नेहा अपराजिता की कविताएं

नेहा अपराजिता 



मां दुनिया का सबसे खूबसूरत रिश्ता है। गर्भ में बच्चे के आने के साथ ही मां सपने बुनने लगती है। वह अपने गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा के लिए हर कष्ट सह कर भी हरसम्भव प्रयास करती है। नाभिनालबद्ध बच्चा मां पर ही पूरी तरह निर्भर होता है। जन्म देने के पश्चात भी मां की अपने शिशु के प्रति ममता कम नहीं होती। वह उसकी प्रगति और विकास के लिए हरदम सन्नद्ध रहती है। युवा कवयित्री नेहा अपराजिता ने 'मां का गर्भ' जैसी महत्त्वपूर्ण कविता लिख कर अपनी सघन दृष्टि का परिचय दिया है। हम पहले भी ब्लॉग पर नेहा की कविताएं पढ़ चुके हैं। आइए एक बार फिर आज हम पहली बार पर पढ़ते हैं नेहा अपराजिता की कविताएं।



नेहा अपराजिता की कविताएं



“त्वमेव सर्वं मम् देवदेव”


जिन्हें मिटना पसन्द था वे मिटने के लिए मिट्टी में सने रहे

झुकने की दुनिया में सब झुक रहे थे

झुकने की शर्त थी कि वे मिट नहीं सकते थे

मिटने की शर्त थी लम्बवत, सीधा और सपाट रहना

जिससे दूर से मारे जा सकें सपाट संज्ञा पर कंकड़

इसी तरह मिट्टी और मिटने वाले की कीमत कम होती जा रही

इसी तरह बढ़ती जा रही झुकी हुई रीढ़ की संख्या

जैसे गायब हुई थी मनुष्य की पूँछ वैसे ही

यह सभ्यता बिना रीढ़ के मनुष्यों की सभ्यता कही जायेगी।



जिन्होंने कहा कि “मुझे डर है उनसे”

दरअसल, उन्हें दूसरों से नहीं 

खुद की करनी से डर था

डर था कि कहीं

मुँह से निकली सच बात पर यक़ीन करते ही

उसके सारे भेद खुल पड़ेंगे दुनिया के समक्ष

हम ताउम्र अपने ही किये से डरते रहते हैं

हम ताउम्र अपने किये का दोष दूसरों के सिर मढ़ते रहते है

दोषों की चोरी और दोषी की सीनाज़ोरी

अपने चरम पर खड़ी हो कर सत्य को गर्त में ढकेल रही है

यह सभ्यता सत्य के दमन की सभ्यता कही जायेगी।



जिन्हें नहीं था अभ्यास झूठ सहने का

ना ही अभ्यास झूठ कहने का

उन्होंने सबसे ज़्यादा सहे झूठ

उन्होंने सबसे ज़्यादा ज़लील होते देखा सच को

ये देखना और ये सहना

इस हाड़ माँस को घिस-घिस कर बुरादा बनाये डाल रहा है

हमारी सभ्यता के अवशेष से नहीं मिलेंगे अन्नागार और स्नानागार

यह सभ्यता बुरादों और बारूदों की सभ्यता कही जायेगी।



जो नहीं करते हैं परित्याग अपनी मूलता का

उनके मूल पर ही चोट की जाती रही

हुजूम को पता है कि

हड्डी के ढांचे को कैसे निचोड़ना है और ज़ोर देना है

कि कहो – त्वमेव माता च पिता त्वमेव...

त्वमेव सर्वम मम देवदेव !

इंसानों का जोर है कि इंसान, इंसान की शरणागति स्वीकार करे

विधाता ने कभी नहीं जोर दिया कि इंसान उनकी शरणागति स्वीकार करे

ये सभ्यता मानवता के विपरीत प्रवाह में बहने की सभ्यता कही जायेगी।



खुद से प्रेम करना”


