हितेन्द्र पटेल का आलेख 'सांस्कृतिक स्मृति से जुड़ी प्रगतिशीलता
इतिहास और संस्कृति से किसी भी राष्ट्र और समाज का एक मुकम्मल वितान बनता है। इस वितान से ही सांस्कृतिक प्रगतिशीलता का आधार निर्मित होता है। रांगेय राघव ऐसे ही रचनाकार रहे हैं जिन्होंने इतिहास और संस्कृति को आधार बना कर कई महत्त्वपूर्ण किताबें लिखी हैं। चूंकि उनका जुड़ाव दक्षिण भारत से भी था अतः उनके लेखन में उस भारत की तस्वीर दिखाई पड़ती है जो तमाम विविधताओं को समेटे हुए एक महत्त्वपूर्ण सभ्यता के रूप में आज भी अस्तित्वमान है। हितेंद्र पटेल इतिहास के क्षेत्र में लगातार बेहतर कार्य कर रहे हैं। प्रोफेसर पटेल ने रांगेय राघव के हवाले से सांस्कृतिक प्रगतिशीलता की एक पड़ताल की है। यह आलेख तदभव के हालिया अंक में प्रकाशित हुआ है। किंचित परिवर्द्धित रूप में हम इसे 'पहली बार' पर प्रकाशित कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं हितेंद्र पटेल का आलेख 'सांस्कृतिक स्मृति से जुड़ी प्रगतिशीलता'।
सांस्कृतिक स्मृति से जुड़ी प्रगतिशीलता
हितेन्द्र पटेल
‘सामंतवादी व्यवस्था मिटाने में इस बात से सावधान रहना चाहिए कि कहीं उन सब बुद्धिजीवियों को न बाहर कर दें जो सामंतवादी व्यवस्था से संबंध रखते हैं’- रांगेय राघव |
रांगेय राघव (1923-1962) ने अपने 39 वर्ष के जीवन में करीब डेढ़ सौ (जिनमें साठ के करीब मौलिक ग्रन्थ हैं) पुस्तकों का उपहार हिन्दी जगत को दिया है। उन्होंने उपन्यास, कहानी, कविता, औपन्यासिक जीवनी, निबंध, रिपोर्ताज, नाटक, आलोचना, इतिहास, संस्कृति, मानवशास्त्र, अनुवाद, व्याख्या, चित्रकारी, पुरातात्त्विक खोज आदि विषयों पर लिखा। सीमन्तिनी राघव[1] ने बिल्कुल सही कहा है कि लिखना उनके लिए सांस लेने का पर्याय था। वे अपने कलाकार रूप को बहुत महत्त्व देते थे और उनको लगता था कि वे अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहेंगे इसलिए उनको तेजी से काम करना होगा। इस कारण लिखने कि गति को वे तेज रखते थे और धीरजपूर्वक उनका सम्पादन या पुनर्संयोजन वे नहीं कर पाते होंगे, लेकिन फिर भी उनके सृजन संसार से परिचित हर व्यक्ति यह कहेगा कि वे ज्ञान के विविध क्षेत्रों में व्यापक अध्ययन के साथ उपस्थित रहे हैं और उन्होंने इतिहास और वर्तमान के बीच के संबंधों को साहित्यिक और समाजशास्त्रीय दोनों धरातलों पर समझने कि कोशिश की है। उनका जन्म ऐसे समय में हुआ जब देश में जनांदोलनों का दौर शुरू हो चुका था। बचपन में उन्होंने अपने पिता को राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति सहानुभूति रखने के कारण एक दशक से अधिक समय के लिए अपने राज्य राजस्थान को छोड़ कर आगरा में सपरिवार रखने के लिए विवश होते देखा था। जब वे नौजवानी के दौर में प्रविष्ट हो रहे थे देश में राजनीति और ज्ञान के क्षेत्र में युगांतकारी परिवर्तन हो रहे थे। उसके बाद जब उनका लेखन काल शुरु हुआ उस समय देश औपनिवेशिक पराधीनता से निकल कर एक लोकतान्त्रिक स्वाधीन राष्ट्र को खड़ा करने के स्वप्न के साथ था। इस दौर में देश के बौद्धिक समाज में एक स्वाधीन राष्ट्र के साथ ही सांस्कृतिक स्वाधीनता का भाव भी था। देश आधुनिक बने और दूसरे राष्ट्रों की तरह उन्नति करे लेकिन हम आधुनिक किस तरह से बनें इस प्रश्न पर बौद्धिकों और रचनाकारों के बीच मतैक्य नहीं था। प्राचीन भारत के इतिहास और अपनी परंपराओं को देखने की दृष्टियाँ अलग थीं इसलिए उस दौर के बौद्धिकों की इतिहास दृष्टि को ठीक से विश्लेषित करने की जरूरत है। रांगेय राघव कई अर्थों में हमारे लिए इसमें सहायक सिद्ध हो सकते हैं।
