सुशान्त सुप्रिय की कहानी 'एक उदास सिम्फनी'।
सुशान्त सुप्रिय |
बेरोजगारी ऐसा दंश होती है कि सब कुछ बेगाना सा लगने लगता है। अपने तक पर से भरोसा उठने लगता है। हम खुद पर ही शक करने लगते हैं। अपने तक पराए दिखने लगते हैं। कोरोना ने जीवन के हरेक क्षेत्र को अपनी चपेट में ले लिया है। रोजगार का क्षेत्र सिमटा है। लोग बेरोजगार हुए हैं। प्रवासी मज़दूर अपनी जान बचाने के लिए गाँव घरों को लौट गए हैं। वे गाँव जो पहले से ही दो समय के भोजन की व्यवस्था कर सकने में असमर्थ थे, अब क्या कर सकते थे। सुशान्त सुप्रिय हमारे समय के बेहतर कवि कहानीकार हैं। उनके उम्दा अनुवाद हमें विश्व साहित्य से परिचित कराते रहे हैं। आज कोरोना की दूसरी लहर से हम सब जैसे अवसादित जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। ऐसे में सुशान्त सुप्रिय की कहानी 'एक उदास सिम्फनी' जैसे हमारे इस वर्तमान की एक पेंटिंग बनाती नज़र आ रही है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है सुशान्त सुप्रिय की कहानी 'एक उदास सिम्फनी'।
एक उदास सिम्फनी
सुशांत सुप्रिय
‘रात वह होती है जब तुम सोए हुए हो और तुम्हारे भीतर अँधेरा भरा
हो।’
-- अपनी ही डायरी में से।
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आजकल मेरे लिए सारे दिन रातों जैसे हैं। भरी दुपहरी है। फिर भी चारो ओर अँधेरा है। आकाश लोहे की चादर-सा मेरे ऊपर तना है। भीतर एक अचीन्हा-सा दर्द है। बाहर एक अनाम-सी उदासी है। मेरी जेब ठंडी है। आँखों में अँधेरा है। सीने में फफोला है। दुख मेरे पैरों से लिपटा है। मेरे सिर पर बेकारी का कँटीला ताज है। बेरोजगारी की मार मुझ पर भी पड़ी है। मैं सड़क पर आ खड़ा हुआ हूँ। कहीं कोई नौकरी मुझे नहीं तलाश रही। मेरे चारो ओर एक उदास सिम्फनी-सा बजता हुआ यह समय है। और इस अनिश्चित समय की उपज मैं हूँ।
अब मैं भीड़ में अकेला हूँ। अपनों के बीच एक अजनबी हूँ। समय मुझे बिताता जा रहा है। मैं यूँ ही व्यतीत हो रहा हूँ। मेरा होना भी जैसे एक “नहींपन” में बदलता जा रहा है। लगता है जैसे सारे धूसर और मटमैले रंग मेरे ही हिस्से में आ गए हैं और दिन एक बदनुमा दाग-सा मेरे चेहरे से आ चिपका है। मेरा वर्तमान जीवन के ताल पर फैली हुई काई बन गया है। अब मेरी हर सुबह के भीतर रात की कराहें दफ्न हैं। मेरे तन-मन में हताशा की गंध है। जैसे समय की आँत में एक फोड़ा उग आया है। जैसे एक ब्लैक-होल है, जिसमें मैं गिरता जा रहा हूँ।
कुछ माह पहले तक मेरे पास नौकरी थी। जीवन में हरियाली थी। साथ देने के लिए मेरी प्रेमिका छवि थी। अब बीते दिनों की यादें हैं। अवसाद है। और ठंडा पसीना है। अनायास ही गुलाम अली की गाई हुई एक उदास गजल याद आ जाती है - ‘चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला...।’
