हेरम्ब चतुर्वेदी का आलेख 'अकबर इलाहाबादी और उनका गाँधीनामा'

 

अकबर इलाहाबादी

 

साहित्यकार वह कलाकर्मी होता है जो अपनी कलम से अपने समय को रेखांकित करता है। जमीन से जुड़ाव रखने वाले साहित्यकार की रचनाएँ कालजयी होती हैं। अकबर इलाहाबादी ऐसे ही रचनाकार थे जिनकी अपने समय के नब्ज़ पर पकड़ थी। उन्होंने गाँधी के महानायकत्त्व को पहचानते हुए 1919 से 1921 के बीच 'गाँधीनामा' लिखा। अकबर अंग्रेजी सत्ता के मुलाजिम थे फिर भी उनका मानना था कि 'इनसे इनकी तरह नहीं दिमाग से जीतो।' कहना न होगा कि गाँधी के पास वह दिमाग था। सत्याग्रह और असहयोग की नीति पर अमल करते हुए गाँधी जी ने उन अंग्रेजों को अन्ततः मात देने में कामयाबी पायी जिनके बारे में यह मिथक आम था कि अंग्रेजों के राज में सूर्यास्त नहीं होता। अन्ततः हिन्दुस्तान में अंग्रेजों के शासब का सूर्य डूब ही गया।  भारतीय इतिहास में 1919 से 1947 तक के काल को 'गाँधी युग' की संज्ञा दी जाती है। 

 

अकबर इलाहाबादी ने अपनी कलम से अपना लोहा मनवाया। यह अकबर ही थे जो उस समय लिख रहे थे कि - 'खींचों न तीरों को, न तलवार निकालो। जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो।' वे कलम की ताकत को भलीभांति जानते थे। क्या यही यह वजह नहीं कि भारत के लगभग हरेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ने कोई न कोई पत्र जरूर निकाला। जिसने पत्र नहीं निकाला वह इन पत्रों में लिखता जरूर था।

 

असहयोग आंदोलन के सौ साल पूरा हो रहे हैं। इस विशेष अवसर पर हम प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी का आलेख 'अकबर इलाहाबादी और उनका गाँधीनामा' पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। यह आलेख मधुमती के हालिया अंक में प्रकाशित हुआ है।

 

 

अकबर इलाहाबादी और उनका गाँधीनामा

 

 

हेरम्ब चतुर्वेदी

 

 

इलाहाबाद बसाने वाले का नाम भी इत्तेफ़ाक से अकबर ही था और अपने फ़सानों या रचनाओं में खुद को ‘इलाहाबादी’ कहने वाला शायर भी अकबर ही था – ‘अकबर इलाहाबादी’! अकबर 1857 की क्रान्ति या पहली जंगे-आज़ादी के भी ग्यारह साल पहले पैदा हुए थे और उनकी किशोर आँखों ने वो मंज़र देखा था। तब से ले कर सरकारी महकमों में नौकरी करते हुए कचहरी में नक़ल-नवीस फिर वकील फिर मुंसिफ़ फिर जिला जज तक हुए – इस दौरान अंग्रेज़ हुकूमत के हर रंग-ढ़ंग को बहुत करीब से देखा और समझा था। इसीलिए उनके अश‘आरों को पढ़ने-समझने के ढ़ंग से बहुत फर्क अंदाज़ में हमें “गाँधीनामा” को देखना होगा।

 

 

