अज्ञेय, कुंवर नारायण, अशोक बाजपेयी नागर कविता के प्रतिनिधि कवि हैं। यदा–कदा वे लोकजीवन में भी लौटते हैं लेकिन उन कविताओं में वह सहजता का भाव नहीं होता। कारण स्पष्ट है कि जिस जीवन को हमने देखा ही नहीं, उस जीवन की कवितायें लिखना महज काव्याभ्यास है। इसी तरह लोकजीवन से गहरे जुड़ा हुआ कवि शहरी जीवन की कवितायें लिखते हुये अपने कवि के मूल रूप में नही रहता।


    

नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल तो ठेठ लोकजीवन के कवि के रूप में स्वीकृत हैं। शहरों में जीवन–यापन करते हुये भी उनके भीतर लोक का स्थायी भाव।दिखाई देता है। यही उनकी कविता की शक्ति भी है। जहां वे इससे अलग होते हैं उनकी सीमायें दिखने लगती है। उनकी कविता इसलिये स्वभाविक लगती है कि उसकी जड़े लोकभाषा और बिम्ब में पैबस्त है। हम जिस देश में रहते हैं, उसकी सत्तर प्रतिशत से ज्यादा आबादी गांवों में निवास करती है। वे वहां कठिन जीवन जीते हैं।।वहां अब भी सामंतवादी व्यवस्था है। जब से राजनीति और पूंजी का प्रवेश गांवों में हुआ है, वे पूरी तरह बदल गये हैं। लोकपरम्परायें खतरे में है। वहां के जीवन से संस्कृति और लोकभाषा के शब्द गायब हो रहे हैं। दूसरी तरफ नागर जीवन भी उदारीकरण के बाद बदल रहा है। पूंजी के नये – नये नायक शहर के कोख से पैदा हो रहे हैं। यह भी याद रखना होगा कि किसी बड़े शहर की आबादी का आधा हिस्सा उन विस्थापितों का है , जो गांव छोड़ कर अपनी रोजी–रोटी के लिये अपने हाड़ गला रहा है। दोनों तरफ जिंदगियां दांव पर लगी हुई हैं। उनके दुख को व्यक्त करने के लिये नये तरह की काव्य सम्वेदना की जरूरत है। इधर की कविताओं में लोकदृश्य सिरे से गायब है। उत्तर-आधुनिकता ने हिंदी कविता को कम आक्रांत नहीं कर रखा है। कतिपय आलोचक भी अपनी विद्वता में इतने विदेशी है कि वे हिंदी कविता के मूल्यांकन के लिये यूरोपीय औजार का इस्तेमाल करते हैं। देशी उपकरण उनके लिये काफी नहीं हैं। कवियों के यहां लोकानुभव कृत्रिमता से आने लगे हैं। जिन्हें लोक का अनुभव नहीं है, वह भी लोकजीवन की कवितायें लिख रहा है। कस्बे का कवि शहरी कविता में दखल दे रहा है। एक तरह से कविता में आधाधापी मची हुई है। उसमें अनुभव के इतने दुहराव है कि सब कुछ गड्ड–मड्ड हो रहा है ।


   

केदारनाथ सिंह की कविता पर आलोचको ने अनेक प्रकार से विचार किये हैं, वह महत्वपूर्ण है लेकिन उनकी लोकसम्वेदना को केंद्र में रख कर कम विचार किया गया है। वे हमारे समय के ऐसे कवि हैं जो लोक से गहरे जुड़े हुये हैं। अपनी जिंदगी का लम्बा वक्फा कुशीनगर में कर वे दिल्ली पहुंचे लेकिन दिल्ली उनकी काव्य प्रकृति को बदल नहीं सकी। हम जानते हैं कि दिल्ली लोगों को बदलने और अमानवीय बनाने के लिये मशहूर है। छोटे कस्बों और गांव से दिल्ली पहुंचे हुये कवि, कविता को छोड़ कर अन्यत्र पहुंच गये हैं। जिस जड़–जमीन से वे आये थे, सबसे पहले उसे विस्मृत किया और शहर की आधुनिकता में इतने रच–बस गये कि उन्हें अपना पुराना वतन याद नहीं रह गया। वे उड़ कर दुनियां के आला शहरों में पहुंच जाते हैं लेकिन गांव–गिरांव की तरफ रूख नहीं करते। वे अपनी मातृभाषा तक भूल चुके हैं। जो कवि अपनी मातृभाषा से दूर हो जाता है, वह अपनी रचनात्मकता के साथ न्याय नहीं कर पाता। अगर कोई कवि मछुवारों पर कविता लिखना चाहता तो उसे उसके जीवन के बारें में जानकारी होनी चाहिये। अगर बिना किसी अनुभव  के कविता सम्भव हुई है तो कविता खुद प्रमाण दे देती है कि वह कृत्रिम कविता है।


