आबिदा अल ख़लीकी की कहानी 'स्वर्ग की राह'
आबिदा अल ख़लीकी |
आबिदा अल ख़लीकी का जन्म 1965 में जोमबंग, पूर्वी जावा, इंडोनेशिया में हुआ था। अब तक उनके 9 उपन्यास, दो कहानी संग्रह और एक कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनके उपन्यास Perempuan Berkalung Sorban पर बनी फिल्म को अत्यधिक सराहा गया है और उसे कई पुरस्कार भी प्राप्त हुए हैं। आबिदा के साहित्य में स्त्रियों, खासकर बहुपत्नी प्रथा और घरेलू हिंसा की शिकार स्त्रियों को आवाज़ मिलती है जो आज भी इंडोनेशियाई समाज में सीमांत पर पड़ी हैं।
पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियाँ दोयम दर्जे का जीवन जीने के लिए अभिशप्त होती हैं। पुरुष उन्हें अपनी संपत्ति समझते हैं और सम्पत्ति की तरह ही व्यवहार करते हैं। हमारे यहाँ तो पत्नी को जोरू कहने की परम्परा ही है और उसे जार और जमीन के साथ अरसे से रखा जाता रहा है। यह एक तथ्य है कि दुनिया भर में घरेलू हिंसा का अधिकाधिक शिकार ये स्त्रियाँ ही होती हैं। ये अपने उत्पीड़क मर्दों के साथ रहने की नियति लिए आती हैं और कष्टमय जीवन बिता कर इस दुनिया संसार को अलविदा कह जाती हैं। आबिदा अल ख़लीकी इंडोनेशिया की रचनाकार हैं। एक स्त्री होने के नाते उनकी रचनाओं में स्त्रियों के उत्पीड़न का रेखाचित्र जैसा मिलता है। आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं आबिदा अल ख़लीकी की कहानी 'स्वर्ग की राह'। इस कहानी में भी उस घरेलू उत्पीडन की सघन व्यथा है जिसे स्त्रियाँ जीती ही नहीं हैं बल्कि जीने के लिए अभिशप्त हैं। इस कहानी का अनुवाद किया है प्रख्यात अनुवादक श्रीविलास सिंह ने।
स्वर्ग की राह
आबिदा अल ख़लीक़ी
(इण्डोनेशिआई भाषा से अंग्रेजी में अनुवाद- जॉन एच मैकग्लेन )
जब मेरी माँ की मृत्यु हुई उनका चेहरा परिवर्तित हो गया। सबसे पहले इस ओर मेरा ही ध्यान गया। जब परिवार के अन्य सदस्य और मित्र उन्हें श्रद्धांजलि देने आये तो जो कुछ मैंने उनकी आँखों में देखा वह था अविश्वास; कोई भी विश्वास नहीं कर सका कि मृतक मेरी माँ ही थी। मेरे भाई ने भी, जिसने तीन वर्षों से माँ को नहीं देखा था, उनके शव को देखते ही सीधे सीधे घोषणा कर दी कि मृतक हमारी मौसी थी, मेरी माँ के परिवार की सबसे युवा लड़की। डॉक्टर और नर्स, जिन्होंने अस्पताल में मेरी माँ की देखभाल की थी, वे भी आश्चर्यचकित थे; कोई अपनी आँखों पर विश्वास नहीं कर पा रहा था।
