भुवनेश्वर की प्रख्यात कहानी 'भेड़िये'

 

भुवनेश्वर


हिन्दी साहित्य में भुवनेश्वर (1910-1957) नाम के उम्दा कहानीकार हुए हैं। उनका पूरा नाम भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव था। हालांकि उन्हें छोटा जीवन मिला लेकिन इसी अल्पावधि में उन्होंने कई उम्दा रचनाएँ हिन्दी साहित्य को प्रदान कीं। वे लीक से अलग हट कर लिखने वाले ऐसे लेखक थे जिन्हें उनकी रचनाओं के जरिए ही आसानी से पहचाना जा सकता है। उनकी कहानियां मध्य वर्ग के जीवन के कटु यथार्थ को सामने रखती हैं। प्रख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद भुवनेश्वर की कहानियों के खासे प्रशंसक थे और अपनी पत्रिका 'हंस' में भुवनेश्वर को नियमित रूप से प्रकाशित करते रहते थे। वह प्रलेस के प्रथम सम्मेलन म़े भी आमंत्रित थे। भुवनेश्वर को नयी कहानी का प्रणेता भी माना गया। उनकी एक चर्चित और मानीखेज कहानी है 'भेड़िए'। यह कहानी हँस के अप्रैल 1938 में प्रकाशित हुई थी। अगर हम अपने समय, समाज और परिप्रेक्ष्य को देखें तो यह कहानी आज भी प्रासंगिक लगती है। कैसे भेड़िए हर जगह आज भी घात लगाए बैठे हैं और लगातार आम आदमी का शातिर तरीके से पीछा कर रहे हैं। हम पहली बार फोन पर कालजयी कहानियों की एक श्रृंखला लगातार प्रस्तुत कर रहे हैं। आइए इस क्रम में आज हम पहली बार पर पढ़ते हैं भुवनेश्वर की चर्चित कहानी 'भेड़िए'।



भेड़िये


भुवनेश्वर


‘भेड़िया क्या है’, खारू बंजारे ने कहा, ‘मैं अकेला पनेठी से एक भेड़िया मार सकता हूं।’ मैंने उसका विश्वास कर लिया। खारू किसी चीज से नहीं डर सकता और हालांकि 70 के आस-पास होने और एक उम्र की गरीबी के सबब से वह बुझा-बुझा सा दिखाई पड़ता था; पर तब भी उसकी ऐसी बातों का उसके कहने के साथ ही यकीन करना पड़ता था।


उसका असली नाम शायद इफ्तखार या ऐसा ही कुछ था; पर उसका लघुकरण ‘खारू’ बिलकुल चस्पा होता था। उसके चारों ओर ऐसी ही दुरूह और दुर्भेद्य कठिनता थी। उसकी आंखें ठंडी और जमी हुई थीं और घनी सफेद मूंछों के नीचे उसका मुंह इतना ही अमानुषीय और निर्दय था, जितना एक चूहेदान।


जीवन से वह निपटारा कर चुका था, मौत उसे नहीं चाहती थी; पर तब भी वह समय के मुंह पर थूक कर जीवित था। तुम्हारी भली या बुरी राय की परवा किए बिना भी, वह कभी झूठ नहीं बोलता था और अपने निर्दय कटु सत्य से मानो यह दिखला देता था कि सत्य भी कितना ऊसर और भयानक हो सकता है।


खारू ने मुझसे यह कहानी कही। उसका वह ठोस तरीका और गहरी बेसरोकारी, जिससे उसने यह कहानी कही, मैं शब्दों में नहीं लिख सकता, पर तब भी मैं यह कहानी सच मानता हूं, इसका एक-एक लफ्ज।


‘मैं किसी चीज से नहीं डरता। हां, सिवा भेड़िये के मैं किसी चीज से नहीं डरता।’ खारू ने कहा। एक भेड़िया नहीं, दो-चार नहीं। भेड़ियों का झुंड - 200-300 जो जाड़े की रातों में निकलते हैं और सारी दुनिया की चीजें जिनकी भूख नहीं बुझा सकतीं, उनका - उन शैतानों की फौज का कोई भी मुकाबला नहीं कर सकता।


लोग कहते हैं, अकेला भेड़िया कायर होता है। यह झूठ है। भेड़िया कायर नहीं होता, अकेला भी वह सिर्फ चौकन्ना होता है। तुम कहते हो लोमड़ी चालाक होती है, तो तुम भेड़ियों को जानते ही नहीं। तुमने कभी भेड़िये को शिकार करते देखा है किसी का - बारहसिंगे का? वह शेर की तरह नाटक नहीं करता, भालू की तरह शेखी नहीं दिखाता।