  

केदारनाथसिंह इसके अपवाद रहे हैं। दिल्ली पहुंच कर उन्हें अपना इलाका बहुत याद आता है। जब भी वे इस शहर से ऊबते थे वे उन पुरानी जगहों की यात्रा जरूर करते थे। वे उस पुरबिहे इलाके से सम्बन्ध रखते थे – जहां की मातृभाषा भोजपुरी है। मैंने देखा है कि इस इलाके में पहुंच कर मातृभाषा में ही बात करते थे। उनकी कवितायें पढ़ते हुये हमें इस बात का ध्यान आयेगा कि वह अपने काव्य–संस्कार में पुरबिहे ही हैं। वे लिखते हैं।

 

पर्वतों में मैं 

अपने गांव का टीला हूं 

पक्षियों में कबूतर 

भाखा में पूरबी 

दिशाओं में उत्तर 

..हर गिरा खून अगोंछे से पोंछता 

मैं वही पुरबिहा हूं 

जहां भी हूं 

  

यह कविता पंक्ति उनकी कविता 'एक पुरबिहा के बयान' से ली गयी है। इस आलोक में आप उनकी कविताओं को पढ़ें तो यह बात सोलहो आना सच लगती है। इसका अर्थ यह नहीं कि केवल यही उनकी कविताओं का केंद्र–बिंदु है। इससे इतर भी उनकी कवितायें है, जिनके भीतर सामाजिक चेतना है। उनके संग्रह – 'जमीन पक रही है', में उनकी कविता – 'सूर्य', 'जमीन', 'रोटी' ने धूम ही मचा दी थी। उसके नकल में बहुत सी कवितायें लिखी गयी। लेकिन जब आप उनके लोकजीवन से सरोकार रखने वाली कवितायें पढ़ेगे तो अंतर का साफ पता लग जायेगा। लेकिन हमारे आलोचक–प्रवर कविता में क्रांति की खोज करते हैं और उन सब प्रसंगों को भूल जाते हैं, जिससे यह जीवन निर्मित हुआ है। कविता केवल क्रांति का दस्तावेज नहीं होती, उसके अन्य पक्ष भी हैं – जो सीधे हमारे सुख–दुख और संघर्ष से जुड़ते हैं। इन्हें नजरंदाज करना कविता की अनदेखी करना है। कविता में विचार की उपस्थिति होनी चाहिये लेकिन उसे नारा बनाने से बचना चाहिये। नारे स्थायी नहीं होते, एक समय के बाद भुला दिये जाते हैं। यही हश्र उन कविताओं का भी होता है जिसमें कविता कम नारे ज्यादा होते हैं।


   

केदारनाथ सिंह की कविताओं को पढ़ते हुये पाठक यह महसूस करेगे कि वे निरंतर लोकसम्वेदना की तरफ आकर्षित हुये हैं। यह उनके लिये सहज और स्वभाविक था। वे कविता के साथ कोई बईमानी नहीं करना चाहते थे। जो महसूस करते या देखते थे, वही लिखते थे। शहरों के बारे में उनके अनुभव सीमित थे लेकिन लोकजीवन की उनके पास बड़ी पूंजी थी। यह हमारा मनोविज्ञान भी है कि जिन चीजों से हम दूर हो जाते हैं, वह सबसे ज्यादा याद आती है। उनका कविता संग्रह- 'सृष्टि पर पहरा' इसका उदाहरण है। इस संग्रह में लोकजीवन के अनेक दृश्य हैं। इस संग्रह को पढ़ने के पहले संग्रह के समर्पण पर ध्यान जाता है – जो बहुत तकलीफ के साथ लिखा गया होगा.. देखिए—


 .. अपने गांव के लोगो को जिन तक यह किताब कभी नही पहुंचेगी 

        

