राकेश कुमार गुप्त का आलेख 'कौन कहता है कि लाल बहादुर वर्मा नहीं रहे?'
बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो एक बार मिलने पर भी जीवनपर्यंत के लिए अपना प्रभाव छोड़ जाते हैं। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो किसी भी व्यक्ति से बराबरी के स्तर पर मिलते हैं। लाल बहादुर वर्मा ऐसे ही व्यक्ति हैं, जिनकी आभा उनसे मिलने के बाद भी लम्बे समय तक बनी रहती थी। (टिप्पणी लिखते हुए वर्मा जी के सन्दर्भ में 'हैं' का सम्बोधन देख आपको मेरी समझ पर अफसोस हो सकता है। लेकिन क्या कीजिएगा यह दिल दिमाग जो है, और बहुतों का भी ऐसा है, वर्मा जी के न रहने पर यकीन ही नहीं कर पा रहा। लाल बहादुर वर्मा के व्यक्तित्व के आयाम बहुविध थे। एक खाँचे में बने रहना उन्हें स्वीकार्य नहीं था। वे जितने बेहतरीन प्राध्यापक थे, उतने ही उम्दा लेखक। वे जितने संजीदा अभिभावक थे उतने ही सच्चे मित्र। उनके देहरादून जाने के बाद भी इलाहाबाद उनकी उपस्थिति से गुंजायमान रहा करता था। इलाहाबाद को वे जीते थे उस मनुष्यता की तरह, जिसे वे सबके लिए अनिवार्य मानते थे। इलाहाबाद के जीने के पीछे यहाँ की वह गंगा जमुनी तहजीब थी जो अब दिन ब दिन दुर्लभ होती जा रही है। उनके यहाँ मिलने वाले के लिए हमेशा स्पेस हुआ करता था। वह स्पेस जो बराबरी का अहसास कराता था। यही वजह है कि सबके आज अपने-अपने लाल बहादुर वर्मा हैं। सबके पास लाल बहादुर वर्मा से जुड़े अनेक संस्मरण हैं, किस्से और कहानियाँ हैं। राकेश गुप्त ने अपने आलेख में वर्मा जी को शिद्दत से याद किया है। राकेश गुप्त इलाहाबाद हाईकोर्ट के अधिवक्ता हैं। इन दिनों वे लाल बहादुर जी के काफी करीब थे। हाल ही में वे उनसे मिल कर इलाहाबाद वापस लौटे। लिखने पढ़ने के साथ-साथ एक्टिविज्म में वे खासे सक्रिय हैं। लाल बहादुर वर्मा के इलाहाबाद छोड़ने के डेढ़ साल बाद राकेश गुप्त ने स्वराज विद्यापीठ के मंच के माध्यम से उनके प्रबोधन के प्रोजेक्ट को फिर से सक्रियता प्रदान किया।
आज पहली बार की तरफ से लाल बहादुर वर्मा को नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं राकेश कुमार गुप्त का आलेख 'कौन कहता है कि लाल बहादुर वर्मा नहीं रहे?'
कौन कहता है कि लाल बहादुर वर्मा नहीं रहे
राकेश कुमार गुप्त
17 मई की सुबह 3.28 पर आशु (प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा की बेटी) का एक छोटा सा मैसेज आया, “कार्डियक अरेस्ट, पापा इज नो मोर।” मुझे इस बात पर बिल्कुल भी यकीन नहीं हुआ। कार्डियक अरेस्ट को तो मान भी लिया लेकिन जो उसका अगला हिस्सा था कि ‘पापा इज नो मोर’। उस पर न तब यकीन हुआ था और न अब यकीन है। बल्कि यह सूचना रहते हुए कि वर्मा सर का देहावसान हो चुका है अभी तक ऐसा कोई एहसास नहीं बन पाया जिसमें यह हो कि अब वर्मा सर नहीं रहे।
तो इसका मतलब है क्या यह हुआ कि मैं विक्षिप्त हो गया हूं जो सूचनाओं का अर्थ नहीं समझ पा रहा है। नहीं, मित्रों! मैं विक्षिप्त नहीं हुआ हूं। मुझे सूचनाओं का सही सही अर्थ पता है। इसके बावजूद मैं बहुत जोर दे कर कहना चाहूंगा कि 17 तारीख को सुबह 3:28 से ले कर आज अभी तक मेरा ऐसा कोई एहसास नहीं बन पाया कि प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा सर हमारे बीच में नहीं रहे।
दरअसल मैं जो समझ पा रहा हूं प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा की देह का अवसान हुआ है। उनकी देह अब नहीं रही लेकिन उनका जीवन, उनका कर्म, उनका विचार, लोगों से पेश आने का तरीका और सबसे बड़ी बात रोज निरंतर, अहर्निश, स्वयं को आउटग्रो करते जाने का और साथ ही दूसरे लोगों में उनके स्वयं को आउटग्रो कर पाने की संभावनाओं को तलाशते हुए उसका विकास करना। यह कब खत्म होगा? यह कब मरेगा? यह कब नहीं रहेगा?