वैसे यह भी सच है कि अगर ऐसे बेहतरीन शायर, ज्ञानी एवं अनुभवी व्यक्ति और कानून के विशेषज्ञ, अकबर इलाहाबादी के “गाँधीनामा” पर लिखा जाए तो एक लेख में उनके फ़लक को समेटना कठिन ही नहीं नामुमकिन ही होगा। फिर भी कोशिश करेंगे कि साफ़ तौर पर स्थापित हो सके कि जो अकबर ने “गाँधीनामा” लिखा वह क्यूँ लिखा? क्या सरकार के खौफ़ से इसे कोई छापने को तैयार नहीं था या अकबर एक न्यायाधीश की आचार-संहिता खुद बना कर उसको निभा रहे थे? एक बात और, गाँधी के “सत्य” और “अहिंसा” के वे भी कायल थे वरना आँख की कमजोरी की वजह से स्वेच्छा से नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद भी जज एकरमन की सेवानिवृत्ति के बाद उच्च न्यायालय में जजी का लालच भी उनके निर्णय को डिगा नहीं पाया? ऐसी सत्यनिष्ठा को जब अमली जामा पहनाया जाता है तभी तो वह “सत्याग्रह” होता है! कितना साम्य था अकबर इलाहाबादी और गाँधी में! शायद इसीलिए अकबर ने इतनी परिपक्व और बड़ी रचना “गाँधीनामा” लिखी!

 

 

वैसे यह समझ आता है कि अकबर की यह महत्वपूर्ण कृति गाँधी जी के हिंदुस्तान वापस आने के बाद ही नहीं बल्कि दिसम्बर, 1919  के बाद और अकबर साहब के इंतकाल यानि सितम्बर 1921 के बीच में लिखी गयी है। हमें इस काल-खंड को अच्छे से समझना चाहिए तभी हम “गाँधीनामा” के भाव को समझ पायेंगे। हिंदुस्तान में इसी बीच सांप्रदायिक आधार पर 1905 में बंगाल का विभाजन जैसी कुत्सित चाल अंग्रेज़ चल चुके थे और ‘स्वदेशी’ के साथ ‘क्रान्तिकारी’ गतिविधियाँ शुरू हो गयीं थीं और अंग्रेज़ परेशान होने के बावजूद उन्हें दबाने में काफी सफल भी रहे थे? फिर आया 1909 का काला कानून, जिसमें सांप्रदायिक निर्वाचन मंडलों के जरिए इसे हवा दी गयी। भले ही 1911 में बंगाल विभाजन निरस्त करना पड़ा हो फिर भी 1919 के अधिनियम ने प्रतिनिधित्व वाली सरकार कायम करने के नाम पर इस सांप्रदायिक निर्वाचन मंडलों के प्रावधान को प्रांतीय स्तर और म्युनिसिपेलिटी आदि के चुनावों के जरिये बिलकुल घर-घर पहुँचाने की चाल चली थी!

 

 

ज़ाहिर ही अकबर सब देख समझ रहे थे मगर अपनी नौकरी और एक न्यायाधीश की हैसियत से वे चाह कर भी सरकार के खिलाफ सड़क पर तो नहीं उतर सकते थे मगर हम जानते हैं कि वे कलम से विरोध करते रहे और उसकी वकालत भी अपने अशारों, नज़्मों, गजलों में करते रहे, जैसा कि “कुल्लियाते-अकबर” के चारों खण्डों को पढ़ कर सहज अनुमान हो भी जाता है। बस एक मिसरा ही काफी है उनके इस मिजाज़ के उदाहरण के लिए, जब वे कहते हैं: “जब तोप हो मुकाबिल तो अख़बार निकालो!” कितना साम्य है गाँधी और अकबर की सोच में – इनसे इनकी तरह से नहीं दिमाग से जीतो! अकबर के सामने गाँधी के ‘असहयोग आन्दोलन’ की शुरुआत हो चुकी थी और अकबर की पैनी नज़र बहुत दूर तक देख रही थी कि अब क्या होगा? मगर इससे पहले अकबर गाँधी का असर रौलेट एक्ट के विरोध, जालियाँवाला बाग़ काण्ड और उसके बाद उसी साल 1919 में हुए अमृतसर के कांग्रेस के अधिवेशन पर गाँधी के बढ़ते प्रभाव के रूप में देख चुके थे। हम जानते हैं पं. जवाहर लाल नेहरु के पिता पं. मोती लाल नेहरु ने इस अधिवेशन की अध्यक्षता की थी मगर कांग्रेसी प्रतिनिधि और बाहर का जनसैलाब सिर्फ़ गाँधी को सुनने को आतुर था!

