भरत प्रसाद का आलेख 'जिनकी आत्मा में अंचलगंधी धरती की रूह झड़ती है'।
प्रेमचंद के पश्चात रेणु ऐसे कथाकार हैं जो हिन्दी जन मानस में रचे बसे हुए हैं। आँचलिक मुद्दों, समस्याओं, बातों-विचारों को ले कर रेणु ने अपना जो कथा शिल्प गढ़ा वह प्रतिमान बन गया। रेणु के जन्मशताब्दी वर्ष पर पहली बार के विशेष आयोजन में अब तक आप विनोद तिवारी, रणेन्द्र, पंकज मित्र, जीवन सिंह, कुमार वीरेंद्र को पढ़ चुके हैं। इसी क्रम में आज प्रस्तुत है भरत प्रसाद का आलेख 'जिनकी आत्मा में अंचलगंधी धरती की रूह झड़ती है'।
जिनकी आत्मा में अंचलगंधी धरती की रुह झरती है।
भरत प्रसाद
स्वाधीनोत्तर भारतवर्ष की करवट बदलती ग्रामीण दुनिया के शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु। प्रेमचंद के पीछे खड़े गंवई चित्त, चरित्र, चालचलन और चालाकियों के अव्वल चिकित्सक रेणु, जिन्हें गांव की हवाओं में बसती, बहती और तरंगित होती अबूझ गमक की विलक्षण पकड़ थी। वे रेणु, जो कलम से नहीं, आंखों से लिखते थे, शब्दों का नहीं, ध्वनियों का तानाबाना खड़ा करते थे। जिसके लिए कहानी कोई साहित्यिक कला नहीं, बल्कि चित्त में ऋण बन कर बरसती जनवेदनाओं का रागिनी थी। बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आज भी हिन्दी और उसकी उपभाषाओं की हृदयस्थली माने जाते हैं, जहाँ की धरती ने विगत कयी दशकों से हिन्दी जगत के नायाब शब्द-बुनकरों का निर्माण किया। रेणु उस वक्त हिन्दी साहित्य की जमीन पर हल जोतना आरंभ किए, जब प्रेमचंद से ले कर नागार्जुन तक पचासाधिक कथाकारों ने अपनी कृतज्ञ कलम की काबिलियत से गांवों की देशज अन्तरात्मा को स्थापित कर दिया था। उस वक्त निश्चित रूप से कड़ी और कठिन चुनौती थी, प्रेमचंद के बाद गांव के बारे में कहने, लिखने, सुनाने को बचता क्या है? यदि लिखा भी जाय, तो अलग, अज्ञात और मौलिक क्या होगा? इतिहास के बड़े सवाल सदैव अनजाने और अपरिचित ही होते हैं, जो कब सहसा प्रकट हो जाएंगे, कोई नहीं जानता, यह बात अलग है, जो उन सवालों को तत्काल सुन लेता है, और उसका योग्य उत्तर देने लायक खुद को गढ़ लेता है, वही कोई कबीर, कोई प्रेमचंद, कोई रेणु बनता है। प्रेमचंद की कलम में भारतीय आत्मा का स्वरूप उद्भासित होता है, पर रेणु की कलम गंवई हृदय के रंग, राग, गंध और रसिकता का तान छेड़ती है।
यह आंचलिकता आखिर है क्या? केवल खांटीपन, भदेस शैली, अनगढ़ता? क्या अटपटी बोलीबानी, लंठई, नंगई और गंवारूपन को आंचलिकता की पहचान कहा जाएगा? नहीं, निश्चय ही ना! आंचलिकता एक बेलीकी है- अनुभूतियों की, एक खिंचाव है, अपनत्व का, जिसको शब्द दे पाना असंभव है। एक जादुई ग्रामसत्ता की विलक्षण माया कहिए, जो व्यक्त होकर भी अव्यक्त है। शब्दों में उत्तर भी अर्थातीत है, जिसे आकार देने के लिए पंचेन्द्रियां अपर्याप्त हैं, यहां तक छठी इन्द्री भी बौनी पड़ जाती है, इस रहस्यमय माया को सृजन में बांधने के लिए। आंचलिकता दरसल कच्ची, अनगढ़, गैर पारंपरिक राह है, जिस पर चलने के लिए दो आंखें काम न देंगी। दो पैरों से कयी कदमों का धैर्य पैदा करना होगा। एक मन में सैकड़ों मन जोड़ना पड़ेगा। कहीं अमराई की घनी छाया में सन्नाटा खिला हुआ है, कैसे शब्दों में साकार करेंगे? कहीं तलहटी की ठंडक में अदृश्य कीड़े मकोड़े आनंद का उत्सव गा रहे हैं, कैसे सुरताल वाले काबिल शब्दों में सजाएंगे? कहीं चौहद्दी के क्षितिज में पछुवा बयार के साथ पकने को तैयार फसलें निर्गुन गीत छेड़ रही हैं, कैसे तान में बांधेंगे?
