प्रेमकुमार मणि का आलेख 'प्रेमचंद और रेणु'

 रेणु  का जन्मदिन 4 मार्च 


प्रेमचंद और रेणु


प्रेमकुमार मणि 


हिंदी-साहित्य के विमर्श में परम्पराओं पर खूब चर्चा होती है. कबीर, तुलसी, भारतेन्दु से लेकर अज्ञेय और बहुत सारे लेखकों  की परंपरा हो सकती है; होनी भी चाहिए। लेकिन प्रेमचंद की परंपरा पर कुछ अधिक ही चर्चा होती है.एल। आमतौर पर ग्राम कथा-लेखन, यानी गाँव को केंद्र बना कर लिखे जाने को प्रेमचंद की परंपरा कहा जाता रहा है। साहित्यालोचक इस पर अधिक माथा-पच्ची करना नहीं चाहते। गाँव पर लिखना प्रेमचन्द की परम्परा का होना स्वीकार लिया गया। लेकिन यह बात मुझे हमेशा अटपटी लगी है कि ग्राम-कथा-लेखन प्रेमचंद की परंपरा है। कुछ साल पहले, जब नामवर सिंह जी थे, मैंने किसी साक्षात्कार के दौरान रेणु को प्रेमचंद की परंपरा का उनसे अधिक महत्वपूर्ण लेखक बताया था, तब एक छोटा-मोटा कोहराम हो गया था। मुझे नासमझ कहने वालों की कतार लग गई। नामवर जी ने भी मेरी आलोचना की। लेकिन मैं तब और आज भी अपनी राय पर कायम हूँ।


प्रेमचंद की कौन-सी परंपरा बनती है, जिस में मैं रेणु को रख रहा था। और वह कौन-सी चीज है जिस के कारण मैं रेणु को प्रेमचंद से अधिक महत्वपूर्ण मान रहा था। आमतौर पर यही माना गया कि मैं प्रेमचंद की तौहीन कर रहा हूँ और साहित्येतर कारणों से रेणु को महत्वपूर्ण मान रहा हूँ। हद तो यह थी कि इस में मेरे जातिवादी नजरिये तक को रेखांकित किया गया।


आज जब सोचता हूँ तो इस पूरे प्रसंग पर केवल मुस्कुरा सकता हूँ। यही हमारे  हिंदी समाज का चरित्र है, चेतना भी। वह सतयुगी सनातनी चेतना जिस में अच्छी चीजें सब से पहले हो जाती हैं और बाद में क्रमशः विघटन होते हुए ख़राब स्थितियां विकसित होती है। सब से अच्छा जमाना, सब से अच्छी जुबान, सब से अच्छे लोग पुराने ज़माने में हो गए। अब जो भी होंगे, उन से कमतर होंगे। मेरा यकीन विकासवाद पर है, जिस में सरल से जटिल की ओर अनवरत विकास होता रहता है। अमीबा जैसे एककोशीय जीव से स्तनपायी जैसे जीव विकसित हुए। बन्दर जैसे प्राणियों से विकसित होते हुए समझ संपन्न मानव बना।


साहित्य की दुनिया में यदि संस्कृत साहित्य का उदाहरण लें तो अश्वघोष से विकसित होते हुए कालिदास आए। अश्वघोष का लेखन परवर्ती लेखकों के लिए एक रिवाज बन गया। कालिदास ने उसे अपने तरीके से विकसित किया। कालिदास निश्चित तौर पर अश्वघोष से अधिक महत्वपूर्ण और ललित हैं; लेकिन क्या अश्वघोष नहीं होते तो कालिदास का इतना ललित होना संभव था? शायद नहीं। कुछ ऐसा ही अंतर्संबंध प्रेमचंद और रेणु में है। प्रेमचंद नहीं होते तो रेणु का होना असंभव था। रेणु की दुनिया प्रेमचंद की दुनिया का परिष्कार भी है, विकास भी। और इसी आधार पर वह मुझे प्रेमचंद से अधिक महत्वपूर्ण दीखते हैं।

 

मैं यह नहीं मानता कि प्रेमचंद और रेणु ग्राम कथा लेखक भर हैं और उनकी परंपरा ग्रामकथा लेखन की है। यदि ऐसा होता तो विवेकी राय जैसे लेखक प्रेमचंद की परंपरा में होते। लेकिन क्या यह सच है? शायद नहीं।


