शिवदयाल की कविताएं
शिवदयाल |
हिन्दी के समकालीन सृजनात्मक एवम् वैचारिक लेखन के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर। दो उपन्यास (छिनते पल छिन, एक और दुनिया होती) कहानी संग्रह (मुन्ना बैंडवाले उस्ताद), बिहार पर केंद्रित दो पुस्तकें (बिहार की विरासत'; 'बिहार में आंदोलन, राजनीति और विकास'), लोकतंत्र एवम् राजनीति पर पुस्तक समेत दर्जनों वैचारिक लेख-निबंध, कविताएं, कहानियां, समीक्षाएं आदि प्रकाशित। उपन्यास 'एक और दुनिया होती' के प्रसिद्ध साहित्य-सिने समीक्षक रेखा देशपांडे द्वारा मराठी अनुवाद (केला होता अट्टाहास) सहित कई रचनाओं का मराठी, उर्दू, अंग्रेजी आदि भाषाओं में अनुवाद। रचनाएं अनेक पुस्तकों में संकलित। लगभग दस वर्षों तक जनसत्ता में लेखों का प्रकाशन।
संवेद के रमेशचंद्र शाह अंक का संपादन। दूरदर्शन के लिए बाबू जगजीवन राम पर बनी फिल्म का लेखन। शोध आधारित विकास केंद्रित त्रैमासिक 'विकास सहयात्री', 'बाल किलकारी' सहित अनेक पत्रिकाओं का संपादन। निबंध संग्रह 'भारतीय राष्ट्रवाद की भूमिका' तथा कविता संग्रह 'ताक पर दुनिया' शीघ्र प्रकाश्य।
कविता मनुष्य के महत्त्वपूर्ण और नायाब सृजन कर्मों में से एक है। कविता जो न केवल जीवन के सरोकारों से दो चार होती है बल्कि अपने में दर्शन को भी समेटे सहेजे रहती है। दुर्भाग्यवश आजकल कविता से दर्शन गायब होता जा रहा है। दर्शन जो कविता के प्राण की तरह होता है और जिसको निकाल देने से कविता लगभग निष्प्राण हो जाती है। शिवदयाल की कविताएं पढते हुए हम दर्शन से हो कर भी गुजरते हैं। ऐसी कविताएं अपने पढे जाने के बाद भी मन मस्तिष्क में देर तक गूंजित होती रहती हैं। ‘देहमाटी’ हो या ‘अन्यमनस्क’, ‘नागरिकता’ हो या ‘पगडंडी’, ‘छिलके’ हों या ‘ड्राप आउट’शिवदयाल की हर कविता सोचने के लिए विवश करती है। लम्बी कविता ‘बगुले और तबेले’ का वितान निःसंदेह बडा है और वह ठहर कर पढे जाने की मांग करती है। आइए आज पहली बार पर पढते हैं शिवदयाल की कविताएं।
शिवदयाल की कविताएं
बगुले और तबेले
ताल में नहीं
तबेले में उतर रहे थे
बगुले
उनकी पीली चोचों में
मछलियाँ नहीं
कीलनियाँ भरी थीं
जो उन्होंने मवेशियों की
देह से खुरच कर निकाली थीं
उनके नथुनों में
गीली मिट्टी नहीं, सड़ते पानी और
गोबर की गंध भरी थी
बगुलों की आदतें बदल गई थीं
बदल गई थीं भंगिमाएँ
गई पीढ़ी के बुजुर्ग देखते
तो देखते रह जाते
दाँतों में अंगुली दबाए
कि बगुलों की चाल निश्शंक थी
एक टाँग पर देर तक
दम साधे खड़े रहने का
उनका कौशल जाता रहा था
ध्यान लगाने का न उनके पास धीरज था
न दरकार, और भगतई का तो
कोई प्रयोजन ही नहीं रह गया था
- नई पीढ़ी के बगुले
अपने बड़ों से जिसके बारे में सुनते
बड़े हो रहे थे ...
बगुलों की आदतें बदल गई थीं
जीने का तरीका बदल गया था
वे तैरना भूल गए थे
कहीं-कहीं उथले चहबच्चों में
बस उनके पीले, बल्कि धूसर पंजे भर डूबते थे
जिनमें उनके बच्चे कौतूहल से
‘छपाक’की आवाज निकाल कर खुश हो लेते थे
अब तो उन्हें
पानी में गर्दन डुबाने की
कल्पना करके भी भय लगता था
बगुलों के बच्चे भारी विस्मय से
ताल-तलैयों की कथा बाप-दादाओं,
से उनके बाप-दादाओं के बारे में सुनते थे
कि कैसे कोस भर की ऊँचाई से वे
ताल के तल में सोनबचवा मछली देख
बिजली की गति से गोते भी लगा लेते थे
और चोंच में छटपट करती मछली को दबाए ही
बाहर आते थे भींगे पाँख झटकारते ....