ये पंक्तियां बेहद मार्मिक हैं। कवि जिन लोगो के लिये लिखता है अगर कविता उन तक नहीं पहुंचती तो यह तकलीफदेह बात है। लेकिन कवि इसके लिये जिम्मेदार नहीं है क्योकि वह जिस तरह के समाज में रहता है, जिसमें साहित्य के लिये जगह नहीं बची है और न उन तक शब्द पहुंचाने के लिये कोई कोशिश ही की जा रही है। गांव–गिरांव की बात छोड़िये पढ़े–लिखे समाज में भी कविता नही पहुंच रही है। हिंदी के उन्न्यन के लिये जिन संस्थाओं और विद्वानों को दायित्व दिया गया है, वे भी अपनी जिम्मेदारी से गाफिल हैं।


 ***

  

पुरबिये घर के लिये बहुत संवेदनशील होते है, लेकिन आर्थिक मजबूरी के नाते घर से बाहर निकलना पड़ता है। इसमें उनकी महत्वाकांक्षा का भी कुछ अंश शामिल होता है। सबके पास अच्छे जीवन की कामना होती है, कवि इसका अपवाद नहीं है। पड़रौना जैसी छोटी जगह से  दिल्ली जाना उनके जीवन का बड़ा परिवर्तन था। देखना यह है कि क्या वहां पंहुच कर उनकी कविता का विकास हुआ या भटकाव? उत्तर कवि के पक्ष में है। दिल्ली पहुंच कर वे विकसित हुये। उनकी कविता विशाल पाठक समुदाय तक पहुंची। उन्होने अपनी कविता का मुहावरा नहीं बदला। दिल्ली से थक कर जब वे अपने पूरबी इलाके में आते थे तो वे नये बिम्ब के साथ लौटते थे। भिखारी ठाकुर पर उन्होने कविता लिखी है – जिन्होंने उन बिदेशियों पर कविता लिखी है, जिनके भीतर घर से अलग होने का दुख है। यह दुख केदारनाथ सिंह की कविता में दिखाई देता है। केदारनाथ सिंह कुशीनगर में बसना चाहते थे, वे दिल्ली के नागरिक बन कर खुश नहीं थे। दिल्ली का मकान उनका घर नही बन सका। यह बेघर होने का भाव उनकी कविता – 'घर में प्रवास', 'पृथ्वी तुम्हारा घर कहां है', 'भोजपुरी', 'देश और घर', 'एक ठेठ किसान के दुख' तथा 'जाऊंगा कहां' में व्यक्त हुआ है। अपनी लम्बी कविता 'मंच और मचान' – में चीना बाबा के माध्यम में घरविहीनता की त्रासदी को वह व्यक्त करते हैं। उनकी एक कविता – 'देश और घर' देखिए –

  

हिंदी मेरा देश है 

भोजपुरी मेरा घर 

घर से निकलता हूं 

तो चला जाता हूं देश में 

   

देश से छुट्टी मिलती है 

तो लौट आता हूं घर 

इस आवाजाही में 

कई बार घर में चला आता है देश 

देश में कई बार 

छूट जाता है घर।

  

केदारनाथ सिंह की कविता पढ़ते हुये मुझे कई कविताओं का ध्यान आया जो उनकी कविताओं की प्राणवायु है। 'बढ़ई और चिड़ियां', 'पेड़', 'जाड़े के शुरू में आलू', 'अकाल में सारस', 'अकाल में दूब', 'पशुमेला', 'दानें', 'कुदाल', 'कुयें', 'कपास के फूल', 'घास', 'गमछा', 'बैलों का संगीत प्रेम'। ये कवितायें कवि के मानस को समझने में हमारी मदद करती हैं। पुरबिये अच्छे किसान भी होते हैं। उनकी कविता में किसानी उपकरण भी उपकरण दिखाई देते हैं। इन कविताओं में किसानों की यंत्राणायें हैं। किसानी जीवन में प्रवेश किये बिना हम ये कवितायें नहीं लिखी जा सकतीं। 

  

वे सहज जीवन के कवि हैं। अपनी बात कहने में कोई लाग-लपेट नहीं करते हैं। उनकी कविता पढ़ते हुए हमें लगता है कि हम कोई लोककथा सुन रहे हों। लोककथाओं के मामले में यह पूरबी क्षेत्र बहुत समृद्ध है। उनके यहां लोकजीवन के अनेक मुहावरे और लोक कहावतें मिलेंगी। उनकी एक कविता मुझे बहुत प्रिय है। इस कविता का शीर्षक ही अदभुत है – 'कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने अपने बेटे को दिये'। उसकी कुछ पंक्ति पढ़िए।

  

मेरे बेटे 

बिजली की तरह मत गिरना 

और कभी गिर भी पड़ो 

तो दूब की तरह उठ पड़ने के लिये 

हमेशा तैयार रहना .... 