एक मर्तबा, सिर्फ एक मर्तबा गेंद सा कूद कर उसकी जांघ में गहरा जख्म कर देता है - बस। फिर पीछे, बहुत पीछे रह कर टपकते हुए खून की लकीर पर चल कर वहां पहुंच जाता है। जहां वह बारहसिंगा कमजोर हो कर गिर पड़ा है। या, उचक कर एक क्षण में अपने से तिगुने जानवर का पेट चाक कर देता है - और वहीं चिपक जाता है।





भेड़िया बला का चालाक और बहादुर जानवर है। वह थकना तो जानता ही नहीं। अच्छे पछैयां बैल हमारे बंजारी गड्डों को घोड़ों से तेज ले जाते हैं और जब उन्हें भेड़िया की बू आती है, तो भागते नहीं, उड़ते हैं। लेकिन भेड़िये से तेज कोई चार पैर का जानवर नहीं दौड़ सकता...


‘सुनो, मैं ग्वालियर के राज से आईन में आ रहा था। अजीब सर्दी थी और भेड़िये गोलों में निकल पड़े थे। हमारा गड्डा काफी भरा था। मैं, मेरा बाप, गिरस्ती और तीन नटनियां - 15-15 साल की। हम लोग उन्हें पछांह लिये जा रहे थे।’ ‘किसलिए?’ - मैंने पूछा।


‘तुम्हारा क्या खयाल है, मुजरा करने? अरे बेचने के लिए। और वह किस मसरफ की हैं? ग्वालियर की नटनियां छोटी-छोटी गदबदी होती हैं और पंजाब में खूब बिक जाती हैं। यह लड़कियां होती तो बड़ी चोखी हैं, पर भारी भी खूब होती हैं। हमारे पास एक तेज बंजारी गड्डा था और तीन घोड़ों से तेज भागने वाले बैल।


हम लोग तड़के ही चल दिये थे, दिन-ही-दिन में हम आगे जाने वाले साथियों से मिल जाना चाहते थे। वैसे डर के लिए हमारे पास दो कमान और एक टोपीदार बंदूक थी। बैल हौसले से भाग रहे थे और हम लोग 20 मील निकल आए थे कि बड़े मियां ने घूम कर कहा - 'खारे, भेड़िये हैं?’ मैंने तेजी से कहा - 'क्या कहा? भेड़िये हैं? होते तो बैल न चौंकते?’


बूढ़े ने सर हिला कर कहा - 'नहीं, भेड़िये जरूर हैं। खैर, वह हमसे दस मील पीछे हैं और हमारे बैल थक चुके हैं; लेकिन हमें पचास मील और जाना है।’ बूढ़े ने कहा - 'और मैं इन भेड़ियों को जानता हूं, पार साल इन्होंने कुछ कैदियों को खा लिया था और बेड़ियों और सिपाहियों की बंदूकों के सिवा कुछ न बचा। बंदूक भर लो!’


मैंने कमानों को तान के देखा, बंदूक तोड़ी, सब ठीक था।

‘बारूद की नई पोंगली भी निकाल के देख ले।’ मेरे बाप ने कहा।

‘बारूद की पोंगली,’ मैंने कहा, ‘मेरे पास तो पुरानी ही वाली है।’

तब बूढ़े ने मुझे गालियां देनी शुरू कीं, 'तू यह है, तू वह है।’

मैंने पूरा गड्डा उलट डाला; पर नई पोंगली कहीं नहीं थी।


मेरे बाप ने भी सब टटोला - ’तू झूठ बोलता है, तू भेड़ियों की औलाद, मैंने तुझे नई पोंगली दी थी!’ पर वह बारूद यहां कहीं नहीं थी। मेरे बाप ने मेरी पीठ पर कुहनी मारते हुए कहा, ‘शहर पहुंच कर मैं तेरी खाल उधेड़ दूंगा, शहर पहुंच कर...’ और इसी वक्त अचानक बैल एकदम रुक कर पूंछ हिला कर जोर से भागे। मैंने सुना मीलों दूर एक आवाज आ रही थी, बहुत धीमी, जैसे खंडहरों में भी आंधी गुजरने से आती है -


ह्वा आ आ आ आ आ आ आ आ!





‘हवा,’ मैंने सहम के कहा। ‘भेड़िये!’ मेरे बाप ने नफरत से कहा और बैलों को एक साथ किया। पर उन्हें मार की जरूरत नहीं थी। उन्हें भेड़ियों की बू आ गई थी और वे जी तोड़ कर भाग रहे थे। दूर मैं एक छाटे-से काले धब्बे को हरकत करते देख रहा था। उस सैकड़ों मील के चपटे रेगिस्तानी बंजर में तुम मीलों की चीज देख सकते हो। और दूर पर उस काले धब्बे को बादल की तरह आते मैं देख रहा था।


