आशीष कुमार का आलेख 'जो उगा वह वहीं नहीं था जब उगा'।

श्रीप्रकाश शुक्ल

 

इधर की हिन्दी कविता में जिन कुछ कवियों ने अपने सतत लेखन से ध्यान आकृष्ट किया है उनमें श्रीप्रकाश शुक्ल का नाम महत्त्वपूर्ण है। श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं में हाशिए की अस्मिताओं की आवाज़ और प्रतिध्वनि को स्पष्ट रूप से सुना और महसूस किया जा सकता है। हाल ही में श्रीप्रकाश शुक्ल को शमशेर सम्मान से सम्मानित किया गया है। कवि को बधाई देते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं युवा आलोचक आशीष कुमार का आलोचनात्मक आलेख 'जो उगा वह वहीं नहीं था जब उगा'। आशीष कुमार फिल्मों पर अपने धारदार लेखन के लिए जाने जाते हैं। उनका वह तेवर इस आलेख में भी देखा जा सकता है।

 

 

 

'जो उगा वह वहीं नहीं था जब उगा'*

 

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(श्रीप्रकाश शुक्ल के कविता लोक में उभरते सवालों से मुठभेड़ और सामाजिक चिंताएं)

                     

 

आशीष कुमार

 

 

"कविता मेरे लिए एक ऐसी कथा है जिसमें मेरे आस-पास की व्यथामूलक  ध्वनियां हैं और जिन्हें मैं खुल कर केवल कविता में ही सुन पाता हूं। कविता ही इसलिए कि यहां गूंजों  के लिए पर्याप्त अवकाश रहता है जो मुझे बार-बार उस स्थिति की याद दिलाती रहती है जिनसे या तो यह बनी है या जिनमें यह अपने को व्यक्त करती रहती हैं। कविता मेरे लिए पड़ोस की कहानी है जिसे मैं गीत की तरह सुनता हूं या कि बहुत दूर का गीत है जिसे कहानी की तरह सुनता हूं।"

             

   

(आत्मकथ्य, श्रीप्रकाश शुक्ल)

 

 

 

बेशक! आत्मस्वीकृतियां  रचनाकार के लेखकीय जीवन को   समझने के सूत्र देती है। उपरोक्त आत्मस्वीकृतियों की  खराद पर चढ़ कर कवि का साहित्यिक विवेक कविता के बंद दराजों पर दस्तक देता है। किसी भी रचनाकार की आत्म स्वीकृति अपने समय, समाज और संवेदना के बरक्स जीवन की पूंजी का निचोड़ भी होता है। हालांकि यह आलोचना का विवेक भी विकसित करता है। जिसके मार्फत रचना  के साथ उड़ान भरी जा सकती है। किसी भी कृति के साथ रचनात्मक सफर पर जाने से पहले स्वयं की शिनाख्त भी जरूरी है। जो अपने समय की समस्याओं से मुठभेड़, वक्त की नजाकत और विचारधारा के नाम पर पसरी हुई दहशतगर्दी को टटोलने का स्व विवेक देती है। कबीर की भाषा में कहूं तो स्व संवेद ज्ञान। स्वयं को परखने और निरखने का विवेक। वास्तव में, साहित्य यही जमीन तैयार करती है। खुद को देखना, समय को देखना, समय के बनिस्बत समाज को देखना। जाहिर है, हर रचना के अपने मानदंड होते हैं। कसौटियां होती हैं। विचार होते हैं। इवान क्लिमा मुझे सचेत करती हैं, 'विचार से रचना की तरफ जाने की अपेक्षा, रचना से विचार की तरफ जाना चाहिए।' तर्क, बुद्धि और चेतना के साथ मैं  प्रकाश शुक्ल की कविता लोक में प्रवेश करता हूं। निखालिस  पाठक की तरह। उनके कविता संग्रह अपनी तरह के लोग, जहां सब शहर नहीं होता और ओरहन  और अन्य कविताएं’, बोली बात, ‘रेत में आकृतियां एवं क्षीरसागर  में नींद से मुखातिब देखता हूं। देखता हूं कवि की कविता यात्रा काफी विस्तृत है। जिसके एक सिरे पर शहर है तो दूसरे पर क्षीर सागर। मैं सजग भाव  के साथ कविता के भीतर आवाजाही कर चुका हूं लेकिन मेरी अकुलाहट और बेचैनी थमने का नाम नहीं लेती है। अपनी समझ के उलट पाता हूं कि, 'जब कोई रचना किसी चीज की निर्मित करती है, तो वह पूरा जस का तस उठा कर नहीं रख देती है, बल्कि उसमें से ऐसी रेखाओं को पकड़ती है, जिनका हल्का सा स्ट्रोक लगाने से पूरी रचना खुल जाए।" (विश्वनाथ त्रिपाठी, रहूंगा भीतर नमी की तरह, किताब से)

 

 


 

