कल्पना मनोरमा की कहानी 'टारगेट'
कल्पना मनोरमा |
बदलते पूँजीवादी समय ने सब कुछ पर अपना व्यापक असर डाला है। रिश्ते नाते तक इससे प्रभावित हुए हैं। स्वार्थ की भावना अब प्रबल है। आमतौर पर हमारे भारतीय समाज में स्त्रियों को पराया धन मानने की परम्परा है। बावजूद इसके रिश्ते तो चलते ही रहते हैं। बनिता का भाई जब एक प्राइवेट बैंक में नौकरी पाता है तो उसे शेयर मार्केट में इन्वेस्ट करने का सपना दिखा कर डी मैट एकाउंट खोलने के लिए प्रेरित करता है। प्राइवेट बैंक अपनी कई छुपी शर्तों के साथ जमाकर्ता की जमा रकम पर कटौतियाँ करनी शुरू कर देते हैं। और ऐसे में एक दिन खाते का भ्रम भी तिरोहित हो जाता है। इन्हीं मनोभावों को कथा का रूप देते हुए कहानीकार कल्पना मनोरमा ने एक बढ़िया प्रयत्न किया है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है कल्पना मनोरमा की कहानी 'टारगेट'।
टारगेट
कल्पना मनोरमा
“मेरी प्यारी जीजी! तुम संसार की सबसे अच्छी बहनों में से एक हो! सच्ची कहती हूँ, यदि मेरी जीजी न होती तो दुनिया में कब कौन-सा फैशन आया और चला गया; पता ही न चलता।"
बनिता की सबसे छोटी बहन मीतू उससे लिपट-लिपट कर उसे दुलराती जा रही थी। भाई थोड़ी दूर पर बैठा गिहूँआ मुस्की छोड़ रहा था। मीतू से बड़ी वाली बहन बनिता को अम्मा के साथ प्रेम से बातें करते हुए टुकुर-टुकुर देखे जा रही थी। इस बार दीवाली की छुट्टियों में बहनों की लाड़ली बनिता ससुराल की दुनिया छोड़ माँ के घर दीवाली मनाने आई थी। और साथ में लाई थी छोटी-छोटी तमाम ख़ुशियों की फुलझड़ियाँ। मीतू के लिए सुनहरा ब्रेसलेट, नीतू की मेकअप किट और तीनों बहनों के बीच अपने अकेले भाई के लिए नेवी ब्ल्यू रंग का हाई नेक स्वेटर।
”देख जतिन, वैसे तो तूने बहुत पहले इसे लाने के लिए कहा था लेकिन मैंने भी सोचा कि ऐसा-वैसा स्वेटर लाने से देरी भली। ले पहन कर दिखा सबको।”
बनिता ने उसकी नरमाहट अपने गालों पर महसूस करते हुए स्वेटर उसकी ओर बढ़ाया। भाई ने जब स्वेटर अंग लगाया तो भाई के साथ-साथ सभी के चेहरों पर निखार आ गया था। दूर बैठे बाबू जी भी मंद-मंद मुस्काए बिना न रह सके। बनिता अपने पिता को अपना आदर्श मानती थी इसलिए बाबू जी को खुश देख कर ख़ुशी की एक महीन रेखा उसके होठों पर भी खिंच आई। यही तो वह चाहती थी, हमेशा से कि उसके मायके में सभी ख़ुश रहें और बाबू जी तो सबसे ज्यादा।
“बिटिया तुम्हारा हाथ बहुत खुला चलने लगा है। ज़रा देख सुन कर खर्च किया करो क्योंकि आज के समय में खाली हाथ वाले व्यक्ति को अपने भी भाव नहीं देते।”
अम्मा का मन कुसमुसाया तो बनिता ने एक प्यारी-सी ढक्कन वाली चायदानी जिसको उसकी माँ बहुत दिनों से मँगवाना चाहती थीं लेकिन अभी तक मँगवा नहीं पायी थी; निकाल कर ये कहते हुए दी, ”अम्मा एक कप चाय मिलेगी?"