बूढ़े ने कहा, जैसे ही वह नजदीक आ जाएं, मारो। एक भी तीर बेकार खोया तो मैं कलेजा निकाल लूंगा।’ और तब उन तीन लड़कियों ने एक दूसरे से चिपट कर टिसुए (आंसू) बहाना शुरू किया। ‘चुप रहो।’ मैंने उनसे कहा, ‘तुमने आवाज निकाली और मैंने तुम्हें नीचे ढकेला।’


भेड़िये बढ़ते हुए चले आते थे, हम लोग भूरी पथरीली धरती पर उड़ रहे थे, पर भेड़िये! बूढ़े ने लगामें छोड़ दीं और बंदूक संभाल कर बैठा। मैंने कमान संभाली - मैं अंधेरे में उड़ती हुई मुर्गाबियों का शिकार कर सकता था और मेरा बाप - वह तो जिस चीज पर निशाना ताकता था, अल्लाह उसे भूल जाता था। कोई 400 गज पर मेरे बाप ने आगे वाले भेड़िये को गिरा दिया।


धाय! उसने नटों की तरह एक कलाबाजी खाई; और फिर दूसरी बिलकुल नटों की तरह। बैल पागल हो कर भाग रहे थे, हवा में उनके मुंह का फेन उड़ कर हमारे मुंहों पर मेह की तरह गिरता था; और वे रंभा रहे थे जैसे बंजारिनें ब्याने वाली भैंसों की नकलें करती हैं। पर भेड़िये नजदीक ही आते जा रहे थे।


गिरे हुए भेड़ियों को वे बिना रुके खा लेते थे; वे उनके ऊपर तैर जाते थे। मेरे बाप ने मेरे कन्धे पर बंदूक की नली रख ली थी। धांय-धांय! (मेरी गरदन पर अब तक जले का दाग है।) मैंने भी 16 तीरों से 16 ही भेड़िये गिराये, बूढ़े ने 10 मारे थे, पर तब भी वह गोल बढ़ता ही आता था।


‘ले बंदूक ले!’ उसने कहा, ‘मैं बैलों को देखूंगा।’


उसका खयाल था कि बैल उससे भी तेज भाग सकते थे, पर यह खयाल गलत था। दुनिया के कोई बैल उससे तेज नहीं भाग सकते थे।


मैं बंदूक का भी निशाना खूब लगाता था, पर वह देशी जंग लगी बंदूक। खैर, वह लड़की उसे 5 मिनट में भर देती थी। बांदी अच्छी लड़की थी, वह बंदूक भरती थी, मैं निशाना मारता था - अचूक। मैंने दस और गिराए - धांय-धांय-धांय! जब सब बारूद खत्म हो गई तो भेड़िये भी कुछ हारे-से मालूम होते थे।


मैंने कहा, ‘अब वे पिछड़ गए।’


बूढ़ा हंसा - ’वह इतनी-सी बात से नहीं पिछड़ सकते। पर मैं मरते-मरते कह चलूंगा कि सात मुल्क के बंजारों में खारे सा खरा निशानेबाज नहीं है।’


मेरा बाप बुढ़ापे में बड़ा हंसोड़ हो गया था।


हां, तो भड़िये कुछ पीछे रह गए थे। उन्हें कुछ खाने को मिल गया था। ‘सप-सप-चट’ बैलों पर कोड़ा बोल रहा था कि पांच मिनट बाद ही उन्होंने फिर हमारा पीछा शुरू किया। वे हमसे 200 गज पर रह गए होंगे और बढ़ते ही आते थे। मेरे बाप ने कहा, ‘सामान निकाल कर फेंको, गड्डा हल्का करो।’


‘एकबारगी ठो कर खा कर गड्डा चरकरा कर चला। पूरे बंजारों में यह गड्डा अफसर था और सब सामान फेंक कर हमने उसे फूल सा हल्का कर दिया था और कुछ देर तो हम भेड़िये से दूर निकलते मालूम हुए, पर तुरन्त ही वे फिर वापस आ गए।





बड़े मियां ने कहा, ‘अब तो, एक बैल खोल दो।’

‘क्या?’ मैंने कहा, ‘दो बैल गड्डा खींच ले जाएंगे?’

