विनोद शाही का आलेख 'भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद'।
विनोद शाही |
पुनर्जागरण के पश्चात यूरोप में आधुनिक राष्ट्रवाद की शुरुआत हुई। इस राष्ट्रवाद ने धर्म के सामने चुनौती प्रस्तुत किया। आगे चल कर धर्मनिरपेक्षता के आविर्भाव से धर्म की भूमिका कुछ और सीमित हो गई। लेकिन इसके इतर एशियाई देशों में धर्म की प्रमुख भूमिका बनी रही। भारत का बंटवारा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
आज दुनिया में भारत की जो पहचान है, उसमें उसकी गंगा जमुनी तहजीब का बड़ा हाथ है। यह तहजीब एक दिन में नहीं बनी। बल्कि इसे बनने में हजारों साल लगे। दुर्भाग्यवश अंगेजों ने 'बाँटो और राज करो' की नीति का अनुसरण करते हुए भारतीयों को उस हिन्दू और मुसलमान के खांचे में बाँट दिया जो मूलतः अलगाववादी था। हम भी बिना सोचे समझे अंग्रेजों के चाल में फंस गए। वैसे दुनिया में कई ऐसे देश थे जहाँ विभिन्न जाति, नस्ल, धर्म के लोग मिलजुलकर रह रहे थे और अपने राष्ट्र की प्रगति में मिलजुल कर अपना योगदान दे रहे थे। लेकिन यह भारत था जहाँ के दो प्रमुख धर्मावलंबी एक साथ रहने के लिए अब तैयार ही नहीं थे। इनके बीच की खाई कुछ इस कदर थी कि इन धर्मों के प्रमुख बुद्धिजीवियों तक ने पूरी तरह आत्मसमर्पण करते हुए खुद को दो राष्ट्र के रूप में देखना शुरू कर दिए। इसका दंश हमें अन्ततः विभाजन के रूप में चुकाना पड़ा। लेकिन आज भी हिन्दू और मुस्लिम राष्ट्रवाद का ज्वार थमने का नाम नहीं ले रहा। विनोद शाही ने इस सवाल पर सोचते विचारते हुए एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा है - 'भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद'। आज पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है विनोद शाही का आलेख 'भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद'।
भारतीय संस्कृति और हिंदू राष्ट्रवाद
विनोद शाही
आइए नौवीं दसवीं सदी के सिंध और मुल्तान के परिदृश्य में थोड़ी वापसी करते -हैं। यह वह समय है जब इतिहास के एक महासंक्रमण की छाया तले नई लोकगाथाओं का जन्म हो रहा था। ये लोक कथाएं हमारे सामूहिक चित्त को इस कदर प्रभावित कर रही थीं कि वह धीरे-धीरे नई तरह के मिथकों का सृजन करने लगी थीं। ऐसे ही एक मिथक पात्र हैं, नौवीं दसवीं सदी के झूले लाल। उन्हें वरुण देवता का अवतार माना जाता है। इनके संबंध में प्रचलित लोक गाथा उस समय मिथक का रूप लेती है, जब एक नए इतिहास की रचना हो रही थी। जहां तक नए इतिहास के प्रकट होने का सवाल है, उसके लिए हमें आठवीं सदी के हालात में लौटना होगा। उस समय भारत पर मोहम्मद बिन कासिम का हमला हुआ था। इसके परिणामस्वरूप भारत में इस्लाम और इस्लामी शासन का प्रवेश होता है। मोहम्मद बिन कासिम ने उस समय भारत में प्रवेश कर के सिंध और मुल्तान में इस्लाम के शासन की नींव रख दी थी। वह आख्यान एक नये इतिहास के द्वार की तरह खुलता नजर आता है। वहां से हो कर बाद में भारत में तुर्क, अफगान और मुगल अपने-अपने साम्राज्यों की स्थापना के लिए प्रवेश करते हैं। इस तरह वे सब मिल कर भारत के मध्य काल को एकदम एक नई शक्ल प्रदान करते हैं।
आठवीं सदी की ये जो घटनाएं हैं उन्होंने सिंध प्रदेश को भारत की एक नई परिभाषा गढ़ने की आधार भूमि बना दिया था। वहां बहने वाली सिंधु नदी और उसके आसपास की सिंधु घाटी की सभ्यता भारत की पहचान का जैसे आईना हो गई थीं। सिंधु शब्द बिगड़ कर हिंदू हो गया। इस तरह भारत के हिंद हो जाने और हिंदू भारत के रूप में एक नई शक्ल लेने का आगाज़ होता है। इतिहास के इस अध्याय से हम सभी वाकिफ हैं। यहां जो बात इसके साथ जुड़ कर रेखांकित करने लायक प्रतीत होती है, वह यह है कि इस्लाम के शासन के एक डेढ़ सदी के अंतराल में ही सिंध और मुल्तान में जबरदस्त सांस्कृतिक अंतः संघर्ष के हालात पैदा हो गए थे। जैसे ही वहां कुछ इस्लामी शासकों ने कुछ हिंदू धर्मावलंबियों को जबरदस्ती मुसलमान धर्म कुबूलने के लिए दबाव डाला, वहां इसके प्रतिरोध में यह झूलेलाल की कथा प्रकट हुई। लोक गाथाएं इस ओर इशारा करती हैं कि झूलेलाल ने सिंध में हिंदू धर्मावलंबियों के जबरन धर्म परिवर्तन को रोक कर एक नई सहनशील संस्कृति के लिए जगह बनाई थी। झूलेलाल का यह कारनामा उन्हें एक अवतार के रूप में स्थापित करता है। परंतु जो बात ज्यादा गौरतलब है, वह यह है कि वह केवल एक हिंदू अवतार के रूप में ही वहां स्थापित नहीं हुए थे। समय लगा, परंतु 10 वीं शताब्दी के आसपास वहां एक पीर प्रकट हुआ, लगभग आधी या एक सदी के अंतराल से। उसका नाम था लाल शाहबाज कलंदर। वह मध्य एशिया से वहां आया था, उसी तरह जैसे उधर के बाकी तमाम सूफी अफगानिस्तान के रास्ते भारत में दाखिल हुए। शाहबाज कलंदर भारत में आ कर यहां एक महान पीर के रूप में मकबूल हो गया। कहते हैं शाहबाज रूमी के समकालीन थे और यह कथा भी है कि लगभग उसी दौर में महान सूफी मनसूर भी भारत की यात्रा पर आए थे। वे यहां आ कर वेदांत के प्रभाव को आत्मसात करने की वजह से ‘अनल हक’ यानी अहम् ब्रह्मास्मि के दर्शन तक पहुंच गए थे। बेशक इसके लिए उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। मनसूर की शहादत उस दौर में इस ओर इशारा करती है कि तब के भारत के हालात धार्मिक दृष्टि से बेहद उदार, सहनशील और प्रगतिशील किस्म के थे। यहां विचारों के आदान-प्रदान और परस्पर रूपांतर के लिए बड़ी गुंजाइश थी। परंतु वह दौर मध्य एशिया में इस्लामी कट्टरपंथ के उभार का दौर भी था। इसके चलते मनसूर को अंततः अपनी जान गंवानी पड़ी। परंतु शाहबाज कलंदर जब सिंध में आए और सेवन के इलाके में बस गये, तो उनके उदार और प्रगतिशील नज़रिए के कारण सिंध ने उन्हें झूलेलाल के ही एक नए अवतार की तरह स्वीकार करना आरंभ कर दिया।