अम्मा चायदानी देख कर निहाल तो हुईं लेकिन तुरंत ही बेचारी उसका दाम पूछने लगीं। बनिता अभी भी मुस्कुरा रही थी लेकिन माँ-बेटी का इसरार देख उसके पिता बोल पड़े - "बनिता तू चिंता मत करना तेरी एक-एक पाई का हिसाब सूत समेत जतिन चुकता करेगा। आखिर वो इस घर का चिराग है, हमारा बेटा है। हाँ, तुम लोग अगर अभी उसे खुश रखोगी तो मेरे बाद भी तुम बहनों को पूछता रहेगा। नहीं कौन जाने...।"
हर बार की तरह इस बार भी मौके की नज़ाकत को भाँपते हुए बनिता के पिता ने उसकी संवेदनशीलता पर अपने जड़ीले मत का अनुलेप लगा कर उसका मन फिर से ख़राब कर दिया। पिता के हर कथन के प्रति नतमस्तक रहने वाली बनिता ने खुद को खूब संभाला लेकिन आज वह विचलित हो उठी। दरअसल पिता की ऐसी बातें सुन-सुन कर उसने अपने वामा आपे को निबल समझ लिया था। न कभी मन भर हर्षित होने लगी थी न ही उतावली इसलिए आज भी खुश होने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था।
“अम्मा, बाबू जी से कहो न प्लीज कि ऐसी बातें बार-बार मत कहा करें। पराये होने का एहसास करवाना क्या बहुत जरूरी होता है हर बार? हम लोग जानते हैं अपनी औकात।”
बुदबुदाया तो उसने रसोई में माँ के पास था लेकिन पिता फिर भी बोल पड़े।
“हाँ हाँ बनिता मैं सही कह रहा हूँ, तुम अपने भाई बहनों की हुलास अभी देख लो बाद में तुम्हारे बाल-बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के समय हम जिंदा हैं न! देखेंगे। सावन और भाई दूज का शगुन ऊपर से, क्यों जतिन!"
पिता कुछ और बोल कर बनिता का दिल दुखाते उसकी अम्मा बोल पड़ी, “हाँ ठीक है ठीक..। कुछ खाने-पीने भी दोगे उसको या अपनी ही कहते चले जाओगे?”
ढेर उदास शब्दों के बीच माँ की स्नेहलता की हरियाली पलकों में लिए वह चौके से निकल कर चटाई पर आ कर बैठ गयी और आँगन में धूप-छाँव के बनते-बिगड़ते चित्रों को ध्यान से देखने लगी। पिता की बातों से उसका मन न चाहते हुए भी भाँय-भाँय बज उठा था। बस उसी को वह सम पर लाने की चेष्टा कर रही थी। वैसे तो उसके पिता का हाल ऐसा इस बार ही नहीं अपितु हमेशा था लेकिन बनिता इस बार घायल गौरैया जैसी तड़प उठी थी। इसलिए वह तन के साथ अपने मन को मिलाने की चेष्टा कर ही रही थी कि दोनों बहनें अपनी-अपनी गुल्लक बजाते हुए लड़ती-झगड़ती उसी के पास आ कर पसर गयीं।
“हुआ क्या? क्यों लड़ रही हो तुम दोनों?”