कमरे के सबसे दूर वाले कोने में मैं अकेली खड़ी माँ के शव को देखने आने वालों के चेहरों पर आने वाले भाव देख रही थी। उनके तात्कालिक भावों से मेरे लिए यह अनुमान लगाना आसान हो गया था कि कौन उन्हें प्यार करता था और कौन नहीं। मैं मुस्करायी, निश्चित रूप से, जब मुझे इस तथ्य की प्रतीति हुई कि उन्हें देख कर केवल एक व्यक्ति ही ने अपने होंठ टेढ़े किये थे - कोई और नहीं बल्कि मेरे पिता।
मेरे हृदय में टेलीफ़ोन की घंटी सी बजी “वे ईर्ष्यालु थे, अत्यधिक ईर्ष्यालु,” एक असम्बद्ध सी आवाज़ ने कहा। अपने होठों पर एक फ़रिश्ते की सी मुस्कान के साथ मेरी माँ बहुत युवा दिख रहीं थी, मानो वे उस समय में वापस चली गयी हों जब वे एक युवा महिला थी, उस दिन जब आज से बीस वर्ष पूर्व उनका विवाह हुआ था।
“यह मेरा वास्तविक चेहरा है,” माँ धीरे से फुसफुसाई “एक दुल्हन का, उसके विवाह की रात का चेहरा।” वे मज़बूती से और दृढ-निश्चय के साथ बोलीं : “.... रात, जो एक शानदार पार्टी के साथ मौन खड़ी मस्जिद के बिलकुल सामने स्थित हमारे नए घर में शुरू हुई किंतु जिसका अंत शारीरिक चोटों और पीड़ादायक स्मृतियों के साथ हुआ।”
वे बिना हिचकिचाए कहती रहीं, उस क्षण विशेष को याद करती हुई जिस क्षण से पीड़ा उनके जीवन का अंग बन गयी : मेरे चेहरे की यही मुस्कराहट थी जिसके कारण उसने मुझे मारा, इस मुस्कान ने उसके भीतर कभी न बुझने वाली ईर्ष्या की अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी, जिसके कारण उसने बुरा भला कहा और सुहागरात को बलात मुझे अपनाया - केवल इसलिए कि मैंने तहज्जुद, आधी रात के बाद की नमाज़ पढ़ी थी, उस मस्जिद में जो हमारे घर के ठीक सामने थी।
सीधी लड़ाई की स्थिति को भाँप कर, मैंने पाया कि मेरी देह काँपने लगी थी। तब ऐसा सदैव होता था जब मेरी भावनाएं अत्यधिक उत्तेजित होती थी। मैंने अपने भीतर एकाएक एक अग्नि, पीड़ा की एक लहर और अपने सीने में जोर की धड़कन सी महसूस की। तब मैंने अपनी माँ के लिए पहली बार आँसू बहाये।
अपने परिवार के पाँच बच्चों में मैं अकेली लड़की थी। सम्भवतः इसी कारण मैं अपनी माँ के साथ भावनात्मक समानता सी महसूस करती थी जब कि हम पांचों एक ही कोख से उत्पन्न हुए थे – अत्यधिक संपन्न हाजी क़ामिल की चौथी बीवी की कोख से।
लोग मेरे पिता को सम्पत्तिवान कहते थे और हम, उनके बच्चे, उनके इस वैभव में आकंठ डूबे हुए थे; हम एक ऐसी सामाजिक अनुभूति में डूबे हुए थे जो व्यक्ति, उसकी पत्नी और उसके बच्चों में भेद नहीं करती। हम सभी अपने सुदर्शन, शक्तिशाली और प्रसिद्ध पिता की संपत्ति के अंश के रूप में देखे जाते थे।
मैं अपने पिता के पास गयी। “क्या आपने कुछ देखा पिता? आपने अपनी भौंहें क्यों टेढ़ी की थी?”
