पूजा की कविताएं

 

पूजा


समाज में तमाम विद्रूपताओं के बावजूद साहित्य हमेशा मनुष्यता का पक्षधर रहा है।  घटाटोप अंधियारे के दौर में भी वह उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ता। इस अर्थ में कहा जाए तो साहित्य प्रगतिशील मूल्यों को बढ़ावा देता है। वह जूझता है  रूढ़ियों से, संकीर्ण परंपराओं से, बने बनाए मूल्यों से। पूजा युवा कवयित्री हैं। वे  अपनी कविताओं के जरिए उन प्रगतिशील मूल्यों को बढ़ावा दे रही हैं, जिन पर आजकल प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तमाम प्रहार किए जा रहे हैं। वे उन पितृसत्तात्मक  परंपराओं से जूझती दिखाई पड़ती हैं जिसने सदियों  से स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाए रखा है।  पूजा की एक उम्दा कविता है  'बारिश'। इस कविता में वे बड़ी साफगोई से मां और बाबा की बारिश में फर्क बताती हैं।


बीते फरवरी में  हमने  'वाचन पुनर्वाचन' नामक स्तम्भ को पहली बार पर फिर से आरम्भ किया था। इस स्तम्भ के अन्तर्गत एक कवि दूसरे कवि पर लिखता है।  इसी क्रम में कुछ बिल्कुल नए कवियों पर टिप्पणी करेंगे अग्रज कवि नासिर अहमद सिकन्दर। साथ ही कवि की कुछ नवीनतम कविताएं भी प्रस्तुत की जायेंगी। इस शृंखला को फिर से आरम्भ करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है कवि बसन्त त्रिपाठी ने। संयोजन की जिम्मेदारी ली है प्रदीप्त प्रीत ने। शृंखला का आरम्भ प्रज्वल चतुर्वेदी की कविताओं से किया गया था। इस कड़ी में आज दूसरी प्रस्तुति की जा रही है। इसी क्रम में आज पूजा की कविताएं प्रस्तुत की जा रही हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं नासिर अहमद सिकन्दर की टिप्पणी के साथ पूजा की कुछ नई कविताएं।



स्त्री संवेदना व लोकतांत्रिक मूल्यों की प्रगतिशील कविताओं का नया प्रारूप 


नासिर अहमद सिकन्दर 


हिंदी की प्रगतिशील कविताओं के भीतर स्त्री संवेदना व मुक्ति के स्वर में जो बड़ी कविताएं लिखी गईं उनमें केदारनाथ अग्रवाल की कविता ‘वासंती हवा’, त्रिलोचन की कविता ‘चंपा काले अक्षर नहीं चीन्हती’, आलोक धन्वा की कविता ‘भागी हुई लड़कियां’ ‘ब्रूनो की बेटियां’, वीरेन डंगवाल की कविता ‘भाषा मेरे दोस्त की बेटी’, क्रमशः कात्यायनी की कविता ‘हॉकी खेलती लड़कियां’, विमल कुमार की कविता ‘सपने में एक औरत से बातचीत’, शरद कोकास की कविता ‘बुरे वक्त में जन्मी बेटियां’, कमलेश्वर साहू की कविता ‘ममता दादौरिया दहेज हत्याकांड’, ‘बलात्कार कथा का अंत’ बसंत त्रिपाठी की कविता ‘रनिवास में लड़कियां’ शामिल हैं। पूजा की कविताएं भी इसी प्रगतिशील परंपरा की पितृसत्तात्मक समाज के प्रति विद्रोह की कविताएं हैं। 


पूजा बिल्कुल युवतम कवयित्रियों में उस दर्जे की हैं जो इस प्रगतिशील परंपरा को अपने भीतर आत्मसात करते हुए कविताएं रचती हैं। वे मां की हिदायतों की परंपरा का अनुपालन करने का विरोध करती हैं, क्योंकि मां की हिदायतें उसी रुढ़िवादी, पितृसत्तात्मक मूल्यों से पीड़ित-पोषित-शोषित हैं। घर-परिवार-समाज की इस परंपरावादी विद्रूपता को उनकी ‘मां की पायल’ शीर्षक कविता को पढ़ कर समझा जा सकता है।


