यतीश कुमार की किताब 'बोरसी भर आंच' का एक अंश

 



जीवन में स्मृतियों के लिए एक बड़ा स्पेस होता है। ये खट्टी मीठी स्मृतियां हमारे जीने का संबल बनती हैं। इनसे बहुत कुछ सीख मिलती है। रचनात्मकता तो बहुत हद तक स्मृतियों की ऋणी होती है जिसमें सार्वभौमिकता होती है। अक्सर ऐसा होता है कि किसी लेखक की स्मृतियां या अन्य कोई रचना अपने जीवन से मेल खाने लगती हैं। कवि यतीश कुमार की हाल ही में संस्मरणों की एक किताब आई है 'बोरसी भर आंच'। यतीश का शुरुआती जीवन सामान्य ही रहा है। और उस जीवन में सामान्य का वह संघर्ष भी है जो आमतौर पर हम सबका संघर्ष होता है। इन संस्मरणों में कविता जैसी ही रवानी और प्रवहमानता है। स्थानीय बोली भाषा के शब्द अचानक हमें ठिठकने के लिए मजबूर कर देते हैं। यह लेखक के अपने मिट्टी से जुड़े होने का प्रमाण है। हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं यतीश कुमार की किताब 'बोरसी भर आंच' का एक अंश। इन संस्मरणों में गोता लगाने के लिए आप यह किताब राजकमल प्रकाशन से खरीद कर पढ़ सकते हैं।



कितने ही अफ़सानों की छाप गुम हैं


यतीश कुमार


वर्जनायें बेलौस होती हैं और स्मृतियाँ कभी जल जैसी तरल तो  कभी वाष्प की तरह सुसुम और कभी बर्फ की तरह ठंडी। स्मृतियों के तार में कितने ही काँटे होते हैं जिनमें अनगिनत लम्हे फँसे-फँसे फड़फड़ाते रहते हैं। संघर्ष की यंत्रणा को याद करते हुए मन के भीतर दर्द और तीखा हो जाता है। ऐसी यादों के समय दृश्य बार-बार फॉरवर्ड-रिवर्स होने लगते हैं और बहुत तेजी से भीतर कहीं भँवर-सी  उमेठ उठती है और वमन की तरह कुछ पंक्तियाँ काग़ज़ पर पसर जाती हैं तब जा कर चित्त को थोड़ा-सा आराम, थोड़ा सा सुकून  मिलता है। यात्रा की ऐसी मुक्ति के लिए ही संस्मरण लिखे जाते हैं।



आज तीस साल बाद उसी गली-मोहल्ले में लौटा हूँ। तब का गाँव जो अब शहर बन गया है और जहाँ घने मुश्किलों के बादलों में भी मासूमियत भरी ताबानी की फुहारें दिखती थीं। जहाँ बचपन के जोश ने कभी मायूसी को दामन नहीं पकड़ने दिया। जहाँ जिंदगी, हालाँकि लड़खड़ाई पर उसने रोज दो कदम चलना भी सिखाया।



उस सड़क की पगडंडियों पर टहल रहा हूँ जिसे कभी साइकिल से अनगिनत बार नापा था और जिसके टायरों के दागों में कितने ही अफ़सानों की छाप गुम हैं। सड़क के समानांतर खिंची रेखा जैसी नहर जो कभी नदी सी रवानगी भरती बहती थी,आज कहीं छुपती जा रही है। खुली नहर पर सीमेंट की चादर डाल दी गयी है और उस पर मकानों ने सिर यूँ उठा लिए हैं कि घर के सामने सीमेंट की चादर की ओट से कहीं-कहीं नहर का निचला खुरदरा हिस्सा झाँक रहा होता है जहाँ कभी दलदली मिट्टी में ‘गरय’ मछलियाँ छुपी रहती थी। वो झाँकता हिस्सा ऐसे ताकता है जैसे फटी हुई शॉल की छेद से अम्मा के खुरदरे हाथ ताकते थे। नहर की बाँहें भी कुछ यूँ ही टकटकी लगाए ताके जा रही है, बेबस-लाचार। उस सीमेंट की मोटी चादर पर खड़ी मोटरसाइकिल पुरानी जंगाई साइकिल पर अपनी कुटिल मुस्कान डालती कह रही है किसने कहा था सब ठीक हो जाएगा, किसने कहा था हमेशा अंत में सच्चाई की जीत होती है! क्या वो अंत सच में अनंत है जिसके कालांत का अनुभाष किसी को भी नहीं।