धार्मिक सहनशीलता, आपसदारी और सांझे अंतर्विकास का यह एक ज्वलंत उदाहरण है कि एक पीर एक हिंदू देवता के अंशावतार का पुनर्-अवतार मान लिया गया।। यह अभूतपूर्व ही नहीं, एक अद्वितीय घटना भी है। न इससे पहले कभी ऐसा हुआ, न इसके बाद के किसी हिंदू अवतार ने किसी मुस्लिम पीर की तरह पुनर्जन्म लिया हो। इसके उलट भी ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई मुस्लिम पीर पैगंबर किसी हिंदू अवतार की तरह हमारे सामने आया हो।
इसका मतलब यह है कि इस्लाम के भारत में प्रवेश के साथ जो हिंदू राष्ट्र नामक एक नई अवधारणा सामने आई थी, उसके आरंभिक दौर में यह संभव हो पाया था कि हिंदू और मुस्लिम धर्म एक दूसरे के साथ संवाद करते हुए एक नई सांस्कृतिक चेतना को जन्म दे सके। यह नयी सांस्कृतिक चेतना खालिस भारतीय थी। हमारी अपनी ज़मीन से उपजी थी। इसमें न कोई हिंदू की तरह शेष बच पा रहा था, न मुसलमान की तरह।
लेकिन जहां एक तरफ हमारे यहां सांस्कृतिक धरातल पर धार्मिक सांप्रदायिक आपसदारी के सांझे समीकरण प्रकट हो रहे थे, वहां सत्ता की बिसात पर और अधिक कट्टर व मूलवादी मजहबी चेतना के हालात भी अपने लिए जगह बनाने लग पड़े थे। ये दोनों चीजें एक दूसरे के सह समांतर भारतीय परिदृश्य में मौजूद थी। जहां तक लोक चेतना का प्रश्न है वहां सांस्कृतिक आपसदारी का जो नया परिदृश्य सामने आ रहा था, उसके केंद्र में सूफी और हमारे यहां के सिद्ध, नाथ पंथ, योगी और निर्गुण धारा के लोग थे। ये खुली बहसों के लिए तैयार थे। परंतु दूसरी ओर जो सत्ता परिदृश्य निर्मित हो रहा था वहां मुस्लिम शासक अपना राज्य चलाने के लिए हिंदू शासकों के साथ समझौतों और गठबंधनों की राजनीति कर रहे थे। दोनों की अपनी-अपनी धार्मिक आस्थाएं थी। दोनों को अपनी-अपनी विशिष्टता के साथ जीने की ज़रूरत महसूस हो रही थी। हालांकि आपसदारी का आधार वहां भी था, परंतु वहां अपने अपने धर्म को अलग सांस्कृतिक चेतना की तरह जीवित रखते हुए समझौतों और गठबंधनों के द्वारा अधिक शक्तिशाली होने का प्रयास किया जाने लगा था।
एक दूसरा कारण भी था, जो अधिक महत्वपूर्ण था। उसका संबंध उस दौर में रेशम मार्ग पर फिर से आवाजाही बढ़ जाने के कारण मज़बूती पकड़ रहे व्यापारिक पूंजीवाद के साथ था। शासकों का सारा दारोमदार उस दौर के व्यापारिक पूंजीवाद से अर्जित की गई उस अतिरिक्त पूंजी पर था, जिससे भारतीय उपमहाद्वीप में वे अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाते हुए देखे जा सकते थे। मूलतः ये व्यापारी रेशम मार्ग के माध्यम से भारत के मसालों और अन्य पदार्थों को ले कर मध्य एशिया की ओर जाते थे और वहां से काफी मुनाफा कमा कर वापिस लौटते थे। देशी राजाओं की आर्थिकता का मूल स्रोत यही व्यापारी थे। इन व्यापारियों का हिंदूकरण करते हुए यह प्रयास किया जा रहा था कि वे इस्लाम के सांस्कृतिक आक्रमण के बरअक्स अपने हिंदूवादी रूप को संगठित करते हुए अपनी शक्ति को बढ़ाए। इस अर्थ में उस दौर का हिंदूवाद देशी राजाओं के द्वारा अपने अस्तित्व को मज़बूती प्रदान करने का हेतु बन गया था। यह बात आठवीं से 11वीं शताब्दी के बीच की है। उस दौर में मध्य एशिया काफी उथल-पुथल वाले परिदृश्य की तरह सामने आया था। इस्लाम के कट्टर रूपों के उदय के कारण इस्लाम का पतनशील रूप भी उसी दौर में प्रकट होना आरंभ हुआ था। इसीलिए प्रगतिशील, उदार, मानवीय और खुली सोच रखने वाले सूफी कट्टर मुल्लांवाद के विरोध में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगे थे। परंतु मुल्लांवाद के मज़बूत होने के कारण इन सूफियों को वहां से विस्थापित हो कर भारत की ओर रुख करना पड़ रहा था। पहले सूफी लोग भारत की ओर आए। उन्होंने यहां निर्गुण नाथ पंथियों के साथ मिल कर एक नई साझी धार्मिक चेतना का विकास पहले से ही आरंभ कर दिया था। इस्लामी शासक पीछे-पीछे आए। उनके साथ मुल्लांवाद भी आया। अब यह जो मुल्लाओं का कट्टर धर्म था, वह भारत में अपनी जड़ें जमाने में असमर्थ था। जब पहली दफा जबरन धर्मांतरण का प्रयास हुआ तो उसका विरोध झूलेलाल वाले एक नए सांस्कृतिक रूप ने किया। वह इतना कारगर साबित हुआ कि बाद में शाहबाज कलंदर उसी के अवतार के रूप में हमारी लोक चेतना का हिस्सा हो गए।
सिंध में उस दौर का एक गीत बाद में अनेक कवियों के द्वारा पुनः पुनः अपने अपने रंग में लिखा जाता रहा। वह अभी तक सूफी कलाम की दुनिया में बहुत लोकप्रिय है। यह गीत ‘दमा दम मस्त कलंदर’ के नाम से जाना जाता है। परंतु इस गीत की आरंभिक पंक्ति है - ‘ओ लाल मेरी पत रखियो झूलेलालन’। यह जो झूलेलाल है, यही अगली पंक्ति में शाहबाज कलंदर बन जाते हैं। उनके लिए जो पंक्ति है वह इस प्रकार है -
‘सिंदादी दा, सेवंन दा, सखी शाहबाज कलंदर, दमा दम मस्त कलंदर’।
यानी झूलेलाल और मस्त कलंदर इस गीत में जैसे एकाकार हो गए हैं। इसमें जो आंतरिक पंक्तियां हैं वह भी इस आंतरिक गठजोड़ को बहुत साफगोई से हमारे सामने रखती हैं। वह पंक्तियां इस प्रकार हैं –
‘हिंद सिंध पिरा तेरी नौबत बाजे,
नाल बजे घड़ियाल बला झूले लालन’।