उसने समझने की बहुत कोशिश की किंतु समझ न पायी, तो माँ की ओर प्रश्नात्मक मुद्रा में देखा। माँ ने उसे बताया कि कुछ हफ्ते पहले उसकी बरनाला वाली मौसी आई थीं। जब वे जाने लगीं तो उनके पास टूटे रुपये नहीं थे इसलिए उन्होंने एक सौ का नोट और एक पचास का नोट नीतू को ये कहते हुए पकड़ा दिया था कि तुम तीनों बराबर-बराबर बाँट लेना। राम जाने अब क्या बिगड़ गया इन लडकियों का। बुढ़ापे की औलादों ने चैन हराम कर रखा है। कभी-कभी तो लगता है कि सब छोड़-छाड़ कर हिमालय चले जाएँ।”
बनिता की माँ ने कहते हुए एक असहाय सी उबासी छोड़ी तो उसे अपने बचपन का बीता वक्त याद हो आया, जब वह अकेली थी। उसकी अम्मा का सर काम के बोझ से चौबीसो घंटे झुका रहता था। हज़ार उलझनों में घिरीं अम्मा यदि एक बार नज़र भर कर उसकी ओर देख लेती थीं तो उसे समझ आ जाता था कि अब उसे बोलना है या चुप रहना है। एक ये लोग हैं। आखिर इनको क्यों नहीं मालूम कि कितनी तकलीफ़ों से गुजरते हुए अम्मा ने इन लोगों को पाला-पोसा है। बेचारी अम्मा अपने जीवन को कैसे किरच-किरच बाँटती गईं। सब कुछ होते हुए भी अम्मा एक-एक पैसे के लिए सबका मुँह ताकती गयीं और पैसा मालिकों की तिजोरी में बंद हो उनके लिए गुलरी का फूल बनता गया। अपने बचपन में भी वह अम्मा की मदद किया करती थी। वैसे ज्यादातर मेहमान तो अपनी कमी का दुःख जता कर ही चले जाते थे। हाँ, कुछ मेहमान और उसकी बड़ी बुआ जाते हुए पैसे और आशीर्वाद जरूर दे जाती थीं। तब अपनी प्यारी अम्मा की सीख, “अच्छे बच्चे अपनी अलग गुल्लक नहीं बनाते। अच्छे बच्चों की गुल्लक तो उनके माता-पिता ही होते हैं।” याद कर इधर मेहमानों से पैसे पाए उधर निर्विकार भाव से उठा कर अम्मा को पकड़ाए और अम्मा ने अपने अर्ध चंद्राकार घिसे नाखूनों वाली खुरदुरी उँगलियों में उसके हाथ पकड़ हँस कर हथेली चूम ली। बनिता ख्यालों में खोई अपनी बाहों को घुटनों पर लपेटे झूलती जा रही थी।
“जीजी तुम ही बताओ किसी के पैसों की चोरी करना उचित है?”
मीतू ने रोनी-सी सूरत बनाते हुए नीतू को घूरते हुए बनिता से कहा।
“हाँ, ये बात तो ठीक ही कह रही है मीतू लेकिन तू मुझे बता न! कितने पैसों की जरूरत है?” बनिता ने पास में रखी अटैची से पर्स अपनी ओर खींचते हुए कहा।
“रहने दो जीजी कितना दोगी इसे? हम देख लेंगे। इसका तो ये काम बन गया है; हमेशा रोती रहती हैं।” नीतू ने उसे चिढ़ाते हुए कहा और खींच-तान करते हुए दोनों वहाँ से फिर निकल गयीं।
बनिता के मायके की माली हालत वैसे तो अच्छी ही थी लेकिन नये जमाने के परिधानों और शौक के तमाम साधनों-प्रसाधनों के लिए उसके पिता फूटी कौड़ी नहीं छोड़ते थे गाँठ से इसलिए भाई-बहन उसी पर निर्भर हो चले थे। उनकी छोटी-छोटी फरमाइशें पूरा करना बनिता अपनी जिम्मेदारी समझती आ रही थी। जहाँ लडकियाँ अपने बचाए पैसों से मायके में आ कर ऐश करतीं; वहीं बनिता बचत के ऊपर अपने टीचर पिता के ढेरों लेक्चर सुनती और गुनती रहती। कभी-कभी तो वह ऊब भी जाती। जब उसके अपने जरूरी कार्यों के लिए भी उसको टोका जाता, तो स्वयं से खीझ कर कह उठती।
“मैं ही मिली थी तुझे दाता! दोनों घर फ़क़ीरी देने को?”
