रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण 'मास्टर जी की छड़ी'

 

रुचि बहुगुणा उनियाल 



अपने घर परिवार में बच्चों की गतिविधियां, उनकी शरारतें, उनकी चालाकियां और उनकी मासूमियत देख कर हमें सहज ही अपना बचपन याद आ जाता है। और याद आ जाती हैं बचपन की प्यारी शरारतें। इन दिनों पहली बार पर हम महीने के तीसरे रविवार को रुचि बहुगुणा उनियाल के संस्मरण को पहली बार पर प्रस्तुत करते हैं। तकनीकी कारणों से पिछले दो महीने से हम इसे प्रकाशित नहीं कर पा रहे थे, जिसके लिए हमें खेद हैं। अब इसे धारावाहिक रूप से नियत समय पर प्रस्तुत करने की हम हरसंभव कोशिश करेंगे। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण 'मास्टर जी की छड़ी'।



'मास्टर जी की छड़ी'


रुचि बहुगुणा उनियाल 


प्राप्ति-प्रियम स्कूल से लौटे, आदतन प्रियम की बक-बक चालू है। लेकिन आज प्राप्ति का मूड़ कुछ उखड़ा-उखड़ा लग रहा है। उसे पूछा कि क्या हुआ तो सामने से कोई जवाब नहीं मिला। थोड़ी देर तक चुपचाप उसे देखने के बाद मैंने प्राप्ति को सुनाने के लिए कहा, ‘कि दोनों फटाफट कपड़े बदल लो फिर खाना खाओ, अभी मैंने गर्मागर्म कढ़ी बनाई है ठंडी हो जाएगी'। दरअसल प्राप्ति को कढ़ी, फाणुं, चैंसु, गथ्वाणी, भट्वाणी बहुत पसंद है और अक्सर ही मैं खाना उसकी पसंद से ही बनाती हूँ। मैं हमेशा चाहती थी कि मेरे बच्चे अपने पहाड़ से जुड़े रहें, लेकिन इस प्रतियोगी समय में उनके लिए पहाड़ पर रहना संभव ही नहीं। उनके भविष्य के लिए ही तो मुझे भी नरेंद्र नगर छोड़ कर यहाँ ऋषिकेश के कंक्रीट जंगल में ज़िन्दगी जीनी पड़ रही है। बाहर से आने वाले सैलानियों के लिए योग नगरी, ऋषि भूमि, तपोभूमि ऋषिकेश का जितना भी क्रेज हो, लेकिन मुझे कभी भी यहाँ अच्छा नहीं लगा। कुछ तो स्वास्थ्य कारणों से और उससे भी ज़्यादा बच्चों के भविष्य के लिए मुझे ऋषिकेश शिफ़्ट होना पड़ा।बस इसीलिए मैं अपने पहाड़ी स्वाद के जरिए ही सही अपने बच्चों को पहाड़ से जोड़े रखना चाहती हूँ और कहीं न कहीं अब तक इस उद्देश्य में सफल भी रही हूँ। 



प्राप्ति ने चुपचाप कपड़े बदल लिए और बिलकुल ही चुप्पा हो कर बिना नाज़-नखरे के खाना भी खा लिया, अब मुझे थोड़ी सी चिंता हुई क्योंकि प्राप्ति आते ही अपनी पूरी दिनचर्या, स्कूल की हर बात मुझे बताती है। बर्तन धोने के बाद मैं उसके पास आयी और बगल में बैठ कर उसके सिर पर हाथ फेरना शुरू किया। शायद उसका मन थोड़ा हल्का हुआ तो आँखों में आँसू आ गए उसके। बच्चे को रोता देख कर कोई भी विचलित हो जाए और फिर ये तो स्कूल से आने के बाद वाली प्रतिक्रिया थी, मैं तुरंत सचेत हो गई। उसे पुचकारते हुए मैंने पूछा, “बाबा क्या हुआ बताओ मुझे?" प्राप्ति ने कहा कि आज उसे स्कूल में सर ने हैंडराइटिंग के लिए कहा, ‘कि तुम्हारी हैंडराइटिंग बहुत खराब हो रही है थोड़ा सा सुधार के लिखा करो’। लड़कियाँ स्वभाविक रूप से ही कोमल मन और स्वभाव की होती हैं और इसीलिए प्राप्ति को रोना आ गया है जबकि प्रियम महाशय उसकी बात सुन कर हाथ नचाते हुए कहने लगा कि ऐसे तो मेरी मैम भी मुझे बहुत बार कहती हैं तो इसमें रोने की बात क्या है? प्राप्ति को समझा-बुझा के शांत किया और दोनों खेलने नीचे चले गए मैदान में। मैं उन दोनों की बातें सोचते हुए अपने स्कूल-कॉलेज के दिनों में पहुँच गई। 