यह तो हमेशा ही रहेगा! इसीलिए हम सबके यार, दिलदार, दोस्त, गुरु, पिता और आज के समय के हमारे समाज के सबसे महत्वपूर्ण प्रबोधनकार प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा भी हमेशा ही रहेंगे। इसीलिए यह कहना गलत है कि “लाल बहादुर वर्मा नहीं रहे”।
उनके द्वारा शुरू किया गया प्रबोधन जिसने स्वयं उनके ही अनुसार उनको ही सबसे अधिक प्रबोधित किया। वे कहा करते थे कि, “प्रबोधन कार्यक्रम से सबसे अधिक प्रबोधन तो मेरा ही हुआ है”।
आज जब मैं सब से यह सुन रहा हूं कि प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा नहीं रहे तो उसी समय ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वह मेरे भीतर मेरे बाहर चारों तरफ विद्यमान है। पहले से कहीं अधिक और बार-बार मुझे प्रेरित कर रहे हैं- उन तमाम सारी बातों के लिए जो वे लगातार मुझसे करते रहते थे। वे समस्त बातें और योजनाएं जो उनके अपने लिए भी कम से कम 20 साल के लिए थी और जिसमें हम सबकी भागीदारी को देखते थे। अभी इसी 28 अप्रैल को हुई मेरी उनसे बातचीत में उन्होंने एक कार्य योजना पर बात किया और कहा कि यह कार्य योजना कम से कम 15 साल के लिए बननी चाहिए जिसमें वे अपने अलावा और भी कई लोगों को शामिल करना चाहते थे।
प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा को जानने वाले लोग यह जानते हैं की अभी उनके पास अपने जीवन में क्रियान्वित किए जाने के लिए कम से कम 20 वर्षों की योजना थी और उन योजनाओं का जो मयार था वह बहुत व्यापक था। अभी साल भर पहले ही वह एक आश्रम बनाना चाहते थे जो कि पूरी तरीके से इको फ्रेंडली हो।
साल भर में कम से कम एक बार उन्होंने ‘ब्रेन स्टॉर्मिंग’ का सेशन (कार्यशाला) शुरू किया था जिसका नाम दिया गया ‘सांस्कृतिक समागम’ और उसका आप्त वाक्य था- “आइए और गहरी लंबी सांस लें”। ऐसा ही आखरी सेशन जून 2019 में हुआ था जिसके लिए आधार पत्र उन्होंने तैयार किया था, उसका शीर्षक था: “आसन्न संकट : जीवन की गुणवत्ता और हमारे घर परिवार”। उस आधार पत्र को यहां पर यथावत देना उचित रहेगा।
“प्रिय बन्धु,
आज का सारभूत संकट यह लगता है कि घर से संसार तक, पर्यावरण के संकट यानी धरती के विध्वंस के प्रति हम सचेत नहीं हो पा रहे। मानव जीवन की गुणवत्ता के अनंत विस्तार की संभावना है पर हम आत्म हनन की ओर अग्रसर हैं। जरा सोचिए, जब बंदर आदमी बना तो यह एक यूनिवर्सल प्रक्रिया थी यानी सभी मनुष्य एक जैसे थे। पर आदमी के इंसान बनने की - जैविक प्राणी के सांस्कृतिक प्राणी बनने की प्रक्रिया के दौरान समाज में एक नियंत्रक समुदाय पैदा होता गया। उसने अब तक के सारे आविष्कारों - आग और पहिया से- आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तक, अपने नियंत्रण में रखा और मुख्यतः अपने हित के लिए इस्तेमाल किया है। ‘सभ्यता के कुछ शताब्दियों के दौरान’ जन के बहुलांश को हर सृजन से लाभों से वंचित रख कर मानव ईश्वर की तरह सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञाता और सर्वव्यापी बनने की होड़ में है। इस बदनीयत कोशिश में मानव, अमानवीयता, अजनबीयत, लालच और परपीड़न की ओर अग्रसर है।