बुजुर्ग बताते कि आसमान से
ताल कितने नीले नजर आते
मानो धरती पर आसमान ही उतर आता था साक्षात्!
बच्चे सोचते ताज्जुब से -
पानी का रंग नीला? कितनी लंबी हाँकते हैं बूढ़े भी!
और फिर अदद मछली के लिए इतना खतरा मोल लेना ...!
मछलियाँ क्या इन रसीली कीलनियों से
अधिक स्वादिष्ट होती होंगी
चिपटी रहती हैं जो मवेशियों की चमड़ी से,
जिनसे जान छुड़ाने को कान आगे कर वे
मानो अम्यर्थना करते हैं हमारी
हुँह! बूढ़ों की ऐसी की तैसी
खामख्वाह हमें छोटा बनाने, हममें
हीन भावना भरने की कोशिश करते रहते हैं
बगुलों के पाँखों की सफेदी
ढल गई थी
उनमें सन के फूलों की जो गीली चमक होती थी
वह जाती रही थी
सूरज की किरणें बगुलों के परों से टकरा कर
पहले की तरह चकाचौध नहीं पैदा करती थीं
उनमें जज्ब हो जाती थीं
उनके डैनों की लम्बाई जैसे घट रही थी
या क्या पता उन्हें पूरा खोलने की नौबत ही नहीं थी
यह उनकी लम्बी उड़ानों का जमाना नहीं था
दूरियाँ मानो सिमट आई थीं,
या कि आकाश में उनके लिए
जगह तंग हो गई थी
बगुले अब निस्सीम, निरभ्र आकाश को ताकते भर थे
फेंफड़ों में वे अपनी उतनी ही हवा खींचते थे
जितने में पास खड़े मरियल-से मझौले नीम से उतर कर
तबेले में आ सकें, और फिर वापस तबेले से नीम पर ....
तबेले की छप्परों से सरकंडे खींच
वे नीम पर घोंसले बनाने की कोशिश करते जबकि
कुछ कुनबों ने पास की इमारतों में
भूले-बिसरे छूटी जगहों पर आबाद होना भी शुरू किया था
कूड़ेदानों के आस-पास उनका कलरव चलता रहता
चील-कौवे, कठफोड़वे, मैनाएँ और पंडुक
यह काम पहले ही शुरू कर चुके थे
उनके बच्चे तो पेड़ों को अपना निवास मानते ही नहीं थे
पेड़ों पर रहना, घोंसले बनाना उन्हें असुरक्षित और खतरनाक लगता था
बगुलों और भवनों-अट्टालिकाओं के बीच
अभी तबेले मौजूद थे
जहाँ केवल आहार नहीं, आश्रय भी था -
धूप-हवा और यदा-कदा की बारिश से बचने का ठिकाना
बूढ़े यह समझते थे और यही समझाने की कोशिश करते
कि अभी उनके शरणागत मत होवो
जब तक बन सके इन मत्र्य, नश्वर तबेलों में रहो
पुरखों का कुछ तो मान रहे ....
गजब की बात थी यह
कि बुजुर्ग बगुले अमरत्व और अनश्वरता से
भय खाते थे, बल्कि घृणा करते थे
उन्होंने प्रत्यक्ष देखा था कि कैसे इनसे
सृजन और पल्लवन की संभावना मिटती जाती है
वे अपने चारों तरफ उगी, फैली-पसरी
ठोस और कठोर अमत्र्य संरचनाओं को
जुगुप्सा से देखते थे
और अपने पुरखों के आद्रता-सम्पन्न जीवन
और उनकी दिशा-अन्वेषी उत्तुंग उड़ानों की याद कर
इनके ऊपर या अगल-बगल से उड़ते
यथासंभव, यथाशक्ति इन पर बीट मार कर
अनिर्वचनीय सुख की उपलब्धि करते थे, बल्कि
अपनी संतानों को भी इसके लिए प्रेरित करते थे
बुजुर्ग बगुले जो नहीं जानते थे
वह यह कि तबेले आस-पास उगते
फैलते-पसरते-ऊँचे उठते भवनों-निलयों का ही
विस्तारित हिस्सा थे - उन्हीं की छाया में पलते
उन्हीं पर आश्रित
जिनकी देह से लगी कीलनियाँ गटकते वे जिन्दा थे
उन मवेशियों के दूध पर वहाँ बच्चे पल-बढ़ रहे थे
आसमान जितना भी बचा था उसे अपनी जद में लेने को....