“ ओह, हाँ, मैंने कुछ देखा था, तुम्हारी माँ की देह के सम्बन्ध में कुछ विचित्र। संभवतः बीमारी के कारण उसकी भौतिक देह में परिवर्तन आ गया हैं।”
“डॉक्टर ने बताया था कि माँ को ब्रेन हेमरेज़ हुआ था। क्या उसने बिलकुल साफ नहीं कहा था ? बहुत से लोग हेमरेज से मरते हैं मगर मैंने इसके किसी शिकार के रूप-आकार में परिवर्तन होने की बात कभी नहीं सुनी।”
“क्या पता! तुम्हारी माँ विचित्र थी...... और अब उसका इस तरह मुस्कुराना, मौत के बाद भी।”
“मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। मेरे लिए माँ की मौत उनके योग्य है और उनकी दशा दुखमय होने से बहुत बेहतर है। यह भी कह सकते हैं कि यह उनके लिए ख़ुशी ले कर आयी है। उनकी मुस्कान देखिये। क्या आपने पहले कभी इतनी सुन्दर मुस्कान देखी है। फ़िल्मी परदे पर भी नहीं।”
“तुम क्या बात कर रही हो? और फिर तुम्हें पता भी क्या है ? तुम बस एक नकचढ़ी बच्ची भर हो !”
“मुझे पूरा निश्चय है कि माँ एक अच्छी मौत मरी हैं - जैसा कि कहते हैं - हुस्नुल ख़ातिमा (जीवन का खूबसूरत पटाक्षेप)।”
“हुंह ! जाओ और कुछ काम करो ; अपनी मौसी का हाथ बटाओ ! जाओ !”
“लेकिन मैं यहाँ माँ के पास रहना चाहती हूँ। मेरे लिए उनके पास रहने का यह आखिरी मौका है। मैं उनके लिए प्रार्थना करना चाहती हूँ पिता।”
जब एम्बुलेंस आयी तब भी हम तनाव में थे लेकिन मैं किसी को, पिता को भी, खुद को अपनी माँ से अलग करने देने की छूट देने वाली नहीं थी।
“तुम एक औरत हो; तुम में उतनी मज़बूती नहीं है। एम्बुलेंस में मैं बैठूंगा,” मेरे बड़े भाई ने मुझसे कहा।
“मैं पर्याप्त मजबूत हूँ” मैंने ज़िद की। “पूरे समय जब माँ अस्पताल में थीं, मैं उनके पास रही। जरा देखो ! मैं उनके साथ साथ तब तक मुस्कुराती रहूँगी जब तक वे उनके स्थान तक नहीं पहुंच जाती।”
“किसके स्थान तक ?” मेरे भाई ने हक्का बक्का होते हुए पूछा।
“निश्चय ही उस जगह नहीं जहाँ के बारे में तुम सोच रहे हो।”
“तुम और तुम्हारी बकवास !” उसने बुदबुदाते हुए कहा और मुझसे दूर चला गया।
“और तुम मेरी सारी बकवास के योग से भी अधिक मूर्ख हो।” मैंने खुद को विश्वास दिलाते हुए अपने आप से कहा।
आखिर में मैं और मेरी मौसी एम्बुलेंस में माँ की पार्थिव देह के साथ बैठे। चूँकि यह रात का समय था इसलिए ट्रैफिक कम था और योगजकार्ता से जोमबांग की यात्रा में मात्र पाँच घंटे लगे। यात्रा के दौरान मौसी अपनी सीट पर लगभग सोती रहीं। मैं झपकी लेने और जागने की कोशिशों के बीच प्रार्थना करती रही।
एक समय मैंने अपनी कलाई घड़ी की ओर देखा और पाया कि सुबह के साढ़े बारह बज रहे थे।