लेकिन ये भाव भी उसका क्षणिक पानी पर खींची लकीर की तरह ही होता। वह फिर अपने मस्तमौला ढर्रे में रम एक-एक पैसे को जतन से खर्च करने को अपनी नियति समझ जिन्दगी को जीने लगती।
जब उसकी चचेरी बहनें ससुराल से बचाए पैसों से अपने लिए हर बार एक नया सेट गढ़वा कर इतरातीं तो बनिता अपनी साधारण जंजीर भी गले से उतार कर रख देती। जब वे लोग मायके की देनी से लदी-फंदी विदा होतीं तब अपने पैसे से खरीदी साड़ी-कपड़ा ले कर बनिता अंतर में मौन और मन में आशा सहेजे विदा हो जाती कि ‘जल्द ही सब ठीक हो जाएगा।’
पहियों पर वह सवार थी या समय? किसी की पदचाप अलग से महसूस कर पाना असंभव हो चला था। बनिता चाह कर भी अब मायके नहीं जा पा रही थी। बढ़ते बच्चों की एजुकेशन का बोझ और अपनी छोटी नौकरी की धिंग-धांय ने उसे पूरी तरह अपने में उलझा लिया था। मन का मुक्त गगन काले-काले धब्बेदार अनपहचाने विचारों से अटता चला गया था। उसके हिस्से बुनने के लिए जीवन का वह स्वेटर आया था जिसको बुन-बुन कर भी वह कभी गले तक नहीं ला पाई थी।
आज बहुत दिनों के बाद बनिता की माँ का ख़ुशी भरा फोन आया था। खनकती आवाज़ में वे कह रही थीं, “बनिता बिटिया, तेरे भाई की नौकरी बैंक में लग गयी है। अब की बार जब तुम घर आओगी तब एक बढ़िया-सी साड़ी दिलाऊँगी तुम्हें।”
बनिता को सुन कर लगा जैसे बसंती झोंके ने उसे दुलरा कर बाहों में भर लिया हो। घर में ख़ुशियों की बारात-सी उतर आई। उस दिन बनिता ने सबका मुँह मीठा करवाने के लिए कचौरियों के साथ खीर बनाई थीं। मन के उपवन में यहाँ से वहाँ तक कई रंग के फूल एक साथ खिल पड़े थे और उन सब में बनिता का चेहरा ताज़े गुड़हल की तरह दमक उठा था। मामा की तरक्की की बात जब बच्चों को बताई तो वे भी उछल-उछल कर अपनी ख़ुशी का इज़हार करने लगे थे। अब तो आये दिन उसकी माँ जतिन की नौकरी के चर्चे कर उसको नई-नई खबरें सुनाने लगी थीं जिसे सुन कर बनिता चहक-चहक उठती।
उसके मायके में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं बल्कि अब बहुत अच्छा हो चला था। बहनें ब्याह गयी थीं। भाई बचा था वो भी नौकरी वाला हो गया था। सुख की सरिता माँ के आँगन के बीचोंबीच से बह चली थी। इस बात का संतोष बनिता को देख कर कोई भी समझ सकता था। हाँ, भाई का फोन अब उसके पास बहुत कम आने लगा था। बुरा तो लगता उसे लेकिन यह सोच कर तसल्ली कर लेती कि इतनी बड़ी नौकरी पाई है भाई ने, तो उसके बंधन भी बड़े ही होंगे। चलो जहाँ रहे भाई कुशल से रहे। इन्हीं विचारों के उगते-डूबते सूरज के साथ एक दिन भाई का फोन उसके पास भी आ ही गया। तब तो बनिता के उमंग का ठिकाना न रहा था।
"जीजी पाँव लागूँ!"
"जीता रहे जतिन मेरा भाई! और बता कैसा है तू?"
“जीजी, मैं तो एक दम मस्त हूँ। मगर सुनो न? आपने किस बैंक में अपना खाता खुलवाया है?” जतिन ने बड़ी जरूरी-सी ध्वनि निकालते हुए पूछा था।
”खाता...उसकी तो मुझे जरूरत ही नहीं पड़ी कभी!” बनिता ने अकेले में भी झेंपते हुए कहा।
“अच्छा, तो ऐसा करो कल ही जाकर ‘ए बी सी बैंक’ में अपना और जीजू का बचत खाता खुलवा लो। एक खाता तो होना ही चाहिए अपने नाम का।”
जतिन ने इस बात को साधिकार बनिता से कहा था।
“सुन जतिन! तेरे जीजू को खाता खोलने की जरूरत नहीं है क्योंकि उनके पास अपना तनख्वाह वाला खाता है न!”
