सुशील कुमार की कविताएँ

 

सुशील कुमार

 

 

परिचय

 

सुशील कुमार
जन्म: 13 सितम्बर, 1964. स्थान: मोगलपुरा, पटना सिटी के एक कस्बाई इलाका और 1985 से दुमका (झारखंड) में निवास.
• 
हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में लिखने-पढ़ने में गहरी रुचि. कविताएँ, समालोचना, आलेख इत्यादि कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित।
नवीनतम गद्य कृति : आलोचना का विपक्ष 2019 में

कविता संग्रह: हाशिये की आवाज 2020 (लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ से) 
पहला काव्य-संग्रह  तुम्हारे शब्दों से अलग 2011 में।
दूसरा काव्य-संग्रह – जनपद झूठ नहीं बोलता 2012 में ।
प्रारंभिक कविताओं का एक संकलन कितनी रात उन घावों को सहा है’ (2004)

सम्प्रति - जिला शिक्षा पदाधिकारी
रामगढ़ (झारखंड)-834004

 

 

कोरोना महामारी ने इस समूची दुनिया को शिद्दत से प्रभावित किया है। साहित्य और संस्कृति ने कोरोना को अपनी तरह से देखने और रेखांकित करने का प्रयास किया है। कोरोना की दूसरी लहर पूरे भारत के लिए प्रलयंकारी साबित हुई है। शायद ही कोई ऐसा हो जिसने इस महामारी में अपना कोई प्रियजन, परिजन या मित्र रिश्तेदार न खोया हो। श्मशान घाट पर शवों की लाइन, गरीबी के चलते अपने प्रियजन के शव को नदी में प्रवाहित कर देने का वीभत्स दृश्य हम सबके सामने से हो कर गुजरा है। भारत में मृतकों की अधिकृत संख्या तीन लाख पार कर चुकी है। इस आंकड़े पर संदेह व्यक्त किए जा चुके हैं और वास्तविक आँकड़ा, कहीं भी संग्रहित नहीं किया जा सका है। शायद यह खौफनाक दौर ऐसा ही था, कि आँकड़े तक थर्रा गए। कवि सुशील कुमार ने कोरोना काल को नजदीक से देखा और महसूस किया है। आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं सुशील कुमार की कुछ ताजातरीन कविताएँ।

 

 

सुशील कुमार की कुछ अप्रकाशित कविताएँ

 

 

सतजुग

 

धरती पर सतजुग आ चुका है

प्रियजन परिजन मित्रगण परिवार-जन स्वर्गवासी हो रहे हैं

सड़कों पर, अस्पतालों में, घरों में, एम्बुलेंसों में

 

 

जनता और पुलिस 

श्मशान घाट पर

उनके स्वर्ग-गमन का टोकन लिए

घंटो-घंटों खड़े हैं

उनकी अंतिम विदाई की प्रतीक्षा में

जल्लादों के साये में

 

 

सच, कितने निष्ठुर - स्वार्थी हो गए प्रियजन!

बिन कहे, बिन ज्ञानसार बताए

समूह में समाधियाँ ले रहे!

पूरी धरती, लगती है चिरनिद्रा में सो जाएगी!

 

 

मैं अकेला होता जा रहा हूँ

रोज उनके महाप्रयाण की सूचना मिल रही है

अखबारों में, फेसबुक पर, समाचार चैनलों से 

 

रामराज में जीने को अभिशप्त हूँ

अपने ही घर में बंद

मास्क लगाए तो कभी हाथ धोते

कभी सामाजिक दूरी बनाते

मन-मन भर भारी मन में

कल दिवंगत हुए इष्ट-जनों की

दुर्निवार दु: स्मृतियाँ लिए

 

 

 

इंतजार में अस्थि–कलश

 

भदभदा* के श्मशान में जो इतना गुबार है

जलती चिताओं की वहाँ जो लंबी कतार है

रखे हुए अनगिन अस्थि-कलशों को

अपने परिजनों का जो इंतजार है

वे नहीं आ पाए अब तक

उनका श्राद्ध-फूल सिराने!

 

 

मृदभांड कुछ लोहित.. कुछ कृष्ण

उनमें समेटी कुछ भस्म अस्थियाँ

ऊपर से छींटे कुछ दूब-धूप!