जिस दो विशेष काल खंड को हम रांगेय राघव का अपना समय कह सकते हैं उसमें दो चरण हैं –चालीस के दशक की राजनीतिक और वैचारिक उथलपुथल (1947 तक के समय को सुविधा के लिए रखा जा सकता है) और उसके बाद के वर्षों (1947-1962) का चरण जिसे हम सुविधा के लिए नेहरू युग कह सकते हैं। रांगेय राघव का गांधी के साथ जो क्रिटिकल रिश्ता है उसका एक कारण यहाँ उल्लेख करना उचित होगा। जब राघव जवान हो कर लेखन के क्षेत्र में उतर रहे थे उस समय तक गांधी और उनके आंदोलन के साथ युवाओं का भक्ति का नहीं एक रचनात्मक संबंध था और उनके प्रति आलोचनात्मक रुख भी सम्मान के साथ था।
इन दो काल खंडों के बौद्धिकों में दो प्रकार की प्रवृत्तियों के बीच संतुलन बनाने की चुनौती थी। आधुनिक और भौतिकता और राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना के बीच एक आंतरिक तनाव भी था। पश्चिमी बौद्धिकता और राष्ट्रीय परंपरा बोध के बीच में अपने अपने चुनाव थे। इस अन्तर को स्पष्ट करने के लिए दो तीन परिचित मुखों के सहारे विचार करना उचित होगा। राहुल सांकृत्यायन, यशपाल और रांगेय राघव तीनों ही प्रगतिशील विचारधारा के प्रतिनिधि हैं, लेकिन उनके बीच एक बड़ा अंतर है। यशपाल तत्वतः पश्चिमी आधुनिकता के साथ खड़े हैं जैसे जवाहरलाल नेहरू थे।[2] राहुल वैचारिक दृष्टि से पश्चिम के साथ हैं लेकिन उनकी सोच में भारतीय दर्शन की जो राष्ट्रीय और आंचलिक व्याख्या थी उसके कारण उनका हृदय और मन की सोच में एक तनाव है। रांगेय राघव और भी गहरे अर्थों में भारतीय भाव-मन से प्रगतिशील दृष्टि के रचनाकार थे।
रामविलास शर्मा का उल्लेख इस संदर्भ में बहुत उपयोगी है। उनकी वैचारिक सोच में भी यह तनाव है लेकिन प्रेमचंद की तरह का है। प्रेमचंद और रामविलास शर्मा में आर्य समाज के वैचारिक प्रभाव को लक्षित किया जा सकता है। इसमें सुधारवादी और परंपरावादी राष्ट्रीय दृष्टि का समावेश है जो अंततः पश्चिम की दृष्टि को स्वीकार नहीं कर पाता। प्रगतिशीलता भरपूर है, लेकिन राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना के साथ टकराहट होने पर मन राष्ट्रीयता के साथ है। 1950 के दशक में प्रगतिशीलता के कई संस्करण हुए, जिसमें भारतीयता के प्रति भिन्न प्रकार के मत बने। जो सरकारी तंत्र के साथ चला उसके लिए बाकी प्रगतिशीलता भीतर ही भीतर संकीर्णता को ही पोषित करती रही। आजादी के बाद के शक्तिशाली शासन तंत्र के साथ प्रगतिशीलता के भिन्न भिन्न संस्करणों के समीकरणों के विश्लेषणों के बिना यह समझना मुश्किल है कि रांगेय राघव की प्रगतिशीलता के प्रति अन्य प्रगतिशील लोगों का विरोध क्यों है।
इस लघु आलेख में रांगेय राघव की इतिहास दृष्टि पर एक छोटी सी टिप्पणी की गई है। उन पर बहुत अधिक अध्ययन की आवश्यकता है।
अपने लेखन में रांगेय राघव अपने तरीके से युग के सत्य को रखने की कोशिश भी करते रहे। वे इतिहास के तथ्यों का ध्यान रख कर ऐतिहासिक यथार्थ को वर्तमान के प्रश्नों से जोड़ कर लिखते थे। [3] चालीस से ले कर साठ के समय में हिंदी में दो प्रतिभाओं - राहुल सांकृत्यायन और रांगेय राघव ने इतिहास में जा कर सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक विषयों को सांस्कृतिक स्मृति के साथ जोड़ कर एक खास तरह की प्रगतिशीलता को स्थापित करने की कोशिश की। इसमें एक राष्ट्रीय चेतना का वास था। ये दोनों एक खास तरह की जातीय स्मृति को संजोने का जतन कर रहे थे जो देश के लोगों की स्मृतियों में उनकी परंपराओं और भाषाओं के माध्यम से एक वैकल्पिक इतिहास रचने में सहायक हो रहे थे। इस इतिहास में वे साहित्य की संपदाओं को भी समेट रहे थे। ये दोनों लोग पश्चिम दो बौद्धिक धाराओं – पुनर्जागरण की मानवतावादी वैज्ञानिक धारा और भारतीय ज्ञान परंपरा से के बीच में संतुलन बना रहे थे। वे विज्ञान के साथ थे, लेकिन जन की परंपराओं के उन तत्त्वों के प्रति भी सचेत थे जिसको वैज्ञानिक धारा के लोग संदेह की दृष्टि से देखते थे। उस दौर में साहित्य में मार्क्सवाद और इतिहास में मार्क्सवाद और राष्ट्रवाद के नेहरूवादी संस्करणों का ज़ोर था। इन दोनों को साहित्य और इतिहास के बड़े लोगों ने अपने अनुकूल नहीं पाया। दोनों को साहित्य और इतिहास किसी में भी गंभीर शोध के लिए अनुपयुक्त पाया। राहुल को तो फिर भी उनके उत्तर भारत के होने और कम्युनिस्ट पार्टी के साथ पहले जुड़े होने के कारण बिसराया नहीं गया, लेकिन राघव की तो घोर उपेक्षा हुई, बावजूद इसके कि उनका साहित्य ज्यादा सहजता से विभिन्न विधाओं में लोकप्रिय हो सकता था। पाठकों ने उनको सराहा, लेकिन इन दोनों को प्रकाशकीय और आलोचकीय समर्थन क्यों नहीं मिला इस प्रश्न से ही उन पर चर्चा हो सकती है ।