यतीश कुमार की समीक्षा नदी पुत्र- उत्तर भारत में निषाद और नदी






नदियों से मनुष्य की पुरातन नातेदारी है। विश्व की सभी प्राचीनतम सभ्यताएं नदियों के किनारे ही विकसित हुईं। सिन्धु नदी के तटीय क्षेत्रों में हड़प्पा की सभ्यता अस्तित्व में आई, जिसने नगरीय सभ्यता के वे प्रतिमान रचे, जिसे देख कर आज भी आश्चर्य होता है।वैदिक काल में गंगा यमुना का विशाल मैदान अस्तित्व में आया जहां भारतीय संस्कृति की बुनियाद रखी गई। आज चाहें हमने जितनी प्रगति कर ली हो, लेकिन नदियों की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता। रमाशंकर सिंह युवा शोधकर्ता हैं। हाल ही में इनकी एक शोधपरक किताब आई है 'नदी पुत्र'। इसके जरिए रमाशंकर ने उन नदीपुत्रों की विडंबनापूर्ण स्थिति पर प्रकाश डाला है जिनके जीवन यापन से नदी सभ्यता के आरम्भ से ही नाभिनालबद्ध रही है। यतीश कुमार ने नदी पुत्र पर एक गम्भीर नजर डाली है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रमाशंकर सिंह की किताब नदी पुत्र पर यतीश कुमार की समीक्षा।



नदी पुत्र- उत्तर भारत में निषाद और नदी




यतीश कुमार 


संस्कृतियों का पहला पाठ है हमारी नदियाँ। इन नदियों के संग नालबद्ध निषाद प्रजाति का उदय विकास और पतन को क्रमबद्ध साधने की कोशिश है यह किताब। मनुष्य और जल का रिश्ता अविभाज्य है और इनका इतिहास साझा इतिहास रहा है जिसकी व्याख्या करने के लिए लेखक शोधपरक विश्लेषण का आह्वान कर रहा है। इस विश्लेषण में हम पाते हैं कि जल ने मनुष्य के जीवन, विचार, कला और साहित्य के साथ धार्मिक व आर्थिक दृष्टि पर कितना गहरा असर, समय के साथ छोड़ा है। जाति की गतिकी को मद्देनज़र रखते हुए लेखक का प्रयास इस ओर भी  दिख रहा है कि नदी और मनुष्य के आपसी संबंध का अपना इतिहास कैसा रहा है। 



यह भी सुखद आश्चर्य से कम नहीं कि गंगा अपनी उपस्थिति वहाँ भी दर्ज करती है जहाँ वह बहती नहीं है। लोग हर शुभ कार्य गंगा जल के साथ करना चाहते हैं और इसके लिए अपने हिस्से की गंगा लिए टहलते हैं। जल का जीवन से इस तरह का जुड़ाव और इस पर की गई चर्चाएँ इस शोध की अतःदृष्टि को और भी सूक्ष्मता प्रदान करती हैं।



मंदिरों में गंगा-जमुना की मूर्तियों का होना इतिहास में नदी की महत्ता संजोने जैसा है और लेखक हर ऐसी बात को इंगित करने के साथ क्रमबद्ध व्याख्या करना चाहता है ताकि इस पूरे समीकरण का सुचित्रण संभव हो सके, एक खाका तैयार हो सके जिससे सामाजिक अवधारण का अंतर्संबंध जन और जल के बीच स्थापित किया जा सके। लेखक ने 'ऋग्वेद' और 'वाल्मीकि रामायण' जैसे ग्रंथों को यहाँ संदर्भ की तरह प्रस्तुत किया है ताकि गंगा और सरस्वती के अवतरण के मूल तक जाया जा सके । 



लेखक इस बात पर भी अपनी राय रखने से नहीं चूकता कि रामायण से महाभारत तक आते-आते गंगा, देवी से देह में कैसे बदल जाती है। 



