हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएँ
हरीश चन्द्र पाण्डे |
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कविता इस दुनिया को संवेदनशील नजरिए से देखने की वह विधा है जिसे एक कवि हू ब हू शब्दांकित कर देने की क्षमता रखता है। ऐसा तभी हो सकता है जब दृष्टि सूक्ष्म होने के साथ साथ विचार मानवीय हों। कोरोना काल समूची मानव प्रजाति के लिए त्रासद समय है। प्रवासी मजदूरों के पलायन की गाथा एक अमिट इतिहास बन चुकी है। कोरोना का कहर आज भी जारी है और प्रवासी मजदूरों की दिक्कतें अभी भी अपारावार हैं। कवि हरीश चन्द्र पाण्डे ने इन प्रवासी मजदूरों की त्रासदी को काव्यबद्ध किया है। इन प्रवासियों के लिए अपने ही राज्य किसी राष्ट्र की शक्ल लिए खड़े हो गए तो जिले राज्य की शक्ल में आड़े आ गए। और तो और उनका गाँव जहाँ वे कभी भी बेखटके चले आते थे, वहाँ पहुंचने के लिए उन्हें क्वारंटाइन होना पड़ा। आज पहली बार पर हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएँ प्रस्तुत हैं। ये कविताएँ पहल के ऐतिहासिक 125 वें अंक में प्रकाशित हैं।
हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएँ
डूबना एक शहर का : प्रसंग टिहरी
अपने डूबने में यह हरसूद का समकालीन था
शहरों की बसासत के इतिहास को देखें
तो यह एक बचपन का डूबना था
इतिहास से बाहर जाएँ, जैसे मिथक में
तो यहाँ एक मुक्ति दा नदी बाँधी जा रही थी
और यह डूबना उसी का अभिशाप हो सकता था
यहाँ हर चीज अपने ही अंदाज़ में डूब रही थी
भरी हुई बाल्टियाँ, ड्रम, जग
समाधि जैसी ले रही थीं
खाली बर्तन ना ना करते हुए डूब रहे थे... गुडूप
पानी की उठती दीवारों में वनस्पतियां चिनी जा रही थीं
आहिस्ता-आहिस्ता
जो जितना उम्रदराज था उसके उतने ही अधिक दिन डूबे
जिसके जितने अधिक दिन डूबे
उसकी उतने भर अधिक आयतन की यादें उभरीं
प्रारंभिक पाठशाला की दीवारें अधिक उम्रदराज थीं
बनिस्बत डिग्री के
जाने कितनी तवील उम्र लिए बैठा था श्मशान
सबसे पहले वही डूबा
आरतियाँ, अजान, अरदास सब डूबने में एक साथ थे
आंदोलनों की दरियां डूब रहीं थीं धूल के साथ
जमाने से नीचे नीचे बहती आई नदी ने
पुल के गुरुत्व को लांघ लिया था
वह आदमी जो इकतीस जुलाई दो हजार चार को
शहर छोड़ कर गया बताया गया
उसकी पीठ देखने वाली कोई आँख न थी
सिवाय एक घण्टा घर के
जो अपने डूबने से पहले
सबके डूब समय का इंदराज करता रहा था
बाँध एक विचार था दो फाड़
कहना मुश्किल था
यह खुशहाली का ऊपर उठता हुआ स्तर था
या एक दुखान्त नाटक का रिहर्सल
बहरहाल
सावन भादो इसे नगाड़े की तरह बजाते है
चाँद इसकी सतह पर जम कर स्केटिंग करता है
अभी यह शिवालिक की गोद में बैठा समुद्र का शावक है
पर्यटक आंखें, अपलक देख रही हैं इसका जल विस्फार
और विस्थापित आँखें मूंद कर
अतल में सोई अपनी सिन्धु घाटी को देख रही हैं
तिब्बत बाजार
गया तो था एक गफ्फ ऊनी मफलर के लिए
पर वहाँ खुद को हींग खोजते हुए पाया
क्या खुशबू भी उम्रदराज हुआ करती है?