अब यहां पूरे हिंद और सिंध में पीर की नौबत के साथ झूलेलाल के घड़ियाल के बजने के स्वर इस तरह गूंजते दिखाई देते हैं, जैसे ये दो अलग सुर ना हो कर एक ही सुर की दो अनुगूंजें हों।
यह जो आपसदारी का परिदृश्य है वह उस भारत की सांस्कृतिक आत्मा की ओर इशारा करता है, जो हिंद या हिंदुस्तान की मूल चेतना के रूप में हमारे यहां विकसित हुई। इसके केंद्र में हमारे यहां के निम्न वर्गों के लोग अधिक थे। यह हम जानते ही हैं कि हमारे यहां के ज्यादातर नाथ, सिद्ध, रमते जोगी और निर्गुण धारा के संत सामान्य जन से ताल्लुक रखने वाले ऐसे लोग थे, जो ज्यादातर घुमक्कड़ी करते थे और लोगों के बीच जाते थे और उनके दिए भिक्षान्न से अपना गुजारा करते थे। वे सामान्य जन के बीच से उठे हुए ऐसे संस्कृति पुरुष थे जिनकी जड़ें भारत के उत्पादक वर्गों में थी। इनमें किसान थे, तरखान लोहार, कुम्हार, मोची, नाई, कसाई और इसी तरह के दूसरे काम करने वाले लोग थे। हस्तशिल्पियों में इस तरह की चेतना के प्रवेश से यह हो रहा था कि हमारे यहां का उत्पादक वर्ग सीधे-सीधे विकास की ओर अग्रसर हो कर भारतीय हिंदुस्तान और मध्य एशिया के बीच एक पुल बनने लगा था। यह सिलसिला आगे तेरहवीं चौदहवीं सदी तक चला। परंतु इस के सह समांतर सिंध और मुल्तान में इस्लाम के आ जाने के बाद से, भारत के सवर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और उनसे जुड़ा सत्ता तंत्र इस जनमूलक उभार के संबंध में चिंतित था। चिंता इस बात की थी कि इस जनमूलक अर्थतंत्र का अब वे संचालन और नियंत्रण कर पाने में खुद को असमर्थ पा रहे थे। इस चिंता के कारण एक प्रतिक्रिया मुल्क सांस्कृतिक अंतर्गठन सामने आया। इस प्रतिक्रियावाद की ज़मीन व्यापारिक पूंजीवाद में थी और इसे संरक्षण मिला था हिंदू राजाओं से, जो अब फिर से अपनी शक्ति को बटोर कर मज़बूत होना चाहते थे।
8 वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने ‘पंचायतन पूजा’ की बात इस दृष्टि से की थी, कि अलग-अलग प्रतीत होने वाले हिंदू धर्म के देवता एक जगह पंचायतन या पंचायत वाली सभा में एक साथ में बैठे दिखाई दे सकें। शंकराचार्य ने भारत के जिन चार मठों को स्थापित किया उनका संबंध भी वेद और ब्राह्मण की सत्ता को पूरे भारत में स्थापित करने के साथ था। पंचायतन पूजा से इस हिंदू केंद्रित संस्कृति का रिश्ता जोड़ने के बाद, यह ब्राह्मणवाद हमारे यहां भक्तिवाद की ओर अग्रसर हुआ। भक्ति की परिभाषा निर्धारित करते हुए नारद और शांडिल्य उसे ‘पूजादिषु अनुरागः’ यानी पूजा आदि की विविध पद्धतियों में उत्पन्न होने वाला अनुराग कहते हैं। इस तरह से देखा जाए तो हम कह सकते हैं कि सवर्णों के द्वारा हमारे यहां जो भक्तिवाद लाया गया, उसका मकसद दरअसल हमारे यहां के उत्पादक वर्गों को सवर्णों की व्यवस्था के भीतर लाना था। इसके लिये भक्ति एक कारगर अस्त्र की तरह लायी गयी। ज्ञान और विज्ञान को सवर्णों के लिये सुरक्षित रख लिया गया और श्रमशील वर्गों को भक्ति मार्ग में दीक्षित कर के गठित किया गया, ताकि सभी भारतीय मुसलमानों से भिन्न, अलग तरह का आचरण व्यवहार करने वाले मालूम पड़ें। ऐसा करने से बड़े व्यापारियों को एक आधारभूमि मिल गयी कि वे भक्ति वाले भाईचारे या पंथों से जुड़े इन उत्पादक वर्गों को अपने प्रभाव क्षेत्र में ला सके। ऊपर से देखने पर यह एक सांस्कृतिक मामला लगता था, पर इसका असली मकसद उनका माल ले कर स्वयं मुनाफा कमा सकने का था। इस तरह हिंदू राष्ट्र वाली चेतना का आरंभिक दौर का गठन, मुस्लिम शासन की चुनौती के बरअक्स एक तरह के सांस्कृतिक प्रतिरोध की तरह होता है।
इस्लामी प्रभाव और इस्लामी शासकों के वर्चस्व के समांतर, देशी राजा व्यापारिक पूंजीवाद की बुनियाद पर खड़े हिंदू राष्ट्रवादी सांस्कृतिक परिदृश्य को पालने-पोसने और मज़बूत बनाने में लग गये थे। इस तरह वे अपने आपको बनाये बचाए रख पाने में एक हद तक कामयाब हो पा रहे थे। फिर हुआ यह कि जब बाद में मुगल इस लायक हो गए कि वे अधिकांश भारत को अपने शासन के अधिकार क्षेत्र में शामिल करने में बहुत हद तक सफल हो गए, तब भी वे शासन चलाने के लिए हमारे देसी शासकों पर ही निर्भर रहने के लिये विवश थे। देसी शासक दोयम स्थिति में होते हुए भी इसलिए मज़बूत बने रह सके थे क्योंकि भारत की आर्थिकता में वर्चस्वी स्थिति रखने वाले बड़े व्यापारी, जिनमें से अधिकांश हिंदू थे, उनके साथ खड़े थे।
भारत के उत्तरमध्यकालीन अर्थतंत्र का हिंदूकरण इसलिए संभव हो पाया था, क्योंकि ब्राह्मणवादी भक्तिवाद धीरे-धीरे मजबूत होकर भारत के तमाम उत्पादनशील तबको को अपने सांस्कृतिक परिदृश्य का हिस्सा बनाने में कामयाब हो सका था। परंतु यह कामयाबी उन्हें सोलहवीं सदी के आसपास ही मिल पाई थी। लिहाजा आठवीं शती से ले कर 15वीं सदी तक का समय संक्रमण काल के रूप में दिखाई देता है। संक्रमण काल में उत्पादन करने वाले तबके सीधे तौर पर समृद्ध हो सकने की स्थिति में दिखाई देने लग पड़े थे। इसका मुख्य कारण था सूफियों और निर्गुणियों की आपसदारी। इस आपसदारी से जन्म लेने वाली साझी संस्कृति, भारतवंशियों के इस नये प्रकट हुए हिंद वाले रूप को, एक नई तरह के सांस्कृतिक यथार्थ के रूप में गढ़ और रच रही थी।