   


   


पढ़ने में मैं हमेशा ही अच्छी रही और इसके साथ ही, चूंकि तब बाक़ी लड़कियों की अपेक्षा मेरी लंबाई भी अच्छी थी और ख़ूब अच्छी आवाज़ थी तो प्रिंसिपल सर ने क्लास के साथ ही पूरे स्कूल की गर्ल्स मॉनीटर बना दिया था। मैं प्रार्थना स्थल पर जाती और सुबह की प्रार्थना करवाने की ज़िम्मेदारी निभाती। यह सिलसिला लगभग चार साल चला नौंवी क्लास से बारहवीं तक। मैं सुबह स्कूल पहुँचती तो दस मिनट का समय मिल ही जाता था गप्पें लगाने का हम सबको आपस में। फिर प्रार्थना होती और हम सब अपनी-अपनी क्लास में। साइंस साइड में होने से पढ़ाई का दबाव भी रहता ही था। लेकिन इस सबके बावजूद भी मैं अपने खिलंदड़ स्वभाव के कारण पूरा आनंद उठाती थी। छोटा भाई तब छठी कक्षा में पढ़ने आया था। उसके सब साथी और वो मिल कर कंचे खेलते थे जिसके लिए हमारे खेल के अध्यापक श्री रावत जी ने बिल्कुल मना किया हुआ था। लेकिन नितिन और उसके साथी मानें तब न, अक्सर ही मुझे वो सब लोग छुप कर कंचे खेलते मिल ही जाते और मैं ठहरी खड़ूस तुरंत उनके कंचे छीन लेती थी। बेचारे नितिन और उसके साथी वापस तक मांगने नहीं आते थे बल्कि उल्टा नितिन के दोस्त मुझे दूर से देख कर ही तुरंत सचेत हो जाते थे और नितिन को आगाह करते, ‘कि तेरी दीदी आ रही है यार चल छुप जाते हैं’ लेकिन फिर भी कभी-कभी उनके ग्रह खराब होते तो मेरी पकड़ में आ ही जाते थे, और मुझे अपनी दादागीरी दिखाने का मौका मिल ही जाता था। 



स्कूल की बाउंड्री से लग कर एक सड़क जाती थी जो सीधा आटे की चक्की पर पहुँचती थी। इस सड़क से लग कर ही एक नहर है जो कि अंग्रेज़ी हुकूमत के समय ही मेरे दादाजी स्वर्गीय श्री भीमदत्त बहुगुणा जी ने बनवायी थी। इस नहर के बाद शुरू होता था आम का बगीचा जो कि पहले हमारा ही था और जिसे बाद में दादाजी ने ग्राम समाज को दान में दे दिया था। अब गर्मियों के दिनों में हमारे ख़ुद के आम के पेड़ भी फलों से लदे होते थे लेकिन जो मज़ा चोरी करके खाने में है वो मज़ा सीधा मिली चीज़ में कहाँ? मैं चूंकि सभी अध्यापकों की प्रिय छात्रा थी और साथ ही प्रिंसिपल सर की भी बहुत प्रिय और विश्वासपात्र भी थी तो कोई सोच भी नहीं सकता था कि मैं भी किसी प्रकार की शरारत कर सकती हूँ। 