[4] उनके पास परिवार और परिवेश का थोड़ा समर्थन था।अगर वे गंभीर रूप से बीमार नहीं होते तो वे अपना काम करते रह सकते थे, हालांकि उनके ऊपर आर्थिक दबाव बराबर रहा और वे लेखन से होने वाली आय पर ही निर्भर रहे। वे लिखते रहे और इस लेखन में उन्होंने अपने को पूरा उड़ेल दिया।
रांगेय राघव का परिवार एक प्रबुद्ध तमिल ब्राह्मण पुजारियों का था। विद्वान ब्राह्मणों को राजस्थान में वहां के राजाओं ने जागीर दे कर बसाया था। रांगेय राघव के पिता को उनके राष्ट्रीय आंदोलन के समर्थक होने के कारण 1929-30 के समय 12 वर्ष के लिए राज्य से बाहर कर दिया गया था। उस दौरान उन्हें आगरा में रहना पड़ा। आगरा के परिवेश को राघव ने आत्मस्थ कर लिया था।
राघव के परिवार में कई भाषाओं और कलाओं में निष्णात लोग थे। पिता कर्मकांडी पंडित थे जो तमिल, संस्कृत के उच्च कोटि के विद्वान होने के साथ ही अंग्रेजी, उर्दू, हिंदी और ब्रज भाषा के अच्छे ज्ञाता थे। उनकी मां कन्नड़, तमिल और ब्रज साधिकार बोलती थीं। फूफा और नाना भी बहुत विद्वान और कला प्रवीण थे। उनके घर में वातावरण "दक्षिण और उत्तर दोनों का संगम था"। इस तरह के परिवेश के कारण राघव को द्रविड़ दृष्टि से देखने वाले हिन्दी लेखक के रूप में भी देखा गया। वे हिंदी के उन विशेष लेखकों में हैं जो अन्य भाषाओं की संपदा से आंतरिक रूप से जुड़े थे और उससे हिन्दी को जोड़ भी रहे थे। चूंकि वे उत्तर और दक्षिण दोनों सांस्कृतिक परंपराओं की भारतीय सांस्कृतिक चेतना से जुड़ कर देखते थे और भारतीय भाषिक और धार्मिक परंपराओं की वैदुष्य परम्परा से पूरी तरह परिचित थे यूरोप से आक्रांत उनका चिंतन मनन का संसार कभी नहीं रहा। वे भारतीय परंपरा में रूटेड खुले मन के रचनाकार थे।उनके लिए भारत खोज का विषय कभी नहीं रहा।
उनके देखने की दृष्टि पर विचार करते हुए यह प्रस्तावित किया जा सकता है कि वे अतीत की घटनाओं के भीतर विन्यस्त आंतरिक विचारों को ही पकड़ने की कोशिश करते थे और स्वतंत्र और सदिच्छा से भरे कलाकार की कलम से वर्तमान में उठने वाले प्रश्नों को उससे जोड़ कर एक ऐतिहासिक झांकी प्रस्तुत करते थे। इतिहास इस क्रम से सजीव हो उठता था और एक संवाद चलने लगता था। यह जानने की कोशिश की जानी चाहिए कि उन्होंने आर. जी. कॉलिंगवुड की पुस्तकों का अध्ययन किया था या नहीं। उनकी ही तरह राघव भी इतिहास, दर्शन और पुरातत्तव में रुचि रखते थे। इस प्रसिद्ध इतिहास दर्शन के विद्वान कॉलिंगवुड ने अतीत की घटनाओं के आंतरिक स्वरूप को समझने को इतिहासकार की चिंता के मूल में रखा था। उनके लिए इतिहासकार अतीत की घटनाओं में उतर कर, उसको अपने मन में दुबारा घटित करता है ताकि यह समझ सके कि इतिहास के उन व्यक्तित्वों ने जो किया वह क्यों किया। उस व्यक्तित्व के विचार में उन घटनाओं के तर्क मिलते हैं। यह विशेष ज्ञान किसी कार्य कारण के नियमों में रुचि रखने [5]वाले समाज विज्ञानी के लिए संभव नहीं है कि वह यह समझ सके। यह काम इतिहासकार करता है। वह जासूस की तरह अतीत में जाता है और फिर अपने पूर्व निधारित धारणाओं (apriori )के आधार पर जो कुछ उपलब्ध है उसके आधार पर अतीत को पुनर्सृजित करता है। रांगेय राघव इस तरह से अतीत को सामने रखने वाले इतिहासकार के रूप में एक अप्रतिम उदाहरण हैं। कहा जा सकता है कि वे नवभाववादी इतिहास दृष्टि के साथ लेखन करते रहे। यह थोड़ा अटपटा लग सकता है लेकिन ऐसा कहा जा सकता है। मनुष्य और समाज के ऐतिहासिक प्रवाहों में मार्क्सवाद वैज्ञानिकता की ओर ही है और उसके लिए सामाजिक परिवर्तन के नियम को उद्घाटित करना ही अधिक महत्त्वपूर्ण है, व्यक्ति के विशिष्ट और भाव-पक्ष पर केंद्रित होना उतना नहीं है। राघव जी का यह कथन ध्यान में आता है - "मैं भाव पक्ष का अनुरागी हूं, मनुष्य को ढूंढता हूं। मेरा मत है कि पात्र जब सामने आए, ऐसा लगना चाहिए कि जैसे जिंदगी में एक नए आदमी से मुलाकात हो गई।"