शाम के साये गहरे हो रहे हैं। मैं इंडिया गेट से कुछ दूर घास पर बैठा हूँ। एक सिगरेट मुझे कश-कश पी रही है। मेरी आँखों में बुझ चुके सूरज के कुछ उदास कतरे जमा हैं। मेरे बगल में दुग्गल बैठा है। उसकी हालत भी मेरे जैसी ही है। हम दोनो एक ही ऑटोमोबाइल कम्पनी में काम करते थे। अब दोनो बेरोजगार एक साथ सड़क की धूल फाँक रहे हैं। उसे भी मेरे ही साथ कम्पनी से निकाल दिया गया । वजह बताई गई - रिसेशन। आर्थिक मंदी, जिसने हम जैसे सैकड़ों बदक़िस्मत लोगों की नौकरियाँ लील ली हैं।
‘अब कम्पनी सरप्लस-स्टाफ एफोर्ड नहीं कर सकती!’ कम्पनी का सपाट-सा जवाब था।
‘प्रगति मैदान में वर्ल्ड बुक फेयर चल रहा है।’ दुग्गल सूचना देता है। उसे भी मेरी तरह ही पढ़ने-लिखने का शौक़ है। लेकिन हम जानते हैं कि कि हमारी जेबों में किताबें ख़रीदने लायक पैसे नहीं हैं। मैं कुछ नहीं कहता हूँ। दुग्गल सूखे बीज-सी बजती हुई मेरी चुप्पी को सुनता है। फिर उसका बदरंग मौन भी मेरी उस चुप्पी में शामिल हो जाता है।
हमारे चारो ओर शोकगीत-सा कानों में बजता हुआ झुटपुटा है। हमसे थोड़ी दूरी पर दिल्ली का ट्रैफिक बदस्तूर बह रहा है। दिन भर भटकने के बाद अब थकान हम पर हावी है। कुछ देर बाद हम दोनो अपने-अपने दड़बों में लौट जाएँगे।
नौकरी के लिए भटकने का यह सिलसिला न जाने कब तक जारी रहेगा। फिर से गुलाम अली की गाई एक गजल याद आ जाती है - ‘ये दिल, ये पागल दिल मेरा, क्यों बुझ गया, आवारगी ...।’ इसी वजह से आजकल मेरा छवि से भी मिलना-जुलना नहीं हो पा रहा है।
साल भर पहले छब्बे भाई के दफ्तर में पहली बार मैं तीखे नैन-नक़्श वाली एक पतली-दुबली पंजाबी लड़की से मिला था। पूछने पर पता चला कि उसका नाम छवि मिन्हास था। छब्बे भाई आदिवासी लोगों के कल्याण के लिए एक एन. जी. ओ. चलाते हैं। छवि उसी में काम करती है। छब्बे भाई ने बताया कि उसकी रुचि साहित्य में भी थी।
‘तुमने सुरजीत पातर को पढ़ा है?’ शुरुआती बातचीत में ही छवि ने मुझसे पूछ लिया था।
छब्बे भाई ने उसे मेरे बारे में बताया कि ये भी कविताएँ लिखता है।
‘अच्छा! कभी मुझे भी सुनाना।’ उसने कहा था।
धीरे-धीरे हम मिलने-जुलने लगे थे। छवि को मेरी कविताएँ अच्छी लगी थीं। ख़ास करके ‘यह सच है’ शीर्षक वाली मेरी यह कविता - ‘रसोई के चाकू से ले कर परमाणु बम तक सभी अस्त्र-शस्त्र बेमानी हैं, प्रतिदिन हम, उपेक्षा से एक-दूसरे की हत्या करते हैं।’
समय बीतने के साथ-साथ हम दोनो एक-दूसरे की ओर आकर्षित होने लगे थे। कई बार छुट्टी वाले दिन छवि मुझसे मिलने लक्ष्मीनगर में मेरे किराए के मकान पर आ जाती। कभी-कभी वह बहुत बढ़िया छोले-पूरी या राजमा-चावल बना कर मुझे खिलाती और मुझे अपनी कुकिंग का दीवाना बना लेती। या हम कभी-कभी कनॉट प्लेस में मिलते। दिल्ली दरबार या वोल्गा में लंच करते। फिर कैवेंडर से अपनी फेवरिट कसाटा आइसक्रीम खाते। और जनपथ पर यूँ ही टहलते रहते। लोग पूरा बाजार ख़रीद कर अपनी बड़ी-बड़ी गाड़ियों में भर कर अपने घर ले जा रहे होते। मैं भी छवि को अक्सर कोई-न-कोई प्यारा-सा गिफ्ट ख़रीद कर दे रहा होता। लेकिन यह सुखद दिनों की बात थी जब मेरी नौकरी नहीं छिनी थी। हम दोनो कविताओं और कहानियों के बारे में भी चर्चा किया करते। छवि आदिवासियों के कल्याण के बारे में चलाए जा रहे कार्यक्रमों के बारे में बेहद गम्भीर थी। उसका ज्यादातर समय अपने एन. जी. ओ. के काम में ही बीतता था। बाक़ी बचे समय में हम एक-दूसरे के चेहरों में अपने लिए आइना ढूँढ़ते रहते और समय का पता ही नहीं चलता...।