संक्रमण काल में हिंदू के उदार धर्मनिरपेक्ष रूप से ताल्लुक रखने वाले सूफी और निर्गुण लोग मनुष्य केंद्रित सोच रखने वाले लोग थे। इनका संबंध देह केंद्रित साधनाओं के साथ था। वे मनुष्य के ही सीधे ब्रह्म या अल्लाह की सल्तनत का हिस्सा होने की काबिलियत रखने वाले लोग थे। मनुष्य के ब्रह्म हो जाने की संभावना एक ऐसी बात थी जिसका संबंध सीधे-सीधे उत्पादनमूलक रचनाशीलता के आदर्शीकरण के साथ था। देहकेंद्रित साधना उत्पादनमूलक रचनाशीलता की ज़मीन की तरह हमारे सामने आती है। इस रचनाशीलता से युक्त लोग स्वयं ब्रह्म के बराबर हो सकने की अपनी काबिलियत में सहज ही यकीन रखते थे। इसलिए वे किसी भी तरह की राजनीतिक सत्ता वर्चस्व वाली व्यवस्था की दासता नहीं कुबूलते थे। ‘संतन सो कहा सीकरी सो काम’ - वाली मानसिकता के द्वारा वे जन समाज को स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बनाते थे और उसमें गहरे आत्मविश्वास का संचार भी करते थे। ब्राह्मणवादी वर्ण विभाजन के लिए इनके यहां कोई गुंजाइश नहीं थी। ये लोग खुद को हिंदू या मुसलमान कहने से भी गुरेज करते थे। इस दौर में भारत आत्मस्वायत्त अर्थव्यवस्था पर आधारित आत्मोत्थान से युक्त जन चेतना के विकास का काल दिखाई देता है।
यही संक्रमण काल दरअसल भारतीय पुनर्जागरण का काल भी है। बेशक केंद्रीयकृत सत्ता वर्चस्व की दृष्टि से हम इसे विखंडन का काल भी कह सकते है। परंतु साझी संस्कृति के विकास का आधार होने से यह काल एक नई तरह के भारत के जन्म लेने की ओर इशारा करता है।
लिहाजा बाद में जब केंद्रीकृत सत्ता वर्चस्वी परिदृश्य अधिक मजबूत होता है, तब भक्तिवादी हिंदूवाद की मदद से वह इस जन चेतना का अपने पक्ष में इस्तेमाल करने के लिए रास्ता निकाल लेता है। यह रास्ता उस दौर में प्रकट होने वाले पुनर्जागरण को कुंठित करने वाले भक्तिवाद के रूप में सामने आता है। भक्तिवाद 16वीं शताब्दी के आसपास पनपता है। यह वह काल है जब भारत को एक हिंदू राष्ट्र की तरह गठित करने का सपना देखने वाली बात, ‘रामराज्य’ के पुनरुत्थान की बात की तरह सामने आती है। सांझी सांस्कृतिक चेतना सांप्रदायिक हो जाती है और हिंदू राष्ट्रवादी चेतना में बदलने लगती है। इसको सामने लाने और मजबूत करने में उस दौर के व्यापारियों की बड़ी भूमिका दिखाई देती है। व्यापारी वर्ग, ब्राह्मणों और देशी राजाओं की मदद से बड़े व्यवस्थित तरीके से यह काम करता है। वह सूफियों और निर्गुणियों के पंथ, डेरे, आश्रम, मठ आदि बनाने में अपनी पूंजी लगाता है। ये पंथ निर्गुण ज्ञानमार्गियों का भक्तिकरण करते हैं। कबीर, रैदास जैसे संतों की वाणियों को प्रक्षिप्त कर के उनमे भक्ति का समावेश कराया जाता है। इस तरह धीरे-धीरे उन्हें मानने वाले सामान्य जनों का, जिनमें अधिकांश हस्तशिल्पी व श्रमशील लोग थे, भक्तिकरण होने लगता हैं। जैसे ही सूफियों और निर्गुणियों का इस रीति से भक्तिकरण होता है, वैसे ही उत्पादनशील तबके अचानक पृष्ठभूमि में चले जाते हैं और व्यापारी वर्ग फिर से केंद्र में आ जाता है।
पंद्रहवीं शती के बाद भारतीय पुनर्जागरण को निरस्त करने वाली पतनशील और विलासोन्मुख व्यापारिक पूंजी के केंद्र में आने के अनेक कारण है। 16वीं सदी में वास्कोडिगामा के द्वारा की गयी भारत की खोज से व्यापार हेतु जलमार्ग खुल गया था। इससे यूरोप के साथ भारतीय व्यापारियों के सीधे संपर्क की भूमिका बनने लगती है। रेशम मार्ग से होने वाले व्यापार में हिंदू मुस्लिम समाज की बराबर की साझेदारी वाला जो इससे पहले का परिदृश्य है, वह यूरोप के इस नए संपर्क की वजह से तेजी से बदलता है। यूरोपीय व्यापारी भारत के विविध समुद्री पोर्ट्स पर आ कर नई तरह के व्यापार को आधार प्रदान करते हैं। उनका संबंध मूलतः हिंदू व्यापारियों के साथ होता है। अब यह जो हिंदू व्यापारी है वह भारत के दक्षिण में 10वीं शती से ही वर्चस्व की स्थिति में रहा है। दक्षिण भारत का भक्तिकरण ‘नालायिर प्रबंधम्’ के 10वीं सदी में लिखे जाने की प्रक्रिया के साथ ज़मीन पकड़ने लगता है। इसे ठीक से समझा जाए तो हम कह सकते हैं कि दक्षिण में हिंदूवाद का गठन पहले होता है, उत्तर भारत में उसका प्रवेश बाद में होता है जो 16वीं शताब्दी के आसपास ही कहीं जा कर वहां अपनी जड़ें जमाता दिखाई देता है। सोलहवीं शती से पहले जो दक्षिण के आचार्य उत्तर की ओर आए उनके पांव जमते-जमते भी सोलहवीं शती के आसपास जा कर ही कहीं जम पाते हैं।
सोलहवीं शती का समय वह समय है जब उत्तर भारत में निर्गुण धारा का विरोध करने वाली राम भक्ति और कृष्ण भक्ति का प्रसार होने लगता है। इससे पूर्व का समय निर्गुण धारा के ज्ञानमार्गी संतों और सूफियों का है। निर्गुणिये और सूफी सीधे-सीधे उत्पादनशील तबकों के सांस्कृतिक प्रतिनिधि है। उत्पादनशील तबकों की निर्गुणवादी और योगमूलक विचारधारा को परे हटा कर ही भक्तिवाद आता है, जिसका गठन मूलतः व्यापारियों के भीतर से उठे हुए संस्कृति पुरुषों के द्वारा किया जाता है। सबसे पहले हम 15वीं 16वीं सदी में गुरु नानक को व्यापारी वर्ग से ऊपर उठ कर ‘सच्चा सौदा’ करते हुए देखते हैं। वे योग मार्ग से खुद को अलहदा करते हैं और नाम जप के साथ साथ आचरण मूलक मर्यादाओं को केंद्र में लाने का प्रयास करते हैं।
