मार्कण्डेय की कहानी ' नीम की टहनी'
मार्कण्डेय |
नई कहानी आंदोलन के प्रवर्तक कथाकारों में से एक मार्कण्डेय की कहानियाँ लोक से जुड़ी हुईं हैं। वह लोक जिसमें अपनत्व प्रमुख होता है। जिसकी संवेदना सामूहिकता लिए होती है। आज मार्कण्डेय को उनके जन्म दिन पर नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कहानी ' नीम की टहनी'। यह कहानी उनके पहले कहानी संग्रह 'पान-फूल' में संकलित है।
नीम की टहनी
मार्कण्डेय
सूरज डूबते ही, सारा-सारा गांव डाइनों के काले लहंगे में उलझ कर बेहोश हो जाता है। हवा का झोंका अपनी खूंखार अंगुलियों से, खपरैल के घरों तथा फूस की झोपड़ियों को रह-रह रह कर छूता है, और वे दुबक कर, एक भयानक खामोशी में डूब जाती हैं।
सिवान में सियारों की हुँआ हुँआ... और गांव में कुत्तों की भों भों... लोग कानों में अंगुलियां डाल लेते।
कितने अपसकुन साथ-साथ हो रहे हैं। नग्ई की लड़की तो अब तब हुई है - महारानी की बड़ी डाली है, बेचारे के दो-दो जवान बेटे माई की गोदी में सो गए।
बड़ा अनरथ हो रहा है भाई! रामजस की मेहरारू को भी बड़ा तेज बुखार है। तीनों बच्चे बेहोश पड़े हैं। अब क्या होगा भला? माली भी तो लगा लिया था, बेचारे ने - पूजा आरजा कराई, लेकिन बच्चों ने अभी तक आंखें ना खोलीं।
यह पचरा भी तो शायद उन्हीं के घर पर हो रहा है - कितना भयानक गीत होता है। मेरा तो रोंआ-रोंआ रह रह कर कांप जाता है।
ठकुराइन का तो सब्र ही टूट गया। बार-बार बकरी के दरवाजे पर आतीं, और लौट कर फिर घर में जातीं, पर उनका मन जैसे उचट सा गया था। इतनी रात बीत गई, पर कुमार नहीं लौटा - कहां घूम रहा है पागल, इतनी अंधेरी रात में। अब मैं क्या करूं, कहां जाऊं? माता-भवानी की बात, न जाने कब मरजी बिगड़ जाए माई जी की? वे घबरा कर उठीं, रास्ते में सोए हुए कुत्ते पर पैर पड़ गया, वह भोंकने लगा, वे डर गयीं, और दालान में बँधी हुई चितकबरी में में करने लगी। वे क्षण रुकी ही थीं कि दरवाजे पर सांकल की आवाज हुई, दौड़ कर उन्होंने दौड़ कर दरवाजा खोल दिया।
"कुमार!" मां ने पुकारा; और उसे अपने सीने से सटा लिया। "बेटा, तू इतनी रात तक कहां रुक गया! जानता नहीं, अब कुल ले दे कर तू ही तो मेरी आंखों की रोशनी है। तू चला जाता है, तो लगता है, सारे घर में अंधेरा हो गया है।"
कुमार कुछ नहीं बोला। मां की आंखों का अंधकार, उसके आगे बिखर गया। उसने देखा, सामने दीवार पर जलती हुई डिबरी की लौ मद्धिम हो रही थी।
"कहां रह गया था इतनी रात तक?"
"पियारी के यहां।" कुमार ने बड़ी उदास आवाज में कहा।
"तुम इतने थके क्यों हो?" माँ ने सहसा भौंचक्की आवाज में कहा, जैसे उसे कोई झटका सा लग गया हो। वह कुमार के सिर को गोद में ले कर धीरे-धीरे सहलाने लगी।
"क्या बात है बेटा! कैसा जी है?"
इसी समय दूर सियारिन रो पड़ी और कुमार चौंक पड़ा।
मां ने फिर पूछा, "क्या बात है बेटा?"