प्रगतिशील काव्यधारा में समकालीन हिंदी कविता के भीतर प्रेम के स्वरूप और सरोकारों को देह, मांसलता, उत्तेजना के केन्द्र में रख कर जिस तरह के रोमानी शिल्प संरचना से कविता को विद्रूप किया गया, जिसका विरोध प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल, विजेन्द्र, प्रभात त्रिपाठी की कविताओं में दिखलाई पड़ा। पूजा की ‘प्रेम’ शीर्षक कविता भी इसी प्रगतिशील काव्य परंपरा का निर्वहन करती हुई कविता है-


जब तुम लिखोगे प्रेम/ मैं रोटी लिखूंगी/ रोटी के लिए/ बाजार में उतरी हुई औरत लिखूंगी/ जब तुम लिखोगे/ प्रेम में सजी कजरारी आंखें/ मैं बाबा की बूढ़ी आंखों का जवान सपना लिखूंगी/ छोटे भाई के माथे पर पड़ी/ बड़ी बड़ी सलवटें लिखूंगी/ जब तुम लिखोगे/ सोने चांदी की बेेड़ियों से सजी धजी दुल्हन/ मैं आजादी लिखूंगी।


‘मैं स्त्री हूं’, ‘हम तुम्हें माफ नहीं करेंगे’, ‘प्रेमिकाएं धरती की संतिप्त आत्माएं हैं’, ‘तुम अकेली नहीं’ जैसी कविताएं भी इसी परंपरा से जुड़ी हुई कविताएं हैं। हालांकि ‘अंतिम व्यक्ति’ शीर्षक कविता लोकतंत्र के सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य में हस्तक्षेप करने की कोशिश करती हुई दिखाई पड़ती है।


मुझे मेरा लोकतंत्र बख्श दो/ साथी पुरूष ने कहा/ दुनिया हुक्काम समझ गई/ भाटों ने कसीदे गढ़े/ सियासत के सम्मान में/ कुछ ने कहा जालिम है/ अंतिम व्यक्ति अब भी/ रूआसा झांक रहा/ राशन की बोरी में'


उक्त कविता में लोकतंत्र, साथी, हुक्काम, भाटो, सियासत, अंतिम व्यक्ति और राशन की बोरी जैसे शब्द बिंबों के माध्यम से जो कथ्य व्यक्त हो रहा है; वह प्रगतिशील हिंदी कविता का स्त्री संवेदना के अतिरिक्त मूल स्वर भी रहा है। पूजा अपनी कविताओं में प्रगतिशील मूल्यों और परंपरा में पितृसत्तात्मक समाज पर हस्तक्षेप करती हुई स्त्री संवेदना से जुड़ने के साथ ही लोकतांत्रिक मूल्यों पर आस्था रखने वाली कवयित्री हैं। फिलवक्त मुझे तो युवा कवयित्री पूजा अपनी काव्य प्रक्रिया में स्त्री संवेदना व लोकतांत्रिक मूल्यों की प्रगतिशील कविताओं का नया प्रारूप रचती हुई दिखाई देती हैं। 



नासिर अहमद सिकंदर

मोगरा-76, ब्लाक-बी, तालपुरी

भिलाईनगर, जिला- दुर्ग छ0ग0

पिन 490006 


मो. 9827489585




पूजा की कविताएं


मां की पायल


मैं अपनी उम्र से बड़ी

तुम्हारे खयाल में छोटी हूं

टूटते-बिखरते सपनों को

सहेजते-सहेजते खुद सपना हो गयी हूँ

तुम्हारे शब्दों में.. 



अब मेंहदी रचे हाथ

महावर सने पांव पर रीझ कर नहीं कहती

मैंने प्रेम चुना है

चूंकि प्रेम! 