भक्ति मार्ग और निर्गुण विचारधारा में मूलतः जो फर्क है, वह यह है कि भक्ति मार्ग मर्यादावादी और अनुकरणमूलक होता है, जब कि निर्गुण धारा प्रश्नमूलक हो कर खोज करने की ओर ले जाती है। भक्ति कहती है, जो मिलता है, गुरूप्रसाद से मिलता हे और निर्गुण धारा कहती है, जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठि’। भक्ति से जुड़ी चेतना के केंद्र में नाम जप, कीर्तन, समर्पण, परिक्रमा व भोग लगाने आदि के व्यवहार दिखाई देते हैं, जबकि निर्गुण धारा के लोग देह साधना यानी श्रम के द्वारा स्वयं को उस धरातल तक ऊपर उठाते हैं जहां उनका अपना आचरण मर्यादा हो जाता है और विवेक केंद्र में आ जाता है। साधना से आचरण की शुद्धता और मर्यादा की ओर यह जो आंतरिक तब्दीली है वह ज़मीनी तौर पर उत्पादनशील तबकों की रचनाशीलता है। जबकि दूसरी ओर व्यापारी वर्ग की लेन-देन की शुचिता के साथ जुड़ी जो बातें हैं, वे परंपरा से ताल्लुक रखती हैं। रचनाशील व्यक्ति अपनी मर्यादा अपने भीतर से पाता है, जबकि व्यापारी के लिए वह कार्यकारण मूलक सोच से जुड़ी हुई एक परिणति होती है, जिससे वह स्वयं को अन्यों से श्रेष्ठ बनाता है। मध्यकाल में हमारे आज के समय की तरह लिखित कानून या संविधान की बाध्यता नहीं थी, इसलिए व्यापारी लोग सांस्कृतिक चेतना के तहत उन परंपरा आख्यानों को महान धर्म कह कर उनका पालन करने की हिमायत करते थे, जहां ‘वचन का पालन’ सब से ऊंचा मूल्य था। इस तरह भक्तिवादी विचारधारा ने व्यापारिक पूंजीवाद की ज़रूरतों की पूर्ति के लिये ‘प्राण जाहिं पर वचन न जाहिं’ की बात को सर्वोपरि मर्यादा या सामाजिक मूल्य बना लिया। गुरु नानक और तुलसीदास की विचारधारा में दिखायी देने वाली इस आचरणमूलक एवं मर्यादावादी सोच के कारण ये व्यापारी अपने दौर के नाथ योगियों और निर्गुण संतों से बहुत दूर हो गए थे। इन भक्तिवादियों के नाथ योगियों से कई तरह के शास्त्रार्थ भी हुए थे। गुरू नानक की वाणी में इन शास्त्रार्थों पर आधारित अनेक पद जहां तहां दिखायी देते हैं। संभव है उनकी ऐसी ही कोई बहस स्वयं उनके बेटे श्री चंद से भी हुई होगी, जो नाथ योगी थे। फिर वे अपने पिता से गहरी असहमति रखने के कारण आखिरकार उनके द्वारा स्थापित सिख पंथ से खुद को अलग कर के एक अलग पंथ की स्थापना की ओर निकल गए थे, जिसे हम उदासीन पंथ के रूप में देखते हैं। काशी में इस पंथ का मुख्यालय आज भी है।
गुरु नानक की व्यापारिक पूंजीवाद से निकली सांस्कृतिक सोच से जुड़ी जो आचरणमूलक शुचिता वाली तथा सच्चा सौदा करने वाली समझ थी, वह उस दौर की नब्ज़ को पहचानने वाली साबित होने के कारण युगांतरकारी साबित हुई। उनके पीछे जो पंथ प्रकट हुआ वह व्यापारियों के मुनाफे में दसवें हिस्से को सेवा कार्यों में लगाने के लिए प्रतिबद्ध नज़र आता है। उसने उन लोगों के लिए लंगर की व्यवस्था भी की जो व्यापारियों के मुनाफावाद के कारण उपजी असमानता के कारण अपने खाने-पीने तक का तथा निर्वाह करने तक का प्रबंध नहीं कर पा रहे थे। व्यापारी लोग सामाजिक एकता और अखंडता की स्थापना को सर्वोपरि मानते थे। सिख पंथ में भी सब को एक पंगत में बिठा कर लंगर का खाना खिलाया जाता है, जो उनके द्वारा भेदभाव से ऊपर उठने की औपचारिक उद्घोषणा की तरह दिखाई देता है। औपचारिक इसलिए क्योंकि वह एक समाज-सांस्कृतिक कृत्य तो है, परंतु जहां तक जीवन शैली का प्रश्न था वहां कोई भी गुरु ऐसा दिखाई नहीं देता जिसने अपने वर्णवादी ढांचे को तोड़ते हुए अंतर्जातीय विवाह को अपने परिवार में चरितार्थ किया हो, या उसे स्वीकृति दी हो। इस तरह हमें व्यापारी वर्ग की नैतिकता का भी पता चलता है। वहां एक ऐसा आचरणमूलक तथा पवित्रतावादी शुद्ध ‘रहनी-सहनी’ का आग्रह है जो उनकी श्रेष्ठता को स्थापित करता है। परंतु सामाजिक विभाजन के प्रति औपचारिक रूप में उदार होने के बावजूद उसे पूर्ववत बनाए रखता है।
बाद में राम भक्ति और कृष्ण भक्ति में यह ब्राह्मणवादी सोच के पूरी तरह गठित हो जाने के रूप में सामने आया। तुलसीदास का भक्तिवाद सीधे-सीधे हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा के अंतर्गठन का पर्याय है। हिंदू राष्ट्रवाद का राजनीतिक रूप वाला हिंदुत्ववादी नवगठन औपनिवेशिक दौर में बहुत बाद में हमारे सामने आता है, परंतु सांस्कृतिक रूप में उसका अंतर्गठन गोस्वामी तुलसीदास की विचारधारा में बहुत स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है।
हिंदू राष्ट्रवाद को गठित करने वाली जो मूल बातें हैं, वे इस प्रकार हैं। वे किसी नवरचित ग्रंथ - जैसे गुरू ग्रंथ साहिब या रामचरितमानस या बीजक को केंद्र में लाती हैं। ब्राह्मण या ब्रह्मज्ञानी को महत्व देती हैं और इस तरह वर्णवाद को पुष्ट करती हैं। वेद के साथ-साथ कतेब को भी सर्वोपरि और पूज्य बनाती हैं, ताकि हिंदू और मुसलमान की मूल पहचान बनी और बची रह सके। राष्ट्रीय अखंडता को और एकता को वे किसी भी तरह से समझौते का या संधि का विषय नहीं बनाना चाहती। वहां रामराज्य का पुनरुत्थान एक आदर्श स्थिति के रूप में स्थापित होता दिखाई देता है। शासक का चरित्र राजधर्म के अनुकूल मर्यादा का पालन करने-करवाने से जुड़ा दिखायी देता है। वह शील को सबसे अधिक महत्व देता है और शील के माध्यम से शक्ति को संपादित करता है। इसलिए तुलसीदास अपने राम को धनुष बाण लिए हुए नायक के रूप में ही देखना दिखाना अपने इस सांस्कृतिक हिंदूवाद के लिए अनिवार्य मानते हैं। सिख पंथ के दशम गुरू गोबिंद सिंह राम की जगह ‘देहु शिवा वर मोहे’ कह कर शिवा पार्वती, चंडी या दुर्गा के आदर्शीकरण की ओर चले आते हैं। इस संदर्भ में उनके द्वारा रचे गये ‘चंडी चरित्र’ को देखा जा सकता है। यहां वर्णवाद भी एक तरह की पवित्र वस्तु है। राम राज्य में चारों वर्ण अपने अपने धर्म में निरत रहते हुए मोक्ष को पाने के अधिकारी होते हैं। राजा या शासक, ईश्वर का प्रतिनिधि हो कर हमारे सामने आता है। ईश्वर के अवतार के रूप में राम अपने गुरु वशिष्ठ से भी ऊंचे पद के अधिकारी बताए गए हैं। राम के चरण कमलों के पूजन से ही भक्ति संभव और पूर्ण हो जाती है और व्यक्ति और कुछ किये बिना केवल भक्ति से ही मोक्ष को प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है। इस पद्धति के आधार पर सांस्कृतिक हिंदूवाद की यह विचारधारा, भक्ति को सुगम लोकप्रिय और ज्ञान मार्ग का सरलीकरण करने वाली वस्तु में बदल देती है।