मेरे पास कविता आलोचना के ऐसे कोई मुकम्मल टूल्स नहीं हैं, जिनसे इन कविताओं को खोला जा सके। हां, लेकिन मैंने कुछ बीज-शब्दों को जरूर खोजा है, जिनसे इन कविताओं का पाठ-पुनर्पाठ किया जा सकता है। वे शब्द हैं - प्रतिरोध, प्रतिक्रिया, प्रतिपक्ष, प्रतिबद्ध और प्रतिबिंब। वैसे तो, इन कविताओं में लोकतंत्र की आवाज, उजड़ती हुई संस्कृति का संघर्ष  एवं नगर-महानगर से उपजी हताशा, नैराश्य और अवसाद के संदर्भ भी दिखाई देते हैं। लेकिन मुझे इन कविताओं में हाशिए की अस्मिताओं के अनभय सच और संघर्ष ने सम्मोहित किया है। अव्वल तो, पहली दफा श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताएं बतियाने का मौका नहीं देती है। मैं भाषा के सौन्दर्य और शिल्प की बुनावट में अटक जाता हूं।  और शिल्प भी कैसा? थ्री-डी इफेक्ट वाला। एक कविता से समझते हैं –  

 

 

"चारों तरफ सन्नाटा है

चिता खोज रही है लकड़ियां

लालू यादव की चिंता है कि

चाय पर सिमटी राजनीति में

कब तक बचा पाएगा अपनी यह

गुमटी मणिकर्णिका पर ।"

 

(पक्का महाल में हथौड़े, कविता से)

 

 

कविता पढ़ते हुए पता ही नहीं चलता कि कब 'लालू यादव' की चिंता हमारी समस्या हो गई। लगता है, पात्र हमारे साथ-साथ चल रहे हैं। हम उनसे संवाद कर रहे हैं या फिर उनकी तरह संघर्ष कर रहे हैं। दरअसल, शिल्प रचना की आंतरिक लय होती है। जो चरित्र और कंटेंट के पैरों तले चल कर आती है। जो मस्तिष्क से हटने का नाम नहीं लेती। शिल्प की यह सजगता कवि को अपने समकालीनों से अलग नए पैडस्टल पर खड़ा करती है। आइए कुछ शीर्षकों के अन्तर्गत कवि की रचनाधर्मिता को समझा जाए – 

 

 

(1)

 

                     

कविता की रंगशाला में अंतिम जन की गुफ्तगू यानी इस जमाने में खुदा का नाम!

 

 

श्रीप्रकाश शुक्ल के कविताओं में हाशिए का दायरा वृहत्तर है। जिसमें चाय वाले लालू यादव, गंगू  मेहतर, घुरफेकन लोहार, पोई भाई और गनी मियां शामिल हैं। उनके संघर्ष, दुख और संवेदना से कविता का ताना-बाना बुना गया है। ये सभी लोग वर्तमान समाज की व्यवस्थाओं के बीच विकास की प्रक्रिया से दूर व्यग्रता, लाचारी और अजनबीपन के त्रासदी भरे जीवन को जीने के लिए मजबूर हैं। यदि ये परिस्थितियों से समझौता करके थोड़ा खुश होना चाहते हैं तो समाज की विद्रूपताएं और अव्यवस्थाएं उनको हाशिए पर ला कर पटक देती हैं। इसमें स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक और कामगार वर्ग शामिल है। हाशिए की अस्मिताओं का प्रश्न श्रीप्रकाश  शुक्ल की कविताओ में उभर कर आता है। उनके तनाव, हताशा, रोजमर्रा की जिंदगी और जीवन-यापन से जुड़े सवाल महत्वपूर्ण हैं। 'घुरफेकन लोहार' कविता से स्थितियां स्पष्ट हो जाती हैं –

 

 

"जब कभी इस चौकठ में घुन लगता है

घुरफेकन हो जाता है उदास

टगारी से उठती है एक आवाज़

यह लोहे की नहीं

हड्डी की आवाज है।"

 

(बोली-बात संग्रह से)

 


                       

 

(2)

 

 

गांव की स्त्री बनाम स्त्री का गांव अर्थात यह वक्त गाते हुए लड़ने और लड़ते हुए गाने का है!

 

 

श्रीप्रकाश शुक्ल के कविताओं की दुनिया में स्त्री और स्त्री संबंधी प्रश्नों की जिरह परम्परा और आधुनिकता से मिल कर बनी है। उनका परिवेश गांव, कस्बा, नगर और महानगर से मिल कर बना है। ये 'गोदना' और 'मनिहार' औरतें भी हैं। इन स्त्रियों का अपना संसार है। संस्कार है। दुःख-दर्द है। रीति-रिवाज और परंपराएं हैं। लेकिन क्या ऐसी दुनिया में मुक्ति संभव है? एक बानगी देखिए –

 

"परत दर परत वे खाद बनती गई है

मौसम दर मौसम झडती रही है

वे झडती रही हैं कभी शिशिर में

तो कभी बसंत में।"