अन्धेरे और उदासी का पर्याय है मेरे लिए



इन दिनों हंसने लगी हूँ बेतहाशा 

फफ़क कर रोने वाली बात पर भी

शूल सी चुभ रही  सीने में

गिरवी पायलों की धुन

पिता के तानों से भी ज्यादा



तुम्हारी, मेरी सम्मिलित प्रार्थनाएं 

लौट आती हैं हर बार

विफलता का सावन लिए

आसमान क्रूरता से देखता रहता है



संभलते ही

प्रत्याशाओं का वितान ताने

फिर खड़ा होता है कोई सपना

तुम सी अपराजित योद्धा की बेटी होने का फर्ज निभाने

निकल पड़ती हूँ मैं पहले से भी ज्यादा साहस लिए



मेरी माँ! 

समर्थता का हाथ पकड़े

मैं तुम्हारे लिए पायल नहीं

पांव बनना चाहती हूँ

जिस पर खड़ी हो कर देख सको

अपनी और मेरी

साझे की

सुन्दर दुनिया।



प्रेम

जब तुम लिखोगे प्रेम

मैं रोटी लिखूॅंगी

रोटी के लिए

बाज़ार में उतरी औरत लिखूँगी

रोटी के लिए दम तोड़ता जीवन लिखूँगी



जब तुम लिखोगे

प्रेम में सजी कज़रारी ऑंखें

मैं बाबा की बूढ़ी ऑंखों का जवान सपना लिखूँगी

छोटे भाई के माथे पर पड़ी

बड़ी-बड़ी सिलवटें लिखूँगी



जब तुम लिखोगे

सोने चाॅंदी की बेड़ियों से सजी-धजी दुल्हन

मैं आजादी लिखूँगी



बित्ते भर जमीन और मुट्ठी भर अनाज के लिए

हमें लड़ना पड़ता है हर रोज

तो अब तुम ही कहो

तुम्हारे प्रेम में 

मैं कैसे लिखूँ प्रेम? 



बारिश


जब भी बारिश की बूॅंदें

धरती के तपते होठों को चूमती हैं

महक उठता है सारा वातावरण

एक सोंधी सी महक से



मैं ढूँढती हूँ यादों के तहखाने में

तुमसे जुड़ा कुछ भी नहीं पाती

जब भी याद आता है घर

खपरैल से टपकती जगह-जगह छत

तपती धूप में रूह को राहत देने वाला घर

ऑंखों में ऑंसू दे जाता है



माँ जगह-जगह बर्तन लगा कर

बचाती है जमीन भीगने से

कभी ऑंगन में लगे मिट्टियों के खेप हटाती हैं

पड़ोसी के ओसारे के पानी से बचने के लिए रास्ते बनाती हैं

चूल्हा जलाने के साधन बचाने में

माँ खुद भीग जाती हैं



उनकी झुंझलाहट भरी बात सुन कर

समझ नहीं आता

माँ बरस रही है कि बादल



बाबा शान्त दिखते हैं

भीतर से बहुत अशांत

बारिश गुजरने की देखते हैं राह

कि खपरैल को सही ठिकाना बताएं

बाबा खुश भी होते हैं

बारिश ने ही किया है धरती के सीने को ऊर्वर

अब उगाएंगे मनचाहे अनाज



माँ करती हैं सबसे कठिन काम

गीले ईधनों से चूल्हा जलाने का

मन भर कोसती हैं

बादल और बारिश को



भाई की बगल में बैठी बहन पूछती है

कितना फर्क है न 

माॅं और बाबा की बारिश में? 