स्वाभाविक है कि जो उस समय की मार्क्सवादी दृष्टि थी उनसे उनके सैद्धांतिक मतभेद रहे। इस बात का उल्लेख जरूरी है यह समझने के लिए कि क्यों रामविलास शर्मा जैसे लोगों ने रांगेय राघव पर उतना ध्यान नहीं दिया, बावजूद इसके कि रामविलास जी उनके प्रति आदर रखते थे। जब वे बीमार पड़े तो राम विलास जी ने केदारनाथ अग्रवाल को लिखे पत्र में इस पर बहुत चिंतित हो कर लिखा।[6] राघव भी रामविलास शर्मा के प्रति आदर रखते थे और उन्होंने अपनी एक पुस्तक की भूमिका उनसे लिखवाई थी। लेकिन वे भी रामविलास और उन जैसे विद्वानों के प्रति क्षुबद्धता की हद तक चले जाते हैं।[7] जिस बात पर राघव मुखर हुए हैं वह है उनका यह विश्वास कि सच्चा कलाकार अपनी सदिच्छा से वर्ग की सीमा का अतिक्रमण करता है। उनको लगता है कि यांत्रिक मार्क्सवादी कलाकार की सदिच्छा को स्वीकार नहीं कर के भूल करते हैं। उनकी मान्यता थी कि “कलाकार चाहे किसी भी वर्ग का हो जब वह अपनी सीमाओं से बाहर आ जाता है तो व्यापक मानवीय कलाभूमि अनायास उसे अपने क्षेत्र का प्राणी बना लेती है।” इस संदर्भ में वे ‘कलाकार की सत्य की भूख’ और ‘कलाकार की ईमानदारी’ का उल्लेख करते हैं। मार्क्सवादी इस ईमानदारी की मूल प्रेरणा सदिच्छा पर विचार नहीं करते। राघव कलाकार की सदिच्छा को इसका उत्स मानते हैं। इस बिन्दु पर राघव ने लिखा है “इस सदिच्छा को न मानने से ही मार्क्सवादी आलोचक संदेह प्रधान होते हैं, मित्र को शत्रु बनाते हैं, यांत्रिक होते हैं, अपनी अति में कुत्सित समाजशास्त्री बनते हैं और चालबाजी की अवसरवादिता को अपने साधन प्राप्त करने के तरीके बना कर किसी भी नैतिकता को मानने से इनकार करते हैं, स्वतंत्र चेतना का हनन करते हैं, दिमागी गुलाम बनते हैं और राजनीतिक नेताओं के तलवे चाट कर कलकार पर हुक्म चलाने का मुगालता रखते हैं, और कला और वस्तु के द्वन्द्व खड़ा करते हैं। व्यक्ति के ईमानदारी को सिर्फ पुराने में देखते हैं ताकि अपनी चतुराई दिखा सकें और नयों के प्रति अपनी हुकूमत चलाने की बात करते हैं –जैसे कलाकार कोई मशीन हो।" वे अपनी तल्खी में यहाँ तक पूछ बैठते हैं कि “आइंस्टीन जैसा वैज्ञानिक... सोवियत भूमि में क्यों न पैदा किया? यांत्रिकता का त्याग करना होगा।” जिस आत्मविश्वास से रांगेय राघव ने मार्क्स और मार्क्सवादी आलोचक लूकाच पर लिखा है वह पाठकों को चकित करता है।[8]
राघव के कथन को कुछ अन्य लेखकों की मार्क्सवादी विरोधी प्रवृत्तियों के साथ नहीं मिलाया जा सकता है।[9] वे मार्क्सवाद पर कुत्सित मार्क्सवाद के प्रभाव पर चिंतित हैं। उन्होंने लिखा है – “अस्तित्ववाद के आँचल में यौनवाद अपने प्रकृत रूप में पनपा। कला कला के लिए तथा जितने भी प्रतिक्रियावाद के अस्त्र थे, संस्कृति की रक्षा के नाम पर इस वाद में घुस पड़े। हिन्दी के प्रगतिशील आंदोलन में कुत्सित समाजशास्त्रियों के वर्ग का अभाव नहीं रहा है। उसने प्रयोगवाद को बढ़ने का मौका दिया था। ढंग से काम होता तो इस विकृति को हिन्दी में उभरने का मौका नहीं मिलता।”