प्रेमचंद के ज़माने को देखें। उनके ज़माने में ही शिवपूजन सहाय ने 'देहाती-दुनिया' नाम से एक आख्यान लिखा था, जिसमें देहाती समाज का चित्रण था। इसका लेखन समय संभवतः 1925 था। इस से साल भर पहले प्रेमचंद की कहानी आई थी 'शतरंज के खिलाड़ी', जिस पर बहुत बाद में सत्यजीत राय ने फिल्म बनाई।' 'शतरंज के खिलाड़ी' गाँव की नहीं, नगर और नगर-बोध की कहानी है। अवध के किसानों की नहीं, सामंतों की कहानी है। अवध की राजधानी लखनऊ विलासिता में डूबा हुआ है। कोई राजनीतिक चेतना नहीं। नवाब से ले कर आम आदमी तक विलासिता और तत्जनित काहिली में डूबा हुआ है। ऐसे अवध के पतन को कौन रोक सकता था! प्रेमचंद भारतीय बुद्धिजीवियों के उस इतिहास-बोध को चुनौती देते हैं, जिसमें वे बकवास करते हैं कि अंग्रेजों ने छल-कपट से हिन्दुस्तान पर कब्ज़ा जमा लिया. मीरज़ाफर और अमीचंद नहीं होते तो हमारे देश का यह हाल नहीं होता। प्रेमचंद बताते हैं कि नहीं आप लोग अनैतिक, विलासी और काहिल हो चुके थे, इसलिए हारे, गुलाम हुए। यही बात गांधी बता रहे थे और अपनी राजनीति में नैतिक सत्ता बहाल करना चाहते थे।


प्रेमचंद का पूरा लेखन एक समाज और राष्ट्र गढ़ने का लेखन है।  सामन्तवाद, पुरोहितवाद और साम्राज्यवाद के गठजोड़ को वह बाखूब समझते हैं। अपने लेखन में किसानों, स्त्रियों, दलितों की तरफदारी इसलिए कर रहे थे कि इनके सशक्तिकरण के बिना नए राष्ट्र का निर्माण संभव नहीं था। उनका इष्ट गाँव नहीं, किसान-मजदूर थे। ये किसान-मजदूर गाँव में रहते थे। होरी, शंकर महतो, गोबर, जोखू, धनिया, बुधिया सब गाँव में रहते थे। गाँव पर लिखना उनका शौक नहीं था। गाँव को झिंझोड़े बगैर हिंदुस्तान का कायाकल्प असंभव था। वह गाँव की अमराइयों और कुहू की आवाज सुनने और ताल-मखान निहारने गाँव नहीं आते हैं। उन्हें इस गाँव की काहिली और जड़ता को ख़त्म करना है।


प्रेमचन्द ने ग्राम कथा लेखन को प्रोत्साहन नहीं दिया. और शायद यही कारण है कि अपने दौर में प्रेमचंद के दो प्रिय लेखक जैनेन्द्र और अज्ञेय ग्रामकथा लेखक नहीं हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिंदी साहित्यलोचकों ने इस बात की कभी कोई मीमांसा नहीं की। इस के कारण हैं। क्या किसी को यह स्वीकार करने में संकोच हो सकता है कि हिंदी विमर्श और आलोचना अपने मूल चरित्र में आज भी द्विजवादी संस्कारों में आपादमस्तक डूबी है। तथाकथित प्रगतिशील आलोचना भी। यह द्विजवादी प्रभाव ही प्रेमचंद के समग्र और सम्यक आकलन को बाधित करता है।


रेणु का लेखन प्रेमचंद के अवसान के एक दशक बाद आरम्भ होता है। उनका पहला उपन्यास 'मैला आँचल' 1954 में लिखा गया। यह आज़ादी के बाद एक पिछड़े हुए गाँव में उभर रहे सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्यों की कहानी है। सामाजिक भी है और राजनीतिक भी। नेपाल में लोकतंत्र और समाजवाद बहाली का संघर्ष कर लौटे रेणु हताश और उदास हैं। नया संविधान लागू हो चुका है। 1952 का पहला आमचुनाव भी हो चुका है। नेपाल-क्रांति तो विफल हो ही गई, भारत के आमचुनाव में उनकी पार्टी भी बुरी तरह हार गई है। रेणु जब यक्ष्मा की जानलेवा बीमारी से ग्रस्त थे, उनकी पहचान लतिका जी से होती है, जो उनकी संगिनी बन गई हैं और जीवन का आधार भी। इसी जमीन पर रेणु राजनीतिक जीवन का परित्याग कर रचनात्मक जीवन का आरम्भ करते हैं। पहले कुछ गल्प और रिपोर्टिंग की थी। अब व्यवस्थित लेखन आरम्भ करते हैं। अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने मार्क्सवाद का अध्ययन किया था। एशियाई समाज पर मार्क्स ने बेवाक टिप्पणी की थी। पूरब की निरंकुशता, जो संभवतः अराजकता से थोड़ी भिन्न थी, के आर्थिक-सामाजिक आधार थे। ग्राम-जीवन और उत्पादन के पुराने औजार जिसके कारण एक स्वावलम्बी, आत्मतुष्ट और गतिहीन अथवा जड़ हिंदुस्तानी समाज ऊंघ रहा था। क्या ऐसे समाज में लोकतान्त्रिक गतिविधियां संभव थीं। शायद नहीं। और इसीलिए मार्क्स गाँव को पसंद नहीं करते। अंग्रेजी राज ने कुछ अंशों में उत्पादन प्रणाली में हस्तक्षेप किया। कम से कम कपड़ा उत्पादन के मामले में। इससे गाँवों में तबाही आई है। मार्क्स इस तबाही और पीड़ा को समझते हैं। लेकिन वह इसे जरूरी मानते हैं। वह जर्मन कवि गेटे की एक पंक्ति उद्धृत करते हैं कि वह दुःख महान है जो एक महान सुख को जन्म देने जा रहा हो। मार्क्स की नजर में अंग्रेजों का आना भारत के लिए इतिहास का अवचेतन साधन था।