अक़्सर ही हम लोग छुप कर बाउंड्रीवाल फांद कर दूसरी ओर चले जाते और बाक़ायदा आम चुराते थे। मैं बाहर खड़ी रह कर पहरेदारी करती और साथ वाले सब चोरी करते। पूजा बंसल अपने घर से नमक-मिर्च लाती पीस कर और हम लोग जूनियर साइड में जा कर जहाँ हमारी बायोलॉजी की लैब थी वहाँ इस चोरी के फलों का आनंद उठाते थे। 






एक बार हम सब आम चुराने गए और ग़लती से उस दिन नहर में पानी का नंबर बगीचे के माली का था। मैं बड़ी मुस्तैदी से पहरा दे रही थी कि इतने में किशोर चाचा वहां आ गया और मुझे कहने लगा, ‘अरे रुचि! तू यहाँ क्या कर रही है?“ मेरी बोलती बंद, ऐसा लगा कि ठंडा पसीना छूट गया है। भई, बाप-दादा का इतना नाम और बेटी के लक्षण चोरों वाले? क्या कहूँ , क्या जवाब दूँ सूझ ही नहीं रहा था कि अचानक हमारी ही क्लास का आर्ट साइड में पढ़ने वाला अमित बडोनी वहां पहुँचा और चुपचाप गुटखा निकालने लगा। अमित बडोनी बड़ा शर्मिला सा लड़का था, एक बार जब उसे स्कूल में रोजाना सुबह बोले जाने वाले सुविचार की ज़िम्मेदारी दी गई तो वो बड़ा झिझकता हुआ मंच पर आया। और नाखून चबाते हुए मुस्कुराने लगा। वो इतना ज़्यादा मुस्कुरा रहा था कि स्थिति हास्यास्पद हो गई और हम सभी बच्चों के साथ-साथ सभी अध्यापक भी हंसने लगे। इतने शर्मिले अमित को गुटखा खाते देख कर थोड़ी हैरत भी हो रही थी मुझे लेकिन फिर पड़ने वाली डांट और होने वाली बेइज्जती से बचने का ख़याल आया। वो इधर-उधर देख कर बड़ी सावधानी से गुटखा खा रहा था कि मैंने जोर से आवाज़ लगाते हुए चाचा जी को कहा कि “देखो न चाचा जी ये अमित कैसे बिगड़ रहा है मैं तो इसे ही ढूँढने आयी थी यहाँ।” चाचा जी ने अमित को चार गालियाँ दी और डांट के भगा दिया। अब मुझमें हिम्मत आ गई थी इसलिए मैंने चाचा जी को कहा कि अच्छा चाचा जी अब मैं चलती हूँ। पहले ही जोर से आवाज़ में बोल कर मैंने अपने सब दोस्तों को आगाह कर दिया था। लेकिन वहाँ उनके लिए रुकना मेरे लिए ठीक नहीं था इसलिए बिना उनका इंतज़ार किए मैं चुपचाप स्कूल की ओर चली गई। 


      