चालीस और पचास के दशक में एक बौद्धिक या रचनाकार के तनाव को समझने के लिए कॉलिंगवुड की आत्मकथा में वर्णित कुछ प्रसंग काम के हो सकते हैं। दार्शनिक ने लिखा है कि यूनिवर्सिटी मध्य युग की उस सोच का फल है जिसमें सोचने और जीने की दुनिया को दो संसारों में बांट कर देखा गया था। एक दुनिया स्वतन्त्रता से सोचने वालों की स्वायत्त दुनिया है जिसमें आदमी कुछ भी सोचने के लिए स्वतंत्र है। जीवन की समस्याओं और समाधान का अलग संसार है। इस प्रकार सोच की दुनिया (थियरी) और सांसारिक दुनिया (प्रैक्टिस) को अलगाया गया है। मार्क्स इस ज्ञान और सामाजिक जीवन के बीच की दूरी को मिटा कर देखना चाहते हैं और इस स्थान पर नव-भाववादी कॉलिंगवुड मार्क्स के साथ अपने को रखते हैं। वे मार्क्सवादी दृष्टि के आलोचक हैं लेकिन इस मूल बिंदु पर वे मार्क्स के साथ हैं। रांगेय राघव बिल्कुल कॉलिंगवुड की तरह थियरी और प्रैक्टिस के समन्वय के बिंदु पर मार्क्स के विचारों के साथ हैं, लेकिन उन्हीं की तरह आगे चल कर मार्क्सवाद के भीतर पूंजीवाद के मूल आधार के बचे रह जाने की समझ को भी ध्यान में रखते हैं। पूंजीवाद, समाजवाद और फासीवाद के अंतर्संबंधों की चर्चा प्रसंग में कॉलिंगवुड के बहुत नजदीक रांगेय राघव क्यों हैं यह एक अन्वेषण का विषय है। यहां इस पर विस्तृत चर्चा संभव नहीं, लेकिन यह कहा जा सकता है कि यूनिवर्सिटी में उत्पादित ज्ञान में ज्ञान का एक ही रूप रहता है। इसकी चारदीवारी के बाहर ज्ञान दूसरे रूप में उपस्थित होता है।[10]
यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण है कि बीस इक्कीस वर्ष की आयु में राघव बंगाल गए और बंगाल के अकाल की भयावहता से खुद परिचित हुए। बंगाल के अकाल ने चालीस और पचास के दशक के रचनाकारों को बहुत प्रभावित किया था। कृष्ण चंदर, अमृतलाल नागर और महाश्वेता देवी के लेखन से हिंदी जगत भली भांति परिचित है। लेकिन उन्नीस साल के युवा लेखक रांगेय राघव ने जिस तरह का वर्णन किया है वह अद्भुत है। उसको पढ़ कर ही उस विस्मयकारी साहित्यिक प्रतिभा से थोड़ा परिचय हो जाता है जिसने कुछ वर्षों बाद 'मुर्दों का टीला' जैसा ग्रंथ लिखा। उन्होंने भयावहता को चित्रित करते हुए लिखा लिखा - "चारों ओर प्राणों की ममता दोनों हाथ उठा कर हाहाकार कर रही थी। लोग घरों में मरते थे। राह में मरते थे। जैसे जीवन का अंतिम ध्येय अन्न के लिए तड़प तड़प कर मर जाना ही था। बंगाल का सामाजिक जीवन कच्चे कगार पर खड़ा हो कर कांप रहा था।"
युवा रांगेय राघव की उस बेचैनी पर मनमोहन ठाकौर और अमृत राय ने बहुत सुंदर तरीके से लिखा है।[11]
इस तरह से 'तूफानों के बीच' से निकल कर आए रांगेय राघव!
उन्होंने 'घरौंदा' जैसा उपन्यास लिखा था, लेकिन वे इतिहास की ओर मुड़े। उस समय के कई लेखकों में इतिहास की ओर मुड़ने की इस प्रवृत्ति देखी जा सकती है। पर उनमें इतिहास में वर्तमान के साथ जुड़ कर देखने की जो प्रवृत्ति है वही सबसे महत्त्वपूर्ण है। एक तरह से भूत और वर्तमान के बीच का संवाद है इतिहास का सूत्र उनके यहां स्पष्ट है। ई. एच. कार का कथन तो दस साल बाद आया, हिंदी के लेखक तो इसकी प्रैक्टिस पहले से ही कर रहे थे। चालीस के दशक में बाइस तेईस साल का युवा जब ‘मुर्दों का टीला’ लिख रहा था तो मुआन जो दारो के प्रसंग में लोकतंत्र और स्त्री पुरुष संबंध पर भी लिख रहा था।
राघव जी के जीवन पर जो कुछ जानकारी उपलब्ध है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि 1945 में राघव को लगा कि उन्हें इतिहास में उतरना चाहिए। उस समय पुरातत्त्व के क्षेत्र में कई बड़ी चीजें भारत के संदर्भ में आ रही थी। खुदाई चल रही थी और प्राचीन काल की बहुत सारी अनजानी बातें खुदाई के बाद उभरकर सामने आ रही थी। राघव इन चीजों में गहरी दिलचस्पी ले रहे थे। उनके एक मित्र भी तक्षशिला के उत्खनन से जुड़े थे इसका भी उल्लेख विद्वानों ने किया है। वह कुछ इस तरह का दौर था जब अंग्रेज विद्वान खुदाई में प्राप्त हर चीज को पश्चिम के इतिहास के साथ जोड़ कर देख रहे थे। आर्य को ले कर दो तरह के मत थे। पश्चिम के विद्वान के साथ साथ यहां के बहुत सारे विद्वान भी यही कह रहे थे कि वे बाहर से आए थे। ऐसे में राघव इस उपन्यास में अपनी तरह से गए और उस समय के इतिहास को जिस तरह से रखने में सफल हुए उसकी बहुत सुंदर व्याख्या मधुरेश ने की है।