निषाद समुदाय की अवस्थिति, सामाजिक व सांस्कृतिक बहिष्करण के पीछे के मूल बिंदुओं की पड़ताल करता लेखक, कई शोध पत्रों से गुजरते हुए कुछ निष्कर्ष बिंदुओं को हम लोगों तक पहुँचाने की कोशिश करता है, जिसे सफल कोशिश की श्रेणी में रखना सही होगा। 



पड़ताल करते समय लेखक ऋग्वैदिक समाज, उत्तर वैदिक समाज से ले कर पूर्व मध्य काल तक में जाति व्यवस्था में अस्पृश्यता और बहिष्करण के बदलते स्वरूप को समझाने की कोशिश करता है।



आर्य और अनार्य के बीच, बदलते समीकरण का पूरा परिदृश्य रचने की बहुत सूक्ष्म व्याख्या की कोशिश सराहनीय है। यहाँ तक कि जैन और बौद्ध धर्म में वर्णित जाति व्यवस्था का भी संदर्भ उठाया गया है और इसे बदलाव की दृष्टि से अंकित किया गया है। यह व्याख्या विखंडित हो कर जब निरवसित और अनिरवसित वर्गीकरण तक पहुँचती है तब लेखक के शोधपरकता की गंभीरता का अनुमान लगाया जा सकता है। जाति व्यवस्था का धर्मसूत्रीकरण नियमावली समझाने के लिए लेखक ने रामगोपाल जी के संदर्भ को उठाया है, जो बहुत ही सुंदर और समुचित है, जहाँ कहा गया है कि वे सभी, जिनका उपनयन संस्कार नहीं होता था, जिन्हें वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था, वे शूद्र कहे जाते थे। इसी श्रृंखला में यह भी वर्णित है कि वैदिक मंत्रों के पाठ को पवित्र मानते हुए यहाँ-वहाँ वाचन से निषेध रखने की सलाह दी गई और कहा गया कि “न बाज़ार में, न श्मशान में और न ही जहाँ शूद्र और अंत्यज उपस्थित हों वहाँ वेद का पाठ वर्जित है।"




एक संदर्भ तो आम पाठकों को चकित कर देगा। तैत्तिरीय संहिता में ऋतुस्राव को महिलाओं की अपवित्रता से जोड़ते हुए उन्हें यज्ञ से वंचित रखा गया। इसी के साथ इंद्र के पाप का तिहाई हिस्सा महिलाओं के सिर जोड़ते हुए मासिक रक्तस्राव को उस पाप का प्रकटीकरण तक बताया गया। इससे एक कदम आगे बढ़कर स्वच्छता के प्रतिमान विभिन्न वर्णों के अनुसार अपनी-अपनी विभिन्नताएँ लिए वर्णित हैं। लेखक मौर्यकाल और गुप्तकाल में उपस्थित जाति व्यवस्था और उनके बीच के विरोधाभास पर भी दृष्टि डालता है, जब शूद्र कृष्ण की पूजा करने लगते हैं और किसान बन जाते हैं । 




रामायण में निषाद जंगलों के राजा की तरह आये लेकिन कालांतर में वे अस्पृश्य होते चले गए। यहाँ एक रोचक कहानी का ज़िक्र आया है। लिखा है, निषादों के जन्म की कथा कुछ इस प्रकार है कि वेण नामक एक अनैतिक राजा था। ऋषियों ने उसे दर्भ घास से मार डाला। वेण निःसंतान था, अतः उसकी जाँघ को फाड़ कर संतान को उत्पन्न किया गया। काले रंग, छोटे क़द और चपटे चेहरे वाली संतान ने उनसे पूछा कि अब वह क्या करे? तो ऋषियों ने कहा वह केवल बैठा रहे : निषद। इस व्यक्ति की ही संतानें निषाद कहलायीं। विष्णु पुराण की यह कथा का भी अपना एक सार है जो एक दिशा की ओर इंगित करता है, जो अस्पृश्यता के राज खोलता है।