तत्व दर्शन, योग साधना, वेदों का अध्ययन तथा अन्य तमाम कठिन लगने वाली ज्ञान विज्ञान की तमाम बातों को भक्ति मार्ग यह कह कर खारिज करता है कि इस सब के अंतिम उद्देश्य के लिहाज़ से जिस ब्रह्म को ज्ञान के द्वारा पाया जाता है, उसे सरलता से भक्ति के द्वारा पा लिया जाता है। फलतः यह दावा किया जाता है कि ज्ञान और भक्ति में कोई भेद नहीं होता।। ऐसा कह कर वस्तुतः भक्तिवादी भारत में ज्ञान विज्ञान के विकास की सभी संभावनाओं को खारिज करने में अपनी भूमिका निभाता है। ऐसा करने के पीछे भक्ति का मकसद यह है कि जैसे भी हो समाज को संगठित रखा जाये। समाज को एकजुट करते हुए, उसके अंतर्विरोधों को समन्वित करना ही उसका असल उद्देश्य है। ऐसा करने के लिये यह भक्तिवाद, ज्ञानमार्ग को निरस्त करता है और उसे अपनी सत्ता व्यवस्था के मुताबिक रूपांतरित करके आत्मसात किए जाने लायक बनाता है। यहां यह सवाल उठाया जा सकता है कि यह भक्ति मार्ग ज्ञान का विरोध करते हुए वस्तुतः किसके प्रतिरोध को खारिज करता है? वह ज्ञान की साधना के द्वारा ब्रह्म को पाने और स्वयं को ब्रह्म कहने वालों का प्रतिरोध करता है। इस तरह वह ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ की विचारधारा के द्वारा सामान्य मनुष्य को ईश्वर के बराबर करने या होने देने की बात को खारिज करता है। मनुष्य का ईश्वर हो जाना उसकी रचनाशीलता की अंतिम परिणति की तरह होता है। रचनाशीलता का संबंध उत्पादनशील वर्गों से होता है। वह जो व्यक्ति स्वयं उत्पादन करता है, अपने श्रम में भरोसा रखता है, वह व्यक्ति अपनी रचनाशीलता को इतना ऊंचा उठा सकता है कि खुद को ब्रह्म, विश्वकर्मा या प्रजापति के बराबर देख पाए। परंतु जैसे ही मनुष्य स्वयं ब्रह्म होता है, उसके ऐसा होने भर से ब्रह्म के अवतार वाली भक्ति खंडित हो कर अर्थहीन हो जाती है। मनुष्य की रचनाशीलता को महत्त्व मिलने से उसके सत्तामूलक व्यवस्थापन में कठिनाई आती है। लिहाजा ज्ञान मार्ग, विज्ञान मार्ग, साधना मार्ग और ब्रह्म मार्ग को यह कह कर खारिज कर दिया जाता है कि यह सब कठिन कर्मकांड भर है, जिसे ब्राह्मणों ने भोलेभाले लोगों को उलझाने और ठगने के लिये ईजाद किया है। फिर यह भक्तिवाद लोगों को अपनी ओर खींचने के लिये यह कहता है कि सामान्य मनुष्य के लिए उन्होंने रामबाण औषधि की तरह भक्ति मार्ग की व्यवस्था कर दी है, जिसके तहत राम का नाम जप लेने भर से वह सब मिल सकता है जिसे ज्ञान-विज्ञान के द्वारा इतनी कठिनाई से पाया जाता है।
सांस्कृतिक विचारधारा के तल पर, इस प्रकार जो ज़मीन हमारे सामने खुलती है, वह यह है कि भारत में 15 वीं सदी के आसपास उत्पादनशील तबकों का भक्तिकरण होना आरंभ हो गया था और उसकी जगह व्यापारिक पूंजीवाद के वर्चस्व के हालात सामने आ गए थे। इसका संबंध रेशम मार्ग के व्यापार के विकल्प के रूप में समुद्री मार्ग से होने वाले व्यापार के खुलने से था। इससे हमारे व्यापारी यूरोप से सीधे व्यापार करने की स्थिति में आ गये थे। परंतु यहां हम यह भी देखते हैं कि इससे विकसित हुआ हमारा व्यापारिक पूंजीवाद, सांस्कृतिक हिंदू राष्ट्रवाद वाले चरण को पीछे छोड़ कर औपनिवेशिक दौर वाले राजनीतिक हिंदू राष्ट्रवाद को गठित करने की भूमिका बनाने लगता है।
राजनीतिक धरातल वाला हिंदू राष्ट्रवाद पहले मौजूद सांस्कृतिक हिंदू राष्ट्रवाद का पुनरुत्थान कहा जा सकता है। वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विभाजनवादी, मूलवादी और कट्टर रूप बन कर सामने आता है। वह भक्ति को तो आधार बनाता ही है, परंतु उसके साथ-साथ इतिहास को भी ऐसे मिथक की तरह गढ़ता है जहां यह दिखाई दे कि भक्ति के द्वारा अतीत में भारत किस कदर समृद्ध था और विश्व गुरु के रूप में पूरी दुनिया में अपनी मौजूदगी को दर्ज कराता था। भारत के अतीत के समस्त वैभव और समृद्धि को भी यह राजनीतिक हिंदू राष्ट्रवाद सभी वर्णों के द्वारा ‘निज धर्म के पालन’ का नतीजा बताता है। धर्म विभेद की अमानुषिकता को वह अतीत के भुला दिए जाने लायक अध्ययन की तरह ग्रहण कर के अप्रासंगिक विषय बना देता है। हालांकि अतीत के ज्ञान और सत्तामूलक उत्कर्ष के उदाहरण के रूप में वह जिस चाणक्य को खड़ा करता है, उसकी सोच और विचारधारा किसी भी तरह से भक्तिवादी विचारधारा मालूम नहीं पड़ती। वहां एक गहरा सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विज्ञान साफ तौर पर दिखाई देता है, परंतु वह ऐसी तमाम बातों की अनदेखी करता है।