कभी अंधेरे में 

अगर भूल जाना रास्ता तो 

ध्रुवतारा पर नहीं 

सिर्फ दूर से आने वाली 

कुत्तों की आवाज पर 

भरोसा करना।

 

उनकी कविता 'मांझी के पुल' में लोककथा का प्रयोग मिलता है। पुल बनने के पीछे बहुत सी किवदंतियां काम करती है। जैसे पुल बनाने के लिये नरबलि दी जाती है। मजदूरों का शोषण किया जाता है । वे कहते हैं ..।

 

मांझी के पुल में कितनी ईटें हैं? 

कितने अरब बालू के कण?

कितने खच्चर  

कितनी बैलगाड़ियां  

कितनी आंखें  

कितने हाथ चुन दिये गये हैं मांझी के पुल में 

मेरी बस्ती के लोगों के पास 

कोई हिसाब नहीं है।


 

केदारनाथ सिंह अपनी कविता का जो संसार रचते हैं, उसे समझने में किसी तरह अड़चन नहीं आती। उनकी कवितायें बौद्धिक नहीं हैं। वे ऐसी भाषा में लिखी गयी हैं, जो हमारे आसपास बोली जाती हैं। उसे कहने में सम्वाद की शैली अपनायी गई है। यह दूर की नही समीप की भाषा है। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश की भाषा है। इसमें खड़ी बोली की छटा नही है बल्कि आम बोलचाल की भाषा है। केदार जी भाषा को लेकर बेहद सजग हैं। यह कहा जा सकता है कि बोलियों में कवितायें लिखते हैं। वे कविता में आख्यानों का भरपूर उपयोग करते हैं। उनकी लम्बी कविता – 'बाघ' इसका प्रमाण है। इस कविता में अनेक खंड हैं। हर खंड स्वतंत्र है। यह कविता देश–काल की अनेक घटनाओं को लेकर बुनी गयी है। केदार कोई बात लाउड ढ़ंग से नही करते, उसे धीमी गति से सम्भव करते हैं। यह कविता धीरे–धीरे आगे बढ़ती है और अंत में प्रभाव छोड़ जाती है। यही कविता की विशेषता है कि उपर से साधारण लगे लेकिन पढ़ने के बाद अपना असर छोड़ जाय। इस कविता का एक अंश प्रस्तुत है –

    

उन्हें डर है कि एक दिन 

नष्ट हो जाएंगे बाघ 

कि एक दिन ऐसा आयेगा 

जब कोई दिन नहीं होगा 

और पृथ्वी के सारे बाघ 

धरे रह जाएंगे 

बच्चों की किताबों में।

  

यह कविता सिर्फ बाघ पर केंद्रित नहीं है। इसके सामाजिक आयाम भी हैं। मामूली चीजों पर लिखी गयी उनकी कविता एक नये परिप्रेक्ष्य में उदघाटित  होती है । यही उनकी खूबी है।

 

    

वे अपने समकालीनों से एकदम अलग हैं। उनकी बुनावट अलग है। बुनना शब्द का इस्तेमाल उनके यहां खूब हुआ है । देखा जाय तो कवि भी एक जुलाहा है। जुलाहा सूत से कपड़े बुनता है और कवि शब्द से कविता बुनता है। उनकी लम्बी कविता – 'उत्तर कबीर' यादगार कविता है। वे लिखते हैं –

  

खींचो

अगर खींच सकते हो 

खींचो, जैसे नाव के रस्से खींचे जाते हैं 


खींचो, उस सूत को जो तुम्हारे हाथ में हैं 

वरना तुम्हें पता भी नहीं चलेगा 

और तुम खिंचते चले जाओगे 

उस अदृश्य हाथ की तरफ 

जिसमें हो सकता है सूत का 

दूसरा छोर हो।  


 ***

     

किसी कवि को जानने के लिये यह आवश्यक है कि उसकी कविता में कैसे लोग आते हैं। उनके काव्य–पात्र कुलीन नहीं हैं, न उनका कोई आतंक है। वे सामान्य लोग हैं – जिससे यह समाज बनता है। उन्होने मामूली लोगों को बड़ा दर्जा दिया है। वे जानते हैं कि मामूली लोग गैर – मामूली काम करते हैं। ये लोग किसी आसमान से नहीं आते, हमारे बीच में रहते हैं। वे हमारे भीतर जिजीविषा जगाते हैं। उन्होंने, यहां से देखो कविता संग्रह पार्टी के साधारण कार्यकर्ता, कैलाशपति निषाद को समर्पित किया है। भले ही निषाद समाज के लिये मामूली हो लेकिन केदार उसके भीतर एक नायक का चेहरा खोजते हैं..