‘चल यार, चलते हैं। देर हो रही है।’ दुग्गल मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहता है। मैं चौक कर वर्तमान में लौट आता हूँ। अँधेरा रात के कोनों को कुतरने लगा है। हवा में ठंड की खनक है। अपने कपड़ों को हाथ से झाड़ते हुए हम घास पर से उठ खड़े होते हैं। इत्तिफाक़ से बस-स्टॉप पर पहुँचते ही मुझे लक्ष्मीनगर की बस मिल जाती है।
‘कल मिलते हैं।’ मैं भीड़ में दबा हुआ अपना हाथ किसी तरह हिला कर कहता हूँ। जवाब में दुग्गल भी अपना ख़ाली हाथ मेरी ओर हिला देता है। जीवन के कैलेंडर के एक और दिन ने मुझे ख़र्च कर लिया है। मेरी आयु में से एक और दिन कम हो गया है। ‘...सीने में जलन, आँखों में तूफान-सा क्यों है? इस शहर में हर शख़्स परेशान-सा क्यों है...?’ बस में किसी ने अपने मोबाइल फोन पर एफ. एम. रेडियो लगा दिया है। सुरेश वाडेकर की उदास आवाज बस में तैर रही है...।
अपने किराए के मकान पर पहुँच कर मैं बिस्तर पर निढाल हो कर गिर जाता हूँ। एक पर-कटे पंछी-सा। तभी बिस्तर पर पड़े मोबाइल फोन पर मेरी नजर जाती है। अपना मोबाइल फोन मैं यहीं छोड़ गया था। उसमें छवि के दस-ग्यारह मिस्ड कॉल पड़े हैं। जहन में स्मृतियों की लहर झनझनाती है। लेकिन छवि से बात करने की हिम्मत नहीं है अभी। बेकारी के इन दिनों में लिखी अपनी ही एक कविता याद आती है। छवि को उसके ई-मेल पर अपनी वही कविता पोस्ट कर देता हूँ। कविता का शीर्षक है “डर”
‘तुम डरती हो
तेजाबी बारिश से
ओजोन-छिद्र से
मैं डरता हूँ
उपेक्षा की नजरों से
अलगाव की टीस से
तुम डरती हो
रासायनिक हथियारों से
परमाणु बमों से
मैं डरता हूँ
बदनीयती के रिश्तों से
धोखे के सर्प-दंशों से
तुम डरती हो
एड्स से
कैंसर से
मृत्यु से
मैं डरता हूँ
उन पलों से
जब जीवित होते हुए भी
मेरे भीतर कहीं कुछ
मर जाता है’।
छवि को अपनी कविता भेज कर मैं आँखें मूँद लेता हूँ। दो मिनट बाद ही मेरे ई-मेल पर छवि का जवाब आ जाता है - ‘कहाँ हो तुम इन दिनों? कल मिलो। और हाँ, ग्रेट पोएम। इसीलिए तो मैं तुम्हारी फैन हूँ, मेरे पोएट-फिलॉस्फर! लव यू। बाय!’
मोबाइल फोन रख कर सोने की अधमरी कोशिश करता हूँ किंतु कानों में कई स्वर बजने लगते हैं -
‘डोंट यू थिंक, यू आर टू ओल्ड नाउ फॉर अ गवमेंट जॉब?’
‘आप अपनी कम्पनी के लिए काम के नहीं होंगे तभी तो उन्होंने आप को नौकरी से निकाल दिया! फिर हम आप को अपनी कंपनी में क्यों रखें?’
‘मिस्टर प्रशांत, यू आर ओवर-क्वालिफाइड फॉर दिस जॉब। सॉरी’...
नींद आँखों के लिए अजनबी बनी रहती है। और तब केवल छवि की यादों का ही सहारा बचता है। जहन में बीते हुए दिनों की फिल्म चलने लगती है ...
