कल्पना पंत की कविताएँ
कल्पना पंत |
परिचय
जन्म स्थान - नैनीताल
श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय के ऋषिकेश परिसर में अध्यापन
लेखन-
शोधपरक एवं विमर्श-कुमाउं के ग्राम नाम -आधार, संरचना एवं भौगोलिक वितरण (पहाड़ प्रकाशन, 2004) https://pahar.org/book/kumaon-ke-gram-nam-by-kalpana-pant/
कविता संग्रह - मिट्टी का दु:ख कविता संग्रह-2021{समय साक्ष्य}
साझा संकलन-
स्त्री होकर सवाल करती है (जनवरी 2012, सं०-लक्ष्मी शर्मा बोधि प्रकाशन),
शतदल, 2015, संपादक--विजेन्द्र - बोधि प्रकाशन,
अंकित होने दो उनके सपनों का इतिहास-2021, समय साक्ष्य,
कविता के प्रमुख हस्ताक्षर-2022, गुफ्तगू प्रकाशन में कविताएं प्रकाशित।
सम्मान- निराला स्मृति सम्मान, साउथ एशिया आइडल वुमैन अचीवर्स अवार्ड 2023
उत्तरा, लोक-गंगा, समकालीन जनमत, उदाहरण, समालोचन, कर्मनाशा, अनुनाद, हिंदवी इत्यादि में समय समय पर कविताएं, लेख, कहानियां, फीचर समीक्षाएं और यात्रावृतांत प्रकाशित।
ब्लाग- दृष्टि, मन बंजारा।
यू ट्यूब चैनल-साहित्य यात्रा।
स्त्री जीवन अपने आप में पीड़ा का एक महाकाव्य है। जीवन की सर्जना में खुद को बीज सा गला देने वाली स्त्री लगातार जूझती रहती है। स्त्री का यह जूझना अपने आप से, अपने समय और समाज से, अपने साथ ही रहने वाले लोगों से होता रहता है। जूझते हुए भी वह रचनात्मक बनी रहती है। अजीब विडम्बना है कि जीत कर भी जीत नहीं पाती। हार कर भी हार नहीं पाती। इस तरह वह लगातार लड़ती रहती है। कल्पना पंत उस दुःख, दर्द और विडम्बना से भलीभांति वाकिफ हैं इसीलिए उस जीवन को घनीभूत रूप में शब्दों में ढाल पाती हैं। अपनी एक कविता 'ठुमरियों का महाकाव्य' में वे लिखती हैं - 'हाथ भर की रसोई/ बित्ते भर का झरोखा/ वहीं से आसमान बुहारती हुई वह/ ठुमरियों का महाकाव्य रच रही है।' सीमाओं में रहते हुए सीमाओं का अतिक्रमण करना स्त्री का हुनर है और इस तरह यह महाकाव्य लिख पाना स्त्री के ही वश का है। पहली बार ब्लॉग पर हम कल्पना जी का स्वागत करते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कल्पना पंत की कविताएँ।
कल्पना पंत की कविताएँ
उन दिनों में
उन दिनों में
पुरानी गलियाँ हैं
तंग दरवाज़े!
आकाश की झिर्रियों से झलकती हैं यादें
एक खिड़की है अभिलाषा सी
चंद अफ़वाहें
दोपहर की चटख धूप
पुरानी किताब में लिखी हुई कविता
और तुम्हारा नाम
गुनगुनी सी हो उठी है
जाड़ों की यह शाम
हस्पताल से लौट कर
मैंने अपने हाथों को
आश्वस्त होने
की कोशिश में
धो लिया
ताकि रोगाणुओं को हटा सकूँ
सजदे में धो लिए पैर और हाथ
पर नहीं धो पाती
सदियों से मन पर पड़े पुरातन संस्कार
पाप बोध
रूढ़ियों का अत्याचार!
एक आवाज़
वह आवाज जो मेरे भीतर से बार-बार आती है
उसे मैं दबा रही हूँ
बरस दर बरस
हर बरस
सोचती हूँ
वक़्त के एक पत्ते को हिला सकूँ
एक शाख को पानी दूं
एक तिनके को सहलाऊँ
और मुकम्मल हो जाऊँ
मेरे सामने एक हरा मरुस्थल है
और एक सूखा नदी तट
सोचती हूँ किधर जाऊँ
कि राह ही रह जाऊँ
ठुमरियों का महाकाव्य
हाथ भर की रसोई
बित्ते भर का झरोखा
वहीं से आसमान बुहारती हुई वह
ठुमरियों का महाकाव्य रच रही है।
प्रेत बाधा
शरद के एक बेनाम दिवस
मैंने अपने विगत को निकाला
झाड़ा बुहारा
और जीवन की सीलन को
घाम में पछोरा सुखा दिया
उनमें कुछ स्मृतियों की रौनक थी
कुछ यादें
खुद से किये कुछ वादे
नानी से सुनी
अबूझ पीड़ाएं
सुखी परिभाषित की गईं
इतिहास में अपरिभाषित रहती रहीं
दबी कुचली स्त्रियों की
नानी कहती थीं
धनु ली की सास लकड़ी के
बक्से में बंद रखती थी रोटी
हाड़तोड मेहनत के बाद
मुश्किल से दो सूखे कौर
पाती धनु ली
एक दिन प्रेत हो गई
डिंङ् डिंङ् धितड़ांङ् जागर लगा गाँव में
बाल बिखरा कर नाचते देवी देवताओं ने बखाना
लग गई सता कर मारी धनु ली
ऐसे अनेक जागर लगा करते थे गाँव में
नानी की कहानियों में
अपरिभाषित स्त्रियाँ
सताने वालों के भयों में
प्रेत बाधा के रूप में
परिभाषित हो जाती थीं
धनु ली, खिमुली रूपुली हो
या हो हरु ली!