यह जो राजनीतिक हिंदू राष्ट्रवाद है, वह अतीत की वास्तविक व्याख्या की बजाए उसका प्रतीकात्मक इस्तेमाल ही अधिक करता है। उसे सांस्कृतिक हिंदू राष्ट्रवाद की तमाम प्रतीकात्मक धारणाएं, वास्तविक ऐतिहासिक तथ्यों की तरह इस्तेमाल में लाई जाने लायक लगती है। इस तरह गाय, ब्राह्मण, वेद, राम और कृष्ण की जन्मभूमि, गंगा और यमुना, भगवां चोला और झण्डा, कमल, रथ, राष्ट्र भक्ति तथा ऐसी तमाम चीजें जो सांस्कृतिक हिंदू राष्ट्रवाद का प्रतीकात्मक गठन करती थी, अब एक आस्थामूलक इतिहास की शक्ल ले लेते हैं। इन्हें लोकतंत्र में संविधान की मदद से ही नहीं, भीड़ के तंत्र के दबाव से भी, चरितार्थ करने का प्रयास होने लगता है। भक्ति भी अब दैवी भक्ति न रह कर, राज भक्ति या शासक की छवि की भक्ति में बदल जाती है। इसे हम भीड़ के द्वारा गुंजाए जाने वाले नमो नमो के नारे के रूप में सत्ता का स्रोत बनते हुए देखते हैं। चाणक्य की साम-दाम-दंड-भेद वाली राजनीति का इस्तेमाल भी अब किसी तरह की चारित्रिक विशिष्टता की मांग नहीं करता, अपितु केवल सत्ता की शतरंज का बेशर्म खेल भर हो जाता है। राजधर्म को निभाने की बात भी आज प्रतीकात्मक रूप में भाषणों में दोहराए जाने वाले तर्कों की तरह हमारे सामने आती है ।
यह हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद एक तरह की केंद्रीयकरण की राजनीति जैसा दिखाई देता है। यहां शासक अवतार की जगह बिठा दिया जाता है। लोकतंत्र में भी उसकी आलोचना और उससे असहमति के लिये गुंजायश नहीं होती।
इस हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद को व्यावहारिक और कारगर बनाने की भूमिका निभाने के लिये व्यापारिक पूंजीवाद की जगह अब कहने भर को ही उत्तर औद्योगिक पूंजीवाद ने ली है, क्योंकि भारत में उसके भीतर भी दलाल व्यापारियों का वर्चस्व बदस्तूर जारी रहता हुआ दिखाई देता है। ये दलाल व्यापारी सरकार के संरक्षण में पलने बढ़ने की वजह से ‘क्रोनी पूंजीवाद’ का भारतीय पर्याय हो गये हैं। इसे हम भारत में उत्पादनशील तबको को विस्थापित करने वाली विचारधारा की अंतिम परिणति मान सकते हैं।
उत्पादनशील तबके अगर अपनी ज्ञान-विज्ञानमूलक और साधनामूलक विचारधारा के साथ अपना वजूद बचाए रख पाते, तो वे भारत में पूर्व-भक्तिकाल में बनी सांस्कृतिक पुनर्जागरण की भूमिका को एक हकीकत में बदल सकते थे। हमारे यहां भी उत्पादन की नई पद्धतियों का एक अपनी तरह का विज्ञान विकसित हो सकता था, परंतु भक्ति के झंडे तले संभव हुए हिंदू राष्ट्रवादी गठन के साथ वर्चस्वी हुए व्यापारिक पूंजीवाद ने उस संभावना को नष्ट कर दिया। इस तरह रचनाशीलता के विकास की जगह भारत के उत्पादक तबकों का भक्तिकरण होने लग पड़ा। उनकी साझी सांस्कृतिक विरासत की परंपरा को भक्ति के लिये ज़रूरी एकनिष्ठ समर्पण के आग्रह ने नष्ट कर दिया। इस स्थिति ने उत्पादनमूलक तबकों की रचनाशीलता को, भक्त हिंदू और मुस्लिम विचारधारा के नयी तरह की अंतर्निष्ठ समांतरताओं वाले संबंधों में विभाजित कर दिया। जहां तक सांझी सांस्कृतिक परंपरा का सवाल है, वह आगे चल कर उत्तर भारत में फरीद, बुल्ले शाह और वारिस शाह के द्वारा समांतर रूप में विकिसत तो हुआ, परंतु धीरे धीरे सूफियों और निर्गुणिओं के हाशिये पर पड़ते जाने के हालात सामने आने लगे।
15वीं-16वीं सदी के बाद भारत का व्यापक रूप में भक्तिकरण होने लग गया था। यह भक्तिकरण भारत में सांस्कृतिक हिंदू राष्ट्रवाद के गठन के पर्याय के रूप में सामने आता है, जो औपनिवेशिक दौर में राजनीतिक रुप ले कर सांप्रदायिक और कट्टर होता दिखाई देता है। इसकी वजह से कट्टर इस्लाम भी अपने लिए समाज में, भूगोल में और सत्ता में अपनी जगह मांगने लगता है। नतीजतन भारत अंतर्विभाजन की ओर अग्रसर होता है। राजनीतिक हिंदू राष्ट्रवाद गहरे में भारत के राजनीतिक विभाजन के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार है। इसकी वजह यह है कि उसने आपसदारी वाली रचनाशीलता और उससे उत्पन्न होने वाली समन्वयवादी सांस्कृतिक चेतना की पूरी परंपरा को हमारे यहां नष्ट कर दिया। अगर हम मौजूदा भारत को देखें तो उसमें उत्पादनशील तबकों में अब केवल वे लोग बचे हैं जो गांव में खेती-बाड़ी करके गुज़र-बसर करते हैं। शेष उद्योग धंधों, कुटीर उद्योगों और शिल्पियों के विविध पारंपरिक रोजगारों को औपनिवेशिक दौर में पूरी तरह मशीन ने अपने औद्योगिक पूंजीवाद के विकास के परिणामस्वरूप नष्ट कर दिया था। वह बचा रहता यदि उससे पूर्व भक्तिकाल में हमारे रचनात्मक उत्पादनशील तबको की विचारधारा, अपनी नई उत्पादन पद्धतियों का विकास करने के लिए वैज्ञानिक सोच की ओर अपना अंतर्विकास कर पाने में समर्थ होती। पुनर्जागरण की संभावना के नष्ट होने के कारण औपनिवेशिक दौर के औद्योगिक पूंजीवाद की हमारे यहां विजय होती है और व्यापारिक पूंजीवाद शक्ल बदल कर दलाल पूंजीवाद में बदल जाता है। वह पश्चिम के औद्योगिक पूंजीवाद और भारत के उत्पादनशील तबकों के बीच दलाली का काम करता है। भारत का व्यापारिक पूंजीवाद औपनिवेशिक दौर में अपनी ज़मीन को खो कर पूरी तरह परजीवी हो जाता है। इसलिए भारत के व्यापारी तबके को हम औपनिवेशक दौर में लगभग पूरी तरह पश्चिमपरस्त होता हुआ पाते हैं।
आजादी मिलने के बाद भी जो राजनीतिक हिंदू राष्ट्रवाद हमारे सामने मज़बूत होकर आ सका है, उसके पीछे भी यही दलाल एवं पश्चिमपरस्त व्यापारिक पूंजीवाद है। वह अपने पर्याप्त औद्योगिकरण के अभाव में अभी भी दलाल पूंजी के आधार पर ही अपना विकास करता है। उत्तर औद्योगिक दौर में उसका पश्चिम से आई बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ तालमेल हो जाता है।
