प्रदीप्त प्रीत की रपट 'बागड़बिल्ला : निम्नवर्गीय जिंदगी के पथरीले सच का बयान'

 




रंगमंच प्रस्तुति का आज भी एक सशक्त माध्यम है। इसके जरिए कलाकार सीधे ही अपने दर्शकों से रु ब रू होता है। रंग मंच का गहरा असर दर्शकों के मन मस्तिष्क पर पड़ता है। हाल ही में जयपुर में आयोजित हुए रंग राजस्थान महोत्सव में ‘ब्रीदिंग स्पेश’ समूह द्वारा ‘बागड़बिल्ला’ नामक नाटक की प्रस्तुति की गई। इस नाटक का सशक्त निर्देशन अभिषेक गोस्वामी के द्वारा किया गया। ‘बागड़बिल्ला’ मुंबई के धारावी इलाके में रहने वाले लोगों की कहानी हैं। इस नाटक के बारे में एक जीवन्त रपट भेजी है जयपुर से ही प्रदीप्त प्रीत ने। नाटक के कुछ चित्र प्रदीप्त ने ही उपलब्ध कराए हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रदीप्त प्रीत की रपट ।



'बागड़बिल्ला : निम्नवर्गीय जिंदगी के पथरीले सच का बयान'


प्रदीप्त प्रीत 


जयपुर में हो रहे रंग राजस्थान महोत्सव का पहला दिन है, जवाहर कला केंद्र के आस-पास का वातावरण इसी महोत्सव में ढल गया है, शाम के यही कोई साढ़े चार का समय हो रहा है, प्रवेश द्वार पर लगभग पचास पूर्वी राजस्थान के लोक कलाकार ‘मीणा बाटी’ के माध्यम से राजा पुरणमल की कथा कह रहे हैं, उनकी गायन शैली में जैसे-जैसे उतार-चढ़ाव आता है, वैसे-वैसे दर्शक उस प्रवाह में बह रहे हैं। ठीक इसके बाद पाँच बजे से रंगायन में ‘ब्रीदिंग स्पेश’ समूह के ‘बागड़बिल्ला’ नामक नाटक की प्रस्तुति होनी है, जिसके निर्देशक अभिषेक गोस्वामी हैं। दर्शक अपने-अपने ‘डोनर पास' के साथ लाइन में लग गये हैं, जैसे ही प्रवेश शुरू होता है दर्शक प्रेक्षागृह में प्रवेश करते हैं; मंच पर एक सेट लगा हुआ है, सेट कुछ ऐसा है कि लोहे की फ्रेम के ऊपर फटी-चिटी पन्नियों का छत दिखाया गया है, जो इस पूरे सेट की सुंदरता का आधार है, जिसे देख कर पहला ख्याल आता है कि यह मुंबई या महाराष्ट्र के किसी झोंपड़पट्टी या स्लम एरिया का कोई हिस्सा है जिसमें कुछ लोग रहते हैं। सेट की सूक्ष्मता में जाएं तो, सेट में बायीं तरफ एक कलाकार बैठा है, उसको देख कर लगता है कि जैसे वह मुद्दतों से वहाँ से कहीं गया ही नहीं है, जैसे वह चॉल या उसमें पड़ी हुई वस्तुओं में तब्दील हो गया हो, यह कुछ वैसा ही जैसे किसी पहाड़ी व्यक्ति को देख कर पहाड़ महसूस होता है या रेगिस्तान के व्यक्ति को देख कर रेगिस्तान महसूस होता है, वह कई सारी किताबों और फिल्मी पोस्टरों से घिरा हुआ है, उसकी दूसरी दीवार पर अखबारों की कुछ कतरनें, कागज की रंगीन चिप्पियाँ और सफ़दर हाशमी की तस्वीर चिपकायी गयी है, उसके पीछे खिड़की पर एक मैक्सी सूखने के लिए सावधानी से पसारी गयी है, ठीक उसके बगल वाली दीवारों पर ईसा मसीह की एक हल्की से तिरछी तस्वीर लगी है, उसी दीवार के सामने एक बिस्तर लगा हुआ है और पास में ही छोटा गैस सिलेंडर और इडली बनाने वाला बर्तन रखा है, उसके बाद वाली दाहिने तरफ की दीवारों पर क्रमशः शिवाजी की तस्वीर, दुर्गा का मंदिर और कुछ हाल ही में बनायी गयी पेंटिंस हैं, संभवतः यहाँ एक पेंटर रहता हो, या कोई मराठी व्यक्ति रहता हो या दोनों रहते हों क्योंकि पास में ही ईजल में एक कैनवास लगा हुआ है और कुछ पेंटिंग के ब्रश रखे गये हैं, सबसे पीछे वाले हिस्से में एक पोस्टर लटक रहा है जिसमें मराठी में मुंबई महानगर पालिका के स्वच्छ सर्वेक्षण का विज्ञान छापा हुआ है, सेट का यह फैलाव दायीं तरफ रखे एक माध्यम आकार के प्लास्टिक ड्रम के बाद खत्म तो हो जाता है लेकिन यह दर्शक के मानसिक पटल पर विस्तार पाने लगता है, कि जैसे अभी कुछ देर में आवाज़ करते हुए कोई ट्रेन गुजरेगी और यहाँ रहने वालों पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ेगा, कि जैसे बारिश होगी तो चारों तरफ अफरातफरी मच जाएगी और बेतरतीब फैली इस गृहस्थी का बचाव क्या होगा? और तो और इस नाटक में सेट के इस बिखराव से गड़बड़ी होने की कितनी ज्यादा संभावना है! यह पूरा सेट अधूरे में भी सम्पूर्णता का बिम्ब बनाता है, जब तक दर्शक पूरी तरह से सेट को समझ पता तब तक एक ध्वनि के साथ नाटक शुरू हो जाता है।