लड़कियाॅं


मेरे बेहद निजी कोने में

हर वक़्त विचरती हैं

दुनियाँ की सारी

आज़ाद खयाल लड़कियाँ



जो नापसंद बात पर अड़ जाती हैं

हर गलत को ऑंखें तरेरती हैं

संघर्ष करती हैं

टूटती हैं

बिखरती हैं

खुद को सहेज कर फिर चलती हैं

ऑंखों में मुट्ठी भर सपने लिए



वे तर्क करते हुए

मुझे बेहद प्रिय लगती हैं

ये आजा़द खयाल लड़कियाँ

हर हदें तोड़ कर करती हैं प्रेम

खुद के प्रेम में सबसे अधिक होती हैं



इनके साथ चल कर

पुरूष अपने भाग्य पर इतराता जरूर है

हमसफ़र बनने के नाम पर सहम जाता है

उनके तर्क से घर की व्यवस्था चरमराई सी दिखती है 

परम्परा को पीठ पर ढोते हुए

स्त्री की कमर सीधी



किसी के प्रेम में होना


बारूद के धुएँ में

प्रेम की खुश्बू बिखेरना

चुनौती भरा तो है

फिर भी

हज़ारों नफरतों से 

कई गुना बेहतर है

किसी के प्रेम में होना



हालांकि जगह नहीं है यहाँ

सरकारी पहरे भी कम नहीं

यह जानते हुए कि

बारूद का स्वाद घातक है

मानव मूल के लिए



माथे पर लटकती 

धर्म की रक्तिम तलवार

प्रेम के मायने बताती

अनगिनत पहरे लगाती



यदि दुनियाँ के हृदय से

मिटा दिया जाए प्रेम

क्या बचेगा

निष्पाप रूप से करने के लिए? 

शायद कुछ भी नहीं

कम से कम मेरी नज़र में



दासता एक सुनियोजित संस्था है


समाज के उसूलों से कुचली हुई

लाश की तरह बह रही

चल रही अधकच्ची उम्र से 



दुनियाँ जहांन का बोझ ढोते-ढोते

घिस गयी हैं एड़ियाँ

झुक गयी है कमर



अन्धेरे और चुप्पियों की जिरह में

अक्सर वो फूट कर रोई है

प्रेम स्थगित रहा उम्र भर

सब्र उसके जीवन की परिभाषा



अगले कदम पर लिखी मौत 

उसे उतना नहीं डराती

जितना डरा देता है

घर का कुघर होना



कई अवसाद रातों में

उसने चाहा फूॅंक दे घर

निकले इस जंजीर से

नाखुश ईश्वर को याद कर

जम जाते उसके पाॅंव



दासता एक सुनियोजित संस्था है

पुरूष उसका वाहक

स्त्री उसका शिकार






तुम अकेली नहीं


फूट- फूट कर रोई हो

सारी विफलताएं याद कर

ढूँढ रही किताबों के ढेर से

अपने होने का अर्थ



तुम अकेली तो नहीं

हर बार छली गयी प्रेम में

लेकिन प्रेम में रही

प्रेम से प्रेम और घृणा साथ-साथ किया

टूटने बिखरने बिसराए जाने वाली

तुम अकेली नहीं

तुमसे पहले भी स्त्री ने आहुति दी

स्वाहा कर दिया जीवन

मिलेगी नहीं ऐतिहासिक दस्तावेजों में



तुम अकेली नहीं

जिसके पिता ने साथ तो दूर

आशीर्वाद देना भी छोड़ दिया

माँ अब भी मनौती पे मनौती किए जा रही



तुम अकेली नहीं

दुनियाँ की नज़र में किरकिरी सी चुभ रही

तुमसे पहले अनगिनत नाम दफ्न हैं

धरती और आकाश के सीने में



तुम अकेली नहीं

जिसका दम घुट रहा अकेलेपन से

जो मुक्त होना चाहती है

लड़ रही भीतर-भीतर बाहर-बाहर

खुद को समेटो मेरी जान! 

हॅंसो, तुम्हारी हॅंसी से रौशनी बिखरनी है

चलो जाने कितनी मंजिलें तुम्हें पाना चाहती हैं



हम तुम्हें माफ नहीं करेंगे


खून के वो धब्बे

आज भी मौजूद हैं

जो तेरी नाकामियों को ढकने के लिए बहे थे



चीखती दीवारें

तेरे हत्यारे होने की गवाह हैं

हैवानियत से सने तेरे विचार

मखौल उड़ाने वाला तेरा ढंग

तेरे हिटलरी सत्ता का अन्त ले कर आएगा



तेरे अय्याश खयालों ने

जाने कितने घरों को बेवा बनाया है

तू आदमियत चबा जाने वाला

हृदयहीन नरपिशाच है



देश को अन्धेरे में ढकेल कर

हमारी आत्मा को बेचा है

धर्म की आड़ में कराई है हत्या

भय की खेती की है

भरोसे का खून किया है



धर्म की धुन्ध में लड़ रहे लोग

अपना हिसाब कर लेंगे

पर हम तुम्हें माफ नहीं करेंगे

उन तमाम बातों के लिए

जो अब तक नागवार गुजरी है! 