आइए विकास और क्रांतियों की एक वैकल्पिक प्रक्रिया की कल्पना करें जिसमें सृजन में सबकी भागीदारी हो- ‘सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया’ चरितार्थ हो सके। अगर ऐसा हो पाता तो मानव समाज कितना सृजनशील और समृद्ध हो जाता इसकी कल्पना ही आनंददायी है।
संकट यह है कि सृजन की यह राह अधिकाधिक अवरुद्ध की जा रही है। उसे आत्महनन की ओर मोड़ दिया गया है। इस सत्ता-निर्मित संकट को सूक्ष्म रूप में हम व्यक्तिगत और पारिवारिक स्तर पर इसे भोगते और महसूस करते हैं।
नई राह का निर्माण घर से शुरू हो सकता है। इसके लिए हमे जीवन की गुणवत्ता को यूनिवर्सल मुद्दा बनाना पड़ेगा। हमें पर्यावरण, शिक्षा, लोकतंत्र, लौकिकता, सेकुलरिज्म, न्याय और सौंदर्य-बोध आदि का घर में ही पहले पोषण करना होगा।
आइए विश्वास करें कि ‘सत्यम- शिवम- सुंदरम’ और ‘स्वतंत्रता- समानता तथा भातृत्व’ जैसे मूल्य और उसके लिए जरुरी संस्थाएं आज कितनी संभव है उतनी पहले कभी नहीं थी। पर उसके लिए हमें विश्व नागरिक, आशावादी और सृजनशील बनना होगा।
आइए कोशिश करें कि इस संक्रमण और संकट के दौरान कोई साझा हस्तक्षेप विकसित हो। हमारे परिवारों से ले कर - समाज और सम्पूर्ण विश्व में श्रम की गरिमा, महत्ता और श्रम की संस्कृति स्थापित हो। इसके लिए मुख्यतः शिक्षा को माध्यम बना कर कुछ उपाय सूझ रहे हैं जैसे परिवार में पर्यावरण के सांस्कृतिक पक्ष पर जोर, पूरक शिक्षण, प्रबोधन, काउंसिलिंग, कॉमिक्स, पारिवारिक पत्रिका, Appreciation Courses, Documentary बनाना, सांस्कृतिक मेले आयोजित करना, ऑनलाइन स्कूलिंग ...............।
इस तरह के कार्य जहाँ जो कर सके उसे सहयोग करना।
नोट- इस सन्दर्भ में दिनांक 16-05-2019 से 18-05-2019 तक दिल्ली से सटे फरीदाबाद में एक कार्यशाला आयोजित है। आपकी उपस्थिति अपेक्षित है। वहां हर कोई मेज़बान और हर कोई मेहमान होगा। कार्यशाला के लिए रहने और भोजन के लिए होने वाले खर्चे साझे सहयोग के द्वारा किये जायेंगे।”
वे स्वयं की तुलना एक ऐसे किसान से करते थे जो ऊसर बंजर जमीन को भी अपने अथक परिश्रम और यत्न से उपजाऊ बना देता है। अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग ‘बुतपरस्ती मेरा ईमान नहीं’ में वे लिखते हैं कि, “अचानक एक सुबह यह विचार कौंधा कि जिंदगी एक जमीन की तरह है और इंसान एक किसान। जैसे जमीन तरह तरह की होती है- उपजाऊ, रेतीली, दोमट, बंजर आदि, वैसे ही मनुष्य को आनुवंशिक तथा अन्य भौतिक परिस्थितियों और प्रारंभिक जीवन की पारिस्थितिकी के रूप में जीवन मिलता है। कुशल और अध्यवसायी किसान कम उपजाऊ जमीन को भी उपलब्ध संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग कर उसे बेहतर बना लेता है और एक आलसी, अज्ञानी तथा व्यसनी किसान उपजाऊ जमीन में भी अच्छी फसल नहीं काट पाता।
