स्वामी विवेकानंद का अन्तिम व्याख्यान 'भारत का भविष्य'




उन्नीसवीं सदी भारतीय सन्दर्भ में पुनर्जागरण की सदी थी। इसे कुछ लोगों ने नवजागरण का नाम दिया। कुछ अग्रणी विचारकों ने भारतीय धर्म, दर्शन, आध्यात्म, शिक्षा आदि विषयों पर तत्त्पर होकर विचार करना शुरू किया और आधुनिकता के सन्दर्भ में अपने विचार रखे। इन विचारों ने भारतीयों का मानसिक स्तर पर वह उन्नयन किया, जिससे वे अपने विरोधाभासों से अवगत हुए। स्वामी विवेकानंद ऐसे ही समाज सुधारक थे जिन्होंने धर्म और आध्यात्म की नवीन सन्दर्भों में पड़ताल कर भारतीय जनमानस को एक नई दिशा देने का कार्य किया। स्वामी विवेकानंद ने मद्रास में अपना अन्तिम व्याख्यान दिया था जो कई मामलों में बहुत ही मानीखेज़ है। लक्ष्मण केडिया ने इस व्याख्यान का सम्पादित रूप अपनी फेसबुक वॉल पर प्रस्तुत किया था। आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं स्वामी विवेकानंद का अन्तिम व्याख्यान 'भारत का  भविष्य'

 


भारत का भविष्य


स्वामी विवेकानंद 

 


यह वही प्राचीन भूमि है, जहां दूसरे देशों को जाने से पहले तत्वज्ञान ने आ कर अपनी वासभूमि बनाई थी; यह वही भारत है, जहां के आध्यात्मिक प्रवाह का स्थूल प्रतिरूप उसके बहने वाले समुद्राकार नद हैं, जहां चिरंतन हिमालय श्रेणीबद्ध उठा हुआ अपने हिम शिखरों द्वारा मानो स्वर्गराज्य के रहस्यों की ओर निहार रहा है। यहीं सबसे पहले मनुष्य-प्रकृति तथा अंतर्जगत के रहस्योद्घाटन की जिज्ञासाओं के अंकुर उगे थे। आत्मा का अमरत्व, अंतर्यामी ईश्वर एवं जगत-प्रपंच तथा मनुष्य के भीतर सर्वव्यापी परमात्मा विषयक मतवादों का पहले पहल यही उद्भव हुआ था। यह वही भारत है जो अपने अविनाशी वीर्य और जीवन के साथ अब तक पर्वत से भी दृढ़तर भाव से खड़ा है। 


भारत की संतानो, तुमसे आज मैं यहां कुछ व्यवहारिक बातें कहूंगा और तुम्हें तुम्हारे पूर्व गौरव की याद दिलाने का उद्देश्य केवल इतना ही है : कितनी ही बार मुझसे कहा गया है कि अतीत की ओर नजर डालने से सिर्फ मन की अवनति ही होती है और इससे कोई फल नहीं होता; अतः हमें भविष्य की ओर दृष्टि रखनी चाहिए। यह सच है। परंतु अतीत से ही भविष्य का निर्माण होता है। अतः जहां तक हो सके, अतीत की ओर देखो। पीछे जो चिरंतन निर्झर बह रहा है, आकंठ उसका जल पिओ और उसके बाद सामने देखो और भारत को उज्जवलतर, महत्तर और पहले से और भी ऊंचा उठाओ।... हमें समझना होगा कि हम किन उपादानों से बने हैं, कौन सा खून हमारी नसों में बह रहा है। उस खून पर हमें विश्वास करना होगा। और अतीत के उसके कृतित्व पर भी, इस विश्वास और अतीत गौरव के ज्ञान से हम अवश्य एक ऐसे भारत की नींव डालेंगे जो पहले से श्रेष्ठ होगा।... किसी विशाल वृक्ष से एक सुंदर पका हुआ फल पैदा हुआ, फल जमीन पर गिरा, मुरझाया और सड़ा, इस विराट विनाश से जो अंकुर होगा, संभव है वह पहले के वृक्ष से बड़ा हो जाए। अवनति के जिस युग के भीतर से हमें गुजरना पड़ा वे सभी आवश्यक थे। इसी अवनति के भीतर से भविष्य का भारत आ रहा है, वह अंकुरित हो चुका है, उसके नए पल्लव निकल चुके हैं और उस शक्तिधर विशालकाय ऊर्ध्वमूल वृक्ष का निकलना शुरू हो चुका है। और उसी के संबंध में मैं तुमसे कहने जा रहा हूं।