बनिता ने एक उबासी भरी लम्बी साँस खींचते हुए कहा।
“अरे मेरी भोली जीजी, उस खाते में डीमैट अकाउंट की सुविधा नहीं होगी और शेयर मार्केट में पैसा लगाना चाहेंगे, तो जीजू कैसे इन्वेस्ट कर सकेंगे? आजकल के ट्रेंड से भी उन्हें अवगत रहना चाहिए इसलिए आप मेरे वाले बैंक में खाता खुलवा लो।" “उसके पति और शेयर मार्केट...?” ये बात विचारते हुए वह थोड़ा अचकचा-सी गई लेकिन जतिन की बात बनिता टाल ही नहीं पायी।
भाई की नॉलेज और अपनेपन पर बलिहारी बहन को पिता के द्वारा कही एक-एक बात अब सच्ची लगने लगी थी।
“मेरा भाई कितना अच्छा है। भला आज के युग में बहनों की कोई इतनी चिंता करता भी है? पैसों के लेने-देने में तो आदमी की अपनी परेशानियाँ होती हैं। जितना कमाता है उससे ज्यादा खर्च के ज़रिये बन जाते हैं। जतिन भी चाहे कुछ न दे लेकिन जिंदगी के गणित को संवारना सिखा दे, बस्स। शेयर मार्केट वाली बात को तो मैं अब जतिन से सिरे से सीखूँगी।"
मुस्कुराते हुए पल्ले को कमर में खोंस लिया। जैसे उसने शेयर मार्केट के दाँव-पेंच सीखने का संकल्प मन ही मन ले लिया हो। बैंक की पढ़ाई में पैसे का हिसाब-किताब सिखाया जाता है। उसने सुना था कभी।
“मैं अपना अब बजट बनाना सीखूँगी। वैसे भी खर्च करना, पैसा कमाना और पैसा बचाना सब अलग-अलग विषय हैं। इस बात की गहराई को मुझे समझना ही होगा। उत्तम-मध्यम पैसा कमाना तो सब जानते हैं लेकिन कमज़ोर वक्त के लिए बचत कर जीवन सिक्योर करना आदमी को सलीके से आना ही चाहिए। पैसे के बढ़ते-घटते ग्राफ़ के साथ उसने भी संतुलन बनाना यदि सीख लिया तो उसकी औकात भी हल्की-भारी होते कहाँ देर लगेगी?”
भाई से बात खत्म किये अभी मुश्किल से दस मिनट ही हुए होंगे लेकिन बनिता ने सोचते हुए अपने सभी रिश्तेदारों का मानसिक अवलोकन सिरे से कर डाला था। एक बड़ी-सी मुस्कान उसके होंठों पर फूल आई थी। चिंतन में मुंदी आँखें खुली तो सीधे गुलदान में रखे फूलों के गुच्छे में लटकते सूखे फूल पर जा अटकी। उसने बिना देर किये उसको झटक कर तोड़ लिया। मानो वह सोच रही थी कि अब उसके घर में धुँधली-बेजान चीजों के लिए कोई स्थान नहीं है। वह जल्दी-जल्दी घर के अन्य कामों को निपटाने लगी लेकिन मन के एक कोने से अनवरत आनन्द का झरना फूट-फूट पड़ रहा था। वह विचारों की सुखन झील में गोता लगाते हुए गुनगुनाने लगी। ‘दिल है छोटा-सा, छोटी-सी आशा। मस्ती भरे मन की भोली सी आशा…’ कि अचानक डोरबेल बज उठी।
पति महोदय घर में जैसे ही घुसे बनिता बोल पड़ी।
“सुनो जी, भोपाल से जतिन का फोन आया था। सबके हाल चाल तो उसने मिनट में ही पूछ लिए लेकिन आपके बारे में तो बड़ी देर तक बातें करता रहा।”
पति को भाई के दृष्टि में महत्वपूर्ण बनाते हुए वह बोली।
“अच्छा! क्या कह रहा था ?”