रमा शंकर सिंह 



लेखक निषाद से जुड़े ऐसे हर प्रकरण को जोड़ने की कोशिश करता है और उसके संदर्भ भी प्रस्तुत करता है। ये संदर्भ रामायण, महाभारत से होते हुए बौद्ध पुराण, कात्यायन व वाराह या सत्याषाढ श्रौतसूत्र से लेकर मौर्य, अशोक के अभिलेखों और मनुस्मृति के विभिन्न अध्याय तक जाता है। लेखक यहाँ नहीं रुकता अपितु इन संदर्भों में उपस्थित अन्तर्द्वन्द्व के खंडन-विखंडन का विश्लेषण करते हुए इसे एक दिशा देने की कोशिश करता है, जो उसके अथक शोध और उसकी ख़ुद की तर्क शक्ति का परिचय भी देती है। 




यहाँ सिर्फ़ निषाद के उदय की बात नहीं है बल्कि पूरे समुदाय के उदय की बात है, ऐसा कहते हुए लेखक उनके सामुदायिक अधिकारों की बात भी करता है। न सिर्फ़ उनके अधिकार बल्कि आधुनिक भारत तक आते-आते अपवंचना और बेदख़ली के ख़िलाफ़ उन्होंने किस-किस तरह सामाजिक और राजनीतिक गोलबंदी की रचना की वह सब यहाँ पर उपलब्ध है। लेखक ने इस बात को क्रमबद्ध संदर्भों का साक्ष्य बना कर सिद्ध किया है कि 1871 में बने क्रिमिनल ट्राइव्स एक्ट के अंतर्गत निषाद को ला कर इस समुदाय को अवांछित करार दिया गया, जो उस समय की सबसे बड़ी भूल थी। इस किताब में इस बात पर भी जोर दिया है कि कैसे रेलवे के आने पर निषाद की रोज़मर्रा की ज़िंदगी और आबोदाना पर सीधा आघात हुआ। इसी के साथ शिक्षा और तकनीक ने इनकी सोच और परिस्थितियाँ दोनों पर बराबर का प्रभाव डाला, ऐसा इसे पढ़ते हुए साफ़ प्रतीत होता है। इस स्थिति पर कुछ सकारात्मकता 2012-13 के बाद जाकर दिखती है, जब नाविक यूनियन की पहल पर उत्तर प्रदेश की सरकार उन्हें मेले में भी संगम में नाव चलाने की अनुमति देती है जो कि 14 साल के संघ के लगातार संघर्ष के बाद मिलता है। 




एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात यहाँ उभरती है कि जिन भी जातियों या समुदाय के पास ज़मीन नहीं है वे मांसाहारी हैं, जैसे चूहा खाने वाले मुसहर, निषाद के लिए मछली भी कुछ इसी तरह का विकल्प है। ग़रीबी में कैसे समुदाय के भीतर एकजुटता पनपती है उसका साक्षात उदाहरण निषाद समुदाय है, जहाँ नाव और ज़मीन दोनों को साझा करने के उदाहरण लेखक प्रस्तुत कर रहा है। शायद यही एकजुटता अंग्रेजों या राजा-महाराजाओं को उनसे डरने के कारण भी पर्याप्त करता हो और इसी कारण क्रिमिनल ट्राइब्स जैसे एक्ट में निषाद को पीसा गया हो। 




लेखक इस जाति की परिस्थिति का संदर्भ न सिर्फ़ पुराणों और धार्मिक नियमावली में देखता है अपितु साहित्य के गलियारों से भी स्थिति की अवधारणा को साफ़ करने की कोशिश करता है। इस दिशा में उसने बांग्ला उपन्यासकार माणिक बंधोपाध्याय लिखित `पद्मा नदीर’ को आधार बनाया है कि कैसे निषाद समुदाय ग़रीबी को भी साझा करते थें, मिल कर लड़ते थे। इसी ग़रीबी ने धर्म और प्रथा से जोड़ कर नदियों में सिक्कों की खोज गोताखोरी व अस्थियों के भीतर पैसा या मूल्यवान धातु की खोज में हाथ बँटाने इत्यादि के पीछे की मानसिकता को कैसे विकसित किया यह भी आपको पढ़ने को मिलेगा।