उसने कहा, ‘अच्छा, तब एक नटनिया फेंक दो।’ मैंने उन तीन में से मोटी को ही उठाया और गड्डे के बाहर झुला कर फेंक दिया।


हा! ग्वालियर की नटनिया, उसे दांत लगा दो तो वह भी भेड़ियों का मुकाबला कर ले! पहले तो वह भागी, पर यह जान कर कि भागना बेकार है, घूम कर खड़ी हो गयी और सामने वाले भेड़िये की टांगें पकड़ लीं। पर इससे भी क्या फायदा था। एकदम वह नजर से ओझल हो गयी। जैसे किसी कुएं में गिर पड़ी हो। गड्डा हल्का हो कर और आगे बढ़ा, पर भेड़िये फिर लौट आए।


‘दूसरी फेंको’, बड़े मियां ने कहा। पर अब की मैंने कहा, ‘आखिर क्या हम लोग सैर करने के लिए मारे-मारे फिरते हैं, एक बैल न खोल दो।’


मैंने एक बैल खोल दिया। वह पीठ पर पूंछ रख कर चिंघाड़ता हुआ भागा और गोल उसके पीछे मुड़ गया। मेरे बाप की आंखों में आंसू भर आए। ‘बड़ा असील बैल था, बड़ा असील बैल था...’ वह बुदबुदा रहा था।


‘हम बच तो गए’, मैंने कहा। पर तभी, ह्वा आ आ आ आ आ आ! गोल वापस आ गया था। ‘आज कयामत का दिन है’, मैंने कहा और बैलों को इतना भगाया कि मेरी हथेली में खून छलछला आया।


पर भेड़िये पानी की तरह बढ़ते चले आ रहे थे और हमारे बैल मर के गिरना ही चाहते थे। ‘दूसरी लड़की भी फेंको!’ मेरे बाप ने चीख कर कहा।


इन दोनों में बांदी भारी थी और कुछ सोच कर कांपते हाथों वह अपनी चांदी की नथनी उतारने लगी थी और मैंने शायद बताया नहीं, मुझे वह कुछ अच्छी भी लगती थी।


इसलिए मैंने दूसरी से कहा, ‘तू निकल!’ पर उसको तो जैसे फालिज मार गया था। मैंने उसे गिरा दिया और वह जैसे गिरी थी, वैसे ही पड़ी रही। गड्डा और हल्का हो गया और तेज दौड़ने लगा। पर पांच ही मील में भेड़िये फिर वापस आ गए। बड़े मियां ने गहरी सांस ली, माथा पीट लिया - हम क्या करें, भीख मांग के खाना बंजारों का दीन है, हम रईस बनने चले थे...


मैंने बांदी की तरफ देखा, उसने मेरी तरफ। मैंने कहा, ‘तुम खुद कूद पड़ोगी कि मैं तुम्हें धकेल दूं?’ उसने चांदी की नथ उतार कर मुझे दे दी और बांहों से आंखें बंद किए कूद पड़ी। गड्डा बिलकुल हवा सा उड़ने लगा। वह पूरे बंजारों में गड्डों का अफसर था।


पर हमारे बैल बेहद थक गए और बस्ती तक पहुंचने के लिए अब भी 30 मील बाकी थे। मैं बंदूक के कुंदे से उन्हें मार रहा था; पर भेड़िये फिर लौट आए थे।


मेरे बाप के मुंह से पसीना टपकने लगा - ’लाओ, दूसरा भी बैल खोल दें।’


मैंने कहा, ‘यह मौत के मुंह में जाना है। हम लोग दोनों मारे जाएंगे, हमें या तुम्हें किसी को तो बचना चाहिए।’


‘तुम ठीक कहते हो।’ उसने कहा, ‘मैं बूढ़ा आदमी हूं। मेरी जिंदगी खत्म हो गई। मैं कूद पड़ूंगा।’


मैंने कहा, ‘हिरास मत होना। मैं जिंदा रहा तो एक-एक भेड़िये को काट डालूंगा।’


‘तू मेरा असील बेटा है! मेरे बाप ने कहा और मेरे दोनों गाल चूम लिये। उसने अपने दोनों हाथों में बड़ी-बड़ी छूरियां ले लीं और गले में मजबूती से कपड़ा लपेट लिया।


‘रुको,’ उसने कहा - ’मैं नए जूते पहने हूं, मैं इन्हें दस साल पहनता; पर देखो, तुम इन्हें मत पहनना, मरे हुए आदमियों के जूते नहीं पहने जाते, तुम इन्हें बेच देना।’


उसने जूते खींच कर गड्डे पर फेंक दिए और भेड़ियों के बीचोबीच कूद पड़ा। मैंने पीछे घूम कर नहीं देखा, लेकिन थोड़ी देर मैं उसे चिल्लाते सुनता रहा - यह ले! यह ले! भेड़िये की औलाद! भेड़िये की औलाद! और फिर चट-चट! चट-चट! मैं ही किसी तरह भेड़ियों से बच गया।


खारू ने मेरे डरे हुए चेहरे की तरफ देखा, जोर से हंसा और फिर खखार कर बहुत सा जमीन पर थूक दिया।


‘मैंने दूसरे ही साल उनमें से साठ भेड़िये और मारे।’ खारू ने फिर हंस कर कहा। पर उसके साथ ही उसकी आंखों में एक अनहोनी कठिनता आ गयी, और वह भूखा, नंगा उठ कर सीधा खड़ा हो गया।



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