"मां, उस महारानी देवी वाली नीम की टहनियां, महाराजिन बुआ के अलावा दूसरा कोई नहीं तोड़ सकता?" कुमार ने बड़ी थकी आवाज में कहा।
"किसी को महारानी निकल आई है क्या बेटा?"
"हां मां पियारी की हालत बहुत खराब है। दो दिन हुए, उसे होश नहीं हो रहा है। चेचक के दाने, सारे शरीर में फैल कर मिल गए हैं। लोग कहते हैं, अब तो महारानी वाली नीम की टहनियों की ही आशा है... पर... पर... माँ।"
मां का सारा शरीर कांप उठा। उसने कुमार के सिर को अपनी गोदी में दबा लिया। "और तू इतनी रात तक वहीं बैठा रहता है... जानता है?"
"...जानता हूँ माँ, कि चेचक छूत की बीमारी है... पर माँ, नीम की टहनियां..."
"जाना मत उसके पास, वरना मैं परान दे दूंगी। कुमार, उस नीम की भी एक अजीब कहानी है। उसी साल की बात है जिस साल तू पैदा हुआ था, और यह महाराजिन बुआ भी अपने पिता के साथ गांव आई थी - महरानी वाली नीम की पूजा के लिए इस गांव की चलन है कि लड़कियां शादी के बाद दूल्हे के साथ महरानी वाली नीम की पूजा करने आती हैं।" कुमार का मन नीम की टहनियों में अटक गया।
- देख ली पियारी, अब मैं यहां नहीं आया करूंगी।
-नहीं आएगा, सच!
-सच!
- तो ले, मैं टहनी तोड़ती हूँ।
- बाप रे! तुम्हें मेरी कसम।
और दौड़ कर कुमार पियारी के दोनों कान पकड़ कर, झकझोर देता।
- पगली तू मर जाएगी तो मेरा क्या होगा? अच्छा मैं भी एक टहनी तोड़ लूँगा।
- इससे कुछ नहीं होगा कुमार! जो पहले तोड़ता है वही मरता है।
- नहीं पियारी, सच मानो अब तुम्हारी मां, तुम्हें...
- बिगड़ेगी, यही न, तो इससे तुम्हें क्या? पियारी हंसते हुए कहती, और अपनी धंवरी को उसी नीम की छाया में ला कर खड़ी कर देती, और अपने हाथ से गाय का दूध दूह कर कुमार को पिलाती। धीरे-धीरे जब शाम हो जाती और नीम की पत्तियों पर सुनहला रंग चढ़ जाता, तो कुमार और पियारी अपने घरों की ओर जाते।
मां कहती जा रही थी...
"महाराजिन बुआ का पति बड़ा पढ़ा लिखा था बेटा। उसे इस धरम करम के ढकोसले में विश्वास न था। बुआ ने उससे कह रखा था कि नीम की पत्तियां मत छूना, पर वह माना नहीं, और हंसते-हंसते एक टहनी तोड़ ही तो ली। गांव की और बहुत सी औरतें थीं - सबकी आंखें टंग गई और बुआ तो वहीं रोने लगीं। लौट कर लड़के को जो जोर का बुखार हुआ, तो महरानी ने उसे उठा ही लिया, और तभी से वह लगातार नीम की टहनियां तोड़ती रहीं और उन्हें कुछ न हुआ। हां, अब वही टहनियां, जो बुआ तोड़ती हैं, मरते हुए लोगों के ऊपर से महरानी की छाया उठा ले जाती हैं, पर वे भी तो तीर्थ यात्रा पर गई हुई हैं। दूसरा कौन है जो नीम की टहनियां तोड़े।" कहते कहते मां की आंखें झंप गयीं।
कुमार की याद उतरा आई -
कुमार! पियारी ने उसकी अंगुली पकड़ कर खींची। मान जाओ मेरे राजकुमार! जल्दी उठो! देखो, नहीं तो मां जग जाएगी। चलो आज बउलिया में नहा आवें। हां रे, वहां खूब बड़ी-बड़ी कुईन के फूल हैं, मैं तुम्हें माला पहनाऊंगी।
कुमार और पियारी सुबह की मिटती स्याही में बाउली पर पहुंच जाते।
वह देख रहे हो फूल। पियारी अपनी बड़ी-बड़ी आंखों को नचा कर कहती।
-अरे बाप रे! जानती हो, वहां कितना पानी है। हाथी चला जाए तो पता ना चले। मैं तो नहीं जाता। कुमार कुछ किनारे आ कर खड़ा हो जाता।
-इस फूल के लिए मरना भी कितना अच्छा होगा कुमार जरा आंखें तो मूँदो!