मैं स्कूल पहुँच चुकी थी और थोड़ी देर में ही सब दोस्त भी वहाँ आ धमके। पूजा, किरण और रवि ने मुझे सुनाना शुरू किया, “खुद तो आ गई और हमें वहीं छोड़ दिया, पता है कितनी मुश्किल से भागे हम वहाँ से, तुझे तो कोई कुछ कहेगा नहीं लेकिन हमें तो अच्छे से पीट देंगे रावत सर”।  रवि और किरण के उलाहने चालू थे, कि पूजा ने विस्फोट किया, “अब मैं तो कभी नहीं जाऊँगी बगीचे में, तुम सबका तो पता नहीं लेकिन मेरे भैया मुझे बहुत बुरी तरह मारेंगे अगर उन्हें पता चला कि मैं ऐसे चोरी करने बगीचे में गई थी”। जैसे-तैसे पूजा को शांत करवाया था कि हाफ़ टाइम की घंटी बजी और अब पाँचवा पीरियड फ़िजीक्स का था जो कि थपलियाल सर पढ़ाते थे। सर मुझसे बड़ा स्नेह रखते थे और बहुत शांत स्वभाव के थे लेकिन उन्हें जब गुस्सा आता था तो कोई भी हो उसे सीधा क्लास से बाहर निकाल देते थे। मैं मन ही मन थोड़ा घबरा रही थी कि कहीं ये पूजा सर के सामने कुछ ऊटपटांग न कह दे , मुझे क्लास से बाहर निकाला गया तो बनी-बनायी इज़्ज़त में कचरा मिल जाने के आसार थे। डरते-डरते क्लास में गये हम सब, सर ने पढ़ाना शुरू किया। किसका ध्यान था उस दिन प्रकाश की गति और नियमों पर, मैं तो डर रही थी कि पूजा कुछ कहे न। लेकिन सर ने आराम से पूरा पीरियड पढ़ाया, आवर्तन और परावर्तन के नियम तब कुछ भी समझ नहीं आये। अगले दिन दोबारा सर से पूछा और उन्होंने बड़े प्यार से मुझे समझा भी दिया। उसके बाद तो भई हम सबने कान पकड़ लिए कि भाई डांट खाने के काम नहीं करने कभी। लेकिन फिर भी वो उम्र ही ऐसी होती है कि आप कितना भी रोको शरारतों से मन ही नहीं भरता। 


       


इसके बाद जब स्कूल ख़त्म हुआ और मैं कॉलेज में आयी तो यहाँ भी मेरी साथीदार मनु थी, जो मुझसे भी चार हाथ आगे थी शरारतों के मामले में। मनु अक्सर ही मुझे कहती, 'मेरी जान चल न यार कैंटीन चलते हैं, तू कभी भी कैंटीन नहीं जाती, मेरे साथ चल न', और हम दोनों एक-दूसरे का हाथ थामे... अपने-अपने बैग कंधों पर लटकाए कैंटीन की ओर जा रहे हैं। उसके बिना मुझे कभी भी कॉलेज में कुछ भी अच्छा नहीं लगता था ऐसे ही एक बार उसे वॉयरल फ़ीवर हो गया। यहाँ कॉलेज में तीन-चार दिनों से कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा.. क्लास में बैठने का बिलकुल मन नहीं, कैमिस्ट्री जैसा प्रिय विषय अचानक अझेल लगने लगा है...... जो नींद में भी दिमाग़ में दोहराते-दोहराते रट चुके थे अचानक वो फिजिक्स के फ़ॉर्मूले लगता है कि दिमाग़ की किसी दबी हुई नस में जा छुपे हैं जो वक़्त पर याद ही नहीं आ रहे। आखिर क्यों मैं इतनी परेशान और बेचैन हूँ.... ओह! अब समझ में आया, मनु नहीं आ रही न कॉलेज, कैसे आएगा चैन? मैं कंधे पर बैग टांगे जीवन में पहली बार क्लास बंक करके भरी दुपहरी मनु के घर के लिए निकल पड़ी हूँ। उसे देखा, गले लगी तो सब इन्द्रियां भली प्रकार काम करने लगी... 'पागल मुझे गले मत मिल वायरल है तुझे भी हो जाएगा' उसकी डांट में भी कितना लाड़ था तब।

              


हम दोनों इंदिरा नगर मेरे ताऊ जी के घर से निकलते और रोजाना तहसील चौक से एमकेपी के लिए मुड़ते, मनु लगभग रोज चिढ़ती कि 'देख मेरी जान ये ट्रैफिक वाला जानबूझ कर तभी सिग्नल रोकता है जब हम दोनों आते हैं  मैं उसे समझाती/शांत करती कि 'पागल लड़की उसकी तो ड्यूटी है न ट्रैफिक कंट्रोल करने की, और कौन जो वो मेरे-तेरे लिए ही रोकता है इतनी जनता है सभी के लिए रोकता है न'। लेकिन वो मनु ही क्या जो मान जाए? दो चार दिन बाद चली गई झगड़ा करने उससे, खूब लड़ी/ सुनाया उसे और तब जा कर मेरे क़सम देने पर शांत हुई मेरी झांसी की रानी।