‘बागड़बिल्ला’ मुंबई के धारावी इलाके में रहने वाले लोगों की कहानी हैं। पूरा नाटक एक चॉल और उसमें रहने छः इंसान और एक बिल्ली के दैनिक जीवन के इर्दगिर्द बुन गया है, इस चॉल में रहते तो बस सात ही लोग हैं लेकिन उनके साथ रहती हैं उनकी स्मृति एवं रोजमर्रा के राग भी, यही कारण है कि ये लोग हर दिन जिंदगी जीने के जिंदगी बजाय जिंदगी काटने पर मजबूर हैं, जिंदगी के पथरीले सच ने इन्हें बागड़बिल्ले में तब्दील कर दिया है, ये रोशनी से भाग कर  सम्बन्ध विहीन जीवन को अपना चुके हैं, वे यह बात जानते हैं कि जहां पहुचने का इंतजार है वह एक मरीचिका है लेकिन जिंदगी को झुठला पाना उनके वश में नहीं है, यही जिजीविषा उनकी छोटी से ज़िंदगी को खींच-तान कर बड़ी करने के लिए मजबूर करती है। कहीं-कहीं से इकट्ठा हुए मुख्यतः ये छः किरदार धारावी जैसे जगहों पर रहने वाले विभिन्न प्रदेशों से अपने सपनों को पूरा करने आए दिहाड़ी मजदूरों और संघर्षशील कलाकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं।   



यह नाटक हमें कुछ सवालों पर सोचने के लिए मजबूर करता है कि वह क्या चीज होती है जिसके लिए ये अलग-अलग जगहों से आए हुए मजदूर लोग आपस में एक पल के लिए लड़ते-झगड़े हैं और दूसरे पल हंसी मजाक करने लगते हैं? क्या यह सच में झगड़ा-लड़ाई ही है या कुछ और है? क्या अकेलापन गरीब लोगों को भी महसूस होता होगा? मुंबई जैसी भागती हुई महानगरी में कोई किसी को दो पल के लिए सुनता होगा क्या? हमारे आस-पास नाटक के किरदार हीरो जैसे क्रांतिकारी लोग एक समय के कहाँ गुम हो जाते हैं? उस गुमनामी में उनकी हालत क्या होती है? कौन होता हैं उनके साथ? लोग अकेले क्यों नहीं रह पाते? थॉमस किस अपराधबोध में रोज रोता है? इन सारे सवालों का जवाब नाटक का एक किरदार विनय देता है जब वह थॉमस से कहता है, ‘ये बिल्ली तुम्हारे पीछे इसलिए आती है क्योंकि तुम्हारे शरीर से बिल्ले की बू आती है...’