[12] इस उपन्यास में वे दिखलाते हैं कि कैसे आर्यों के अभियान के बाद समाज दो वर्ग दृष्टियों में बंट जाता है। एक ओर स्वतंत्रता के लिए सब कुछ बलिदान करने वाले लोग हैं और दूसरी ओर निरंकुश दमन, आतंक और बल प्रयोग द्वारा साम्राज्य की स्थापना के लिए तत्पर लोग हैं। तीव्र संघर्ष होता है और स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध लोग हर कुर्बानी के लिए आगे बढ़ते हैं। यह मनुष्य का स्वाधीनता के लिए किया गया संग्राम है। रांगेंय राघव का यह ‘मनुष्य’ सिर्फ व्यक्ति नहीं है। एक व्यक्ति के भीतर पलता मनुष्य अपने ‘मैं’ का अतिक्रमण करता है। व्यक्ति गण व्यवस्था की जय बोलता हुआ युद्ध क्षेत्र में गिरता है। सेनापति की आज्ञा का इस युद्ध में विशेष महत्त्व नहीं है। प्रत्येक लड़ने वाला है और बच्चा बच्चा जानता है कि शत्रु को समाप्त करने के लिए सेनापति की आज्ञा आवश्यक नहीं। राष्ट्र नहीं, वर्ग और सामाजिक संरचना की प्रकृति महत्त्वपूर्ण है।[13]
इस उपन्यास में पच्चीस वर्ष के लेखक राघव ने जिस मनुष्य को प्रतिष्ठा दी है वह मनुष्य समाज हित से जुड़ा स्वतंत्रता प्रेमी मनुष्य है।
मधुरेश ने इस उपन्यास के सहारे एक महत्त्वपूर्ण बात लक्षित की है कि लोकतांत्रिक मूल्यों का विश्वासी राघव का यह मनुष्य अपने प्रेम दर्शन में परंपरा और स्वतंत्रता दोनों की रक्षा करने वाला है। राघव का यह मनुष्य संघर्ष करता हुआ स्त्री पुरुष के बीच जिस तरह के संबंध को प्रतिष्ठित करता है वह अन्य मार्क्सवादी लेखक राहुल या यशपाल की तुलना में जयशंकर प्रसाद और हजारी प्रसाद द्विवेदी के अधिक निकट है। मधुरेश का यह कथन ध्यान में रखने योग्य है कि राघव प्रेम की उदात्त और आदर्शवादी भूमिका पर बल देते हैं, जिसमें देह की भूमिका महत्त्वपूर्ण होने पर भी अंततः गौण है। उनके प्रेम दर्शन के वास्तविक स्रोत रवींद्र नाथ और शरत चंद्र हैं।[14]
राघव के उपन्यास के पुरुष पात्र का यह कहना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि "हम एक दूसरे को प्रेम करते हैं। जिस दिन यह हृदय उचट जाएगा, उस दिन कोई भी शक्ति एक करके नहीं रख सकेगी। मैं कवि हूं। प्रेम चाहता हूं। स्त्री को बांधना नहीं चाहता।"
राघव दरअसल प्रेम में सामाजिक विवेक को निर्णायक मानते हैं। स्वेच्छाचार की कैसी भी छूट के बिना स्वतंत्रता उसका केंद्रीय तत्त्व है। उनके पात्र प्रेम में शरीर की सत्ता को अस्वीकार नहीं करते, लेकिन वरीयता त्याग और बलिदान की भावना को ही देते हैं।
इस प्रकार रांगेय राघव की इतिहास दृष्टि में साम्राज्यवाद विरोध, समानता और स्त्री की गरिमा एकसाथ प्रतिष्ठित करती है। इतिहास में वर्गों के संघर्ष को दिखलाने में हमेशा जनता के पक्ष को ही सही पक्ष मानते हैं।
इस युग से आगे बढ़ते हुए भारतीय इतिहास की अपनी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए राघव जीवनीपरक उपन्यासों की रचना की ओर उन्मुख हुए हैं। अपने चुनाव में वे उन ऐतिहासिक चरित्रों पर भी लिखते हैं जिसके बारे में ऐतिहासिक कल्पना की अधिक गुंजाइश नहीं थी। इस तरह के उन्होंने छः वर्षों में नौ उपन्यास लिख सके। ये हैं - ‘देवकी का बेटा’ (1954), ‘यशोधरा जीत गयी’, (1954), ‘लोई का ताना’ (1954), ‘रत्ना की बात’(1954), ‘भारती का सपूत’ (1954)। ‘आँधी की नींवें’ (पहले 'राणा की पत्नी' शीर्षक से छपी) (1955), ‘जब आवेगी कालघटा’ (1958), ‘धूनी का धुँआ’ (1959), और ‘मेरी भव बाधा हरो’ (1960)।
इन उपन्यासों में राघव इतिहास में महान कहे जाने वाले के जीवन परिवेश को उनकी स्त्रियों की आंख से देखने की कोशिश का एक अभिनव प्रयास किया गया है।
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है कि अपने लेखन में राघव जी स्वतंत्र हो कर लिखते हैं और वे अपने लेखकीय स्वातंत्र्य को छोड़ते नहीं। ऐसा करते हुए वे तत्कालीन वामपंथी आलोचकों को बहुत नाराज़ करने से भी नहीं चूकते। जब वे गोरखनाथ और कबीर के बीच की कड़ी के रूप में चर्पट नाथ को लाते हैं तब वे अपने समय के वामपंथी आलोचकों की कट्टरता का भी विरोध करते प्रतीत होते हैं। यह अकारण नहीं है कि प्रगतिवादी आंदोलन में रांगेय राघव की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका के बावजूद सबसे अधिक उनका विरोध प्रगतिवादी आलोचकों ने ही किया। विरोध से भी अधिक कष्टकारी आलोचक का उनके लेखन को नजरंदाज करना है।