 

उसकी सायकिल में हवा 

हमेशा कम रहती है  

हमेशा उसकी बगल में होता है 

एक और कोई चेहरा 

जिसे थाने में बुलाया गया है 

मुझे थाने से चिढ़ है 

मैं थाने की धज्जियां उड़ाना चाहता हूं 

मैं उस तरफ इशारा करता हूं 

जिधर थाना नहीं है।

 

उनकी एक कविता है – 'सन 47 को याद करते हुये' – जिसमें नूर मियां हैं जो इस मुल्क को छोड कर चले गये थे। उनकी स्मृति के बहाने वह विभाजन के सवाल उठाते हैं। इसी क्रम में उनकी कविता – 'इब्राहिम मियां ऊंट वाले' को याद किया जा सकता है। उनकी कविता में उनके प्रिय मित्र देवेंद्र कुमार बंगाली, कैलाशपति निषाद की तरह बार-बार आते हैं। उन्हे सड़क पर त्रिलोचन दिख जाते हैं। भिखारी ठाकुर पूरबी इलाके के बड़े कविराज थे, जिन्होंने उन लोगों के दुख को भीतर से महसूस किया है, जो घर-द्वार छोड़ कर विदेश में कमाने गये हैं। 'बिदेशिया' के माध्यम से वे उनकी तकलीफ को व्यक्त करते है। भिखारी ठाकुर भोजपुरी परिक्षेत्र के बड़े कवि थे। वे अपने जीवन–काल में दंतकथा बन चुके थे। उन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर कहा जाता है। उनका 'विदेशिया' नाटक मिथक नही तत्कालीन समाज की वास्तविकता थी..। 'विदेशिया' कविता को केदार एक नया रूप देते हैं। आजादी के बाद गांव में विस्थापन शुरू हो चुका था। कोलकाता उनके नाटकों का केंद्र है। इस कविता के द्वारा वे इतिहास में दाखिल होते हैं। उनकी कविता का एक अंश देखें--

    

पर क्या आप विश्वास करेंगे 

एक रात जब किसी खलिहान में चल रहा था 

भिखारी ठाकुर का नाच 

तो दर्शकों की पांत में 

एक शख्स ऐसा भी बैठा था 

जिसकी शक्ल मिलती थी 

महात्मा गांधी से .. 

और अब यह बहस तो चलती रहेगी 

कि नाच का आजादी से रिश्ता क्या है 

और अपने राष्ट्रगान की लय में 

ऐसा क्या है 

जहां रात–विरात टकराती है 

विदेशिया की लय। 

  

यह बात पुष्ट नहीं है कि भिखारी ठाकुर की गांधी से कभी मुलाकात हुई है। गांधी चम्पारन रह कर जो आजादी की अलख जगा रहे थे, वही दूसरी ओर भिखारी ठाकुर उन लोगों के तकलीफों को स्वर दे रहे थे, जो अपना घर-परिवार छोड़ कर अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे थे।


  

जैसा पूर्व में कहा जा चुका है कि केदार के पात्र साधारण जीवन से आते हैं लेकिन केदार की कविता में वे महत्वपूर्ण हो जाते हैं। जीवन की मामूली से मामूली घटनाओं को वे नया अर्थ देते हैं। कविता लिखते हुये जिस बिम्ब का वे प्रयोग करते हैं, वह कविता में रच–बस जाती है। उनकी एक ऐसी कविता है – 'छाता' – जिसमें पडरौना के बाजार में छाता लगाये हुये बंगाली बाबू दिख जाते हैं। वे इस आम दृश्य को वे अपनी कविता में उल्लेखनीय बना देते हैं। इस कविता के बिम्ब को देखिए –

 

देखा बस इतना 

कि मेरी आंखों के आगे 

चला जा रहा है एक छाता 

सोचता हुआ 

मुस्कराता हुआ 

ढ़ाढ़स बधाता हुआ 

बोलता–बतियाता हुआ छाता।

  

