मंगलेश डबराल की टिपण्णी नागार्जुन : जहरीखाल वाले बाबा

 

मंगलेश डबराल


 

वाचस्पति-परिवार की घरेलू पंचायती डायरी से कवि मंगलेश की हस्तलिपि में जहरीखाल-यात्रा और नागार्जुन बाबा से वहाँ उनकी भेंट-मुलाकात का वृत्तांत यहाँ प्रस्तुत है। वाकया यह है कि जून 1986 ई. में बाबा नागार्जुन 75 वर्ष के हुए थे। "जनसत्ता" के विशिष्ट परिशिष्ट के लिए कवि मंगलेश डबराल आलोचक कर्ण सिंह चौहान के साथ उत्तराखंड में लैंसडाउन के ग्राम्यांचल जहरीखाल आए। और वहाँ वाचस्पति की पंचायती डायरी में बाबा के लिए यह दर्ज किया। इस पोस्ट के लिए हम वाचस्पति जी के आभारी हैं। मूल हस्तलिपि पंचायती डायरी से ही ली गयी है जो हमें वाचस्पति जी के सौजन्य से प्राप्त हुई है।

 

मंगलेश डबराल : जन्मदिन 16 मई पर विशेष

 

 

नागार्जुन : जहरीखाल वाले बाबा   

 

 मंगलेश डबराल

 

जहरीखाल : 12.06.1986,

 

हमारे पहाड़ों की तरह ही प्राचीन हैं बाबा। उन्हीं की तरह मोहक, बीहड़ और अनगढ़। लीलाधर जगूड़ी के (कुछ अच्छे) शब्दों में कहूँ तो, "जिसने पहाड़ नहीं देखा वह मेरा (यहाँ बाबा का) चेहरा देखे।" जहरीखाल के इन विराट पहाड़ों से गुज़रते हुए मैं यही सोच रहा था - बाबा के बारे में कि बाबा ठीक-ठीक कोई एक पहाड़ हैं, जो हर मौसम में अपनी नयी संवेदना के साथ होता है। सर्दियाँ हों तो साफ़ और उज्ज्वल, वसन्त हो तो उमगता हुआ, गर्मी में धुन्ध और रहस्य के पार टटका, सीधा और रहस्यमय, बारिशों में "पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश।" लेकिन हर बार, हर मौसम में वह पहाड़ है। जैसे हर वक़्त हमें देखता हुआ, हमें बताता हुआ कि मैं तुम्हारे साथ हूँ।

 

 


 

एक अफ्रीकी लोक कविता कहती है कि सामने के पहाड़ पर ईश्वर बैठा हुआ तुम्हें देखता रहता है। (वाचस्पति  डा. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल के पैतृक गाँव पाली के ऊपर चोटी पर खड़े एक अति विशाल चीड़ के पेड़ की तरफ उँगली से इशारा कर के कहता है कि बाबा उस-शायद सौ-डेढ़-सौ फुटे - पेड़ की तरह हैं।) कल जब डा. कर्ण सिंह चौहान के साथ मैं कोटद्वार से लैंसडौन आ रहा था तो यह बात मेरे मन में लगातार आ रही थी। हम लोग जहरीखाल पहुंचे, वाचस्पति और उनकी अद्भुत पत्नी शकुन्तला से मिले। फिर कुछ देर बाद बाबा के दर्शन हुए। वे लेटे हुए थे। जैसे लेटा हुआ पहाड़। पर क्या पहाड़ लेटता है? हाँ, सभी पहाड़ लेटे होते हैं। उनका लेटना हमें उनका खड़ा रहना दिखाई देता है। वे इस संसार के शिखर होते हैं। उन पर बर्फ़ पड़ती है और वे बर्फ़ को झाड़ देते हैं।

 


 

कर्ण  सिंह चौहान ने बाबा से हाथ मिलाया, जैसे पुराने कामरेड से मिलने पर मिलाते हैं। वहाँ लगा, क्रांतिहीन और कांतिहीन कामरेडों के इस भारतीय समाज में बाबा अकेले सच्चे कामरेड हैं, जिन्होंने क्रांति के महास्वप्न की उम्मीद में अनेक दल, अनेक संगठन बदले हैं। यही सच्ची क्रांति है। क्रांति की उम्मीद ही क्रांति है। तमाम वामपंथी संगठन क्रांति की उम्मीद, उसका स्वप्न खो चुके हैं, सिर्फ़ क्रांति के शब्द उनके पास रह गये हैं। बाबा के पास उसकी आत्मा है।

 

 

ऐसे बाबा से मैं क्या बात करूँ? निगाह भी उनसे कैसे मिलाऊँ? पर मुझे बात करनी थी। बाबा ने अस्वस्थता के बावजूद इसके लिए हाँ की।

 


 

 

आज हम लोग इस जहरीखाल की उन जगहों पर गये, उन चट्टानों पर बैठे जहाँ बाबा बैठते रहे। वे जगहें इस जगह की सबसे अच्छी जगहें थीं - इस मानी में कि वहाँ से जहरीखाल के आसपास के दृश्य सबसे ज़्यादा दिखते थे। यही बाबा की चेतना है। वे कहीं भी हों, वहाँ से ज़्यादा से ज़्यादा देख लेते हैं। 

 

 

 

शकुंतला शायद बाबा को सबसे ज़्यादा समझती हैं। वह बाबा के बारे में इस तरह बताती हैं जैसे कोई अपने पिता के बारे में बताये। वह नागार्जुन जी की सुयोग्य पुत्री हैं। मुझे कहीं लगता है कि बाबा में जो जीवनी-शक्ति है, जो बुनियादी ढंग का आंतरिक जीवन है, वह गुण कहीं शकुंतला जी के जीवन में भी है।

 

 

 

हिन्दी के मरघिल्ले कवियों से मिलने पर एक सड़ी हुई, सरकारी शान्ति का अनुभव होता है। बाबा से मिलने पर "बेचैनी, संदेह, उलझन, भ्रांति" होती है। यही उनकी बुनियादी सच्चाई है। उनका व्यक्तित्व और उनकी कविता, दोनों आपको बेचैन कर देती हैं। मैंने बाबा से यही सीखा है कि अपनी बेचैनी को बचाओ। यही चीज़ चीज़ों को बदलेगी।

 

 

 

ऐसे बाबा को, हमारी हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि को अभी पच्चीस साल और जीने की शुभकामना।

 

 

बाबा ज़िन्दाबाद! 

 

वाचस्पति और शकुन्तला ज़िन्दाबाद!

 

       

मंगलेश डबराल

13-06-1986

83-बी, सेक्टर-4, पुष्प विहार

नयी दिल्ली

 

 

प्रस्तुति : वाचस्पति, वाराणसी

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