      

इन सब में मुझे परिपक्वता प्राप्त हो रही थी जो मुझे जल्दी समझ नहीं आया। एमकेपी के बग़ल से लगे आम के पेड़, हम दोनों रोजाना दोपहर को आम तोड़ते.... वो भी चुरा कर! लड़कियाँ कच्ची अंबिया बहुत पसंद करती हैं न जाने क्यों ही। मनु घर से ईजा का सिल पर पिसा हुआ हरी मिर्ची का नमक ले कर आती और हम दोनों छुप कर रोजाना खाते कच्ची अंबियां। एक दिन पकड़े गए...... मनु कूद कर कैंटीन की ओर भागी मैं तब तक न जाने क्यों इतनी शांत होने लगी थी तो भागी नहीं खड़ी हो गई और चौकीदार की डांट खाने लगी, लेकिन उससे मुझे डांट खाते देखा नहीं गया तो वापस लौटी और मेरे आगे खड़ी हो कर क़बूल कर लिया कि आम वो तोड़ रही थी तो डांट भी उसी को पड़नी चाहिए मुझे नहीं...... मैं बोलती मैं, वो बोलती वो चौकीदार ने हार झखमार के हम दोनों को चेतावनी देकर जाने दिया, लेकिन उसने आम चुराने में बिलकुल भी कोताही नहीं बरती बल्कि और सतर्कता से नियम से आम तोड़ने लगी और हम दोनों कैंटीन के पीछे आम खाने बैठते।

        


इसी क्रम में एक और याद है मेरी शरारतों की पोटली में, मनु रोजाना मेरे साथ ही कॉलेज जाती और बाक़ायदा मेरा इंतज़ार करती थी। हम दोनों कॉलेज की लाइब्रेरी में बैठे हुए हैं और अपना-अपना काम कर रहे हैं कि अचानक मनु को न जाने क्या सूझा और उसने मेरे पैर पर अपना पैर रख कर मेरा ध्यान खींचा। मैंने उसे इशारा किया और चुप रहने के लिए कहा लेकिन मनु तो मनु थी क्यों ही मानती मेरा कहा? तुरंत उसने अपना हाथ आगे किया और मुझे हाथ पर च्यूंटी काट दी। मेरे मुँह से जोर से निकला कि अरे मनु चुप रह थोड़ी देर। इतना सुनना था कि लाइब्रेरियन मैम ने डांटते हुए कहा, ‘जब पढ़ना ही नहीं होता तुम्हें तो आती ही क्यों हो यहाँ लाइब्रेरी में? अरे थोड़ी भी तमीज़ नहीं है इन लड़कियों को जो लाइब्रेरी में बैठने के नियम भी नहीं जानती"। 



मुझे मनु पर बहुत गुस्सा आया लेकिन कहती क्या? चुप्पा हो कर बैठ गयी। थोड़ी देर में जब हम दोनों बाहर निकले तो उसने अपनी योजना मुझे बतायी, “कि सुन न मेरी जान, शहनाज़ के भाईजान की शादी में चलते हैं यार कल"। मैं आश्चर्य से उसे देखने लगी कि कल कब जाएंगे हम जब सुबह क्लास है तो? लेकिन मनु कहने लगी, “तू तो जानती है न मेरी जान ईजा-बाबू तो मुझे कभी जाने नहीं देंगे किसी मुस्लिम शादी में लेकिन मेरा बड़ा मन हो रहा है देखने का उनकी शादी, प्लीज़ चल न कल दिन में"! मैं भी उसके साथ चलने को तैयार हो गई और शादी का कार्ड बैग में रखा था उसे घर में दिखाने का निर्णय ले लिया। मुझे घर में ऐसी कोई रोकटोक नहीं रही कभी कि यहाँ मत जाओ, उससे मत मिलो। बस ग़लत बात नहीं होनी चाहिए बाक़ी कोई पाबन्दी कभी घर वालों ने नहीं लगायी थी। 