“हाँ, इक्कीस वर्ष पूर्व तब रात के ठीक साढ़े बारह बजे थे जब मैंने घर से बाहर कदम रखा था,” माँ ने कहा। “उस रात्रि मैंने मस्जिद को जाने वाले दरवाज़े को खोलने हेतु लगभग अवश सी उत्कंठा का अनुभव किया था। मैंने शीघ्रता करने की कोशिश की मानों वह वहाँ मिहराब के नीचे पहले से ही मेरे लिए प्रतीक्षारत हों जहाँ मैं मक्का की ओर मुंह करती और प्रार्थना करती। अपनी शिथिलता से शर्मिंदा, मैं तेजी से मस्जिद की सीढ़ियां चढ़ गयी। प्रार्थना में मैं दण्डवत हुई, कई बार; एक बार के बाद फिर एक बार, उनकी दृष्टि के समक्ष, मैंने धरती से अपना मस्तक लगाया। कितनी देर वहां विनत रही, मैं कह नहीं सकती। लेकिन कोई भी उनके साथ बिताये गए समय की गणना नहीं करता। परंतु उसके बाद, जब मैं अपने नए घर को वापस लौटी और ज्यों ही मैंने दरवाज़े के भीतर कदम रखा, एक ज़बरदस्त ठोकर ने मेरी हवा निकाल दी - कालांतर में पड़ने वाली अनेक चोटों में पहली चोट, उस घृणा से उपजी हुई जिसकी सघनता निरंतर बढती ही गयी।”
मेरा मुंह खुला का खुला रह गया। मैंने सोचा मेरी माँ की नियति की पुस्तक में देवत्व के लिए सब कुछ संभव था। लेकिन मेरी आँखें धुंधला गयी थी और मेरी माँ के भाग्य को उसकी सम्पूर्णता में उद्घाटित हो पाने हेतु मैं पर्याप्त उत्सुक नहीं थी। माँ, एक व्यक्ति, जो एक ही समय में इतनी अंतरंग फिर भी इतनी दूर थीं ...... कितने अच्छे तरीके से उन्होंने अपनी गुप्त चोटें छुपा रखी थीं। अपनी उदार दयालुता और सर्वविदित धैर्य के साथ।
“अपने पाँव का निशाना ठीक करते हुए तुम्हारे पिता ने कहा था क्या तुम सोचती हो कि तुम्हीं अकेली मुस्लिम हो ! क्या तुम सोचती हो कि तुम्हीं अकेली ईमान वाली हो! अच्छा सुनो, आज से मैं तुम्हारा शौहर हूँ। मैं किसी और के मुकाबले तुम पर अधिक अधिकार रखता हूँ। और जहाँ तक तुम्हारी बात है, तुम किसी अन्य की बजाय अब केवल मेरे आदेशों का पालन करोगी। और तुम्हारी वफ़ादारी बिना शर्त केवल और केवल मेरे प्रति होगी। कुछ आया तुम्हारी समझ में?”
“लेकिन जब मैं मस्जिद गयी आप ताश खेल रहे थे........”
“चुप करो! मैं तुम्हारे साथ बहस नहीं करूँगा, औरत !”
“और इस प्रकार मैं चुप हो गयी,” माँ ने सरलता से कहा, “और अगले बीस वर्षों तक मैंने अपना मुंह बंद रखा। केवल तुम्हारे पिता को बोलने का अधिकार था। मैं गूंगी थी, शब्दहीन, जीवन के स्वप्नों को गुजरते हुए देखती, मैं सन्नाटे की एक दुनिया में जीती हुई जो इतनी ही डरावनी थी जीतनी कि मौत की कटार की नोक। मैं तुम्हारे पिता का शिकार थी। प्रत्येक घंटे के प्रत्येक क्षण का अर्थ था आदर्श शिकार होने के सम्बन्ध में उनके निर्देशों को याद करना - और वध को जाते हुए मधुरता से मुस्कराते रहना। और अब मैंने उनका सपना पूरा कर दिया। मैं तुम्हारे पिता की कुर्बानी का पशु हूँ; वे सोचते हैं मैं उनके लिए मरी हूँ।