 


 

 

इसके बाद जब 1920 में अखिल भारतीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन कलकत्ता में हुआ तब गाँधी केंद्र में आ चुके थे। वे इस अधिवेशन में कांग्रेस का नया जनतांत्रिक संविधान तो लाये ही; साथ ही भारतीय लघु और कुटीर उद्योग को पुनः खड़ा करने की नियत से खादी का पहनावा लाये और राष्ट्रवाद की बुनियाद की मजबूती के लिए हिन्दुस्तानी भाषा का उपयोग सर्वमान्य किया गया और जिन्ना जैसे परिष्कृत और आंग्ल लिबास, संस्कृति और भाषा वालों के लिए कांग्रेस अब असहज जगह होने लगी थी और वे दूरी बनाने लगे थे। इतना ही नहीं इसी साल (1920) में मुस्लिम लीग की एक अहम् बैठक भी इलाहाबाद में सय्यद रज़ा अली के घर पर हुई थी जिसमे मौलाना शौकत अली भी मौजूद थे। यानि अकबर से कांग्रेस हो या मुस्लिम लीग किसी की सियासत बची नहीं थी उनकी पैनी नज़र सब तरफ थी! इतना ही नहीं हमें यह भी दिमाग में रखना चाहिए कि संयुक्त प्रान्त की राजधानी जो 1857 की क्रान्ति के बाद आगरा से इलाहाबाद आई थी अभी यहीं पर ही थी। इलाहाबाद आंग्ल सत्ता का एक प्रमुख केंद्र था इसीलिए अकबर मुल्क की पूरी सियासत और उस पर सरकार बहादुर की प्रतिक्रिया को न केवल देख रहे थे बल्कि उसकी नब्ज़ पर अपनी उंगली का घेरा बनाये, सब कुछ जान रहे थे! इसीलिए वे “गाँधीनामा” के बिलकुल शुरू में जो उद्घोष करते हैं हम उस पर ही अपना ध्यान केन्द्रित कर के अपनी बात कहना चाहते हैं या यूँ कहें कि अकबर को समझने की एक कोशिश करना चाहते हैं!

 

 

“गाँधीनामा” की शुरुआत समझते ही हमें वो पूरा परिवेश समझ आने लगता है जो इस महत्वपूर्ण कृति में संदर्भित है। इसके तेवर को तो इसके पहले ही लव्ज़ से समझा जा सकता है – “इंकलाब”! वे अपने अध्ययन और अनुभव के साथ दुनिया भर के इतिहास या तारिख से वाकिफ़ थे और इंकलाब का मतलब जान कर इस लव्ज़ से “गाँधीनामा” की शुरुआत की थी। “इंकलाब” वैसे भी महज़ कोई नारा नहीं है और एक निहायत पढ़े-लिखे और तज़ुर्बेकार इंसान के लिए तो हरगिज़ नहीं? उनके लिए यह अपने-आप में एक पूरी क्रांति है – व्यवस्था बदलने का निहायत नया अंदाज़। दुनिया में इससे पहले जितनी भी क्रांतियाँ हुईं वे सब रक्त-रंजित या खूनी ही रहीं हैं। इस लिहाज़ से भी यह क्रांतियों की तारीख़ में भी गाँधी का ‘अहिंसक आन्दोलन’ एक इंकलाब ही था। जैसा वे आगे खुद लिखते हैं गाँधी बिना हथियार के – ‘अहिंसा’ से यहाँ इंक़लाब लाना चाहते हैं! दुनिया की तारीख़ में यह वाकई अजूबा था – एक ‘इंकिलाबी इंकलाब’!