भारत की उत्पादनशीलता से जुड़े अर्थतंत्र में, हमारे समकाल में भी पश्चिमी और चीनी परिदृश्य अपने आपको तकनीकी उच्च तकनीकी रूप में मजबूती से हस्तक्षेप करने लायक बनाये हुए है। परंतु भारत के इस नए मुक्त होते बाजार में भी वह हमारी उत्पादकता को विकसित करने में उतनी मदद नहीं करता, जितना कि वह और मज़बूत हो रहे हमारे दलाल और ‘क्रोनी’ व्यापारिक पूंजीवाद के लिए उदार दिखाई देता है। इससे थोड़ी-बहुत समृद्धि इस उत्तर-औपनिवेशिक दौर के नये दलाल व्यापारिक पूंजीपति वर्ग में अवश्य दिखाई देती है, जो इधर मुख्यतः अंबानी, अडानी, अडवानी आदि के रूप में उभार पर है। वह मौजूदा दौर के राजनीतिक हिंदू राष्ट्रवाद के उभार की अर्थतांत्रिक जमीन है। तथापि यह अभी भी औपनिवेशिक दौर की तरह ही अधिकांशतः परजीवी चरित्र वाली है। इसलिए उसका राष्ट्र प्रेम एक औपचारिक नारा है। राष्ट्र प्रेम का यह नारा जितने जोर से गुंजाया जाता है उतना ही यह संभव हो पाता है कि यह दलाल पूंजीपति वर्ग अपने पश्चिमपरस्त परजीवी चरित्र पर पर्दा डाले रह सकें। हम देखते हैं कि विदेशों में भारत के धन को जमा करने वाले लोगों के खिलाफ मुहिम छेड़ने का दावा यह राजनीतिक हिंदू राष्ट्रवाद भी बड़े जोर-शोर से करता है, परंतु परोक्ष रूप में उन्हीं लोगों की मदद करता है जो विदेशों के साथ अपने तालुकात के कारण अपने यहां अधिक मुनाफा कमाने की स्थिति में आ जाते हैं। इसे हम हिंदू राष्ट्रवाद के दोहरे चरित्र की तरह देख सकते हैं। यह हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति अब सभी राजनीतिक दलों की ज़रूरत बन गयी है। सभी दल स्वदेशी अथवा ‘मेक इन इंडिया’ का नारा अब केवल अपनी अक्षमता को छिपाने के लिये लगाते हैं। परंतु इस स्थिति का कोई विकल्प भी हमारे पास अभी तक नहीं है।
विकल्प तब सामने आएगा जब हमारे यहां उत्पादनशील तबके अपने पैरों पर आप खड़े होने लायक स्थिति में आएंगे और अपने तौर पर रचनाशील होते हुए अपने ज्ञान विज्ञान का विकास करने की बात मज़बूती से करते दिखाई देने लगेंगे। यह काम राजनीतिक संरक्षण से नहीं, लोगों की अपनी रचनात्मक सामर्थ्य को अभिव्यक्त होने के लिये जगह मिलने से होगा। भक्त या राजभक्त किस्म के अर्थतंत्र के बस की बात यह कतई नहीं है। परंतु यह नहीं हो सकता कि हम सांस्कृतिक या धार्मिक तौर पर तो भक्त ही बने रहें और राजनीतिक व अर्थतांत्रिक रूप में स्वावलंबी हो जाएं। आदमी मुक्त होगा तो तो सभी मोर्चों पर होगा।
एक अन्य रास्ता भी सामने आ रहा है। उसकी वजह यह है कि पश्चिमपरस्त व्यापारिक पूंजी का दलाल चरित्र उन ताकतों के साथ खड़ा है जो प्रकृति के संसाधनों का बेशर्मी से दोहन शोषण करते हैं। ऐसे में भारत के वे लोग जो अभी भी प्रकृति के साथ सीधे रिश्ते में बंधे हैं और वहां से अपनी गुजर-बसर के लिए कोई आधारभूमि पाते हैं, वे इस दौर में इस कदर संकटग्रस्त हो गए हैं कि उनके सामने प्रतिरोध करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा है। प्रकृति पुत्रों का यह प्रतिरोध हमारे यहां एक नई तरह की प्रकृतिमूलक रचनाशीलता के विकास की ज़मीन बन सकता है। ऐसा हो सका तो हम अवश्य इस स्थिति के भीतर से निकलने के लिए कोई रास्ता खुलता हुआ देख पाएंगे। बेशक यह संभावना अभी सुदूर भविष्य में है, परंतु बहुत संभव है कि वह सुदूर भविष्य गहराते संकट की वजह से हमें लगातार अपने और करीब आता हुआ दिखाई दे।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है)
संपर्क :
ए 563, पालम विहार,
गुरूग्राम-122017
मोबाइल 09814658098
बहुत महत्वपूर्ण आलेख
जवाब देंहटाएंआठवी और नौवीं शताब्दी में लोक कथाओ में घड़े गए मिथकों में झूले लालां और फिर डेढ़ शताब्दी बाद शाहबाज़ कलंदर का अवतरण और बाद में इसी सूफी का झूले लाला में सांस्कृतिक तौर पर आत्मसात होना फिर गीत/उस्तत के माध्यम से आपने जो परिदृश्य स्पष्ट किया है वह मेरे लिए बिलकुल नया है | धार्मिक सहनशीलता का वाकई गज़ब उदहारण है कि एक पीर को हिन्दू देवता का अंशावतार मान लिया जाये | इस्लाम के प्रवेश के कारण हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना सामने आई ?हिन्दू मुस्लिम सम्वाद की ज़मीन ख़तम हो गई या कर दी गई | अपने सब कितना विस्तार से लिखा है |
जवाब देंहटाएंनिर्गुण और भक्ति मार्ग के अंतर को आप बहुत सूक्षमता से पकड़ते हैं | निर्गुण स्वयं की खोज है जिसमे आपको यत्न करना पड़ेगा लेकिन भक्ति तो समर्पण है सब कुछ भगवन के कन्धों पर डाल कर निश्चिन्त हो जाओ वही पार कराएगा | यानि भक्त को कुछ नहीं करना | सांस्कृतिक प्रतीकों को किस तरह से कट्टरता के लिए राजनीती का साधन बनया जा रहा है | सब जानते हैं |
वेद के साथ-साथ कतेब को भी सर्वोपरि और पूज्य बनाती हैं, ताकि हिंदू और मुसलमान की मूल पहचान बनी और बची रह सके। राष्ट्रीय अखंडता को और एकता को वे किसी भी तरह से समझौते का या संधि का विषय नहीं बनाना चाहती।
आपकी उपरोक्त पंक्तियाँ बहुत कुछ बयां कर जाती है | यह हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद एक तरह की केंद्रीयकरण की राजनीति जैसा दिखाई देता है। यहां शासक अवतार की जगह बिठा दिया जाता है। लोकतंत्र में भी उसकी आलोचना और उससे असहमति के लिये गुंजायश नहीं होती।
इन पंक्तियों का सच आज हम भोग रहे हैं |
अंत तक आते आते अपने जो हल देने की कोशिश की है वह तो बहुत प्रशंसनीय है | कहना तो बहुत कुछ होता है पाठक जब इस तरह का उच्च कोटि का आलेख पढता है तो गहन अध्ययन और लेखन की दाद दिए बिना नहीं रहा जा सकता | बहुत बधाई |