मैं अभी एक लामा औरत की गोद में बैठे बच्चे में अनुदित हो गया हूँ
जो अपनी रुलाई से माँ को हलकान किए है
मैं उसकी प्लास्टिक खिलौना सीढ़ी से
उतर आया हूँ समय के बेसमेंट में
जहाँ माँ अपना अन्तिम हथियार इस्तेमाल करते हुए कह रही है मुझसे
चुप हो जा, नहीं तो लामा पकड़ ले जाएगा
मैं पीठ पर बँधा बच्चा हो गया हूँ
और लामाओं के आने की ऋतु में, फिर कभी नहीं रोता
हेमन्त की निकासी में उनकी आमद छुपी रहती है
उनकी आमद में छुपी रहती है हींग
सारे बच्चे जब सोच रहे होते हैं कभी न जाए हेमन्त
सारी रसोइयां बेसब्री से उनका इंतजार कर रही होतीं
सीमान्त पर जब कोई लामा डमरू बजाता दिखता
गाँव खुशबू की दोशाला ओढ़ लेता
लामा हर साल आते मौसम विशेष पर
पेड़ों पर वसन्त टाँक कर चले जाते
एक बार वे बेमौसम आ गए झुण्ड के झुण्ड
जैसे पक्षी विहार में किसी ने गोली चला दी हो
उनके दुर्दिनों ने सारे खंडहरों को आबाद कर दिया था
यहाँ जब जब उनकी सिसकियों की दीवारें उठतीं
बच्चों की मुस्कान - छतें उन्हें ढँक लेतीं
लो थो चंद्रसौर पंचांग फड़फड़ाते रहे इस बीच
... यह बाजार उन्हीं के जीने का विस्तार है
मुझे एक मफलर खरीदनी थी यहाँ
पर मैं हूँ कि हींग की खुशबू से बाहर नहीं आ पाया हूँ
एक बुजुर्ग उन के गोले बना रहा है, दत्तचित्त
मैं उसे कहीं से उधेड़ना चाहता हूँ
उसके नजदीक जाकर हींग की खुशबू के बारे में पूछता हूँ धीमे से
वह मुझे तिब्बत के बारे में बताने लगता है
इसीलिए
बना तो था अक्षरों से ही
पर वह शब्द अब काट दिया गया है
काटा भी गया तो इस तरह कि
वह सीखचों के भीतर चला जाए
मात्राएँ शाखों की तरह काट दी गईं
खारिज़ करने का यह कितना नायाब शिल्प है
कहीं इसीलिए तो नहीं
कि कोई चीन्ह न ले
कि यह कहीं बेहतर शब्द था उससे
जो कथा में अब राज कर रहा है प्रकाशित हो हो कर
कोई नई बात भी नहीं है यह
जाने कैसे कैसे जहीन चेहरे सीखचों के पीछे पड़े हैं
(रवीन्द्र नाथ ठाकुर पर अशोक भौमिक के एक लेख को पढ़ते हुए।)
वे जब भी आए
(कोरोना काल में प्रवासी मजदूर)
पूर्वी तटों से आए हों या पश्चिमी
जब भी आए वे
वे मानसूनों की तरह आए भरे भरे
होली दीवाली ईद की तरह आए अपने अपने वापसी टिकटों के साथ
सब कुछ लुटा कर कभी नहीं आए
इस तरह कैमरे पहले कभी नहीं आए उनके सामने
किसी द्रोण ने नहीं देखा पहले
घूमती पृथ्वी के भीतर तेज़ तेज़ डगें भरती स्त्री को
जिसके हाथ उस सूटकेस के पहियों को गति दे रहे थे
जिसके ऊपर चलते चलते एक थका बच्चा
नींद की एक फाँक चुरा रहा था
उनकी दूरियां सैकड़ों, हजारों किलोमीटर की थीं
उन्होंने जमीन को मेज पर बिछा हुआ नक्शे का कागज़ मान लिया
और हजार मीटर को एक सेंटीमीटर
उन्हें अपारावार देख
घबरा रहे थे पुल
जबकि उनकी कुल जेबें खाली थीं
उनके पास दिलों के अलावा कोई भारी सामान न था
अभी राज्यों का बर्ताव देशों जैसा था
जिलों का राज्यों सा
वे अभी अपने गांवों के बाहर शिविरों में पड़े हैं
अपने अपने घरों को निहारते
घर और उनके बीच
ध्रुवों सा लम्बा सूर्यास्त है
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 9455623176
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13-05-2021को चर्चा – 4,064 में दिया गया है।
जवाब देंहटाएंआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
लाजवाब अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचनाएँ
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचनाएं
जवाब देंहटाएंसहज और सघन। पढ़कर वहीं बैठा हूँ हींग खोजता।
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविताएँ। प्रिय कवि अग्रज को खूब शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंआभार 'पहली बार'।