कुछ अक्षत-नैवेद्य

कुछ जल-फल कुछ फूल-बत्ती,

साथ टुकड़े भी कुछ समिधाओं की

बिन मंत्रोच्चारण के पड़े-पड़े  

कुम्हला गए

हर दिन सूरज के डूबने के साथ।

 

 

'लॉकर्स' में अस्थि-कलश रखने की जगह नहीं;

उनके अस्थि-कलश

प्रेस मिडिया बुला कर

श्मशान-शास्र के ठेकेदारों ने गंगा में

(या ऐसी ही कोई प्रचलित नदी में) प्रवाहित कर दिया,

(अकाल गए  'हुतात्माओं' की मुक्ति के लिए शायद!)

 

 

महाकाल में प्रस्थानित जीवात्माओं के

अस्थिकलश इतने उदास हैं

इतने दुःख भरे कि

लपेटे गए लाल कपड़ों के रंग भी उतर गए!

 

 

असंख्य तरल-कातर चेहरों से झाँकती

अकाल गईं आत्माएँ

इन मृदभांडों में अब भी जज़्ब हैं

 

 

परिजनों की रक्तिम आँखें

रोष की लपटों में जल रही हैं

- अश्रु-आपुर और बेबस -

जिनमें साफ देख सकता हूँ

विदाई का अंतिम फर्ज भी

न अदा कर पाने की बहती हुई आत्मग्लानि

हृदय में नश्तर-सा चुभती हुई एक कसक!

 

भदभदा*=भोपाल का एक श्मशान घाट

 


 


प्रलय में लय

 

 

राख हो जाएगी

देह एक न एक दिन

ये सपने रंग

दुकान मकान

बनाए हुए भविष्य भी बिला जाएंगे

 

 

जो बचा रहेगा अंत तक

वह यह जीवन है

कैक्टस की तरह इस धरती पर

असंख्य आपदाओं के बीच

 

 

 

क्या तुमको नहीं लगता कि

प्रेम के कारण ही बचेगा

जिसे बचना है यहाँ

- यह आदमी होने की घड़ी है,

 

जैसे गुरुत्वाकर्षण से बंधी

सम्पूर्ण सृष्टि चल रही है

सारे उपग्रह-ग्रह शून्य में अटके पड़े हैं

महाकाल के बीच अंनत काल से!

मुझे लगता है

प्रेम ही तुम्हें प्रलय से लय में लाएगी

 

 

क्या कर पाएगा विज्ञान

एक अर्ध-जीवित वायरस से बचा न पाया हमारी सभ्यता?

मॉल फैशन कलाएँ बैरकें

पार्किंग पार्लियामेंट मिसाइलें

जेट प्लेन और हथियार सब

कितने कामयाब हुए हमारे दुःख में?

 

 

बड़े-बड़े शूरमा और बाहुबली ढेर हो गए

एक साँस के क्षीण होने पर!

तार पर बैठी चिड़ियों की तरह कतार में

विमान पत्तन में विमान खड़े हैं

गति थम सी गई है

उसके सारे किए-धरे पर पानी फेरता

एक वायरस ने उसे बता दिया है कि

वह आदिम से आदमी बना है,

इसे याद रखे हरदम !

 

फिर भी मैं कहता हूँ

कोरोना कुछ नहीं है

आदमी की परछाईं है बस

जो उसका पीछा कर रही है!

उसके साथ चल रही है!



 

 

टूटना : एक जरूरी क्रिया

 

 

1

 

टूटना

एक जरूरी क्रिया है जीवन की

 

 

शाखों से पत्ते टूटते हैं

फूल झड़ जाते हैं खिल कर

नदियों की धार टूटती हैं मौसम की बेरुखी से

पहाड़ भी रोज टूटते रहते हैं

मीनारें टूटती हैं धीरे-धीरे

टूट-फूट कर मलबों में तब्दील जाती हैं सभ्यताएँ एक दिन

हमारे भीतर भी कोशिकाएँ टूटती हैं

रोजमर्रा की थकन से,

 

 

लेकिन

आसरे का टूटना

भरोसे का टूटना असह्य होता है

कई बार प्रेम भी टूट कर

आँसुओं के सैलाब में बह जाता है

 

 

2

 