वे प्राचीन काल और आधुनिक काल के "संधिकाल" को सापेक्ष दृष्टि से समझने की चेष्टा में हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के साथ काम करने शांतिनिकेतन गए। बाद में उन्होंने आगरा में शोधकार्य 'गोरखनाथ और उनका युग' संपन्न किया। प्राध्यापक पद मिल रहा था, लेकिन उन्होंने स्वतंत्र लेखन का कठिन रास्ता चुना।
इस जीवन ने ही उनके साहित्य को आधार और दृष्टि दोनों को व्यवस्थित करने में मदद की। इतिहासकार हमेशा स्रोत का रोना रोते रहते हैं, लेकिन राहुल सांकृत्यायन की तरह रांगेय राघव के लिए भी यह सुविधा है। वर्तमान से अतीत की एक यात्रा होती है जिसमें पूर्व निर्धारित धारणाओं के सकारात्मक प्रयोग से जो भी उपलब्ध स्रोत हों उससे अतीत में उतरना संभव होता है। 'कब तक पुकारूं' के लिखे जाने की कथा को देखा जा सकता है। शांतिनिकेतन से लौटने के बाद उन्होंने चिकित्सकों की मदद ली। उसी क्रम में वे उस समूह के चिकित्सक से और उसके समाज से जा जुड़े जो घुमंतू जाति के नाम से जानी जाती है। इस जुड़ाव के कारण उस जाति के समाज के वर्तमान से उसके इतिहास में गहरे उतरते गए और आठ दस वर्षों के बाद आया ‘कब तक पुकारूं’!
रांगेय राघव जब किसी विषय के भीतर उतरते हैं तो जो भी उपलब्ध स्रोत हैं उसके साथ अपनी धारणाओं का एक मेल बनाते हैं और उसे सीधे सीधे पाठकों के समक्ष रखते हैं। इससे एक संवाद बन जाता है। सीधे सीधे रखते हुए भी वे लेखकीय स्वतंत्रता के प्रश्न पर बहुत सजग थे। पार्टी और लेखक के बीच के संपर्क पर उन्होंने बड़ी दृढ़ता से कुछ बातें कही हैं जिसका उल्लेख बाद में अलग से किया जाएगा। यहां यही कहना यथेष्ठ होगा कि वे स्पष्ट रूप से अपने लेखक को पाठकों को समक्ष रखते थे और क्या क्या वे करना और सोचना चाहते थे अपनी भूमिका में रखते थे। उनके अप्रोच को समझने के लिए एक ही भूमिका का उल्लेख यथेष्ठ है। कबीर पर जीवनीपरक उपन्यास 'लोई का ताना' में वे लिखते हैं :
कबीर के जीवन संबंधी तथ्य अधिक नहीं मिलते। मैं उनके साहित्य को पढ़ कर जिन निष्कर्षों पर पहुंचा हूं उन्हीं को मैंने उनके जीवन का आधार बनाया है। ...कबीर को लोगों ने गलत समझा है। कबीर में सूफीमत, वेदांत, रहस्यवाद, नारीनिंदा तथा अनेक बातें हैं जैसे संसार की असारता पर जोर, मायावाद आदि का वर्णन, पर ये अनेक विकास की मंजिलें हैं। वे धीरे धीरे आगे बढ़ गए हैं। ... कबीर के चेलों ने ब्राह्मण की नकल की। कबीर के विद्रोह और सत्य को दबा दिया गया। कबीर इतिहास में एक उलझन बन गए। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ब्राह्मणवादी आलोचक थे। उन्होंने कबीर को नीरस निर्गुणिया कह दिया। वे कह गए हैं कि कबीर ने कोई राह नहीं दिखाई।... साधारण जनता कबीर को समझ नहीं सकी।
यह सब ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण है अतः त्याज्य है। अवैज्ञानिक है। ...
कबीर ने भारतीय संस्कृति के नाम पर भेदभाव वाले ब्राह्मणवाद को नहीं मानते थे। वे इस्लाम का विरोध करके भी उससे घृणा नहीं करते थे, और उसे मुक्ति का पथ भी नहीं समझते थे। कबीर ने जनता का दलित जीवन देखा था, तुलसीदास की भांति नहीं, एक जुलाहे की भांति।... कबीर ने दूसरों के बल पर खाने वाले साधुओं का घोर विरोध किया था। वे तो मेहनत का खाना चाहते थे। साधारण जनता ने कबीर को समझा। ... पर बाद में कबीरपंथियों ने कबीर को मिटा दिया। ...
कबीर ने भारत के सांस्कृतिक जन जागरण की नींव डाली है। उसके युग के बंधन थे, और उनकी उस पर छाप है। वह धीरे धीरे विकास कर के कितना आगे आ गया था ! ...