रेणु बहुत गहराई से मार्क्स से एक मौन संवाद करते हैं। उनका मेरीगंज एक अंग्रेज मेम के नाम पर है। बारहों बरन के लोग हैं वहां पर। काहिली है, जातपात है, और वह सब कुछ है जिसे मार्क्स ने लक्ष्य किया था। मार्क्स के एशियाई काव्यमयी बस्तियों में से एक यह मेरीगंज एक गतिहीन जीवन जीने के लिए अभिशप्त है। लेकिन रेणु इसी जीवन में उन तत्वों को देखते हैं, जिसे मार्क्स नहीं देख सके थे और गांधी ने कुछ-कुछ देखा था। वह थी मानवीय दृष्टि, वह ह्रदय और विवेक जिस पर भारत में गांधी और जर्मनी में बॉनहोफर को भरोसा हुआ था। अनपढ़ गंवार लोगों ने ही कभी धर्म को संवारा था, मजबूत किया था और वही लोकतंत्र को भी मजबूत करेंगे। इसी चेतना को रेणु अपने साहित्य में स्थान देते हैं। बारहों बरन वाले मेरीगंज में वह डॉ प्रशांत को नायक बनाते हैं, जिसकी कोई जाति नहीं। जातपात से बजबजाते मेरीगंज में अज्ञातकुलशील है डॉ प्रशांत। निर्जात नायक। वह गाँव को बदलना चाहता है। उसकी ज़ड़ता से संघर्ष करना चाहता है। रेणु नहीं चाहते प्रशांत और कमली का बेटा मेरीगंज जैसे गाँव में रहे। इसलिए डाक्टर की मित्र ममता उसे जल्दी से पटना ले जाने पर जोर देती है।


रेणु हिंदी के पहले लेखक हैं, जिनके लेखन में संसदीय राजनीति का पूरा ब्यौरा दीखता है। राजनीतिक दल, राजनीतिक कार्यकर्ता, पार्टी दफ्तर, चुनाव, राजनीति के दूसरे छल-छद्म सब वहां मिलेंगे। कालीचरण (मैला आँचल) और गणपत (आत्मसाक्षी) जैसे कार्यकर्ताओं की पीड़ा, जितेन्द्रनाथ मिश्र (परती-परिकथा) जैसे स्वप्नशील मेधावी युवा का आत्मसंघर्ष वहां आप को मिलेंगे। प्रेमचंद की तरह रेणु का इतिहास-बोध दुरुस्त है। राष्ट्रीय आंदोलन का पूरा मनोविज्ञान आप वहां देख-समझ सकते हैं। फ़्रेंच लेखक बाल्जाक ने जैसे फ़्रांसिसी क्रांति के मिजाज को समझा है उसी तरह रेणु भारत की आजादी के आन्दोलन को गहराई से समझते हैं। राष्ट्रीय आंदोलन के आधार तत्व हैं बावन दास, बाल गोविन्द और चुन्नी गुसाईं जैसे हासिए के लोग। इन लोगों के कारण ही राष्ट्रीय आंदोलन महाकार हो सका। गांधी की असली ताकत ये लोग ही थे। यह रेणु की इतिहास-दृष्टि थी। जाति के व्याकरण और उसके मनोविज्ञान को उन्होंने गहराई से समझा था। मेरीगंज में सिपहिया टोली, कायथ टोली और गुआर टोली के लोग आपस में लड़ते-झगड़ते हैं, लेकिन जैसे ही आदिवासी संथालों का प्रसंग आता है, तीनों इकट्ठे हो उन से भिड़ जाते हैं। जाति और वर्ग के द्वंद्वात्मक रिश्तों को वह सूक्ष्मता से समझते हैं। राष्ट्रीयता के प्रश्न को भी इतने ही ढंग से उन्होंने रखा है। जुलूस उपन्यास में पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) से आए हिन्दू शरणार्थियों के टोले को लोग पकिस्तनिया टोला कहते हैं। उस टोले को लोग विदेशी भाव से देखते हैं।


रेणु ने अपने समय के सामाजिक-राजनीतिक विमर्श को किसी भी दूसरे लेखक की अपेक्षा अधिक समग्रता से उठाया है। वह अपने जमाने का प्रतिनिधित्व करते हैं। उस ज़माने की पूरी धड़कन, पूरा जीवन आप को उनके लेखन में मिल जाएगा। वह हिंदी के ऐसे लेखक हैं, जिनका अनुकरण बहुत मुश्किल है। उनकी परंपरा को विकसित करना भी उतना ही मुश्किल है।


आज उनका जन्मदिन है। उनके साथ बिताए समय और उनके व्यक्तित्व का स्मरण करता हूँ. उनकी स्मृति का नमन।



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