हम भूलते जा रहे हैं


जिन हवाओं को

जीवन बनना था

वो ज़हर बन गयी



जिन पौधों को पेड़ बन

फल और छाया देना था

धूल और धुंआ बन गए



जिन जलाशयों में उगने थे

बेर्रा कमल कुमुदिनी

वहाँ कुश और बढ़नी उगे हैं



ये बनने का क्रम विकास से जुड़ा है

धरती का असंतुलन विलासिता से



मछलियाँ अपने घर का पता भूल गयीं

मैं अपने पहले प्रेमी का नाम



हम भूलते जा रहे हैं

जीवन की जरूरी शर्तें

खेलते जा रहे हैं

हवा धूप और पानी से



पर हम नहीं भूले हैं महामारी की मार

चारो तरफ फैली

चीख चीत्कार



हमें याद रखना चाहिए

आततायी अतीत की सूरत

सचेत रहना चाहिए

आने वाली सुबहों के प्रति।






वो महाकवि हैं


रात के अन्धेरे में

शराब और सिगरेट का कश ले कर

देह विमर्श के बाद

लिखते हैं कविता

स्त्री उन्नायक बन

करते हैं कल्पना

आसमान फतह करती हुई स्त्री



जवान रात और शराब के बल पर

तोड़ देना चाहते हैं बेड़ियाँ

परिवार से नज़रें मिला कर

स्त्री आजादी की वकालत करते हैं

बहन को आकाश छूने की छूट के साथ

दुनियाँ की तमाम लड़कियों के लिए

उड़ने के रास्ते खोल देना चाहते हैं

ध्यान रहे सिर्फ कविता में



सुबह अपनी खोल से निकल

पढ़ाते हैं पाठ

तुम लड़की हो

सामाजिक दायित्वों की गठरी

स्त्री की पीठ पर लाद कर

निकल जाते हैं

नई कविता की टोह में

क्योंकि वो महाकवि हैं

उनके परिवर्तन की परिधि

कविता तक ही सिमटी है।



एक मवाद सरीखा रंग देश हुआ जा रहा


स्मृतियों के पहाड़ पर बैठे

उम्मीदों की गठरी लिए

प्रतीक्षारत हैं ऑंखें

दूर तलक फैली है

उसके आने की महक



वो सीढ़ियों पर बैठे

सपनों का मानचित्र बना रहा

उदास ऑंखों में तैरते अधूरे सपने

बांधे हैं उसका पाॅंव

अमरबेल सी बढ़ती उदासी

ढकती जा रही आशाओं का सूरज



ऊपर से विज्ञप्ति का मुँह 

रंगा हुआ है स्याह रंगों से

विकास का पहिया जर्जर हो चुका है

बेरोजगारी की बाढ़ सी आयी है

कुर्सी का कलरव

शोकगीत में बदल गया है

एक मवाद सरीखा रंग देश हुआ जा रहा



तुम्हारे बाद


तुम्हारे बाद हर चेहरे का नाम धोखा लगा

तुम गये जैसे दुधमुॅंहे बच्चे से छिन गयी छाती

बिलख कर रोया मन किसी से कह नहीं सका



मैं इस बीमार शहर की तंग गलियों में अटकी

मरे हुए सपनों की अस्थियाँ बटोर रही

दिन धुंधलाया हुआ रात थोड़ी और काली

तुम्हारे बाद मन सपनों की कब्रगाह होता जा रहा



आत्मा के पाॅंव में उभरे छाले

मुझे चलने नहीं दे रहे हैं

मन पर पसरती समय की कालिख

निगलती जा रही है चमक और चिनगारी



मैं इस पथराए शहर की ठोकर पे ठोकर खा रही

एक साथ कई-कई परतों में जीती

एक साथ ही सब कैदों से मुक्त होना चाहती हूँ