वास्तव में
ताल से तबेले के इस संक्रमण में
बगुलों का समर्पण हो चुका था, पहले ही
- मनुष्य-सभ्यता के समक्ष -
पूरा, सम्पूर्ण समर्पण!
क्या पता बगुले इसे जान रहे हों
मान नहीं रहे हो...
वास्तव में सृष्टि आरम्भ होने के बाद
मनुष्येत्तर जीव की
यह सबसे बड़ी छलांग थी - एक युग से दूसरे युग में,
जो बगुलों ने लगाई थी - अपनी उत्तरजीविता के लिए
- ताल से उठ कर तबेले में गिरना!
अन्यमनस्क
उसने फूल देखा
और नहीं देखा
उसने समंदर में नदी देखी
नदी में आसमान
आसमान में चांद देखा
और नहीं देखा
उसने सुबह में शाम देखी
और शाम में जब शाम देखी
सुबह कब की
जा चुकी थी
सब देखा अनदेखा करके
उसने सब अनदेखा देखा
देह माटी
'मैं माटी की मूरत
मुझे कोई समझ नहीं पाया'-
जाते हुए माँ ने कहा था, देह छोड़ते
हर माटी की मूरत को तब से
अबोध बच्चे की तरह देखता हूँ
एक अबूझ, आत्मवान देह की तरह
दिखती है माटी की मूरत
जिसके आगे माथा झुक जाता है
अपने-आप!
मैं अब जानता हूँ
कि भले आप समझ न पाएँ
लेकिन माटी की मूरत को भी
समझे जाने की दरकार होती है!
*
अश्व और आरोही नहीं है
देह और आत्मा
रथ और रथी नहीं हैं ....
अश्व बचा रहता है
दूसरे आरोही के लिए
रथ हाँक सकता है
कोई और रथी
देह में
एक ही आत्मा रहती है
एक ही आत्मा के लिए
मिलती है देह....!
*
देह हमारा होना है
अपने होने को
हम कितना कम जानते हैं
जबकि सब प्रयत्न
सब पुरुषार्थ इसी से
सारी सिद्धियाँ, सब प्राप्तियाँ
इसी के लिए
लेकिन हमें नहीं पता ठीक-ठीक
अपनी एक कोशिका का भी हाल-
कैसे हम देहवान....
देह ही को तो
जानने को नहीं कहा था भगवान ने -
हे पार्थ, आत्मवान बनो!
*
कैसी यह दुनिया
बनाई विधना ने...
जो रहा सब देह का
जो बना सब देह के लिए
और रह जाता है यह सब
बच जाता है सब लब्ध-अलब्ध
छूट जाती है देह ....
*
देह ही तो जीते
जीतने वालों ने ...
आज तक
जो हारे-देह से हारे
देह के लिए हारे
जो झुके, देह के लिए झुके
सब अकरणीय करवाया
इस नश्वर देह ने
जो बचे, देह के लिए ही बचे
आगे इसी के लिए बचे रहेंगे
देह है तो संसार है - अच्छा-बुरा जैसा भी!
*
तुम एक तिनके का
भरोसा कर सकते हो
कि वह तुम्हें उबार लेगा
तुम जाती हुई हवा
बहते हुए पानी के लौट आने का
विश्वास कर सकते हो
लेकिन इस देह का नहीं -
अपने ही स्व का
सबसे अविच्छिन्न अंग
स्थूलीकृत सेन्द्रीय रूप
जिसकी टेक पर टिका है
तुम्हारा संसार ....
अपरिमित दुःख
अकल्पनीय कष्टभोग का
कारण बन सकती है, अकारण
यह तुम्हारी सहेजी-सँवारी हुई
छलिया देह!
*
देह सिरजती है देह
देह प्यास है
देह परितृप्ति
देह की अग्नि
देह में ही शमित
समय की यात्रा देह की यात्रा
आयु नहीं देह बीतती है, देह!