1980 के दशक में हुए `गंगा मुक्ति आंदोलन’ का संदर्भ देखते ही मुझे स्वर्गीय डॉक्टर आशुतोष सिंह और अनीश जैसे लोगों की याद आ गई, जिन्होंने इस महत्वपूर्ण आंदोलन में अपना कितना समय और योगदान दिया। विकास का मॉडल जब रेत और सीमेंट से ही सब कुछ होना है तो सारी अनैतिकता भी यहीं होनी है। अवैध खनन वो भी जे सी बी और ड्रेजर मशीन से, जो की मछलियों के अण्डों और कछुए की प्राकृतिक जैव्य स्थिति को सीधा नुक़सान पहुँचाती है, रुकने का नाम नहीं ले रही।1963 के अधिनियम में साफ़ लिखा होने के बावजूद, कि खनन का अधिकार किनारे में बसे लोगों यानी निषादों को ही है, स्थिति है कि सुधरने का नाम ही नहीं ले रही। इस का सीधा परिणाम हिंसक वारदात है। वर्चस्व की लड़ाई या इसे गैंगेस्टर कैपिटलिज्म का व्यापक फैलाव ही समझा जा सकता है। लेखक इन सारी बातों को दशकों में हुए बदलाव क़ानून और ज़मीन दोनों की वस्तुस्थिति को दर्शाते हुए लिखा गया है, जिससे पूरी तस्वीर एक बालकनी व्यू की तरह साफ़ दिखती है।




लेखक पूरी तस्वीर को, गीतों के संदर्भों से भी समझने की खूबसूरत कोशिश करता है। इसे समझाने के लिए वह कभी विन्ध्याचली देवी की वंदना तो कभी रामचरितमानस के श्लोक या लोकगीतों का सहारा ले रहा है । 



एकलव्य, निषादराज गुह की उपलब्धि को फूलन देवी की बदस्थित से जोड़ कर आज की परिस्थिति का खाँचा खींचने की कोशिश लेखक ने की है, जिससे यह साफ़ हो रहा है कि आज भी यह समुदाय संघर्षरत है और लड़ाई अभी ख़त्म नहीं हुई। सरकार और इस समुदाय के बीच संवाद की लहर अभी और चलनी है। क़ानून बनाते हुए इनका अपना इतिहास और अनुभव दोनों को मद्देनज़र रखना कितना ज़रूरी है। पर्यावरण और जल जीवन के बीच का सेतु यह निषाद समुदाय अभी भी हाशिये पर है और संघर्ष जारी है।




अंत में इस श्रमसाध्य शोधपूर्ण क्रमबद्ध निषाद और नदी पर किए गए असमानांतर कार्य को सलाम, जिसे अभी और  दूर तक जाने की ज़रूरत है। रमाशंकर सिंह ज़रूर इसका दूसरा भाग लेकर आयेंगे ऐसी आशा रखता हूँ।










सम्पर्क

मोबाइल : 8420637209








टिप्पणियाँ

  1. नदी पुत्र पुस्तक की यतीश कुमार द्वारा की गई यह समीक्षा पुस्तक के महत्त्व को भलीभांति उद्घाटित करती है। पुस्तक में समाया हुआ शोधित ज्ञान इस समीक्षा से
    काफी उभरता है। -- रमाकांत नीलकंठ

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  2. बहुत ही सारगर्भित और पॉइंट टू पॉइंट समीक्षा. किताब में समाहित मूल बातें बहुत ही संक्षिप्त और जरुरी सारांश की तरह पाठक को किताब के विषय वस्तु के साथ परिचय करवाती है।

    मनोज

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  3. सही है समीक्षा

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