 

 

गाँधी के भारत लौटने से पहले दक्षिण अफ्रीका में ‘अहिंसा’ के सफल प्रयोग और परीक्षण और उनके इंकलाब के तरीके और उसकी उपलब्धि से अकबर इलाहाबादी भली-भाँति वाकिफ़ थे। वे जानते थे कैसे अपने सिद्धांतों पर डटे रह कर दो दशकों तक लड़ते हुए मजबूत औपनिवेशिक सत्ता को ‘अहिंसा’ के तरीके से वे वहाँ पर हरा कर आये हैं। हिंदुस्तान में भी वही सत्ता काबिज़ थी और उसके वही रंग-ढ़ंग थे जिससे अकबर अपनी मुलाज़मत के दौरान खुद जान-समझ चुके थे। इसीलिए शायद वे गाँधी, उनके इंकलाब और उसकी कामयाबी के प्रति भी आश्वस्त हैं! तभी वो पहला ही मिसरा, “इंक़लाब आया नयी दुनियाँ नया हंगामा है,” जैसे क्रांति के उद्घोष के साथ ही वे उसकी सफलता का भी परचम लहराने का ऐलान कर देते हैं! तो ये है शुरुआत अकबर इलाहाबादी के “गाँधीनामा” की!

 

 

इस पहले ही मिसरे के इस ऐलान के पीछे उनकी तालीम, उनके तज़ुर्बे के साथ उनकी तारीख़ी समझ, गहन अध्ययन और गहरी अदीबी शख्सियत को समझना पड़ेगा तब उस व्यापक फ़लक को समझ सकेंगे जो इस पहले मिसरे में इशारा है! हमें याद रखना है कि वे ‘नई दुनिया’ की बात कर रहे हैं। नई दुनिया की क्रांतियाँ या इंक़लाब की कामयाबी तभी तय होती है जब आप उसके लिए पूरी तरह से तैयार हों? यानि जो व्यवस्था बदलनी हो उसके एवज़ में जो वैकल्पिक व्यवस्था है उसका पूरा खाक़ा तैयार हो, सिर्फ़ ज़ेहन या मुँह-जुबानी ही नहीं बल्कि जिसे हम “ब्ल्यू प्रिंट’ कहते हैं, उस तरह से! गाँधी के इंक़लाब का ‘ब्ल्यू प्रिंट’ न केवल तैयार था अपितु वह दूर दक्षिण अफ्रीका की प्रयोगशाला में कामयाब भी हो चुका था! हिंदुस्तान में भी उन्हीं शक्तियों और उन्हीं मुद्दों से टकराना था इसीलिए अभी गाँधी का पहला बड़ा आन्दोलन – “असहयोग आन्दोलन” शुरू भर हुआ था और अकबर साहब उसके कामयाब होने की इबारत ही एक तरह से लिख गये। हमें याद रखना होगा कि अकबर इलाहाबादी सितम्बर 1921 में गुज़र भी गये थे।

 

 

जिस शख्स को तारीख़ी इल्म या इतिहास का ज़बरदस्त ज्ञान होगा वही तो इंक़लाब की वास्तविकता को समझेगा कि नई दुनिया में फ्रांसीसी क्रांति (1789) इसीलिए सफल हुई थीं क्योंकि न केवल वहाँ इंक़लाब की तैयारी थी बल्कि इंक़लाब के बाद क्या व्यवस्था होगी वह वैकल्पिक व्यवस्था भी तैयार थी। इस विकल्प के बिना इंक़लाब सिर्फ़ ‘बगावत’ करार कर दिया जाता है। यह दर्द उनको था क्योंकि उनके किशोर मन ने 1857 की क्रान्ति की असफलता और उसके परिणामों का दंश झेला था और यह कहीं बहुत गहरे उनके अवचेतन को प्रभावित कर गया था। इसीलिए वे दक्षिण अफ्रीका में ‘अहिंसा’ के हथियार और तरीके से सफल हुए गाँधी में सफल इंकलाब देख रहे थे और खुल कर उनकी कामयाबी का यूँ पहले ही शेर में ऐलान कर रहे थे!