*
बाहर देखने के लिए
भीतर देखा
बीतती हुई देह में
फैलता हुआ ब्रह्मांड देखा
जानने वाला
देह को जान कर
सब कुछ जान लेता है।
नागरिकता
अपने इस देश में
मैं एक नागरिक की तरह
नहीं सोच पाता
नहीं, मुझे एक नागरिक की तरह
सोचने-विचारने नहीं दिया जाता
- यह कहना ज्यादा सही होगा
मैं जैसे एक नहीं
अनेक नागरिकताओं में जीता हूँ
मेरी एक नागरिकता
अनेक जाति-समुदायों की नागरिकताओं में
विभाजित हैं, बिखरी हुई है
मेरी हिन्दू नागरिकता को
संकट में डाल देते हैं मुसलमान
और क्रिस्तान
लगता है चले आ रहे हैं
मुझ ‘पैगन’, ‘असभ्य’को खत्म करने
ये एक किताब एक ईश्वर वाले
पारसियों व यजीदियों की याद कर
सिहरता रहता हूँ
मेरी गैर-हिन्दू नागरिकता भी
संकटापन्न दिखाई देती है -
चारों ओर किस्म-किस्म के
खतरों से जूझती, क्षत-विक्षत होती ...
मेरी सवर्ण नागरिकता
आक्रांत रहती है दलितों-पिछड़ों से जो
मालूम पड़ता है
मेरी हस्ती मिटा कर ही दम लेंगे
मेरी ‘पिछड़ी’ नागरिकता को
सख्त चुनौती पेश हो रही है
ये अगड़े और दलित
बढ़त रोकने पर आमादा हैं
जो मुश्किल से हासिल हुई है
मुझ दलित को लगता है
जैसे किसी को नहीं सुहाती
यह थोड़ी-सी जगह
पाँव धर कर सीधे खड़े होने के लिए
पूर्वज जिसके लिए जनम-जनम
आसमान ताकते रहे ....
हाय री दिनोंदिन विस्थापित होती
और सिकुड़ती जाती
मेरी आदिवासी नागरिकता!
जिस सभ्यता से कभी कुछ नहीं माँगा
उसे मेरा सब कुछ चाहिए
मुझे उजाड़ कर ही
उसे फैलना-पसरना है ....
मैं सोचता हूँ
मुझे फिर भी अपनी
एक नागरिकता पर टिकना ही चाहिए
अलग-अलग नागरिकताओं में
आवाजाही बंद कर, क्योंकि
दिख रहे हैं आपस में लड़ते-जूझते
मुसलमानों में भी कितने मुसलमान
हिन्दुओं में भी कितने हिन्दू
ईसाइयों में ईसाई ....
पहचानों के अंदर टकराती पहचानें ...
मुझे नहीं सोचना चाहिए
कि हिंदू हूँ, मुसलमान हूँ
अगड़ा-पिछड़ा-दलित-आदिवासी हूँ
यजीदी और पारसी हूँ
सोचूँ और तय करूँ
जो प्रथमतः और प्राथमिकतः हूँ-
एक व्यक्ति
एक मनुष्य
और यह फौरन करना होगा
क्योंकि ये सब के सब
बढ़े आ रहे है -
ये सब अस्मिताएँ
और नागरिकताएँ
मुझे ही निगलने को
समूचा और पूरा का पूरा!
मुक्तिदाता
वह हँसता है
जब हँसने की बात होती है
वह हँसता है
जब हँसने की कोई बात नहीं होती है
और यह हँसने की ही तो बात है
कि हँसने की कोई बात ही न हो ।
इसी तरह से साधा है उसने ख़ुद को
वह कभी भी
किसी भी बात पर हँस सकता है
उसके लिए अवसर, स्थान, देश-काल परिस्थिति की कोई सीमा नहीं
दुःख संताप रोग शोक
पीड़ा कष्ट और भोग
यह सब भी उसके हँसने के बहाने हैं।
उसे न कोई पागल कहता है
न दीवाना
वह हँसता है और उसके पीछे
लोग हँसते चले जाते हैं
हँसी में मानो मुक्ति है
और वह बना हुआ है मुक्तिदाता!
कैसा डरावना दृश्य है यह
कि उसके अट्टहास का
कहीं कोई आतंक नहीं
और जो डरे हुए भी हैं
उसके हँसने के साहस पर
वे भी हँस रहे हैं।
पगडंडियाँ
पंक्ति में
एक के पीछे एक चलते
बनती है पगडंडी
साथ-साथ
समांतर चलने के लिए
बनानी पड़ती है सड़क
जहाँ होती है होड़
आगे निकलने की
पहले पहुँचने की
पगडंडी बनती है
अनुगमन से
पीछे चलने वाला
अकुंठ, समर्पित भाव से
पीछे-पीछे चलता जाता है
आगे चलने वाला
आगे चलने का श्रेय नहीं लेता
निष्काम, निरभिमान
वह चलता चला जाता है
आश्वस्त कि यों एक के पीछे एक
चलकर भी
पहुँचना तो साथ-साथ ही है!