 

खैर, दर्शन की दुनिया से बाहर यथार्थ की दुनिया में वापस आता हूँ और देखता हूँ कि मैं नहर के बीचों बीच खड़ा हूँ, पानी का कहीं अता-पता नहीं है। मेरे हर एक क़दम पर एक अजीब चरमराहट की आवाज आ रही है। वो सूखी पपड़ियों की आवाजें हैं, मानो पानी की धार इस नहर से सदियों पिंड छुड़ाए हुए है। सूखी मिट्टी की पपड़ियाँ उठाता हूँ महसूस करता हूँ, मिट्टी ने अपना स्वभाव मनुष्य की तरह अब तक नहीं बदला है। सोंधी खुशबू आज भी आ रही है। थोड़ी देर तक पैरों तले पपड़ियों की चरमराहट से निकलती आवाज में एक धुन सुनाई पड़ती है जो मुझे अपने बचपन की ओर खींचती है। उस डूबे हुए माहौल में मैं खूब खिलखिला कर उछलता कूदता रहा हूँ जिसकी याद मेरे भीतर पुलक यूँ बढ़ाती है मानो किसी के घर में देहांतोपरांत भोज में खौलते तेल में तली पूड़ियों को देख बालक उछल-कूद कर रहा हो। तभी अचानक एक कौवे पर पड़ी मेरी दृष्टि कौतुहलता को थोड़ा और उकसाती है और मैं नृत्य भाव से निकल उस कौवे के पास जाता हूँ। मुझे देख कौवा अपनी चोंच नहर की सतही दरार में बार-बार जल्दी-जल्दी डालने लगता है। उसकी ये जल्दबाजी मुझे उसकी ओर खींचती है, मैं उसके नज़दीक जाता हूँ तो पाता हूँ सारा नजारा बहुत मार्मिक दृश्य में तब्दील हो गया है। सतही दरारें बेहद संकरी और गहरी हैं। पपड़ियों के नीचे दरारें फाँक की तरह पाटी हुई हैं। इन दरारों में मछलियों के अवशेष सूखे काटों की हड्डियों की शक्ल में बदल गये हैं और ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे आधी दफनायी हुई लाशें सिर्फ़ आँखें फाड़े उपर आपकी ओर निरीह ताके जा रही हैं। विडंबना है कि कौवे की चोंच अब उन अवशेषों तक भी नहीं पहुँच पा रही। 



सोचता हूँ क्या गुजरी होगी उन मछलियों पर जब पानी की धार धीरे-धीरे अवरुद्ध हुई होगी फिर पानी की सतह रोज अपना स्तर थोड़ा कम कर लेती होगी, रोज दिल दहलता होगा, रोज आस बनती और फिर टूटती होगी। इसी नहर में मछलियों की तरह मैं भी कभी तैरता था। सब एक साथ कूदते थे, पूरा झुंड, सारे दोस्त जिन्हें तैरते हुए समय बीतने का अहसास तक नहीं रहता था।स्कूल की छुट्टी और फिर बस्ता पीठ पर लिए हम सब दोस्त एक झुंड की तरह दौड़ते नहर की ओर। बस्ता हवा में लहराता और हम नंगे मेंढक की तरह छपाक-छपाक कूद जाते। वो एक रोमांच की कूद होती थी जहाँ जात-पात की दीवारें पानी में कागज की तरह गलकर बह जाती। नहर में देर तक तैरते हुए याद ही नहीं रहता कि कितनी दूर चले आए हैं और फिर वापसी बहाव में तैरना जीवन के कठिनतम संघर्ष से कहीं कम नहीं था पर बचपन की उमंग लिए सब मिल कर यात्रा पूरी कर ही लेते। तैरते समय आस-पास जलमग्न अजीब-अजीब चीजें हाथ में आती और हम उन्हें सहजता से साफ़ करते रहते और एक दूसरे पर मस्ती में फेंकते जल क्रीड़ा करते रहते। तैरते हुए कई बार ऐसा भी होता कि साथ-साथ टट्टी का लोंदा भी तैरता आ जाता और हम बिना हिचक उसे पंजे के बहाव से दूसरी दिशा में ठेल देते। ऐसे दृश्य उस समय हमारे लिए सामान्य-सी बात थी।



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