 


 

 

चूँकि, गाँधी के हिंदुस्तान आगमन से पहले ही 1917 में रुसी क्रांति हो चुकी थी अतः अकबर इंक़लाब और उसके परिणाम और इससे होने वाले असर के मायने भी समझ रहे थे। लेकिन जहाँ ये क्रांतियाँ या इंक़लाब ‘हिंसा’ पर आधारित हो कर सशस्त्र क्रांतियाँ थीं, वहीं गाँधी उसी समय दक्षिण अफ्रीका में इसके ठीक उलट एक सफल “अहिंसक” क्रान्ति कर आये थे! अकबर खुद इसी तबियत के इन्सान थे – शायद इल्म की दुनिया के संवेदनशील लोग ऐसे हो ही जाते हैं इसीलिए वे गाँधी और उनके फलसफ़े से इत्तिफाक़ रखते दिखते हैं। वे अरबी, फ़ारसी, उर्दू, हिंदी और अंग्रेज़ी हर भाषा के अच्छे जानकार थे। चूँकि उन्हें अंग्रेज़ी आती थी और इलाहाबाद में जमुना पुल बन रहा था वहाँ उनको नाप-तौल विभाग में नौकरी मिल गयी। उनकी ईमानदारी और भाषाई ज्ञान के चलते ही उन्हें रेलवे के मालगोदाम में नियुक्त किया गया था। और फिर नायब-तहसीलदार हो गये थे। इसी नौकरी में रहते तो डिप्टी कलेक्टर हो कर सेवानिवृत्त होते मगर शायराना तबियत और ‘इन्क़लाबी’ मिजाज़ के चलते इतनी इज्ज़त वाली नौकरी छोड़ ही दी!

 

 

अकबर इसके बाद कचेहरी में नक़ल-नवीस हो गये क्यूँकि सभी भाषाओँ पर उनकी असाधारण पकड़ थी? अगर शुरू से देखें तो बारा तहसील में जन्म यानि कृषकों और 1857 के पहले और बाद में उनकी दशा से भली-भाँति वाकिफ थे। फिर चाहें जमुना पुल के निर्माण के दौरान या रेलवे मालगोदाम में काम करने के तज़ुर्बे ने उन्हें श्रमिकों की भी हालत से रु-ब-रु करवा दिया था। फिर नक़ल-नवीस हो कर कानून की पेंचीदगी और मुवक्किलों की हालत ने शायद उनको वकालत की ओर प्रेरित किया। साल 1873 में वकालत की परीक्षा उतीर्ण करके वकालत करते हुए वे 1880 में मुंसिफ मजिस्ट्रेट नियुक्त हुए और पदोन्नत होते हुए जिल जज तक बने। इसीलिए वे अंग्रेज़ी हुकूमत के हर पहलू और अन्याय से वाकिफ़ थे और इंक़लाब के तरफ़दार इसीलिए हुए कि व्यवस्था बदलने की आवश्यकता समझते थे। ऐसा शायर जो फ्रांसीसी और रुसी क्रांतियों के बारे में जानता था और वैसी ही किसी उम्मीद पे जी रहा था वह ज़ाहिर हैं दक्षिण अफ्रीका में गाँधी की सफलता से रौशनी देख रहा था!     