हमारे पास एकमात्र सम्मिलन भूमि है-- हमारी पवित्र परंपरा, हमारा धर्म। एकमात्र सामान्य आधार वही है, और उसी पर हमें संगठन करना होगा। यूरोप में राजनीतिक विचार ही राष्ट्रीय एकता का कारण है। किंतु एशिया में राष्ट्रीय ऐक्य का आधार धर्म ही है अतः भारत के भविष्य संगठन की पहली शर्त के तौर पर उसी धार्मिक एकता की ही आवश्यकता है। देश भर में एक ही धर्म सब को स्वीकार करना होगा। एक ही धर्म से मेरा क्या मतलब है? यह उस तरह का एक ही धर्म नहीं, जिसका ईसाईयों, मुसलमानों या बौद्धों में प्रचार है।... हमारे धर्म में कुछ सिद्धांत ऐसे हैं जो सभी संप्रदायों द्वारा मान्य हैं।...उनको स्वीकार करने पर हमारे धर्म में अद्भुत विविधता के लिए गुंजाइश हो जाती है और साथ ही विचार और अपनी रुचि के अनुसार जीवन निर्वाह के लिए हमें संपूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो जाती है। अपने धर्म के ये जीवनप्रद सामान्य तत्व हम सबके सामने लाएं--यही हमारे लिए आवश्यक है। सर्वप्रथम यही हमारा कार्य है। 

 


भारतीय मन के लिए धार्मिक आदर्श से बड़ा और कुछ भी नहीं है। धर्म ही भारतीय जीवन का मूल मंत्र है। पहले उस पद को सुदृढ़ किए बिना दूसरे मार्ग से कार्य करने पर उसका फल घातक होगा। इसीलिए भविष्य के भारत निर्माण का पहला कार्य, वह पहला सोपान, जिसे युगों के उस महाचल पर खोद कर बनाना होगा, भारत की यह धार्मिक एकता ही है।


हमारी आध्यात्मिकता ही हमारा जीवन रक्त है। यदि यह साफ बहता रहे, यदि यह शुद्ध एवं सशक्त बना रहे, तो सब कुछ ठीक है। राजनीतिक, सामाजिक, चाहे जिस किसी तरह की ऐहिक त्रुटियां हों, चाहे देश की निर्धनता ही क्यों न हो, यदि खून शुद्ध है तो सब सुधर जाएंगे।... जब राष्ट्रीय जीवन कमजोर हो जाता है तब हर तरह के रोग के कीटाणु उसके शरीर में इकट्ठे जमकर उसकी राजनीति, समाज शिक्षा और बुद्धि को रुग्ण बना देते हैं।


हमने देखा है कि हमारा धर्म ही हमारे तेज, हमारे बल, यही नहीं हमारी जातीय जीवन की भी मूल भित्ति है। इस समय मैं यह तर्क-वितर्क करने नहीं जा रहा हूं कि धर्म उचित है या नहीं, सही है या नहीं, और अंत तक यह लाभदायक है या नहीं। किंतु अच्छा हो या बुरा, धर्म ही हमारे जातीय जीवन का प्राण है; तुम उससे निकल नहीं सकते।  इस धर्म में ही हमारा जातीय मन है, हमारा जातीय जीवन प्रवाह है। इसका अनुसरण करोगे तो यह तुम्हें गौरव की ओर ले जाएगा। इसे छोड़ोगे तो मृत्यु निश्चित है।... मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि दूसरी चीज की आवश्यकता ही नहीं। मेरे कहने का यह अर्थ नहीं कि राजनीतिक या सामाजिक उन्नति अनावश्यक है, किंतु मेरा तात्पर्य यही है और मैं तुम्हें सदा इसकी याद दिलाना चाहता हूं कि ये सब यहां गौण विषय हैं, मुख्य विषय धर्म है। भारतीय मन पहले धार्मिक है फिर कुछ और।