यह असंभव तो नहीं, पर आसान भी नहीं। तब तक कि जब तक घंटों आंखों से नहीं, आशिक हृदय से जी भर कर निहार न लें, उसके थिरकते, नाचते, गाते वजूद को रेशा रेशा पी न जाएं, जब तक अपने आदमी होने के बौनेपन को अंचल के अनगढ़ विस्तार में विलीन न कर दें। जब तक ग्राम एक दृश्य है, एक चित्र है, एक अस्तित्व है, तब तक कोई आंचलिक शिल्पकार कैसे हो सकता है? गांव अर्थात हमारी आत्मा की प्रयोगशाला, हमारे एहसासों की रंगभूमि, हमारे स्वभाव की निर्माण स्थली। इतना ही नहीं, जिसके भीतर रोम रोम में एहसासों की अभूतपूर्व सजगता सक्रिय है, वही अव्वल दर्जे का आंचलिक सृष्टिकर्ता हो सकता है।
अपने जीवन काल में रेणु सौ के पार कहानियों की संख्या न पार कर सके। उपन्यास भी अंगुलियों पर गिनने जितने। फिर ऐसा कौन सा रहस्य है कि प्रेमचंद के बाद हिन्दी जगत के दूसरे शीर्षस्थ कथाशिल्पी। वह कारण है, अनुभूतियों का अलहदापन, शब्दों की अप्रत्याशित सोंधी गंध और चेहरों के समुद्र में गहनतः उतरने की आशिकी। रेणु चित्रकार हैं, तो बुनकर भी। रंगसाज है, धुन साधक भी, खेतिहर हैं तो माली भी। एक साथ कितनी भूमिकाओं में चोला बदल बदल कर आते हैं वे, कहना इतना आसान नहीं। विषय के साथ इंसानियत बरतने के सलीका ही रेणु ने बदल दिया। उनकी बुनावट में दर्शन की गूंजें कम सुनाई देंगी, यदि हैं भी तो बस यदा कदा उठ चली बयार की तरह। रेणु की कलम जड़ को निर्जीव मानती ही नहीं, वह समूचे गंवई अस्तित्व से संवाद करती है। शब्दों की पकड़ से परे का संवाद। सच कहिए तो संवाद का असल स्वरूप मौन के क्षणों में खिलता है, बाहर प्रकट होते ही स्थूल और आधारण रह जाता है। घटना, चरित्र, चेहरे और वस्तुएं रेणु के चुम्बकीय मानस में सजीवता लिए दिए जीवित होते हैं। इतना ही नहीं, उनके हृदय की बनावट अतिन्द्रिय अनुभूतियों के आवेग में कुछ ऐसी बन चली कि हर दृश्य या चरित्र को अपनी अप्रत्याशित शैली में ढाल लेते हैं। तनिक उदाहरण के तौर पर उठा लीजिये उनकी कहानी "बट बाबा" का एक अंश - "जाड़े का दिन हो या गर्मी का मौसम, चाहे वर्षा की ही झड़ी क्यों न हो, सुबह से शाम तक उसके नीचे औरत, बूढ़े, बच्चे, जवान, गाय, भैंस, बैलों की छोटी सी टोली बैठी ही रहती थी। चैत्र-वैशाख की दोपहरी में तो सारा गांव ही उसकी शीतल छाया का सहारा लेता। गांव का लुहार यहीं बैठ कर हल वगैरह की मरम्मत करता, घर बनाने वाले मजदूर बांस यहीं बैठ कर फाड़ते-छीलते।" ( कहानी – ‘बट बाबा’)