 

 

जिस तरह वे न्यायालय और कानून से वाकिफ़ थे इसलिए वे आंग्ल सत्ता द्वारा किये जा रहे कानूनी परिवर्तनों और उनकी मंशा को समझ रहे थे? भारतीयों की जागृति को दबाने के लिए औपनिवेशिक सत्ता द्वारा जो नए काले कानून बनाये जा रहे थे उसकी ओर इशारा करते हुए ही अकबर ने गाँधी के ‘अहिंसक आन्दोलन’ को “नया हंगामा” कहा है? हमें याद रखना चाहिए कि अकबर बहुत पढ़े-लिखे व्यक्ति थे और ज़ाहिर ही है उनके तज़ुर्बे का विस्तार बहुत था अतः वे आंग्ल सत्ता के चरित्र से अच्छी तरह से वाकिफ़ थे! वे जानते थे कि औपनिवेशिक सत्ता की स्थापना बल पर आधारित थी और गाँधी ने मेरित्ज़बर्ग रेलवे स्टेशन से जो सबक सीखा था - वह प्रतिरोध का एक नए किस्म का ‘हंगामा’ ही था जिसका कोई इलाज अंग्रेज़ हुक्मरानों को समझ ही नहीं आ रहा था? सशत्र विद्रोह और हिंसक प्रदर्शन को दबाने के लिए तो इस औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के पास बस बल और शक्ति थी मगर शांतिपूर्ण “सत्याग्रह” निश्चित ही उनके लिए एक “नया हंगामा” ही था और इस नए हंगामे के सम्बन्ध में दक्षिण अफ्रीका के प्रमुख प्रशासक जनरल स्मट्स के सचिव ने खुद गाँधी को गिरफ़्तारी से बिना शर्त रिहा करते हुए स्वीकार किया था कि हम लोग समझ ही नहीं पा रहे हैं कि हम आपके इस शांतिपूर्ण आन्दोलन का कैसे मुकाबला करें? और, गाँधी दक्षिण अफ्रीका में आंग्ल सत्ता को अपने अन्य हंगामे के आगे विवश कर के सफल हो कर ही भारत आये थे!

 

 

अकबर जब “गाँधीनामा” लिख रहे हैं तब वे जानते हैं कि गाँधी चंपारण, खेड़ा की कृषक समस्या और अहमदाबाद के श्रमिकों की समस्या का भी समाधान अपने “सत्याग्रह” से कर चुके थे। अतः यह सत्ताधीशों के लिए “नया हंगामा” ही था? कानून का जानकार और अनेकों महत्वपूर्ण वादों में निर्णय करने वाले अकबर को मालूम था कि आंग्ल विधि इस नए हंगामे को नियंत्रित करने में कितनी सफल हो पायेगी? इसलिए वे गाँधी के इंक़लाब को नया इंक़लाब मानते हैं और यह भी मानते हैं कि यह इंक़लाब इसीलिए कामयाब होगा क्योंकि इसका कोई नियम-कानून पहले से है ही नहीं जो इसे नियंत्रण कर सके अतः उनके हिसाब से इसका हश्र 1857 की क्रान्ति जैसा नहीं होगा?!

 

 

अब आइए इसके दूसरे मिसरे की तरफ चला जाये। इसका पहला ही लव्ज़ है “शाहनामा” और वे लिखते हैं, “शाहनामा हो चुका.....”। यह शायरी में न तो कोई फ़िरकापरस्ती है और न ही कोई जुमला। यह तारीख़ या इतिहास की एक लम्बी परंपरा है – ये वो ही आलिम जानता है जो इतिहास से सिर्फ़ वाकिफ़ ही नहीं बल्कि इतिहास-लेखन की लम्बी परंपरा से भी परिचित है? इतिहास-लेखन की एक परंपरा अगर पूरे परिवेश को ले कर वैदिक वांग्मय में चल रही है तो ईरानी परम्परा हमें अवेस्ता में दिखती है, क्योंकि मानव-इतिहास में सबसे पुरानी राजतंत्रीय परम्परा हमें उसी में मिलती है! इसीलिए अकबर कहते हैं कि “शाहनामा हो चुका.....” यानि वंशीय इतिहास ही नहीं ख़त्म हुआ बल्कि चूँकि वंशीय इतिहास का आधार ही राजतन्त्र है अतः इस औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की नींव अब हिल चुकी है। वस्तुतः साम्राज्यवाद खुद राजतंत्रीय सिद्धांतों पर आधारित होता है, अतः अब इस नये ज़माने की आँधी में ये पुरानी संस्थाएं खत्म हो कर रहेंगी – चाहें रुसी क्रांति जैसी सशस्त्र क्रांति हो या गाँधी की अहिंसक क्रांति? नई जागृति के बाद ये व्यवस्था बदलेगी ही!