तुम्हारे बाद सही अर्थों में जीना चाहती हूँ






अन्धेरा


कठिन है

अन्धेरे के घर में

खड़े हो कर रोशनी की उम्मीद



अन्धेरा वजूद पर कालिख नहीं पोतता

आपके होने को भुला देता है

भुलाया जाना भी एक तरह की त्रासदी है

जीने की जंग छेड़ने वाले के प्रति



सफलता चाशनीदार है

पर असफलता की शक्ल बड़ी कुरूप होती है

योग्य अयोग्य कोई नहीं चाहता

ये रिश्ते की रीढ़

जीवन की रीति दोनों बदल देती है



मेरे एकान्त के सहचर

तोड़ो सभी वर्जनाएं

बढ़ाओ हाथ

मैं धंसी जा रही

अन्धेरे की कब्र में



बचाओ मुझे

कुछ सपने इसी जन्म के लिए जरूरी है

समेटो मुझे कि

तमाम उम्मीदें बिखरी हुई हैं।



आसमान झुक रहा है


कोयल के गीत सुन कर

झुकने के लिए पेड़ बचे नहीं

नदियाँ दुबली हुई जा रहीं

प्यास बढ़ रही दिनों दिन



एक अक्ष पर पृथ्वी झुकी है

दूसरे पर रोटी के लिए

कपड़े उतारती स्त्री की नज़र



नशे में तना है शराबी

उसकी नज़र में आसमान झुक रहा

सही मायने में अकड़ी है सत्ता की गर्दन

किसान की कमर झुकी है

नतमस्तक है युवाओं का भविष्य



खूनी खबरों से भरे हैं अखबार

बलात्कार की बाढ़ सी आयी है

राजशी रहवास  में सोया हाकिम

कुनमुना रहा नींद में खलल पड़ने पर



तनी हुई मुट्ठी पर लाठियां बरस रही

उम्मीद के सपनों पर पानी

कुर्सी के चरणों में कलम झुकी है

सरहद पर सिपाही की गर्दन



सब झुक रहे हैं

कुछ पाने के लिए

कुछ बचे रह जाने के लिए

झुकना हर बार फलदार होने का पर्याय नहीं होता

मेरे दोस्त! इन दिनों झुकना

ज़मीर का मर जाना ही है



प्रेमिकाएं धरती की संतप्त आत्माएँ हैं


तुमने धरती जीती

श्रेय अपने पौरुष को दिया

इतराए अपने नाम के शिखर बनाए



हारे तो दागदार हुई

प्रेमिका की चूनर

उनकी हॅंसी में ऑंसुओं का अंश था

ऑंसुओं में मरी हुई इच्छाएँ



तुम्हारे संग घोर अवसाद में खड़ी रहीं

तुम ओढ़नी का कोर भिगाते रहे

वो तुममें साहस भरती रहीं



उन्होंने वर्जनाएं तोड़ी तुम्हें चुना

चुनी आजादी सपनों का आसमान

तन-मन सौंप दी चाहत में

छली गयी अनगिनत बार



तुम्हारी जीत का सेहरा कभी उनके माथे नहीं सजा

हार की नाॅंव में बिठाई गयी हर बार

तुम टूटे तो हिम्मत बनी

ऊपर उठे तो बेड़ी मानी गई

या बना दी गयीं दूसरी औरत



प्रेमिकाएं धरती की संतप्त आत्माएँ हैं

जिनके हिस्से बसंत नहीं पतझड़ आया

आयी दुनिया भर की रूखाई।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क


पूजा 

शोधार्थी, हिंदी साहित्य। 

ईश्वर शरण डिग्री कॉलेज, इलाहाबाद विश्वविद्यालय।

इलाहाबाद

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