मेरा विचार है, पहले हमारे शास्त्र ग्रंथों में भरे पड़े आध्यात्मिकता के रत्नों को, जो कुछ ही मनुष्यों के अधिकार में मठों और अरण्यों में छिपे हुए हैं, बाहर लाना है।... इस मार्ग की बहुत बड़ी कठिनाई हमारी गौरवशाली भाषा संस्कृत ही है। यह कठिनाई तब तक दूर नहीं हो सकती जब तक यदि संभव हो तो हमारी जाति के सभी मनुष्य संस्कृत के अच्छे विद्वान न हो जाएं।... संस्कृत की भी शिक्षा अवश्य होती रहनी चाहिए।... महान रामानुज, चैतन्य और कबीर ने भारत की नीची जातियों को उठाने का जो प्रयत्न किया था उसमें उन महान धर्माचार्यों को अपने ही जीवनकाल में अद्भुत सफलता मिली थी। किंतु फिर उनके बाद उस कार्य का जो सोचनीय परिणाम हुआ उसकी व्याख्या होनी चाहिए और जिस कारण उन बड़े-बड़े धर्माचार्यों के तिरोभाव के प्रायः एक ही शताब्दी के भीतर वह उन्नति रुक गई, उसकी भी व्याख्या करनी होगी। यहां तक कि भगवान बुद्ध ने भी यह भूल की कि उन्होंने जनता में संस्कृत शिक्षा का अध्ययन बंद कर दिया। वे तुरंत फल पाने के इच्छुक थे, इसीलिए उस समय की भाषा पाली में संस्कृत से अनुवाद कर उन्होंने उच्च विचारों का प्रचार किया। यह बहुत ही सुंदर हुआ था। जनता ने उनका अभिप्राय समझा, क्योंकि वे जनता की बोलचाल की भाषा में उपदेश देते थे। यह बहुत ही अच्छा हुआ था।... ज्ञान का विस्तार हुआ सही, पर उसके साथ-साथ प्रतिष्ठा नहीं बनी, संस्कार नहीं बना। संस्कृति ही युग के आघातों को सहन कर सकती है, मात्र ज्ञानराशि नहीं। तुम संसार के सामने प्रभूत ज्ञान रख सकते हो, परंतु इससे उसका विशेष उपकार न होगा। संस्कार को रक्त में व्याप्त होना चाहिए। वर्तमान समय में हम कितने ही राष्ट्रों के संबंध में जानते हैं, जिनके पास विशाल ज्ञान का आगार है, परंतु इससे क्या? वे बाघ की तरह नृशंस हैं, वे बर्बर के सदृश हैं क्योंकि उनका ज्ञान संस्कार में परिणत नहीं हुआ है। सभ्यता की तरह ज्ञान भी चमड़े की ऊपरी सतह तक ही सीमित है, छिछला है, और एक खरोंच लगते ही वह पुरानी नृशंसता जग उठती है। ऐसी घटनाएं हुआ करती हैं। यही भय है। जनता को उसकी बोलचाल की भाषा में शिक्षा दो, उसको भाव दो, वह बहुत कुछ जान जाएगी, परंतु साथ ही कुछ और भी जरूरी है--उसको संस्कृति का बोध दो। जब तक तुम यह नहीं कर सकते तब तक उनकी उन्नत दशा कदापि स्थायी नहीं हो सकती।...ऐ पिछड़ी जाति के लोगो, मैं तुम्हें बताता हूं कि तुम्हारे बचाव का, तुम्हारी अपनी दशा को उन्नत करने का एकमात्र उपाय संस्कृत पढ़ना है और यह लड़ना-झगड़ना व्यर्थ है। इससे कोई उपकार न होगा,  इसे लड़ाई झगड़े और बढ़ेंगे और यह जाति दुर्भाग्यवश पहले ही से जिसके टुकड़े-टुकड़े हो चुके हैं, और भी टुकड़ों में बंटती रहेगी। जातियों में समता लाने के लिए एकमात्र उपाय उस संस्कार और उच्च शिक्षा का अर्जन करना है जो उच्च वर्णों का बल और गौरव है। यदि यह तुम कर सको तो जो कुछ तुम चाहते हो वह तुम्हें मिल जाएगा।