पति ने हेलमेट सेंटर टेबल पर रखते और चाबी उसके हाथ में पकड़ाते हुए पूछा।
“बाकी बातें सब बाद में बताऊँगी। पहले ये सुनो कि वह हम लोगों को अपना-अपना खाता उसके बैंक में खुलवाने के लिए कह रहा था।”
ये बात बनिता ने एक तेज़तर्रार बहन की तरह माथे पर उड़ आये बालों को जूड़े में खोंसते हुए कही थी।
"उसके लिए रुपए भी तो होने चाहिए बिन्नो!"
पति ने मसखरी की थी या कि सच में कही थी जो उसे बिलकुल अच्छी नहीं लगी।
"उसकी चिंता तुम मत ही करो।" वह झुँझलाते हुए बोली।
“अरे! चिंता कैसे न करूँ? जिन पैसों को रिंकी की बालियों के लिए तुमने बचाया है उनसे पहले वो काम तो कर लो। खाता-वाता बाद में देखा जायेगा।"
पति ने बात को वहीं खत्म करने की मंशा से कहा।
"नहीं जी! बाद में क्यों? अच्छे कामों में देरी नहीं होनी चाहिए।"
और इस तरह बनिता ने पति की एक न मानी। भोर होते ही छोटे-बड़े नोटों को समेटकर 'ए बी सी बैंक' में खाता खुलवाने के लिए पति के साथ स्कूटर से निकल पड़ी। कुछ घंटों की सबल प्रक्रिया के बाद एक हजार रुपये जमा कर पहली बार बनिता अब खाताधारक बन चुकी थी और ये बात उसके लिए किसी दौलत से कम नहीं थी।
घर लौटते हुए रास्ते में मिलने वाले सभी मन्दिर, मज़ार और गुरुद्वारा में वह सर नवाती हुई चली आई थी। उसे लग रहा था कि उसके सारे सपने गुलज़ार होने वाले हैं। वह सारी परेशानियों को अब जीत लेगी। उसका छोटा-सा आत्मविश्वास आसमान बन गया था। उसके मोबाइल पर बैंक से जुड़ा हुआ मैसेज आया तो वह सहज ही मुस्कुरा उठी थी। उसके बाद तो बैंक के मैसेजों का अनवरत सिलसिला-सा चल पड़ा था। वह उन नीरस मैसेजों को भी बड़े चाव से पढ़ती-पढ़ाती और अपने भाई के उदार स्नेह की चर्चा मित्रों के बीच करते न थकती थी। अपना बचत खाता खुलवाने के बाद बनिता का ये पहला सावन था।
“वैसे तो रिंकी की बालियाँ ले कर उसको पहना कर खुश होना था लेकिन कोई बात नहीं; शेयर मार्केट में एक दाँव वह जल्द ही लगाएगी। और यदि दाँव सही लगा तो एक जोड़ी नहीं कई जोड़ी बालियाँ दिलाऊँगी अपनी गुड्डो को।”
सोचते हुए उसने अपनी बिटिया को दूर खेलते हुए देखा तो अनायास ही ममता उमड़ पड़ी। उसे पास में बुला कर गोद में बैठा लिया। बनिता को आशा थी कि उसके नये खुले बचत खाते में उसका भाई इस सावन कुछ शगुन के पैसे जमा कर जरूर उसकी बचत में बढ़त का शुभारम्भ करेगा। इसलिए सुबह से चार बार मोबाइल उठा कर पति से पूछ चुकी थी।
”क्यों जी, जब कोई मेरे खाते में चुपके से पैसे जमा करेगा तो मुझे मैसेज मिल जाएगा न!”
“हाँ भई! कितनी बार बताना पड़ेगा बिन्नो!”