बटवृक्ष गांव के सुख, चैन, कचहरी, हंसी-ठट्ठा, आमोद, विनोद, निंदा-रस, निद्रानंद का आश्रय स्थल है। भारत की ग्रामीण दुनिया में वटवृक्ष केन्द्रीय महत्व का जीता जागता अस्तित्व है। कई बार तो कयी पीढ़ियां इसके आगे जन्म लेती और मिट जाती हैं। अन्ततः वृक्षों के इस सरताज के गिरने की व्यथा इसती हृदयबेधक कि भीतर से आह रिसने लगती है। रेणु का चित्त उनकी बारीक सहृदयता की सघन साधना का परिणाम है। और ऐसी अद्वितीय सिद्धि हासिल होती है, दिल की अहंशून्य विशालता से, जिसमें खेतीबारी, जीव-जंतु, पशु, पक्षी, मनुष्य, बाग-बगीचे, ऊसर-बंजर, तालाब, पोखर, नदी, जंगल, सीवान, वियावान सब समा जाते हैं। अथाह सहृदयता से लबालब सर्जक न केवल अस्तित्व के बहुआयामीपन को आत्मसात कर लेता है, बल्कि उनको पूरी योग्यता के साथ जीवित और साकार करने की कठिनतम कला भी प्रज्ज्वलित कर लेता है। रेणु के आवेगधर्मी मानस की दूसरी उपलब्धि है, अनौपचारिकता और बेलीकी। और ये दोनों अनगढ़ गुण संभव हुए, भावनाओं की प्रगाढ़ मौलिकता से। आइए देखते हैं एक और दृश्य, उनकी कलम की तान पर सधा हुआ "सन्ध्या से लेकर प्रातः तक एक ही गति से बजती रहती- चट् धा, गिड़-धा, चट्-धा, गिड़-धा। अर्थात आजा भिड़जा!!' बीच बीच में चटाक् चट्-धा, चटाक् चट्-धा' यानी उठा कर पटक दे!!" (कहानी-पहलवान की ढोलक)
काव्यशास्त्र में वैसे तो 09 स्थायी भाव और 33 संचारी भाव सिद्ध किए गये हैं, पर दीवानगी की सीमाएं पार करने वाला सर्जक शताधिक चिरस्थायी भावों और असंख्य अनियमित किन्तु अद्भुत संचारी भावों का महाकोश होता है। रेणु के भीतर न केवल बारीकियत की हद तक घ्राण शक्ति उद्दिप्त थी, बल्कि सुनने की स्थूल शक्ति से कई गुना आगे अश्रव्य को भी आत्मा में अवस्थित कानों से सुन सकते थे, उसे अज्ञात और बेलीक शब्दों में बांध सकते थे। यह श्रेय केवल रेणु को दिया जाना चाहिए कि प्रेमचंद के बाद ग्रामीण सभ्यता की कालजयी संभावनाओं की खोज की। रेणु के अंचलभक्त मानस पर चिंतन-मंथन करते हुए यह तथ्य साफ दिखाई पड़ता कि नैसर्गिक तौर पर उन्हें सहज मानवीय भावनाओं की विलक्षण सूक्ष्मता हासिल थी। वे साधक की एकाग्रता धारण करते हुए कांटे की नोंक से सूक्ष्म दृश्य की अद्वितीयता को बिम्ब में, ध्वनि में, रागात्मक गद्य में बांध सकते थे। एक प्रश्न उठता है, मन में रेणु की बहुआयामी आंचलिक आत्मा से छूटा क्या? क्या प्रेमचंद और रेणु भारतीय ग्राम सभ्यता, उसकी नियति, संभावना और महत्ता के दो ध्रुव हैं? इसका उत्तर सीधे हां या ना में दे पाना संभव नहीं। यह अवश्य है, इन दो हिन्दुस्तानियत के परम आशिकों ने अभिव्यक्ति के स्तर की ऐसी नायाब लकीर खींच दी है, जिससे नितांत अलग और मौलिक राह निर्मित कर पाना साधक से नीचे का काम न होगा। रेणु का हृदय रात-दिन विचरण करता है, अंचल की छाया, माया, दुख, संघर्ष, पराजय, कुंठा, तनाव, पीड़ा, गरीबी, अनाचार और प्यार, इजहार, मनुहार