 


 


इस समस्या की एकमात्र व्याख्या महाभारत में मिलती है। उसमें लिखा है कि सत्ययुग के आरंभ में एक ही जाति ब्राह्मण थी और फिर पेशे के भेद से वह भिन्न-भिन्न जातियों में बंटती गई। बस, यही एकमात्र व्याख्या सच और युक्तिपूर्ण है। भविष्य में जो सतयुग आ रहा है उसमें ब्राह्मणेतर सभी जातियां फिर ब्राह्मण रूप में परिणत होंगी।


इसलिए भारतीय जाति-समस्या की मीमांसा इसी प्रकार होती है कि उच्च वर्णों को गिराना नहीं होगा, ब्राह्मणों का अस्तित्व लोप करना नहीं होगा। भारत में ब्राह्मणत्व ही मनुष्यत्व का चरम आदर्श है।... इस समय इस जाति-भेद की प्रथा में जितने दोष हैं उनके रहते हुए भी, हम जानते हैं कि हमें ब्राह्मणों को यह श्रेय देने के लिए तैयार रहना होगा कि दूसरी जातियों की अपेक्षा उन्हीं में से अधिक मनुष्य यथार्थ ब्राह्मणत्व को लेकर आए हैं। यह सच है।... हमें बहुत स्पष्टवादी हो कर साहस के साथ उनके दोषों की आलोचना करनी चाहिए। पर साथ ही उनका प्राप्त श्रेय भी उन्हें देना चाहिए। अंग्रेजी की पुरानी कहावत याद रखो-- "हर एक मनुष्य को उसका प्राप्य दो।" अतः मित्रो, जातियों का आपस में झगड़ना बेकार है। इससे क्या लाभ होगा? इससे हम और भी बंट जाएंगे, और भी कमजोर हो जाएंगे, और भी गिर जाएंगे। एकाधिकार तथा उसके दावे के दिन लद गए, भारतभूमि से वे चिरकाल के लिए अंतर्हित हो गए और यह भारत में ब्रिटिश शासन का एक सुफल है। यहां तक कि मुसलमानों के शासन से भी हमारा उपकार हुआ था, उन्होंने भी इस एकाधिकार को तोड़ा था। सब कुछ होने पर भी वह शासन सर्वांशत: बुरा नहीं था। कोई भी वस्तु सर्वांशत: न बुरी होती है और न अच्छी ही। मुसलमानों की भारत-विजय पददलितों और गरीबों का मानो उद्धार करने के लिए हुई थी। यही कारण है कि हमारी एक पंचमांश जनता मुसलमान हो गई। यह सारा काम तलवार से ही नहीं हुआ। यह सोचना कि यह सभी तलवार और आग का काम था, बेहद पागलपन होगा।


उच्च वर्णों को नीचे उतार कर इस समस्या की मीमांसा न होगी, किंतु नीची जातियों को ऊंची जातियों के बराबर उठाना होगा।...


कल्पना करो कि यहां कुछ जातियां हैं जिनमें हर एक की जनसंख्या दस हजार है। अगर ये सब इकट्ठे होकर अपने को ब्राह्मण कहने लगें तो इन्हें कौन रोक सकता है। ऐसा मैंने अपने ही जीवन में देखा है। कुछ जातियां जोरदार हो गईं और ज्योंही उन सबकी एक राय हुई, फिर उनसे 'नहीं' भला कौन कह सकता है?... शंकराचार्य आदि शक्तिशाली युग प्रवर्तक ही बड़े-बड़े वर्ण-निर्माता थे। उन लोगों ने जिन अद्भुत बातों का आविष्कार किया था वह सब मैं तुमसे नहीं कह सकता और संभव है कि तुममें से कोई-कोई अपना रोष प्रकट करे। किंतु अपने भ्रमण और अनुभव से मैंने उनके सिद्धांत ढूंढ निकाले और इससे मुझे अद्भुत परिणाम प्राप्त हुए। कभी-कभी उन्होंने दल के दल बलूचियों को लेकर क्षण भर में उन्हें क्षत्रिय बना डाला, दल के दल भी धीवरों को लेकर क्षण भर में ब्राह्मण बना दिया। वे सब ऋषि-मुनि थे और हमें उनकी स्मृति के सामने सिर झुकाना होगा।..। ऋषि के क्या अर्थ हैं। ऋषि का अर्थ है पवित्र आत्मा। पहले पवित्र बनो तभी तुम शक्ति पाओगे।