खुद से प्रेम करने वालों को

वह सब

ख़ुद से नफ़रत करना आसानी से सिखा देते हैं।

मानो, ख़ुद से प्रेम करना

ख़ुद से नफ़रत करने की पहली सीढ़ी चढ़ना है।



वह लोग कभी सही नहीं समझे जायेंगे

जिन्होंने प्रत्यक्ष दिखते गलत को भी

महज़ इसलिए अनदेखा किया हो

कि गलत करने वाला उसके हृदय में बसता है

उनका दंड है कि

दुनिया उन्हें गलत साबित करती रहे।



प्रेम में डूबी स्त्री का चेहरा

बुद्ध सा नहीं दिखता

बुधिया सा दिखता है

सम्पूर्ण पोषण मिलने पर भी

चेहरे की विरानियत

उसे पाषाण कालीन स्त्री सा बना देती है।



वह मर रहे हैं

इसलिए नहीं क्योंकि

मरना उनकी नियति है

बल्कि इसलिए क्योंकि

उनको मरने से कोई रोकने वाला ही नहीं

बात बेबात उनसे कह दिया जाता है

"जाओ मर जाओ" 

वे इतने खुदगर्ज लोग

वे चले भी जाते हैं।



अभिशप्त जीवन

इतनी आसानी से हासिल नहीं होता

दिन रात ख़ुद को,

दूसरे को समर्पित करने वाले

एक दिन पाते हैं

कि उनके समर्पण ने

उनका सम्पूर्ण जीवन अभिशप्त कर दिया है

जिंदा शरीर और मृत आत्मा लिए

बस वे जिए जा रहे हैं।






“धरती के पुरुष”


धरती के पुरुष!

आख़िर क्यों बने रहना चाहते हो देवता?


तुम इतने मुखर रहे अपने अधिकारों को ले कर

तुमने जो चाहा वही हुआ

इस दुनिया में

किसी देश विशेष में

किसी शहर विशेष में

किसी घर विशेष में

किसी रिश्ते विशेष में


फिर भी तुम अकेलेपन के शिकार रहे

तुम्हें तुम्हारी मिलकियत ने

नहीं होने दिया इतना सहज

कि तुम स्वीकार कर सको

कि तुमको स्त्री की ज़रूरत

उससे कही अधिक रही

जितनी किसी स्त्री को तुम्हारी

तुम रहे उनकी चीख़ों के कारण

किन्तु वे ही रहीं तुम्हारी चीखों का निवारण


तुमको पाला माँ ने

तुमको साथ मिला बहन का

तुम्हारी अर्धांगिनी बनी पत्नी

तुम्हारे हर संकट में खड़ी रही बेटी

बुढ़ापे में बहू ने ख़ूब सेवा की



फिर भी पाली तुमने इतनी चिंता

इतना रहस्य

इतनी असुरक्षा

इतनी असवेंदनशीलता


प्रभुत्व था तुम्हारे पास

पर तुम ना बांट सके अपने दर्द

अपने रहस्य और असुरक्षा

उन तमाम स्त्रियों से

जो तुम्हारे प्रेम में थीं 

तुम्हारे प्रति स्नेह में थीं 



क्यों बनते हो यूँ कठोर?

डरते हो कि

वे स्त्रियां तुमको

मारेगी ताने

जिनके शोषण में रहे तुम भागीदार



आंसुओं की समान ग्रंथियों

का वितरण किया था परमात्मा ने

स्त्री और पुरूष के मध्य

रोने से यूँ डरना

तुमको मार रहा है

और तुमको यूँ घुट-घुट करके

मरते देखना, मार रहा है

उस समग्र स्त्री समूह को

जो जन्म से मृत्यु तक

बनी रही तुम्हारी माँ



माँ कुढ़ रही है ममता के ममत्व से

बहन सच्चे साथी की करुणा से

पत्नी स्त्री के हर पहलू का स्नेह आँचल में भर

बेटी अपने हर उस वादे पर

जो किया था उसने खुद से

अपने अभिनेता के सम्मान के प्रति



तुम कितने खुशकिस्मत रहे पुरुष

तुमको थामने के लिये

हर डगर पर मौजूद रही स्त्री

तुम अपना ख्याल रखो

कभी नरम हो कर

कभी सहज हो कर

कभी रो-धो कर

कभी विनम्र हो कर



हे! धरती के देवता

घबराओ मत

हर मुश्किल में

हर हार में

हर असुरक्षा में

तुम्हारे जीवन की हर स्त्री

तुमको थाम लेगी !!