और प्यारी तैर कर गड्ढे में से फूल उखाड़ लाती, फिर जल्दी-जल्दी उसके नड़ों को गूंथ कर कुमार को पहनाते हुए कहती -- वाह रे मेरे कायर राजकुमार!
-- कायर... कायर मैं कायर! कुमार के मन में एक स्फूर्ति दौड़ गयी। अंधेरा सिमट कर और घना हो गया था, पर रात की काली अंगुलियों में एक थिरकन आ गई थी। एकाएक दूर से किसी स्त्री के रोने की आवाज आई और कुत्ते भोंकने लगे। रात की भयावनी लटों में एक तेज सरसराहट हुई और अनेक खूंखार परछाइयां, एक बार नाच कर नाच कर, गांव की छाती पर अट्टहास कर उठीं। कुमार उठ खडा हुआ, दरवाजे पर गया, किवाड़ खोल कर बाहर खड़ा हो गया। आवाज पियारी के घर से ही आ रही थी। शायद पियारी की हालत खराब है... ... अब तो नींद की टहनियों के सिवा... ... और कुमार के पाव बढ़े, पर वह एकाएक रुक गया, जैसे कोई पकड़ कर उसे पीछे खींचता हो। उसने लौट कर देखा, पर मां का चेहरा अंधेरे में घुल गया था। "नहीं मां... नहीं, मैं नहीं रुकूंगा, मुझे माफ़ करना।" और वह बेतहाशा दौड़ पड़ा।
जब तक वह पियारी के घर पहुंचा, तो नीम की एक टहनी उसके हाथ में थी। घर के लोग डर गए, "किस नीम की टहनी है। कुमार ने महरानी वाली नीम की टहनी तो नहीं तोड़ी?" पर वह कुछ नहीं बोला और और धीरे-धीरे नीम की पत्तियों से पियारी की देश सहलाने लगा। कुछ देर बाद पियारी ने धीरे से आंखें खोली और झिपका कर फिर मूंद लीं। कुमार ने पुकारा, "पियारी?"
और प्यारी ने आंखें खोल दीं।
टूटती हुई आवाज निकली, "तुम फिर आ गए... मना किया था न! और... यह नीम की टहनी?"
"हां -- महरानी वाली नीम की है पियारी। तुम अच्छी हो जाओगी।"
" कुमार! पियारी के मुंह से जैसे कोई कराह निकल पड़ी हो और उसकी आंखें, किसी भयानक आशंका से बंद हो गयीं। हाँ, आँसू के बड़े-बड़े दो बूंद उसकी आंखों से निकल कर बिस्तर पर लुढ़क पड़े।
दूसरे दिन पियारी का जी अच्छा होने लगा। पर उसके हाथ की नीम की टहनी की पत्तियां धीरे धीरे सूखती गयी और एक दिन हवा का ऐसा झोंका आया कि उसकी सारी पत्तियां खड़खड़ा कर झर पड़ी। पियारी चिल्ला उठी, "कुमार... कुमार... कुमार..."
इस समय महरानी देवी वाली नीम के नीचे महाराजिन बुआ की नहीं पियारी की झोपड़ी है। कहते हैं चेचक के मरते हुए मरीज को भी यदि वह नीम की टहनी से सहला दें तो आराम हो जाता है।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
उत्कृष्ट लेखन
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