टूटना

दुःख की एक अनुषंगी क्रिया है

पीड़ा है इसमें

कसक हैं, विकलताएँ हैं

ध्वंस की ध्वनियाँ हैं

एक मौन आलाप है

या है चीत्कार

 

 

3

 

टूटना

जड़-चेतन की परिणति है

टूटने से ही बनी है हमारी धरती

टूटना एक विच्छेद है वस्तुमात्र का

रिश्तों की नियति है टूटना

हर जुड़ी हुई चीज को टूटना ही पड़ता है

एक न एक दिन फिर से जुडने के लिए

 

 

4

 

टूटना

अवसान के पहले की क्रिया है

टूटना बहुत जरुरी है

हम टूटने से बचा भी नहीं सकते सपनों को

कुछ खिलौने की तरह यकायक टूटेंगे

कुछ धीरे-धीरे और रोज टूटेंगे।

 

 

5

 

टूटने में जीवन की आहट है

कोई ऐसा नहीं जो जीवन में कभी टूटा न हो!

टूटना, फिर जुड़ना

फिर टूटना, फिर जुड़ना

- इसी क्रम से चलती है दुनिया

-सभ्यताएँ

-जीवन

और ब्रह्मांड का सम्पूर्ण भूगोल।

- टूटने से ही बनती है नई दुनिया।

 


 

 

दुःख

 

 

1

 

जब तक दुःख था भीतर

हूक सी

उठती थी मन में

 

बह गया फिर एक दिन

आँखों के रास्ते 

मोम की तरह

 

 

2

 

दुःख पहले भी था 

अब भी है

साथ ही पल कर बड़ा हुआ 

अपना साथी है वह

 

 

पूछा उससे,

'छोड़ोगे तो नहीं मुझे?'

बोला, 'कभी नहीं'

'अंत तक रहूंगा तुम्हारे साथ'

 

 

3

 

फिर देखा एक दिन - घाट पर

मेरी चिता जल रही है

दुःख तब भी वहीं खड़ा रहा

मुझे एकटक निहारता हुआ

 

 

 

4

 

मेरी बारहवीं के बाद भी 

वह भटकता रहा 

घर के आसपास,

खोजता रहा मुझे

 

उसकी प्रेत-छाया में 

मेरे घर-दुआर सब दुब्बर हो गए,

टीले-टप्परों पर घूमता हुआ 

ढूंढता रहा वह

मुझे ही!

 

 

 

5

 

धरती छोड़ आया हूँ 

ध्रुवतारा बन उग आया हूँ अब आकाश में

देख रहा हूँ सूनेपन की अनंत ऊंचाइयों से-

कहीं नहीं गया वह

सदियों से वहीं है..

वहीं मेरे घर-दालान-ओसारे में

टहलता हुआ, मुझे टेरता हुआ

 

 

ओह, स्वप्न टूटा तो

फिर पाया दुःख को

अपने बहुत निकट,

अपने हृदय में ही

फिर एक टीस की तरह!

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है)

 



संपर्क

सुशील कुमार

जिला शिक्षा पदाधिकारी का कार्यालय

नया समाहारणालय ब्लॉक बी, द्वितीय तल

पोस्ट छत्तरमांडू

रामगढ़ (झारखंड)

 

ई मेल- sk.dumka@gmail.com

 

 

मो० नं०- 7004 353 450 

0 9006740311


टिप्पणियाँ

  1. इंतजार में अस्थि कलश, प्रलय में भी लय जैसे शीर्षक यह बताने के लिए काफी हैं कि सुशील कुमार कितने संवेदनशील और जुझारू कवि हैं। उनकी यहां प्रकाशित सभी कविताओं में एक खास तरह का अनूठा अन्तर्द्वन्द है जो पाठक को हिलाकर रख देता और कुछ बेहतर दिशा में सोचने के लिए मजबूर करता है। साथ ही एक सिद्ध आलोचक होने के नाते सुशील कुमार जी कविता की खूबियां और खामियां समझते हैं। पहली बार के संपादक को बार -बार बधाई अच्छी कविताएं प्रकाशित करने के लिए।
    डी एम मिश्र

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  2. हार्दिक बधाई सुशील कुमार भाई की
    बहुत ही उम्दा कविताएं पढ़वाने के लिए

    जवाब देंहटाएं

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