                

अब अगले दिन हम दोनों सहस्त्रधारा रोड पर साथ पढ़ने वाली शहनाज़ के घर उसके भाईजान के निकाह में गये। उनके घर के बाहर ही मोहल्ले में एक और ब्याह हो रहा था जो कि एक हिन्दू ब्याह था। पूरा घर बंदनवार से सजा हुआ था, बाहर बरामदे में बैठी औरतें गुलगुले बांट रही थीं, शायद उस घर में ब्याह से पहले हल्दी की रस्म हुई थी और ढोलक की थाप पर नाचते हुए कुछ महिलाओं को देख कर ही मूड शादी में धमाल-मस्ती का हो गया। थोड़ी ही देर में हम शहनाज़ के घर में पहुँच गए, वहाँ दूल्हा-दुल्हन के साथ कुछ लोग बैठे हुए थे, घर वालों से मिलवाने के बाद शहनाज़ हमें घर दिखाने लगी। उसके बाद शहनाज़ की अम्मी हमारे लिए थोड़ा सूखा नाश्ता लायी ही थीं, कि न जाने उसे क्या इनसिक्योरिटी सी हुई या फिर कैसी जलन हुई शहनाज़ से कि उसने मुझे आधी शादी ही देखने दी और हाथ पकड़ कर लगभग घसीटते हुए खींच लायी। मुझे काफ़ी गुस्सा भी था कि अभी-अभी तो पहुँचे हैं हम दोनों यहाँ फिर मनु ऐसा क्यों कर रही है जबकि इसने ख़ुद ही तो मुझे शादी में चलने को कहा, "कि कार्ड तो दिया ही है शहनाज़ ने। चल न मेरी जान देखते हैं इनमें शादी कैसे होती है", और अब ऐसा व्यवहार? इस बात का जवाब उसने बिना पूछे ही दे दिया, शायद ऐसा इसलिए भी था कि मेरा मन पढ़ना वो मुझसे भी बेहतर ढंग से जानती थी। उसका जो जवाब था, 'कि तुझे शहनाज़ बार-बार हाथ पकड़ कर मुझसे दूर ले जा रही है और ये मैं बिलकुल नहीं देख सकती'! क्या बताऊँ मेरा मन कितने प्रेम से भर उठा था तब, कि ये लड़की मुझे बंटते हुए भी नहीं सह सकती। 




अगले दिन जब क्लास में आए तो मैम ने बातों-बातों में ही सुना दिया कि अगर कोई भी आगे से क्लास में नहीं रहा तो मैं उसके प्रेजेंट होने और ऐप्सेंट होने के भी नंबर दूंगी। डर के मारे हालत खराब कि कहीं मैम को मनु के क्लास बंक करने का पता तो नहीं चल गया? क्योंकि मैं तो घर में बता के गयी थी लेकिन मनु मैडम घर से कॉलेज के कपड़ों में निकली थी और कॉलेज के अंदर जा कर उसने कपड़े बदले थे और फिर चुपचाप निकल आयी थी लिहाजा इस कांड का भेद खुलने के भी पूरे आसार थे। लेकिन मैम ने ये बात बस यूँ ही सूचना देने के लिए बतायी थी न कि मनु के क्लास बंक करने को ले कर। लेकिन हम दोनों ने क़सम खायी कि अब कभी ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे डांट खाने की नौबत आए। 



नीचे मैदान से प्रियम की जोर-जोर से हंसने की आवाज़ आ रही है और मैं कॉलेज के दिनों से वापस अपने मातृत्व में लौट आती हूँ।


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



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