वह एक तरफ जहां अपनी कमियों को बेबाक तरीके से स्वीकार करते हैं। वही जीवनपर्यंत वे अपनी कमियों को लगातार दूर करने का प्रयास करते रहे। दूसरे शब्दों में उनका जो प्रिय शब्द था ‘आउटग्रो’ करना - वह स्वयं को आउटग्रो करते रहे। स्वयं से आगे जाते रहे। स्वयं की बनाई हुई सीमाओं को वह लगातार पार करते रहे। चाहे वह सीमा विचार की हो, संगठन की हो, योजना की हो, किसी मूल्यांकन की हो या फिर समाज बदलने के तौर तरीके की हो......।
वे लिखते हैं कि, “मैंने जीवन के प्रारंभ में न कोई अध्यवसाय किया न उपलब्ध संसाधनों का भरपूर लाभ उठाया। मेरे जीवन की फसल अच्छी ही कटती रही, उसमें मेरा कोई विशेष सचेतन योगदान नहीं था। जब मेरा पेरिस में दूसरा जन्म हुआ, तो मैंने सचेतन जीवन जीने का प्रयास शुरू किया। यानी जीवन-प्रवाह में जहां तक बहते हुए आ गया था, वहां से कुछ तैरने की भी कोशिश की, तैरने की कोशिशें, जिनको मेरी आत्मकथा के दूसरे भाग में आप देख पाएंगे। इस दौरान ‘तैरना- बहना-तैरना’ जैसा कुछ चलता रहा। बहते हुए ही मैं मणिपुर पहुंचा और मेरा मानो तीसरा जन्म हुआ, जब मैंने देश के एक कोने में खड़े होकर एक विराट नद की तरह प्रवाहित भारत देश और समाज को समझना शुरू किया। मन विचलित हो चला था, तभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन का अवसर मिला। जहां पढ़ने के लिए तरस कर रह गया था, वहां पढ़ाने के दौरान कई-कई बार कहीं पहुंचने का आभास होता रहा।”
“सच कहूं, तो असली किसानी, तो बुढ़ापे में ही शुरू की। सेवानिवृत्ति के बाद मानो चौथी बार जन्मा हूं - इस बार अपनी ही कोख से। मैंने जीवन को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है और अब मेरे जीवन में ‘स्व’, ‘पर’ और प्रकृति का सुखद समन्वय हो रहा है। मैंने वैयक्तिकता और सामाजिकता को एक ही सिक्के के दो पहलू समझना शुरू कर दिया है। तन त्रस्त और मन मस्त और स्वस्थ हो चला है। लगता है एक जन्म पर्याप्त नहीं। लगने लगा है कि सहकारी खेती ही जमीन और जीवन का सर्वोत्तम दे सकती है।”
“जीवन-प्रवाह अजस्र और अनंत है। उसमें कहीं पहुंचने का, तो सवाल ही नहीं। पर बार-बार पहुंचने का आभास होता रहे तो आगे की यात्रा में गति बनी रह सकती है। यह समझ में आ गया है कि जमीन के संदर्भ में जो महत्व ‘एग्रीकल्चर’ का है वही जीवन के संदर्भ में ‘कल्चर’ का है। यह बोध हो गया है कि मनुष्य सारतः एक सांस्कृतिक प्राणी है और वही बनते जाने में जुटा हूं।”
वे महान ऐतिहासिक व्यक्तित्वों की पूजा नहीं करना चाहते थे उनको प्यार करना चाहते थे। प्यार करते थे। उनको अपने भीतर जीने का प्रयास करते थे। उनकी तमाम सामर्थ्य और सीमाओं को जानते हुए ऐसे लोगों की सामर्थ्य और गुण जहां उनको खुद भी सामर्थ्यवान और गुणवान बनाती थी, वही उनकी जो सीमाएं होती थी उसमें कहीं ना कहीं वह घुटन महसूस करते थे। इसीलिए बुद्ध हो या कार्ल मार्क्स, गांधी हो या अंबेडकर सबको अपने भीतर जीते हुए वह आज के समय के संदर्भ में उनको और आगे बढ़ाना चाहते थे और आउटग्रो करना चाहते थे। इसी प्रक्रिया में उन्होंने ‘अंबेडकर कथा’ और ‘भगत कथा’ (शहीद भगत सिंह) कहनी शुरू की थी। जिसको वह शुरू करते थे- “मेरा प्यारा दुलारा भगत”। इसी तरीके से उन्होंने अंबेडकर कथा लिखी और कही जिसका नाम था- “आओ अंबेडकर से प्यार करें”।