 

(छठ की औरतें कविता से)

 

 

 

स्त्री मुक्ति के आंदोलनों और प्रश्नों से बेखबर इन औरतों की दुनिया नितांत गवई है। इतिहास निर्माण और आंदोलनों में शरीक होने के बावजूद इन्हें दरकिनार किया जाता रहा है। वर्जीनिया वुल्फ ने ऐसे ही नहीं लिखा है - "इतिहास में जो कुछ भी अनाम है, वह स्त्री से जुड़ा है और इतिहास-निर्माण में निर्णयकारी भूमिका में रहते हुए भी महिलाओं के योगदान की अनदेखी की गई, फिर ये महिलाएं साधारण परिवार से आईं हो, तो दोहरी उपेक्षा का आघात सहती हैं।" इन कविताओं की स्त्रियां भी साधारण परिवार यानी कमाने-खाने वालें घरों से हैं। अघायी हुई औरतों से अलग शास्त्रीय, रूढ़िबद्ध और जड़ – परम्पराओं से निबद्ध अपने तरीके से जीने के लिए प्रतिबद्ध। एक परम्परा से समानांतर दूसरी परम्परा की राह तलाशती ये औरतें भारतीय स्त्रियों की 'आल्टर ईगो' हैं।

 

 

 

श्रीप्रकाश शुक्ल की स्त्री-संबंधी कविताओं का दूसरा टोंक अस्मत और अस्मिता से जुड़ा है। आंदोलन कविता में लिखते हैं –

 

 

"उनकी इस बेशर्मी को लड़कियों ने गंभीरता से लिया

और खुद के झुकने के विरूद्ध वे तन कर खड़ी हो गई ।"

 


 

 

पितृसत्ता का क्रिटिक रचती इन स्त्रियों में स्वप्न, संघर्ष और मुक्ति की चेतना मौजूद है। दासता के विरोध में परचम लहराने का साहस। भले ही यह चेतना, आत्मबल और साहस वर्जनाओं और हदबंदियों के बीच चुनी गई है। इन कविताओं में जहां एक ओर परम्परागत भारतीय स्त्री की छवि है तो दूसरी ओर सामंती सोच के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई लड़ने की ज़िद है। खासकर उस व्यवस्था से जहां उन्हें सिर्फ 'देह' में रिड्यूस कर दिया जाता है। विश्वविद्यालयीन घटना से संबंधित इस कविता में कवि की 'स्त्रीवादी' दृष्टि प्रकट हुई है। असहिष्णु और हिंसक होते समय में ये कविताएं 'साझी दुनिया का स्वप्न' हैं।

 

 

मुख्तसर, यह कि इन कविताओं में उपेक्षित और हाशिए का वह पूरा वर्ग उपस्थित है, जो मुख्य धारा में शामिल होने के लिए निरंतर संघर्ष कर रहा है। श्रीप्रकाश शुक्ल अपने समय की नब्ज़ को गहराई से पकड़ने वाले प्रतिबद्ध कवि हैं जिन्हें अपनी कविता में चमत्कार दिखाने या विचारो की बारीक कताई करने की अपेक्षा अपने समय के प्रश्नों से मुठभेड़ करना ज्यादा जरूरी लगता है। वे 'ग्रासरूट' के तह में जा कर सच से सामना करते हैं। सामंती मूल्यों और स्वार्थपरकता में सर्वहारा वर्ग के श्रम और संस्कृति का मूल्यांकन कवि के कविताओं की विशेषता है। वैसे भी, कविता की सार्थकता आम जन-जीवन की व्याख्या से ही संभव है। यह ध्यान रखते हुए कि आलोचना की अप्रस्तुत विधानवादी व्याख्याओं से कविता सुलझने के बजाय उलझती है। ये कविताएं दुःख, निराशा, भूख और गरीबी के विरोध में लगातार संघर्ष करती है और इन सबके बीच प्रतिरोध की भूमिका भूलती नहीं है। अपने समय और व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध ही उनके काव्य शक्ति की उपलब्धि है, जो भरोसा देती है कि आखिर, संघर्षण, तकरार और टकराहट से 'कविता' का जन्म होता है।

 

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*शीर्षक श्रीप्रकाश शुक्ल की 'दार्जिलिंग' कविता की एक पंक्ति।

 


 


 

 

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टिप्पणियाँ

  1. सजग, सचेत और सारगर्भित विश्लेषण के लिए हार्दिक आभार और शुभकामनाएं

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  2. बहुत सार्थक टिप्पणी कवि के रचनाकर्म और रचनाओं पर। आशीष जी की भाषा और लेखन शैली साथ ही आलोचना की कसौटी लाजवाब है। कवि को समझने में मदद मिली।

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  3. अच्छा आलेख है आशीष। पढ़ते हैं श्रीप्रकाश जी को...

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  4. श्री प्रकाश के काव्य को रेखांकित करता अच्छा लेख। बधाई।

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