अलगनी पर फैले धुले कपड़े-सी थी वह सुबह। उस दिन जब छवि घर आई तो हम दोनो एक मद्धिम आँच में जल रहे थे। अपने-अपने अक्षत कुँवारेपन में दहकते हुए। दो पावन तन-मन एक-दूसरे को ब्रेल लिपि में लिखी अपनी प्रिय किताब-सा उँगलियों से पूरा पढ़ लेने को बेताब थे। हमारा पहला चुम्बन जादुई था। हमारा पहला मिलन तिलिस्मी। उस स्पर्श से हमारे तन-मन में हजारों सूरजमुखी खिल उठे थे। उसके बाद तो हर बार हम एक नई भाषा और नए शिल्प में अपने मिलन की कथा लिखते थे। हम एक-दूसरे को जितना अधिक पीते थे, हमारी प्यास उतनी ही बढ़ती जाती थी।
कभी वह शहद-सी होती, कभी चाशनी-सी, कभी गुड़-सी, कभी गन्ने-सी, कभी खोए-सी, कभी मलाई-सी। कभी वह पायल की झंकार-सी होती, कभी पियानो-सी, कभी वायलिन-सी, कभी माउथ-ऑर्गन-सी, कभी जलतरंग-सी। कभी वह भोर-सी होती, कभी गोधूलि-सी, कभी शिखर-दुपहरी-सी, कभी गुलजार रात-सी। कभी वह शोलों-सी होती, कभी शबनम-सी, कभी सरगम-सी, कभी मधुबन-सी।
हम जितना अधिक एक-दूसरे में डूबते जाते, उतने ही अच्छे तैराक बनते जाते। हमारा तन-मन एक मीठे दर्द से भर जाता। तब उसकी आँखों में उतर आए आकाश का रंग गहरा नीला हो जाता और मेरी आँखों में हहराता समन्दर शीशे-सा पारदर्शी लगने लगता। तब धरती की हरियाली जरा और बढ़ जाती और क्षितिज हमसे बस दो कदम दूर लगता। तब दिन भर गुनगुनाते रहने का मन करता और रात की देह पर गिरी ओस की बूँदें मोतियों-सी चमकतीं। तब हमारे भीतर वसंत की ख़ुशबुएँ महकने लगतीं और एक-दूसरे के भीतर टहलते हुए हम जागती आँखों से सपने देख रहे होते...
हमने तय कर लिया था कि कुछ महीने बाद हम शादी कर लेंगे। हालाँकि हम दोनो के घर वालों ने इस रिश्ते को ले कर ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया था। लेकिन अब मेरी बेकारी की ख़बर को वे किस तरह लेंगे? और छवि क्या सोचेगी जब उसे पता चलेगा कि मेरी नौकरी अब नहीं रही?’ एक तो चेहरा, ऐसा हो, मेरे लिए जो सजता हो...।’ गुलाम अली की गाई हुई एक और गजल याद आ जाती है। क्या छवि एक बेकार, बेरोजगार से भी प्यार करेगी?
आज नींद आँखों के लिए अजनबी बनी हुई है। बिस्तर पर लेटे-लेटे कुछ अजीब-से विचार मन में आने लगते हैं ...
जान, यदि सम्भव होता तो एक दिन मैं तुम्हारे मोबाइल फोन में समा जाता। तुम्हारे कोमल हाथों में रहता। तुम्हारी सुगंधित साँसों के पास आ जाता। तुम्हारे जाने बिना तुम्हारे बालों की लटें सहला जाता। मोबाइल से निकल कर चुपके से तुम्हारे रसीले होठों को चूमता और दोबारा मोबाइल में चला जाता। तुम चैंक जाती। अपने आस-पास मेरी जानी-पहचानी ख़ुशबू पाती। लेकिन मैं तुम्हें कहीं नहीं दिखता। तुम थोड़ा हैरान-परेशान हो जाती। और जब तुम थक जाती, मैं किसी प्यारे रिंग-टोन-सा बजने लगता तुम्हारे आस-पास। तुम उस रिंग-टोन में बजती मेरी आवाज को पहचान कर विकल हो जाती। मुझे अपने चारो ओर ढूँढ़ती पर कहीं नहीं पाती क्योंकि ठीक तभी तुम्हारे मोबाइल के भीतर बैठा मैं तुम्हारे ‘सर्विस-प्रोवाइडर’ से मिलने चला जाता।
जान, यदि यह सम्भव होता तो एक दिन मैं तुम्हारी स्मृति की इमारत में चुपचाप प्रवेश कर जाता। वहाँ बेड-रूम में गद्दे पर मेरा धड़ आराम फरमाता। ड्राइंग-रूम में मेरी आँखें तुम्हारे प्रेम-पत्र पढ़ रही होतीं। रसोई में मेरे हाथ तुम्हारे लिए चाय-नाश्ता बना रहे होते। जूतों में पड़े मेरे पैर पास पड़ी तुम्हारी चप्पलों से गुटर-गूँ कर रहे होते।
उधर मुझे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते तुम मेरे किराए के मकान पर चली जाती। दरवाजे के पास मेरे पैरों के निशान पड़े होते। विकल हो कर तुम मुझे उन निशानों में ढूँढ़ती, पर मुझे वहाँ नहीं पाती। तुम्हारे पास मेरे मकान की दूसरी चाबी है। तुम भीतर आ जातीं। स्टडी-टेबल पर पड़ी क़लम में मेरी उँगलियों की ख़ुशबू होती। तुम मुझे उस ख़ुशबू में ढूँढ़ती, पर मुझे वहाँ नहीं पाती। शेल्फ पर पड़ी डायरी में मेरे जहन के विचार पड़े होते। तुम मुझे उन विचारों में भी ढूँढ़ती, पर मैं वहाँ भी नहीं होता। तब मैं चिल्ला कर कहता -- ‘जानू, इस समय मैं तुम्हारी स्मृतियों में बैठा हूँ।’ लेकिन तुम्हें मेरी आवाज नहीं सुनाई देती। तुम मुझे फोन लगाती पर उस रूट की सभी लाइनें व्यस्त पाती ...