ऐसी दुनिया बनाई है
हम सराहना करते हैं
धरती, मां, नदियां, हवा, पानी, पंछी,
पेड़, और प्रेम जल जाते हैं
हमारी प्रतिभाएं
उन्हें एकाकी
मरने के लिए छोड़ देते हैं
हवा में है हमारे स्वप्न
हवा को हमने बोझिल कर दिया है
ऐसी दुनिया बनाई है
कितनों की दुनिया
उजड़ गई है
रात के अंधेरे हैं
दूर कहीं, किसी देश में युद्ध के कारण
रास्ते पर अकेला चलता है एक बच्चा है।
भूखे प्यासे मरते
अनगिनत लोक हैं
भूख से अकेले लड़ता
भूख का समंदर है
नदियों से पानी को लूट कर
पहाड़ों से लकड़ियों को छीन कर
मां-मां कहते कहते धरती के ताप पर
हम अपनी अपनी रोटियां पका रहे हैं.
अब धूप नहीं आती
अब धूप नहीं आती
मेरे पास बहुत सी किताबें आती हैं बहुत सी पत्रिकाएं
मैं अक्सर उन्हें पढ़ने के लिए जाड़े के
दोपहर की धूप का इंतजार करती हूँ
ताकि मैं औंधे लेट तकिया पर
उन्हें पढ़ लूं
लेकिन अब जाड़ों में धूप को समय नहीं है
और अब आंगन में धूप भी नहीं आती
ऐसे में बहुत सी किताबें पत्रिकाएं
अलमारियों में सज जाती हैं
गोकि अब धूप नहीं आती।
चिंताएँ
चिंताएँ आरे की मानिंद
रूह काट रही हैं
आंखों में उमड़ा है शंकाओं का समुद्र
समय का चक्का मस्तिष्क को उदासी के पाट पर पीस रहा है
वे सत्ता में हैं
सिक्कों की खनक में हैं
झूठ की मुट्ठी में बंद अंधेरे के जिन्नात
हैं
वे सभी आलयों वालयों में योगों में बड़े-बड़े रोग हैं
वे खाटों के पिस्सू व नाजों के घुन हैं मोहिनी मुस्कान के
बड़े-बड़े किस्से हैं
जीवन के अजब गजब हिस्से हैं
वे जी हूजूर हैं
दिखते मजबूर हैं
लूटने में जेब जब्त कुशल भरपूर हैं
उनसे टकरा गई मुझे उदासी खा गयी
अब मन पर मन भर सिल रखे
मैं अड़ रही हूँ
फिर भी लड़ रही हूँ.
तीस दिसम्बर सन् दो हजार बाईस
यह साल दो हजार बाईस है
और उसके ख़त्म होने से पहले
मैं खिड़की पर खड़े हो कर सुन रही हूँ उसका शोकगीत
जो भारी-भारी ड्रम्स की आवाज़ों में बज रहा है
जमीन पर फाख़्ता का एक घोंसला गिरा हुआ है
पंख किसी ने नोंच डाले हैं
बच्चे तितर-बितर हैं
चारों ओर बस शिकारी हैं
आगे टूटे हुए रौशनदान हैं
उबलती हुई नालियाँ
मरते हुए रास्ते हैं
बलिहारी है भई
बलिहारी है
वक्त का यह लम्हा तस्मे बांध कर निकल रहा है
यह तीस दिसम्बर सन् दो हजार बाईस है
और रात बहुत ही काली है.
मूत्रालय
मेरे देश में
हर कोई आता जाता
जब तब, जहां-तहां, जिस-तिस पर
अपनी शंकाओं का निवारण कर जाता है
हम धर्म की बात करते हैं
जमीन पर बिछी जाजम में
जातिगत घृणा नफरत और सांप्रदायिकता की दुर्गंध बस जाती है
अपनी नाक को उंगलियों से दबाए प्रधान महलों में हैं
उन तक किसी शंका की बास नहीं पहुंचती
न लघु न दीर्घ
वे ये भी नहीं जानते कि वह विष्ठा के दलदल में है
और दलदल कब
किसका हुआ है?
माशेल दूश्वाम्प के फव्वारे सा नजर आता यह देश क्या मूत्रालय है?
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
ताजगी भरी सुंदर रचनाएं, आभार !
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएं।बधाई
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