 


 

 

फ़िरदौसी का “शाहनामा” उस पुरानी राजतंत्रीय इतिहास-लेखन परंपरा का सबसे बेहतरीन नमूना था अतः जब रुसी क्रांति के बाद राजतन्त्र खत्म हुआ तब शाहनामा का भी दौर खत्म होने को है? हिंदुस्तान में एक नई तरीके का इंक़लाब गाँधी के दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद आ गया है वो इस विद्वान् शायर की पारखी नज़रों ने बहुत पहले पहचान लिया था। इससे पहले के सियासी लोगों के बारे में उनकी राय बहुत अच्छी नहीं थी तभी तो वे लिखते हैं :

 

 “कौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ/

  रंज लीडर का बहुत है, मगर आराम के साथ!”

 

यानि अकबर भली-भाँति इस कौमी सियासत को समझ रहे थे जिसके बारे में हम पहले उल्लेख कर ही आये हैं, चाहें बंगाल का विभाजन हो; या 1909 तथा 1919 के अधिनियम हों। गाँधी और दक्षिण अफ्रीका में उनके अन्दोलन और उसकी सफलता के बारे में खूब पढ़ा होगा तभी वे जानते थे कि जब ‘ज्यूइश’ या ‘एम्पायर थिएटर’ जल गया तब गाँधी को सभाओं के आयोजन के लिए बड़ी जगह एक ही दिखी और वह थी मस्जिद और सारी सभाएं ही जोहानेस्बर्ग की प्रसिद्ध मस्जिद के मैदान में हुईं। फिर वहाँ जिस तरह से उन्होंने कौमी एकता स्थापित की थी इसीलिए अकबर को विश्वास था कि गाँधी ही उनके ‘इंक़लाब’ की रौशनी हैं!

 

 

यहीं हम दूसरी बात की तरफ भी इशारा करना चाहेंगे ‘शाहनामा’ का प्रसिद्ध कवि फ़िरदौसी भी ईरानी था और अकबर इलाहाबादी के पुरखे भी ईरानी थे अतः फ़ारसी में पारंगत अकबर ने ‘शाहनामा’ का ज़िक्र किया है – जो पूरी राजतंत्रीय व्यवस्था और उसके वैभव-गान का प्रतीक था और तब वे आगे के दौर की बात करते हैं कि वह कैसा और कौन सा होगा! लेकिन उससे पहले हम ईरान की बात कर लें। अकबर के पुरखे ईरान के पश्चिमोत्तर बसे निशापुर के निवासी थे और जब अवध में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के प्रसिद्ध दीवान-वज़ीर सआदत खां ने स्वतंत्र राज्य बना लिया तब उनके पुरखों को यहाँ इलाहाबाद में, जमुना-पार बारा तहसील में ज़मींदारी मिली थी। जमुना पार बस कर जमुना मिशन स्कूल में प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करने वाले अकबर गंगा-जमुनी तहज़ीब के कायल ही नहीं थे बल्कि आधुनिक काल के वास्तविक पथ-प्रदर्शकों में से थे! इसीलिए उन्हें कौमी नेतृत्व से बेहतर गाँधी की कौमी-एकता की राजनीति और दृष्टिकोण लगा था!