सड़क पर चलते
सब साथ-साथ हैं
पहुँचते सभी अकेले-अकेले हैं ...
पुरखों ने बनाई थीं
पगडंडियाँ
हमने पगडंडियों को
सड़कों में तब्दील किया
साथ-साथ चलते
हम अकेले-अकेले पहुँच रहे हैं
न जाने किन अनजान
अनचिन्हे हलाकों में
और खोज रहे हैं पगडंडियाँ
जिधर से हो कर
पुरखे गुजरे थे,
जो वास्तव में कहीं से शुरू हो कर
कहीं तक भी पहुँच सकती हैं...
ड्राप आउट
सोचा था
तुम पर लिखूँगा एक कहानी
खूब सोचा जब इस बात पर
तो पाया
तुम तो कविता का विषय हो
ए सरिता!
तुमसे भी कहा था
वादा किया था मैंने
कि लिखूँगा जरूर एक कहानी
कि कैसे बनती फिरती है
एक छोटी-सी किशोरवय लड़की
गाँव भर की नानी
लेकिन मेरे कहन पर
भारी पड़ती है तुम्हारी नादानी,
और वह कौतुकपूर्ण विश्वास-
‘हमें भी जरूर बताइएगा चाचा - !’
ओह, मैं कैसे पिरोऊँ कथा में यह सब -
जैसे कि
खेल-खेल में तुम जो
इतने सारे काम करती जाती हो -
रोपनी, सोहनी, कटनी, दँवनी
तुम्हारी देह-भंगिमाओं में
व्याख्यायित होता है ऋतु-चक्र
तुमने मास्साहब को कैसे छकाया
और स्कूल जाने से इनकार कर दिया
चारा ढोते कैसे सीधी की
कितकित की उलटी गोटी -
मैं कैसे लिखूँ
कैसे कहूं कि
भुअरी गइया की बाछी की
आखिर तुम लगती कौन हो!
तुम तो हो
स्कूल से ‘ड्राप आउट’
और लिख सकती हो
बस स से सरिता
लेकिन यह तो बताओ
कि गाँव भर के जनावर
और चिरई-चुरुँग
कैसे समझ लेते हैं तुम्हारी भाषा?
कागज चबाती बकरी
मुर्गियों पर झपट्टा मारता कुत्ता
आपस में सींग लड़ाती गऊएँ
क्यों झट मान लेते हैं तुम्हारी बात?
तुमने आखिर
कौन-सी पढ़ाई पढ़ी है
ए सरिता
तुम पर लिखी जा सकती है
सिर्फ कविता !
सच सरिता,
किसी कथानक में नहीं समाते
तुम्हारे नन्हें-नन्हें सरोकार
जिनसे चलता है वास्तव में
जगत का जीवन-व्यापार!
* कवि के गाँव शीतलपुरा की एक बच्ची
सोमालिया
मरते हो तो मरो
साबुत इंसान से
कंकाल में तब्दील होते हुए मरो
भूखी आँतों में
गोलियाँ खाते हुए मरो ...
मगर मुझे,
मेरे होने को क्यों भेजते हो लानत?
ओ दूर देश में बसने वाले
कृष्णकाय लोगों?
जब मैं
सुबह की चाय पर
अखबार देख रहा होता हूँ
तुम्हारी भूख से गलती
और गोलियों से बिंधती देह
किस बात का हिसाब माँगती है ?
या कि शाम की शराब से पहले
अपने चमचमाते जूते के फीते
खोल रहा होता हूँ
तुम्हारे तलवों के नीचे
कि तपती मिट्टी और सिर पर
गिद्धों के डैनों की छाया
क्यों भर देती है अकस्मात
मेरी शिराओं में
बर्फीली सिहरन?
और जब बत्तियाँ बुझा कर
बहुत मीठे सपनों को
आमंत्रित करता
सोने की तैयारी कर रहा होता हूँ
तो क्यों सहसा पड़ जाता हूँ
उधेड़बुन में कि
दुनिया में जितना अन्न पैदा होता है
उसका कितना हिस्सा
चूहे हजम कर जाते हैं?