हम सब किसी न किसी बू के सहारे एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं, सामाजिक परिवेश के गठन की यह एक मूल आवश्यकता है, जिस दिन हमारे बीच की यह बू समाप्त हो जाती है हमारे बीच के सारे तार हमेशा के लिए टूट जाते हैं, यही रिश्ता है जिंदगी और मौत का भी, इस तार को नाटक का किरदार हीरो नहीं तोड़ पता है इसीलिए शुरू से ही अवसाद और आत्महत्या के बोध से घिरे होने के और अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद अंतिम दृश्य में आत्महत्या की कोशिश में असफल हो जाता है, ठीक इसके विपरीत चॉल की मालकिन अक्का जो अपने बिना बैटरी और बिना सिम के मोबाइल से अपने बरसों पहले बिछड़े हुए बेटे से हमेशा बतियाती रहती थी महज एक दिन मोबाइल भूलने मात्र से गाड़ी के नीचे आ जाती है और मर जाती है। यह सब उसी बू कह लें, तार कह लें या जो भी कह लें की वजह से है। नाटककार ओमकर घाग ने इन सवालों एवं बेचैनियों को बेहतर तरीके से शब्दों में ढाला है, जिसे प्रस्तुति के निर्देशक अभिषेक गोस्वामी और उनके अन्य कलाकार साथी आधुनिक मंचीय तकनीकों के बरक्स अपनी सहज, सरल एवं सम्प्रेषणीय रंग भाषा और नियंत्रित देह भाषा के माध्यम से खूबसूरत तरीके से दिखाने में सफल रहे हैं। अभिषेक गोस्वामी का रंगकर्म सहज सम्प्रेषणीय रंगकर्म है, वे तकनीकों में बहुत अधिक नहीं उलझते हैं, उनका मानना है कि किसी भी कला की सफलता उसकी सुवाह्यता पर निर्भर करती है जिसके बिना अच्छी से अच्छी प्रस्तुतियाँ एक कोने में सिमट कर दम तोड़ देती हैं। अभिषेक गोस्वामी रंगकर्म के अलावा कला शिक्षा के क्षेत्र का जाना-पहचाना नाम हैं, पिछले काई सालों सपने समूह ब्रीदिंग स्पेश के माध्यम से जयपुर के अलावा देश के विभिन्न प्रदेशों में अपने रंगकर्म को स्थापित किया है। ‘हत्या एक आकार की’, ‘जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नइ’, ‘हम भारत के लोग’, ‘बड़े भाई साहब’ आदि इनकी प्रमुख प्रस्तुतियाँ रहीं हैं। 


प्रदीप्त प्रीत युवा कवि, कथाकार, रंगकर्मी एवं समीक्षक हैं। जितना साहित्य लेखन और पाठन में रुचि रखते हैं उतना ही रंगकर्म में जीवंत महसूस करते हैं। इन दिनों अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, जयपुर में बाल कलाकारों के लिए प्रशिक्षु कला शिक्षक की भूमिका का निर्वाहन कर रहे हैं।


सम्पर्क - 

नेवादा, कपसा, फूलपुर, 

इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, 212402

ई मेल : pradeepty07@gmail.com

मोबाइल : 8573954259









टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छा लिखा, आपको पढ़ते पढ़ते नाटक में प्रस्तुत बैचेनी को मैं महसूस कर पाया।

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