के ताने-बाने में। वे और कथाकारों की तरह दर्शक नहीं, चितेरे भी नहीं, सर्जक भी नहीं। वे खुद उस यथार्थ से आत्मबद्ध हैं, एकम एक हैं, अखंड हो चुके हैं। गंध के गंध, ध्वनि के ध्वनि, रुप के साथ रुप और जीव के साथ जीव बन कर ही उसकी आत्मा को कागज पर उतारा जा सकता है। उनकी विख्यात कहानी है- "रसप्रिया", लगभग लाखों हिन्दी पाठकों के हृदय को अश्रुसिक्त कर देने वाली। तनिक उठाइए पलकों पर ये पंक्तियां- "खेत की आल पर झरजामुन की छाया में पंचकौड़ी मिरदंगिया बैठा हुआ है, मोहना की राह देख रहा है। जेठ की चढ़ती दोपहरी में खेतों में काम करने वाले भी अब गीत नहीं गाते हैं..। कुछ दिनों के बाद कोयल भी कूकना भूल जाएगी क्या? ऐसी दोपहरी में चुपचाप कैसे काम किया जाता है! पांच साल पहले तक लोगों के दिल में हुलास बाकी थी...। पहली वर्षा में भीगी हुई धरती के हरे-भरे पौधों से एक खास किस्म की गंध निकलती है। तपती दोपहरी में मोम की तरह गल उठती थी, रस की डाली। वे गाने लगते थे, बिरहा, चांचर, लगनी।"
( कहानी - रसप्रिया)
चरित्र और घटनाओं की अप्रत्याशित सूक्ष्मता में रेणु गोता लगाते ही हैं। प्रकृति और पक्षी, जीव, पशु जगत के गुलाम, मौन किन्तु अद्वितीय अन्तर्जगत में प्रवेश करते हैं। यह कठिन सिद्धि उन्हें नैसर्गिक तौर पर हासिल थी। दृश्य में दर्शन की खोज करना रेणु का संकल्प नहीं, बल्कि दृश्य के बहाने अपने मनुष्य को संस्कार बद्ध उनका अघोषित सपना रहा है। एक कथाकार का मानस कहाँ, कैसे, कितनी अलौकिक दिशाओं से, आकाश से, कल्पना की धरती से सृजन के तत्वों की खोज करता है, इसको अंतिम तौर पर बता पाना बड़े से बड़े आलोचक के वश की बात नहीं।
हिन्दी कहानी का वह कौन रसवादी पाठक होगा, जो रेणु की अमिट कहानी "तीसरी कसम अर्थात मारे गये गुलफाम" में कभी डूबा न हो। फिल्म का आकर्षण तो अलग, कहानी अपने रचाव, बनाव, तराश और धीमी धीमी आंच में भी खूब मन को भाती है। प्रगाढ़ आत्मीयता और अपूर्व भावात्मक सजगता रेणु की कलम में मानो नृत्य कर उठी हो। यह कहानी इस शिल्पकार की नायाब हुनर का आइना भी है, और खांटी देशज दुनिया की अनगढ़ मनुष्यता के प्रति रेणु के प्रचंड अनुराग का प्रमाण भी। कहानी ने जड़ों में भिनते हुए अदृश्य रस की तरह खूब विस्तार लिया है। मानो रेणु कायान्तरण करके हिरामन के शरीर में पैठ लगा लिए हों, और हीराबाई की पानीदार आत्मा में भी। एक कोमल प्रसंग याद कीजिये जरा- "कच्ची सड़क के एक छोटे से खड्ड में गाड़ी का दाहिना पहिया बेमौके हिचकोला खा गया। हिरामन की गाड़ी से एक हल्की ‘सिस’ की आवाज आई। हिरामन ने दाहिने बैल को दुआली से पीटते हुए कहा- 'साला क्या समझता है, बोरे कु लदनी है क्या?"