मेज पर पड़ा आज का अख़बार उठा लेता हूँ। हेडलाइन्स चीख़-चीख़ कर बता रहे हैं “देश के हर कोने में किसान आत्म-हत्या कर हैं।” “काउ ब्रिगेड के धर्मांध गायों के बहाने दलितों और मुसलमानों के विरुद्ध दंगे भड़का रहे हैं। महँगाई लगातार बढ़ती जा रही है। आर्थिक मंदी की वजह से ऑटोमोबाइल जैसे देश के कई सेक्टरों का बुरा हाल है। गरीबों की हालत और बदतर होती जा रही है जबकि अमीर और अमीर होते जा रहे हैं। बेकार और बेरोजगार युवा जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। सी. ए. ए. और एन. आर. सी. जैसे क़ानूनों ने देश में आग लगा दी है। इनके ख़िलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं। हर शहर में शाहीन बाग जैसा प्रतिरोध हो रहा है। बची-ख़ुची कसर कोरोना वायरस और लॉक-डाउन ने पूरी कर दी है। गरीब आदमी की कमर ही तोड़ डाली है। ऐसे में सोचता हूँ -- कल जब छवि को पता चलेगा कि मेरी नौकरी अब नहीं रही, कि मेरी जेब में खाने लायक पैसे भी नहीं बचे हैं, क्या वह तब भी मुझसे पहले जैसा प्यार करती रहेगी?
आज नींद नहीं आ रही। रिश्तों की नीली झील में संशय के काले बगुले आ गए हैं। बेचैनी एक भारी शिला-सी सीने पर आ बैठी है। जब रहा नहीं जाता तो बिस्तर से उठ कर बीथोवन का कोई ‘सोनाटा’ लगा लेता हूँ। रात एक उदास सिम्फनी-सी कानों में बजने लगती है। एक धूसर उदासी मेरी शिराओं और धमनियों में घुलती चली जाती है। देह की सभी कोशिकाएँ अवसाद से भर जाती हैं और जीभ पर फटे हुए दूध-सी इस उदास काली रात के क़तरे जमते चले जाते हैं। अपनी डायरी निकाल लेता हूँ और क़लम ख़ुद-ब-ख़ुद चलने लगती है –
‘बीहड़ रातों में जब तुम्हारा सिर फटने लगे, जब यह जीवन तुम्हें
बंजर लगने लगे, जब ख़ुशी एक अंतहीन प्रतीक्षा बन जाए, जब
अपना वजूद तुम्हें एक यातना-शिविर लगने लगे, जब पूर्णिमा का
चाँद भी तुम्हें छटपटाता हुआ लगे, तब समझो - तुम गए काम से।
अब तुम्हारी कोई सुबह नहीं। यदि सुबह हो भी गई तो उसमें कोई
प्रकाश नहीं। यदि प्रकाश हो भी गया तो कहीं कोई चिड़िया नहीं,
यदि चिड़ियाँ आ भी गईं तो तो वहाँ कोई चहचहाहट नहीं, क्योंकि
उन चिड़ियों के पंख ही नहीं। बिना परों और परवाज वाली चिड़ियाँ
भला कौन से गीत गाएँगी? उनके जीवन में चहचहाने लायक बचा
ही क्या होगा?’
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है)
सम्पर्क
सुशांत सुप्रिय
।-5001, गौड़ ग्रीन सिटी,
वैभव खंड, इंदिरापुरम,
गाजियाबाद - 201014
(उ. प्र.)
मो. - 8512070086
सुंदर प्रस्तुति
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