यह तभी हुआ जब उन्होंने मुझे एकाएक इस तरह मुस्कराते हुए पहली बार देखा। तब उन्हें एकाएक भान हुआ कि मेरी मुस्कराहट वही थी जो मेरे चेहरे पर बीस वर्ष पूर्व मस्जिद से लौटते हुए थी - उस क्षण के पूर्व जब उन्होंने मुझे पीटना शुरू किया था। अगले दो दशकों तक वे इसी मुस्कराहट को ढूंढते रहे जो इस समय मेरे होठों पर है। वे इसके लिए रात दिन उत्कंठित रहे और इसके स्वप्न देखते रहे। लेकिन जो कुछ भी उन्होंने पाया वह बेकार कल्पना मात्र थी क्यों कि मेरे होंठ तो सूख चुके रक्त से बंद हो गए थे, रक्त जो मेरे मुंह से तब उबल पड़ा था जब उन्होंने अपनी खुरदरी उँगलियां मेरे मुंह पर जकड दी थी।”
माँ ने मुझसे आगे बात करने के पूर्व एक गहरी साँस ली : “क्या तुम्हें पता है कि इस समय क्या समय हुआ है, नहीं पता है? ठीक, इस समय सुबह के साढ़े बारह बजे हैं। मेरे दुल्हन बनने की उस रात के बाद की प्रथम माह की रातों में मैंने भी वही तीव्र उत्कंठा महसूस की, जो कितनी भी मात्रा में बल का प्रयोग कर के नहीं रोकी जा सकती थी - उनके समक्ष उपस्थित होने, उनके सम्मुख प्रार्थना करने की उत्कंठा। मेरी उत्कंठा ने सभी सीमाएं और बंधन लाँघ दिए। मेरे समर्पण और प्रार्थनाओं पर आने वाली तुम्हारे पिता की मुस्कराहटें ही थी जो इसे रोकने में सक्षम थी। अपने सुहाग-कक्ष के एक कोने में मैं बार बार फर्श पर अपना सिर झुकाती और अपनी सुमिरनी को एक लय में गिनती रहती जो हमारे सृजनकर्ता के संग मेरी गहन अंतरंगता की गवाही देती थी।
“संभवतः मैंने जोर से आह भरी थी और इस वास्तविकता को नहीं समझ पायी थी कि औरों के कानों में भी यह आवाज़ पड़ चुकी थी और मेरे अपने ही इस बात से बुरी तरह ईर्ष्या की आग में जल उठे थे । जिसकी लपटें इतनी ऊँची उठी कि उनके समक्ष तुम्हारे पिता का धीरज, हृदय और मस्तिष्क सब पराजित हो गए ...... और मैं कमरे में लटकी हुई उनकी मगरमच्छ की खाल की बेल्ट को किस प्रकार भूल सकती हूँ जिसे उन्होंने उठाया और मेरी पीठ पर बरसाया, दसियों बार, हो सकता है सैकड़ों बार। मेरे मौन ने उनके भीतर की ईर्ष्या की आग को और जंगली तरीके से भड़काया। मैं बेहोश हो जाती थी और तब तक होश में नहीं आ पाती थी जब तक सुबह की प्रार्थना की ध्वनि मेरे कानों में नहीं पड़ती थी।”
कुछ समय के लिए माँ ने कुछ नहीं कहा। उनकी आँखें दूर आसमान में लगी हुई थी और उनके होठों पर स्वर्ग के फरिश्तों की सी एक मुस्कुराहट तैर रही थी।
“निश्चित रूप से तुम जानना चाहोगी कि उसके बाद क्या हुआ,” मेरी माँ ने कहा। “हो सकता है तुम्हारे पिता सच में सोचते रहे हों कि मैं पागल थी। और सोचते भी क्यों न? सबसे विचित्र बात यह थी कि उनके द्वारा दिए गए तमाम कष्टों और पीड़ाओं के बावजूद उस महान के लिए मेरी उत्कंठा और अधिक सघन ही हुई। मेरे लिए यह सहन करना अत्यंत कठिन था। हर साँस, हर धड़कन उनका चेहरा मेरे और करीब ले आयी। मैं कई बार विचित्र और अस्थिर सी रहती थी। जब मैं खाना बना रही होती, मैं नीचे देखती कि जो मछली मैं तल रही थी वह जल कर कोयला हो चुकी थी। अथवा रात्रि में मानो मैंने दरवाज़े के खटखटाने की आवाज़ सुनी हो, मैं उठ कर किवाड़ खोल देती पर वहां कोई नहीं होता था। मेरे व्यवहार और कार्यों से तुम्हारे पिता को विश्वास हो गया कि मैं मनहूस हूँ। वे अक्सर सोचते थे कि मैं बुरी आत्माओं के प्रभाव में हूँ।”