“कटी पतंग”


एक दिन देखा एक पतंग को मैंने

उड़ते हुये आसमान की गहराइयों में

एकटक उसी को निहार रही थी मैं

तभी उसे काट दिया किसी ने

डोलते-डोलते आ कर गिरी मेरे ही समक्ष

हो गयी मैं व्यथित उसकी यह अंगड़ाई देख कर

उसी पतंग जैसी अपनी ज़िंदगी भी है शायद

जब तक उड़े ऊंचाइयों में तब तक सारा आसमान अपना है

जैसे ही कटती है डोर, लगता सब कुछ सपना है

जैसे किसी ने ताली पीट कर गहरी सोच से जगाया हो

या फिर किसी ने धक्का दे गहरी नींद से उठाया हो

ज़िन्दगी भी कुछ यूँ ही लड़खड़ाकर गिरती है

जिस वेग से उड़ती है,  उसी वेग से नीचे गिरती है

उड़ते वक़्त जो डोर कसते हैं

कट जाने पर सबसे पहले वह ही डोर खींचते हैं

उस पतंग से सीखा मैंने

जब तक जियो वैसे ही जियो

जैसे क्षण भर पहले पतंग जी रही थी

क्योंकि ज़िन्दगी की बागडोर नहीं है अपने हाथों में

ना जाने यह कब कट जाये, काली घनेरी रातों में 

जैसे पतंग को उसी की डोर देती दगा है

वैसे ही जीवन में हम सबको सबसे पहले अपनों ने ही छला है।



“शोर”


शोर है यह ज़िंदगी,

शोर ही इसका वज़ूद

शोर से ही प्रारंभ इसका

शोर में ही अंत है

शोर संग दुनिया में आना

शोर संग दुनिया से जाना

शोर से है हर खुशी

शोर से ही खुशियां ख़त्म

शोर मौज़ मस्तियों का

शोर दिल की कश्तियों का

शोर ही धड़कन गिनाता

शोर से ही बयां हो दर्द सभी

शोर से ही ग़म सभी

शोर से दुश्वारियां हैं

शोर में ही रूश्वावाईयां हैं

शोर है हावी

शोर ही डर है

शोर में है कभी ज़ुनून

शोर ही है कभी सुकून

शोर बरसती बारिशों का

शोर भीगती ख़्वाहिशों का

शोर तड़पते ज़ज़्बातों का

शोर सिसकते अल्फ़ाज़ों का

शोर उबलते अंगारों का

शोर घुलती तमन्नाओं का

शोर बीती यादों का

शोर बीती रातों का

शोर लहराते पत्तों का

शोर सूखे लब्ज़ों का

शोर हर जीत का

शोर हर हार का

शोर अब और क्या बता दे?

शोर कितना और मचा दे?

बस कहता है ज़ोर-ज़ोर से

शोर से सब शुरू

शोर में ही सब ख़त्म!!



माँ का गर्भ”


जब भी मैं माँ के गर्भ में थोड़ा भी मचलती थी

तुरन्त वह हाथ फेर कर मेरा आलिंगन करती थी

जब भी मैं भूख से अपने पैरों को हिलाती थी

वह थी जो सब समझ कर, कुछ जा कर खा आती थी

जब वह पोषण दे मुझे तृप्त करती थी

माँ एक मोती मेरे जीवन की माला में गूथ देती थी।



जब भी मैं देर रात को चीख मार कर रोती थी

वह झटपट आधी नींद से उठ मुझे अपने बाहों में भर लेती थी

पूरी नींद सौंप मुझे

वह आधी नींद में खुश हो लेती थी

जब भी वह लोरी सुना मुझे सोने को प्रेरित करती थी

माँ एक और मोती मेरे जीवन की माला में गूथ देती थी।



जब भी मैं धूप में खेला करती थी

और रौद्र सूर्य मुख को मेरे लालिमा से भर देता था

माँ तभी बुला कर, थपकी मेरे वक्षों पर धर देती थी

मैं थक हार कर जब भी सोती थी

माँ मेरे पैरों के दर्द को हर लेती थी

माँ फिर एक मोती मेरे जीवन की माला में गूथ देती थी।



जब भी मैं जीवन के क्रमिक विकास में ठहर गयी

माँ ने हाथ थाम कर हर डगर मेरी सरल की

जब भी छाले पड़े कठिनाइयों के पैरों में

उस पर माँ के जादुई मरहम लगे,

माँ यूँ मुसका कर हर पीड़ा का निवारण कर देती थी

तब माँ एक और मोती मेरे जीवन की माला में गूथ देती थी।



इस जीवन की रणभूमि में

जब-जब जीवन शिथिल हुआ

माँ ने तब-तब मेरा सिर सहला

मेरा मार्ग प्रशस्त किया

एक-एक मोती पिरोया ख़ुद के जीवन से निकाल कर

जीवन की माला तैयार की किश्तों में मोती लगा कर

अच्छे-बुरे, मीठे-कड़वे सब हिस्सों को सजाया है

ईश्वर ने सबसे अच्छा जीवन बुनना मेरी माँ को सिखाया है।।



“आज़ाद होते ही” 