"अहा! मारो मत"
अनदेखी औरत की आवाज़ ने हिरामन को अचरज में डाल दिया। बच्चों की बोली जैसी महीन, फेनूगिलासी बोली!
परकाया प्रवेश की प्रतिभा के बगैर प्रतिसृष्टि कर पाना संभव नहीं। न केवल मनुष्य की आत्मा में, बल्कि अपने अनुभव और मष्तिष्क के दायरे से गुजरने वाले प्रत्येक अस्तित्व के भीतर प्रवेश करने की क्षमता। मुक्तिबोध के शब्दों में यही "व्यक्तित्वांतरण" है। रेणु का सूक्ष्मदर्शी मानस सजीव, निर्जीव, प्रकट, अप्रकट, स्थूल, हवाई, रंगमय, रंगशून्य, आकर्षक, निराकर्षक, सुगढ़, कुगढ़ सबसे विलक्षण एकाग्रता के साथ संवाद करता है, उसे हिए लगाता है, पलकों पर बिठाता है, उसे सुमिरता है, उसे हजार हजार प्राणों से भर देता है। जो पाठक केवल आंनद लेने के लिए रेणु की कहानियां पढे़गा, वह ऊपर तैरने वाला कच्चा तैराक ही रह जाएगा, किन्तु जो खुद को बदलने, खुद में नये भाव जोड़ने और हृदय का स्थायी विस्तार करने के लिए उनकी कहानियों का मंत्रपाठ करेगा, वह कहानियों को जी लेगा, अन्तर में।
इसी "तीसरी कसम अर्थात..।" के गीत की एक छटा देखिए---/-
तेरी बांकी अदा पर मैं खुद हूँ फिदा
तेरी चाहत हो दिलबर बयां क्या करूँ
यही खाहिश है कि इइइ तू मुझको देखा करे
और दिलोजान मैं तुमको देखा करूँ।
रेणु ने आंचलिकता की अनेक गुणधर्मी अनगढ़ता को उतना ही स्वाभाविकता दी, जितनी अनिवार्य है। न बेशी, न कम। यह संतुलन एक संवेदनाजीवी सर्जक के लिए बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि कलम की खेती नैसर्गिक क्षमता से होती है, न कि मशीन की शैली में। यह भी संभव था, रेणु पाठकों की भाषाई समझ की सीमा की परवाह न करते हुए, और और, और अपरिचित, अज्ञात, गुमनाम आंचलिकता के रहस्यों में उतर पड़ते, तब अपठनीयता की मुश्किल खड़ी हौ जाती, किन्तु रेणु उसी हद तक आंचलिकता को खींचते हैं, जिससे उसके मिठास, तितास और गंध की सहजता बनी रहे, बोझिल न होने पाए और अपनत्व के जादे में बांधे रखे। आइए ले चलते हैं एक और लकीरी कहानी की ओर..।
"जंगी की पुतोहू मुंहजोर है। रेलवे स्टेशन के पास की लड़की है। तीन ही महीने हुए गौने की नयी बहू हो कर आई है और सारे कुर्माटोली की सभी झगड़ालू सासों से एकाध मोर्चा ले चुकी है। उसका ससुर जंगी दागी चोर है, सी किलासी है। उसका खसम रंगी कुर्माटोली का नामी लठैत। इसीलिए हमेशा सींग खुजाती फिरती है जंगी की पुतोहू।"
जय मां हाटेशवरी.......
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हमने पढ़ा......
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें.....
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना.......
दिनांक 25/05/2021 को.....
पांच लिंकों का आनंद पर.....
लिंक की जा रही है......
आप भी इस चर्चा में......
सादर आमंतरित है.....
धन्यवाद।
सुन्दर लिखा
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