 

 

इतिहास को अच्छे से पढ़ने-समझने वाले अकबर इलाहाबादी जानते थे कि सभ्यताएं रक्त-रंजित क्रांतियों से कैसे विनष्ट होती हैं इसीलिए वे शाहनामा के दौर के अंत की घोषणा करने से नहीं चूकते हैं। उनके अपने पैतृक स्थान का इतिहास ही उन्हें सिखा चुका था कि कैसे यह शहर, निशापुर प्रसिद्ध ‘सिल्क रूट’ या ‘रेशम-मार्ग’ पर स्थित था जो चीन से भू-मध्यसागर तक और तुर्की होते हुए यूरोप तक जाता था! कैसे उनके मूल निवास निशापुर ने अब्बासी खलीफ़ाओं के काल से तहीरिद वंश, उसके बाद सफ़ाविद फिर समानिद वंशों का दौर देखा और हर बार ही सत्ता या वंश परिवर्तन, रक्त-रंजित रहा था! तुर्कों ने भी ओग्हुज़ द्वारा विनाश से निशापुर पर क़ब्ज़ा जमाया था और महमूद गज़नी का शासन एक अलग दास्तान ही रहा। उसके बाद निशापुर को चंगेज़ खां के दौर में, उसकी पुत्री ने अपने पति की मौत के प्रतिशोध के बाद कैसे पूरा निशापुर ही विनष्ट करवाया था – उन्होनें इस के बारे में पढ़ा था। यानि वे इतिहास में गाँधी के पदार्पण को वस्तुतः एक क्रान्ति मान रहे थे। अब तक का इतिहास फिर चाहें हिंदुस्तान का हो या उनके निशापुर का – यही बता रहा था कि कितना खून-खराबा होता आया है और इसीलिए शायद उनकी नज़र में असली इंक़लाब का दौर गाँधी के ‘अहिंसक इंक़लाब’ से शुरू हुआ है! इसीलिए वे “गाँधी नामा” के शुरुआत में ही अपने दूसरे मिसरे में ही उद्घोष करते हैं “शाहनामा हो चुका.....”! वैसे एक बात प्रसंगवश बताना चाहेंगे इसी निशापुर में प्रसिद्ध कवि/शायर ओमर खय्याम भी दफ़न हैं!

 

 

अकबर “गाँधीनामा” के पहले ही शेर में जैसे पूरी लम्बी नज़्म का मजमून लिख जाते हैं! इतना ही नहीं जब वे ये दूसरा मिसरा पूरा करते हैं “शाहनामा हो चुका अब दौर-ए-गाँधीनामा है.” हमें मालूम है कि इतिहासकार अब सब बीत जाने के बाद 1920 से ले कर आज़ादी तक की अवधि को “गाँधी युग” कहते हैं मगर उस “गाँधी युग” के शुरू होने से पहले ही सिर्फ़ अकबर ने उस आने वाले युग को पहचाना था। जैसा बाद में फ़िराक ने एक नज़्म में लिखा भी है: “बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं...........!” अगर किसी ने गाँधी के पहले ही राष्ट्रीय स्तर के आन्दोलन के अंजाम तक पहुँचने से पहले इसको भाँप लिया था तो वे अकबर इलाहाबादी थे। कहते भी हैं कि कवि अपने समय से बहुत बाद तक का काल देख लेता है और कालजयी रचनायें देना इसीलिए मुमकिन भी होता है! बस याद दिला दें, अकबर इलाहाबादी की मृत्यु सितम्बर 1921 में हो गयी थी फिर भी वे उससे पहले ही “गाँधीनामा” लिख गये थे। साहित्य की कसौटी के हर लिहाज़ से यह एक कालजयी रचना है!

 

 

 

 

सम्पर्क

प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी,

इतिहास विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय

8/5 ए, बैंक रोड, इलाहाबाद – 211002;

मोबाइल: 9452799008

ई.मेल: heramb.chaturvedi@gmail.com

 

    

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