ऐसा लगता था कि वे जैसे फ्रांस की क्रांति के उच्चतम मूल्यों को अपने भीतर जी रहे हैं। विश्व के इतिहास में हुई क्रांतियों जहां एक तरफ उनको अनुप्राणित करती थी। जीवनपर्यंत क्रांति को स्वयं अपने भीतर जीते रहे। निरंतर-प्रतिदिन- प्रतिपल क्रांति उनके अपने भीतर घटित हो रही थी। लगातार वह अपने को ‘आउटग्रो’ करने में लगे हुए थे। ऐसे में न सिर्फ अपने जीवन के अधूरेपन को उन्होंने उजागर किया बल्कि इतिहास में अब तक हुई समस्त क्रांतियों के भी अधूरे रह जाने को रेखांकित किया। एक गंभीर इतिहासकार और अध्येता होने के नाते उनका इतिहास-बोध यह बताता था कि अब तक की सभी क्रांतियां अधूरी हैं और निष्कर्ष में उनकी किताब आती है : “अधूरी क्रांतियों का इतिहास बोध”।
वे कहते हैं कि क्रांतियों का अधूरा रह जाना इतिहास सिद्ध है पर उनका अमर रहना भी उतना ही अनिवार्य।
क्रांतियों के अधूरे रह जाने से वह निराश नहीं होते और इसीलिए उनकी अगली किताब आती है: “क्रांतियां तो होंगी ही”।
वे कहते थे कि “वारिस होने का मतलब होता है विरासत का समृद्ध करना”। वे सदा ही मानव इतिहास के विकास की दो सबसे बड़ी बाधाओं को चिन्हित करते थे- पहली संकीर्णता और दूसरी स्थानीयता। इसीलिए वे लगातार हर तरह की संकीर्णताओं से अपने आप को मुक्त करते जा रहे थे। एक ऐसी मुक्ति की अनंत यात्रा में चल पड़े थे जिसमें कुछ पा जाने का एहसास, कहीं पहुंच जाने का एहसास- एक पड़ाव भर था। जिस यात्रा के वह तो यात्री थे वह यात्रा तो आज भी जारी है ...... बस इतना हुआ है कि अपनी देह में से निकल कर वे मेरी देह में आपकी देह में और समूची मानवता की देंह में समा गए हैं। भला उस अनंत के यात्री की यात्रा को कोई रोक पाएगा जो अनंत की यात्रा पर हो।
सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंएक सांस में पढ़ गया। बहुत अच्छा लिखा।सच में हमारे हिस्से के लालबहादुर वर्मा हमारे भीतर रहेंगे।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंगजब की पठनीयता।
जवाब देंहटाएंइस लेख को पढ़कर उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का अनुमान लगता है तथा उन्हें और जानने की भूख जग जाती है।
सचमुच वे इतिहास के ऐसे अध्येता और अध्यापक थे, जिन्होंने इतिहास बनाया भी।
बहुत ज़िंदा आदमी को उतने ही ज़िंदा अंदाज़ में याद किया गया है।
जवाब देंहटाएंनमन
जवाब देंहटाएंमै नही जानती वो कौन “है “( है इसलिए बोला है क्यूँकि मुझे लगता है कि जब तक इस संसार में उनसे जुड़ा एक भी व्यक्ति है वो इसी संसार में किसी ना किसी के भीतर रह कर प्रेम को प्रवाहित करते रहेंगे) पर आपके इस लेख के माध्यम से उनसे इतना जुड़ पायी हूँ की आप प्रेम की सकारात्मकता को अकेले हर व्यक्ति तक नही पहुँचा सकते हो पर आप अगर कोशिश करो तो एक दूसरे के माध्यम से इस मानव जाति में प्रेम को बचा सकते हो ( प्रेम- वह है जो आप ईश्वर द्वारा प्रदान की गयी किसी भी वस्तु , व्यक्ति , या किसी भी प्राकृतिक चीज़ से करते हो )
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