(कोरोना काल की कविता)


आज़ाद होते ही

हम सब भागेंगे अफरातफरी में

बच्चें आयेंगे माता-पिता के पास

दोस्त, दोस्त के पास

प्रेयसी जायेगी अपने प्रेमी के पास

और

हम सब अपने दुश्मनों के पास

करीब पहुँचते ही

भींच लेंगे हम उनको

सारे अधूरे संवाद अटक जायेंगे गले में

और अहक भर अँगारे फ़ूट पड़ेंगे आँखों से

उनमें होगी माफ़ी, प्रेम, शर्मिंदगी

और होगी क्षमा

सिसकियां और दम संभालती हिचकियाँ

बचा लेंगी मानवता को

उन छलकते अंगारों के स्पर्श से

तृप्त होगी धरती

और तृप्त होगी मानवता

खुशकिस्मत होंगे वे जिनके संवाद हो जायेंगे सम्पूर्ण

बेशक़ हम नये मानव होंगे

हम सब होंगे इतिहास में दर्ज़

वह इतिहास

जो अभी है एकांत में

और

अनिद्रा में भी!





“मन की नैसर्गिकता


१)


मैंने जब भी कोई भावना

बोझिल दिल में पूर्णतः या आंशिक रूप से डुबोई

दिल के बोझ में कमी महसूस हुई

यह कमी



किसी तीक्ष्ण सवेंदना में बहे

आंसुओ के भार के बराबर थी

अब सोच रही हूँ

आर्कमिडीज ने

जीवंत भावनाओं के लिये

निर्जीव उदाहरण को क्यों चुना?

वह जो निर्जीवता में भी

प्रेम ढूंढ लेते हैं

वह बनते है वैज्ञानिक!!



(२)


वह कहते हैं

एक और एक का जोड़

हमेशा दो ही होता है

मैंने तीन दफ़े

कोशिश की इस जोड़ को सीखने की

पहली बार जोड़ा तो ढाई आया

दूसरी बार में साढ़े चार

और तीसरी में पांच आया

गहरा सोचा तो जाना

गणित में कमज़ोर होना

मस्तिष्क की नहीं 

मन की नैसर्गिता पर निर्भर है



(३)


उन्होंने इतिहास कुरेदा

नहीं सोचा

वर्तमान और भविष्य भी

एक दिन इतिहास होगा

वे व्यस्त थे कुरेदने में 

जब से पनपी सृष्टि

अब भयभीत हैं वे 

जब से स्त्री ने उठा लिया है फावड़ा

अब वे व्यस्त है फावड़ा लिये

स्त्री के साथ, उनका इतिहास समतल करने में

डर है उनको

कंही स्त्री की नाज़ुक हथेली से छूट

फावड़ा गिर ना पड़े

उनके इतिहास पर


(४)


मुश्किल होता है राह चुनना

और भी मुश्किल होता है उन पर चलना

पर अकेले क़दमों की सबसे बड़ी मुश्किल है

दूसरों की संभावनाओं से परे

अपनी संभावनाओं पर अडिग रहना

जैसे अडिग है सूर्य रौशनी फ़ैलाने को

जैसे अडिग हैं पुष्प खिल जाने को

जैसे अडिग है ओस पत्तों पर झरने को

जैसे अडिग थे वे राजा

जो सर्वस्व छोड़ अकेले निकले थे धर्म के लिये

जैसे अडिग थे वे देशभक्त

जिन्होंने दिलाई आज़ादी

जैसे अडिग है सैनिक अपनी सहादत के लिये

अडिगता पर चलता है गुरुत्वाकर्षण का नियम

ये वह सेब हैं

जिसे ऊपर उछालने पर

लौट कर गिरता है ज़मीन पर 



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क


ई मेल : nehasinghjb06@gmail.com

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