पति अपनी भावुक पत्नी को देखते हुए मज़ाक रहित सांत्वना देता जा रहा था।
“तुम सही बताते क्यों नहीं? बताओ न! कोई मैसेज क्यों नहीं आया बैंक से अभी तक?”
उसने पति से फिर कहा। साइकिल की गिरारी में ग्रीस लगाते हुए उसे बड़ा बेतुका-सा लगा तो इस बार वह हँस पड़ा। बे-वक्त की हँसी उसे कचोट गयी लेकिन मानसिक रूप से व्यस्त होने के कारण कुछ कह न सकी। इसी तरह उहापोह में सुबह से ले कर शाम होने को आ गयी थी लेकिन ‘मनी क्रेडिट’ का कोई भी संदेश बनिता को नहीं मिला था। ऊपर से हारा-थका सावन भी विदा लेने को व्याकुल हो उठा था। तभी उसका ध्यान बच्चों की ओर फिर चला गया। इस बचत खाते के चलते वह अपने बच्चों के राखी-बंधन के रंगीन पलों में भी पूरी मौजूद न हो सकी थी। अफ़सोस के साथ उसने रिंकी को गोद में उठा लिया। और इस सावन के साथ कई-कई सावन चुपचाप बिना ‘मनी क्रेडिट’ की खबर दिए उसके आँगन में आने-जाने लगे। उधर भाई ने खाता खुलवा कर गंगा नहा ली थी। इधर दिन महीनों में और महीने सालों में बदल चुके थे। हालत जस की तस थी। इतने आग्रह से खुलवाए गये बचत खाते में शगुन के नाम पर दो पैसे भी जमा नहीं किये गये थे, और न ही पिता ने उसके बच्चे कैसे पढ़-लिख रहे हैं? या कहाँ पढ़ रहे हैं? नहीं पूछा था। पैसों का गुणा-भाग सीखना-सिखाना तो बहुत बड़ी बात थी बनिता के लिए। रिंकी के कान बिन बालियों के देख-देख कर बनिता शर्मा अब ठगा-सा महसूस करने लगी थी।
दैवयोग से एक दिन टी. वी. पर ‘सी.एन.बी.सी.आवाज़’ चैनल देखते हुए बैंक खाता, शेयर मार्केट और न जाने पैसे से जुड़े कितने पेचीदा प्रश्नों के उत्तर देते एक सम्भ्रांत-से नवयुवक को उसने देखा। जिसका नाम स्क्रीन पर ‘उदयन मुखर्जी’ लिख कर आ रहा था। अनायास ही उसके मुँह से निकल आया।
”यही तो मैं कब से जानना चाहती थी जो आप बता रहे हैं।”
बनिता ने हथेलियों से अपना माथा सहलाया जो हल्का गर्म हो आया था। अब वो रुपए से रुपए बनाने की विधि जो भाई से सीखना चाहती थी वो सी.एन.बी.सी.आवाज़ चैनल पर ‘मनी एक्सपर्ट’ उदयन मुखर्जी से सीखने लगी थी। बनिता मन लगा कर उसको सुनती तो बहुत लेकिन समझ में बहुत कम ही आता तो खिसिया कर टी. वी बंद कर देती। वह भावुकतावश ये भूल रही थी कि पैसे का खेल सीखने के लिए पैसे की जरूरत होती है, जो उसके पास न के बराबर था। बहरहाल लाख़ उपाय करने के बाद भी बनिता अपने खाते की माली हालत सुधार न सकी और इस तरह से उसका खाता असमय मरने के कगार पर पहुँचने वाला था।
गजब तब और हो गया जब बनिता के द्वारा किसी जरूरी काम के लिए दो सौ रूपये उसी खाते से निकालने के बाद हर महीने के अंत में बैंक अपने नियमों के अनुसार कभी दस, कभी बीस रुपये डेबिट होने के मैसेज भेजने लगा था। उसका हजार रुपये वाला बैंक बैलेंस बढ़ने की जगह कटते-कटते शून्य की ओर बढ़ चला था। आशाओं के फुंदने निराशा के ताप से पिघल-पिघल टूटने लगे थे। मायके की स्वर लहरियाँ अकाट्य सन्नाटे में बदल चुकी थीं। इस सबके बावजूद मौसम तो सदैव अपने ही रौ में रहता है। उसको किसी के दुखी होने से क्या लेना-देना सो वसंत ने गुलाबी दस्तक दे डाली। खुनक शबनमी हवा की खुसफुसाहट में बनिता को वो वादा याद आ गया जो पिछली बार उसके पति ने अपना बजट असंतुलित होने के कारण इस वसंत पंचमी के लिए स्थगित कर दिया था।
"लो जी! शर्मा जी! आ गई वसंत पंचमी फिर से। कहाँ है मेरी पीली जॉर्जेट की साड़ी?"