मैं माँ की बाँह थपथपाना चाहती थी लेकिन नींद मेरे ऊपर अधिकार कर चुकी थी।
“यह उस दिन की बात है जब तुम्हारे पिता किसी काम से घर से बाहर जा रहे थे। सुबह का समय था, लगभग नौ बजे थे जब मैंने नियमित स्नान इत्यादि के पश्चात् उनसे संवाद की अपनी इच्छा पूरी की। मेरी प्रार्थना इतनी सघन थी और मैं इस प्रकार सज़दे में झुकी हुई थी कि जब तुम्हारे पिता घर वापस आये मैं उनकी कार की आवाज़ नहीं सुन पायी। प्रत्यक्षतः उनसे सच में मिलने जाने से पूर्व वह मेरी अंतिम बंदगी थी अंतिम प्रार्थना। मेरे सिर पर किया गया वार, पोर्सेलिन की चमकती टाइलों वाले फर्श पर मेरे नाज़ुक सिर का टकराना, सब इतना कठोर था मानों एकाएक तड़ितपात का सा विस्फोट हो गया हो, जिसकी परछाई मैंने तुम्हारे पिता की आँखों में तब देखी जब उन्होंने मुझे गले से पकड़ कर ऊपर उठाया और तब तक नहीं छोड़ा जब तक मैं फर्श पर लगभग निर्जीव अवस्था में गिर नहीं गयी।
“और फिर क्या हुआ माँ?”
“एकाएक सब ओर अंधेरा छा गया। स्याही की सी कालिमा लिए हुए। सारा संसार सन्नाटे में डूब गया। लेकिन तब दूर कहीं एक अविश्वसनीय उजाला प्रकट हुआ, चमकदार और स्थिर। यह प्रकाश का रथ था, सात चंद्रमाओं की आभा से घिरा हुआ, मेरे स्वागत को आता हुआ - किसी बच्चे की कल्पना की भांति। और मैं मुस्कुराने लगी, एक ऐसे जादूगर के चमत्कार से अभिभूत, लाखों कवि मिल कर भी जिसका वर्णन नहीं कर सकते। उस रथ ने जो दूरी तय की वह अत्यंत सूक्ष्म लगी - मेरे सुहाग-कक्ष और मेरे घर के सामने की मस्जिद के मध्य की उस दूरी से अधिक नहीं जिसे मैंने बीस वर्ष पूर्व पार किया था - और वह मुझे उनके सिंहासन के समक्ष ले गया। वहीँ मैंने सर्वाधिक परिपूर्ण प्रेम पाया, जो कि अब मेरे होठों की मुस्कुराहट में प्रतिबिंबित हो रहा है।
क्या तुम्हारे पिता का उनके प्रति ईर्ष्यालु होना उचित था?” माँ ने चिंतन सा करते हुए कहा।
एम्बुलेंस सैकड़ों फरिश्तों की शक्ति के साथ आगे भागी जा रही थी। बादलों से घिरे, जल से भरे आसमान के नीचे मैंने अपने आँसुओं को छिपाने की कोशिश की। लेकिन तभी प्रेम के गुलाब खिल उठे और मेरा हृदय गर्व से भर उठा। प्रेम का सागर, मेरी माँ, स्वर्ग कितना, कितना पास है - बस तुम्हारे पैरों के तलवे के नीचे। अलविदा, माँ। प्यारे ईश्वर ! अपने प्रेम पगे हाथों से उनका स्वागत करो। आमीन।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)
सम्पर्क
श्रीविलास सिंह
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Mobile : 8851054620
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