मैंने तुमसे जो कुछ कहा है वह एक सुझाव मात्र है। जिसका उद्देश्य यह दिखाना है कि ये लड़ाई-झगड़े बंद हो जाने चाहिए।... हर एक अभिजात वर्ग का कर्तव्य है कि अपने कुलीन तंत्र की कब्र वह आप ही खोदे ,और जितना शीघ्र इसे कर सके उतना ही अच्छा है। जितनी ही वह देर करेगा, उतनी ही वह सड़ेगी और उसकी मृत्यु भी उतनी ही भयंकर होगी। अतः यह ब्राह्मण जाति का कर्तव्य है कि भारत की दूसरी सब जातियों के उद्धार की चेष्टा करे।


हम जो हजारों वर्षों तक भारत पर धावा बोलने वाले जिस किसी के पैरों तले कुचले जाते रहे, इसका कारण यही है कि ब्राह्मणों ने शुरू से ही साधारण जनता के लिए खजाना खोल नहीं दिया। हम इसीलिए अवनत हो गए।... मैं पहले दिखा चुका हूं कि तुम अपने ही दोष से कष्ट पा रहे हो। तुम्हें आध्यात्मिकता का उपार्जन करने और संस्कृत सीखने से किसने मना किया था?... समाचार पत्रों में इन सब व्यर्थ वाद-विवाद और झगड़ों में शक्ति क्षय न करके, अपने ही घरों में इस तरह लड़ते झगड़ते न रह कर--जो कि पाप है--ब्राह्मणों के समान ही संस्कार प्राप्त करने के लिए अपनी सारी शक्ति लगा दो। जिस समय तुम यह कार्य करोगे उसी क्षण तुम ब्राह्मणों के बराबर हो जाओगे। भारत में शक्ति लाभ का रहस्य यही है।

 


 

... वह कौन सी वस्तु है जिसके द्वारा कुल चार करोड़ अंग्रेज पूरे तीस करोड़ भारतवासियों पर शासन करते हैं।... वे चार करोड़ मनुष्य अपनी-अपनी इच्छाशक्ति को समवेत कर देते हैं अर्थात शक्ति का अनंत भांडार बना लेते हैं और तुम तीस करोड़ मनुष्य अपनी-अपनी इच्छाओं को एक दूसरे से पृथक किए रहते हो। बस यही इसका रहस्य है कि वे कम हो कर भी तुम्हारे ऊपर शासन करते हैं। अतः यदि भारत को महान बनाना है, उसका भविष्य उज्जवल बनाना है तो इसके लिए आवश्यकता है संगठन की, शक्ति-संग्रह की और बिखरी हुई इच्छा शक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की।


देवता इसीलिए पूजे गए कि वह एकचित्त थे, एक मन हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है। और यदि तुम 'आर्य' और 'द्राविड़', 'ब्राह्मण' और 'अब्राह्मण' जैसे तुच्छ विषयों को लेकर 'तू-तू मैं-मैं' करोगे--झगड़े और पारस्परिक विरोध भाव को बढ़ाओगे-- तो समझ लो कि तुम उस शक्ति-संग्रह से दूर हटते जाओगे, जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने जा रहा है।


आगामी 50 वर्ष के लिए यह जननी जन्मभूमि भारतमाता ही मानो आराध्य देवी बन जाय। तब तक के लिए हमारे मस्तिष्क से व्यर्थ के देवी-देवताओं के हट जाने में कुछ भी हानि नहीं है। अपना सारा ध्यान इसी एक ईश्वर पर लगाओ, हमारा देश ही हमारा जागृत देवता है। सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके पैर हैं और सर्वत्र उसके कान हैं। समझ लो कि दूसरे देवी-देवता सो रहे हैं। जब हम इस प्रत्यक्ष देवता की पूजा कर लेंगे तभी हम दूसरे देव-देवियों की पूजा करने योग्य होंगे, अन्यथा नहीं।