“बिन्नो, रिंकी की बालियाँ ज्यादा ज़रूरी हैं या तुम्हारी साड़ी ?”
“देखो जी! बातें तो मत ही बनाइए आप। सीधे-सीधे साड़ी दिलाइये। और मैं कुछ नहीं जानती।”
कहते हुए उसने कुछ भी और न सुनने के इच्छा से अपने हाथ कानों पर रख लिए। कुल मिला कर साड़ी को ले कर दोनों में मीठा वाद-विवाद ढंग से छिड़ चुका था। बनिता की अन्यमनस्कता को देखते हुए उसके पति ने आख़िरकार कह ही दिया।
“अच्छा फ्लिपकार्ड पर कोई अच्छी-सी साड़ी देख कर ऑडर कर दो अभी।”
“सच्ची !”
कहते हुए पति के कहे अनुसार उसने अपना मोबाइल उठाया ही था कि आँखें बैंक से आये एक मैसेज़ पर जा कर टिक गयीं।
“डियर कस्टमर आपके द्वारा खाते से लेन-देन न करने के कारण 'ए बी सी बैंक' से आपका खाता अनिश्चित समय के लिए रद्द किया जाता है। ‘प्लीज कांटेक्ट अस’।”
"और मेरे हज़ार रुपए?”
अकबकाहट में उसके मुँह से ये बात ज़रा ज़ोर से निकल गयी। उसने चट से दोनों हाथों से मुँह दबा लिया। वैसे तो प्रतिमाह पैसे कटने वाली बात उसने पति से अभी तक छिपा रखी थी। ऐसा उसे लगता था। जबकि साथ में अकाउंट खोलने के कारण पति भी उसी प्रकार के मैसेज लगातार रिसीव करता आ रहा था। खैर!
उसकी हालत पर पास में बैठे पति ने सेविंग करते हुए सांत्वना की जगह एक करारा ताना कसा, “बिन्नो रानी तुम्हारा तो मैं नहीं जानता लेकिन तुम्हारे भाई का सेल टारगेट जरूर पूरा हो गया। ये बात मुझे तब भी मालूम थी और आज भी” और बिना विचलित हुए उसका पति अपनी दाढ़ी बनाने लगा।
पहले तो बनिता को लगा कि जैसे किसी ने बर्फीला पानी उसके सर से उड़ेल दिया हो लेकिन अचानक कुछ सोचते हुए बोली, "मैं ऐसा नहीं मानती" और गुलदान से एक पीला फूल निकाल कर जूड़े में लगा लिया। ऐसा करते हुए मानो उसने एक फूल की आड़ में छिप कर अपने जीवन को अनावृत होने से बचा लिया था।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स
वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)
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बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कहानी
जवाब देंहटाएंसचमुच कहानी नहीं ये मध्यम वर्ग कई परिवारों की वास्तविकता है।
जवाब देंहटाएंशिल्प, कथ्य सभी कुछ दिल को छूने वाला है।
कल्पना जी वाकई में बधाई की पात्र है।
बहुत अच्छी कहानी। पाई-पाई जोड़कर यूँ लुट जाना और टार्गेट पूरा करने के नाम पर अपनों द्वारा ठगा जाना, एक स्त्री के लिए कितना असह्य है। बहुत सुन्दर तरीक़े से मन की परतों को समेटती कहानी। बधाई।
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