भूख और घृणा के महा-अलाव में सिंकते
मेरी ही धरा के सहवासियो
देखो,
मुझे बख्श दो!
मैं कर भी क्या सकता हूँ
तुम्हें एक इंसानी गरिमा से पूरित
मृत्यु देने के लिए!
छिलके
एक बार
छिलकों को
यह गुमान हो गया
कि वे प्याज हैं
क्योंकि उनसे ही प्याज है!
उन्होंने अलग-अलग होने की, अर्थात
अलग-अलग प्याज होने की
ठान ली, ठान ही ली....
ऊपरी चमकीले छिलके को
हवा उड़ा ले गई
कुछ धूप में सूख कर
सिट्टी बन गए
कुछ को बकरियां चर गई
बाकी रौंदे गए...
न प्याज रहा न छिलके बचे...!
गिरूंगा तो
आजकल चीजें
संभल नहीं रहीं
छोटी से छोटी चीज भी
अक्सर हाथ से छूट जाती है
पकड़ ढीली पड़ रही है
- यह अहसास डिगा रहा
अब तक बड़ी मुश्किलों
और संघर्षों से अर्जित
अपने पर बना भरोसा
कहीं खुद को
संभाल न सका तो
गिरूंगा न जाने किन
खाई-खंदकों में
फिर कौन उठाने वाला है मुझ गिरे को
उसी तत्परता से
जैसे कि मैं
झट-से उठा लेता हूं
हाथ से छूट कर
जमीन पर गिरी चीजें...
और मेरे गिरने की
आवाज भी कहां होगी....
ओसारा
वह घर
कभी घर नहीं लगा
जिसमें एकदम से
हो जाते हैं अंदर
और अंदर से
एकदम बाहर
अंदर और बाहर का
संधि स्थल है ओसारा
अंदर और बाहर आ कर मिलते हैं ओसारे में
बाहर से आए तो
जरा देर पसीना सुखा लिया
और बाहर निकलते-निकलते
थोड़ा रुक कर
मौसम का मिजाज पढ़ लिया
वैसे भी उचटे मन को
ओसारे का आसरा रहता है
ओसारा
न कोरा स्याह है
न कोरा सफेद
धूसर रंग वाला यह
वह इलाका है जहाँ
अन्य रंगों के लिए संभावनाएँ जनमती हैं
यह जीवन जैसे बिना ओसारे का घर
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
शिवदयाल
ए1/201, आर के विला,
महेश नगर, पटना-800024.
मोबाईल - 9835263930
शिवदयाल की ये कविताएं अद्भुत हैं , चमत्कृत करती हैं। इन कविताओं में हमें कवि की संवेदनशीलता, सूक्ष्म दृष्टि और गहरे चिंतन का दिग्दर्शन होता है। आजकल की अधिकतर कविताएं दल विशेष के नारे और घोषणपत्र होती हैं मगर शिवदयाल की कविताएं इन सबसे भिन्न हैं। उनकी यही विशेषता कवि को भीड़ से अलग करती है जो महत्वपूर्ण और बड़ी बात है।
जवाब देंहटाएंबहुत मायनीखेज कवितायें! एक अलग अंदाज में, गहन वैचारिकता और संवेदना के साथ।
जवाब देंहटाएंअद्भुत कविताएं
जवाब देंहटाएंनिःशब्द हूं मैं शिवदयाल जी की कविताएं पढ़कर। कविताओं में संवेदना ओं की अद्भुत अभिव्यक्ति के साथ-साथ गहन चिंतन भी है।
जवाब देंहटाएंगम्भीर और अद्भुत कविताओं के कलेक्शन की एक अलग दुनिया दिखती है।
जवाब देंहटाएंRenu Mandal
जवाब देंहटाएंनिः शब्द हूं मैं शिवदयाल जी की कविताएं पढ़कर। कविताओं में संवेदना ओं की अद्भुत अभिव्यक्ति के साथ-साथ गहन चिंतन है जो उनके काव्य को उत्कृष्टता प्रदान करता है
गहन संवेदनाओं से परिपूर्ण अद्भुत भाव-बोध की कविताएँ।
जवाब देंहटाएंVery heartfelt and deep - reflections of what we see but usually don’t empathise. Many favourites - but special mention to “pagadandi”. It calls out to where we are and how we are.
जवाब देंहटाएंआप सभी मित्रों के प्रति आभार!
जवाब देंहटाएं- शिवदयाल