जीवन के छोटे–छोटे दृश्यों को वह कविता में बदलने की कला जानते थे। वे बिम्बों के कवि हैं। इसलिये उन पर कविता के जादुई होने के आरोप लगाये जाते हैं। कविता मात्र एक वक्तव्य या अखबार का समाचार नहीं होती। कविता का स्थापत्य अलग होता है। हिन्दी कविता में विवरणधर्मी कवि भी हैं, लेकिन ऐसी कविताओं में पठनीयता नहीं होती। अगर कविता पाठकों को संप्रेषित नहीं होती तो यह कविता की विफलता है। इधर गद्य कवितायें काफी चलन में है, उन्हें पढ़ कर लगता है कि हम कविता नहीं, कोई समाचार पढ़ रहे हैं। हालांकि हिंदी में ऐसे कवि भी रहे हैं जिनकी कविता समाचारों से निकलती है। ऐसे कवियों में रघुवीर सहाय का नाम लिया जा सकता है। वे जानते थे कि कैसे समाचारों को कविता बनाया जा सकता है। वे इस हिकमत में सफल भी रहे हैं। हां, उनकी नकल करने वाले कवियों में उनके कवित्व की सीमा साफ दिखाई देती है।


 

केदारनाथ सिंह की काव्य–भूमि अलग है। उनके यहां इस तरह के प्रयोग नहीं हैं। वे देसी सम्वेदना के कवि हैं। लोकजीवन में जो घटित होता है, उसे वे अपनी कविता में सम्भव करते हैं। उनकी कविता की मातृ भाषा अलग है। उसकी शब्दावली भिन्न है। वे कहते हैं – 

 

ओ मेरी भाषा 

मैं लौटता हूं तुम में 

जब चुप रहते अकड़ जाती है 

मेरी जीभ 

दुखने लगती है मेरी आत्मा।

  

केदार की कविता अपने भाषा में लौटने की कविता है। वे भाषा नही गढ़ते, वह उनके रगों में मौजूद है। वे भाषा के साथ छल नही करते। यही उनकी कविताओं का मूल स्वभाव है। कभी उन्होने त्रिलोचन की कविताओं के बारे में कहा था कि त्रिलोचन की कविताओं के मूल्यांकन के लिये नये सौंदर्यशास्त्र की जरूरत होगी। इसमें थोड़े संशोधन के साथ हम कह सकते हैं कि केदार की कविताओं के मूल्यांकन के लिये प्रचलित आलोचना के औजार पर्याप्त नहीं है। केदारनाथ सिंह की कविताओं को लोकजीवन और बिम्ब के परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। उनकी कविता का इलाका बलिया, कुशीनगर और गोरखपुर तक में फैला हुआ है। ये जगहें उनकी कविता की भी जगहें है। वे स्वभाव से नहीं, अपनी कविता में भी पुरबिहे हैं। इन जगहों को जाने बिना हम केदार की कविता को समझ नहीं सकते।

 


किसी नदी को हम बीच से नहीं जान सकते। उसे जानने के लिये उसके उदगम स्थल को जानना जरूरी होता है। यही बात कवि के साथ लागू होती है। पूरब में कहावत है कि लग्गे से घास नहीं खिलाया जा सकता है। कवि जिस तरह अपने जीवन में उतर कर अभिव्यक्ति की खोज करता है, वही काम कविता के आलोचको और पाठकों को करना पड़ेगा। कवि को समझने का यही मूल सूत्र है।

  


केदारनाथ सिंह की यह कविता मेरे उपर्युक्त विवेचन को तस्दीक कर सकती है—

    

जाऊंगा कहां 

रहूंगा यहां 

किसी किवाड़ पर 

हाथ के निशान की तरह 

पड़ा रहूंगा 

    

किसी पुराने ताखे 

यह संदूक की गंध में 

छिपा रहूंगा मैं 

दबा रहूंगा किसी रजिस्टर में 

अपने स्थायी पते के 

अक्षरों के नीचे।




सम्पर्क 

स्वप्निल श्रीवास्तव 

510, अवधपुरी कालोनी – अमानीगंज 

फैज़ाबाद – 224001 

मोबाइल – 09415332326

टिप्पणियाँ

  1. सुनील कुमार पाठक,पटना।21 मार्च 2024 को 5:13 pm बजे

    बहुत शानदार लेख है स्वप्निल सर का।पुरबिहा कवि की सोच ,संवेदना , अनभूति और अभिव्यक्ति सारे पक्षों पर पूरी गहराई से विचार किया गया है।बधाई लेखक और पहली बार की पूरी टीम को।

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