 जिसे ग्रहण करने या अपनाने की आवश्यकता है वह है चित्तशुद्धि। और उसकी प्राप्ति कैसे होती है? इसका उत्तर यह है कि सबसे पहले उस विराट की पूजा करो जिसे तुम अपने चारों ओर देख रहे हो, उसकी पूजा करो।


सबसे पहले हमें अपनी जाति की आध्यात्मिक और अलौकिक शिक्षा का भार ग्रहण करना होगा। जो शिक्षा तुम अभी पा रहे हो उसमें कुछ अच्छा अंश भी है और बुराइयां बहुत हैं, इसलिए ये बुराइयां उसके पहले अंश को दबा देती हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि यह शिक्षा मनुष्य बनाने वाली नहीं कही जा सकती। यह शिक्षा केवल तथा संपूर्णत: निषेधात्मक है। निषेधात्मक शिक्षा या निषेध की बुनियाद पर आधारित शिक्षा मृत्यु से भी भयानक है। तीसरी बात है कि तुम्हारे जितने शिक्षक और आचार्य हैं वे पाखंडी हैं। और चौथी बात है कि तुम्हारे जितने पवित्र धर्मग्रंथ है उनमें झूठी और कपोल कल्पित बातें भरी हुई हैं। इस प्रकार की निषेधात्मक बातें सीखते-सीखते जब बालक सोलह वर्ष की अवस्था को पहुंचता है, निषेधों की खान बन जाता है--उसमें न जान रहती है और न रीढ़। शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें ठूंस दी जाएं कि अंतर्द्वंद होने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर पचा न सके। 


यदि बहुत तरह की खबरों का संचय करना ही शिक्षा है तब तो ये पुस्तकालय संसार में सर्वश्रेष्ठ मुनि और विश्वकोश ही ऋषि हैं। इसलिए हमारा आदर्श यह होना चाहिए कि अपने देश की समग्र आध्यात्मिक और अलौकिक शिक्षा के प्रचार का भार अपने हाथों में ले लें और जहां तक संभव हो, राष्ट्रीय रीति से राष्ट्रीय सिद्धांतों के आधार पर शिक्षा का विस्तार करें। 


सबसे पहले हमें एक मंदिर की आवश्यकता है, क्योंकि सभी कार्यों में प्रथम स्थान हिंदू लोग धर्म को ही देते हैं। तुम कहोगे कि ऐसा होने से हिंदुओं के विभिन्न मतावलम्बियों में परस्पर झगड़े होने लगेंगे। और मैं तुमको किसी मत विशेष के अनुसार वह मंदिर बनाने को नहीं कहता। वह इन सांप्रदायिक भेदभाव से परे होगा। इसका एकमात्र प्रतीक होगा 'ऊँ', जो कि हमारे किसी भी धर्म-संप्रदाय के लिए महानतम प्रतीक है। यदि हिंदुओं में कोई ऐसा संप्रदाय हो, जो इस ओंकार को न माने तो समझ लो कि वह हिन्दू कहलाने योग्य नहीं है।...इस मंदिर में वे ही धार्मिक तत्व समझाए जाएंगे जो सब संप्रदायों में समान हैं। साथ ही हर एक संप्रदाय वाले को अपने मत की शिक्षा देने का यहां पर अधिकार रहेगा, पर एक प्रतिबंध रहेगा कि वे अन्य संप्रदायों से झगड़ा नहीं करने पाएंगे।


यह विश्वास रखो कि प्रत्येक की आत्मा में अनंत शक्ति विद्यमान है। तभी तुम सारे भारतवर्ष को पुनरुज्जीवित कर सकोगे।... जीवन की अवधि अल्प है, पर आत्मा अमर और अनंत है, और मृत्यु अनिवार्य है। इसलिए आओ, हम अपने आगे एक महान आदर्श खड़ा करें और उसके लिए अपना जीवन उत्सर्ग कर दें।

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