कबीर का मुख्य संदेश प्रेम का है। ...कबीर निस्संदेह तत्कालीन जीवन में क्रांति का बीज था। दुर्भाग्य से बाद में फिर वह वर्ग संघर्ष जाति संघर्ष में दब गया। तब वर्ग संघर्ष का मतलब वर्ग संघर्ष ही था।
विचार के विकास के इस सूत्र रांगेय राघव ने हमेशा रखा है। उसी तरह वे मनुष्य के मौलिक विवेक पर बहुत ध्यान में रखा।
कोई लेखक जब इस तरह लिखता है तो पाठक उसकी भूल भ्रांतियों के साथ भी चलने लगता है और उसके मूल स्वर के साथ जुड़ जाता है। लेकिन यह स्वाधीनता पचास के दशक में लेखक को पार्टी लाइन से जुड़े लोगों के लिए संदिग्ध बनाने के लिए पर्याप्त है। इस जोखिम को समझने के लिए तत्कालीन समय के आंतरिक दबावों को ध्यान में रखना जरूरी है। जैसा कि पहले कहा गया है कि लेखकीय स्वाधीनता से अधिक महत्त्वपूर्ण था उस समय वर्चस्वकारी विचारधारा के साथ तालमेल रखना। आज यह किसी को समझ में शायद न आए कि रामविलास शर्मा जैसे महान आलोचक ने रांगेय राघव की इतनी अनदेखी क्यों की। इस अनदेखी का एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा। 1947 में रामविलास शर्मा ने 'रिपोर्ताज' में लिखा
"(बंगाल के अकाल) की विभीषिका के अनुरूप हिंदी में प्रभावपूर्ण रिपोर्ताज नहीं लिखे गए…(!) चटगांव के बारे में कवि अली सरदार जाफरी ने एक सुंदर रिपोर्ताज लिखा था। …अकाल के समय प्रसिद्ध बंगाली चित्रकार चित्तप्रसाद चटगांव गए थे। थोड़े से शब्दों में उन्होंने जनता की नारकीय यातनाओं के दृश्य (को) उपस्थित कर दिया है। उसके एक अंश हम यहां उद्धृत करते हैं …। कला कला के लिए की रट छोड़ कर साहित्य को जीवन से संबंधित करने का यही तरीका है कि लेखक आज के विद्रोह के इतिहासकार बनें।"
जिसने भी रांगेय राघव के 'तूफानों के बीच' को पढ़ा है उसे हिंदी के सर्वश्रेष्ठ प्रगतिशील आलोचक की टिप्पणी को पढ़ कर आश्चर्य ही होगा। रामविलास जी ने रांगेय राघव के इस कथन कि “धर्म को हटा कर भारत का इतिहास नहीं समझा जा सकता” (भारतीय पुनर्जागरण की भूमिका) यह निष्कर्ष निकाला है कि “उनके अंदर (हिन्दू) पुनरुत्थानवाद के बीज मौजूद थे। शर्मा जी ने पाया कि रांगेय राघव ने इतिहास को समझने के लिए धर्म को समझना जरूरी बताया है, धर्म को समझने के लिए इतिहास को समझने पर जोर नहीं दिया।”[15]
भले ही पार्टी से जुड़े प्रगतिशील आलोचकों ने उनके प्रति अन्याय किया राघव ने लगातार विद्रोह, क्रांति और परिवर्तन के पक्ष में लिखने की कोशिश की। किस हद तक रांगेय राघव विद्रोह, क्रांति और परिवर्तन के पक्ष में जा कर बोलते हैं उसका अंदाज़ा उनके खंड काव्य 'अजेय खंडहर' को पढ़ कर होता है।
घिरा है ले अब स्टालिनग्रेद
घिरा है ले यह हिंदुस्तान…
तू फौलाद बन उठ जाग
जाग उठ मेरे हिन्दुस्तान!
जेल में से आती आवाज़
न सुन पाता है क्या तू बोल
तड़प कर मरते भूखे लोग आज
न यह भी पाते आंखें खोल!
भस्म के गौरव! उड़ कर ध्वंस
मचा दे, जिससे हो निर्माण!
जाग मेरे यौवन के गान!
युगों के राही हिंदुस्तान!
इस कविता में स्टालिनग्रेद की मुक्ति की कामना की गई है और तत्कालीन समय के एक बड़े प्रश्न - भारत की ओर बढ़ते हुए जापान के विरुद्ध जाया जाए या कि जापान के अंग्रेज विरोधी होने के कारण उसका समर्थन किया जाए - पर यह कहा गया है कि जापान का विरोध हो। यह भी कहा गया –
"हो रही है भोर
मेरे हिंद
युग युग के तिमिर की आस -
ध्वस्त है पूंजीवाद
वह उगा है लाल सूरज
जाग बंदी जाग!
देख
इटली की बड़ी मीनार
पर चढ़ कर प्रबल उन्मत्त
फाड़ डाला आज वह
फासिस्ट झंडा…
विश्व ही है राष्ट्र …
ऐसा विश्व
जिसमें हो न शोषण शेष…
आज युगोस्लाव चेकोस्लाव
बेल्जियम बल्गेरिया औ' फ्रांस
के जागे हुए मजदूर
करते नींव पर आघात…
लाल सेना की भयद उन्मत्त
चरण ध्वनि पर झूमता है विश्व
रह रह कर कांपता बर्लिन
मौन हो जापान…
हुंकार!
हिंद
कण कण आज स्टालिन ग्रेड…
याद रखेगा तुम्हें इतिहास
गहन वन के मार्ग
धूलि से उठ रही आवाज़ -
विश्व हो आज़ाद
जिंदाबाद!"
इस तरह की कविता लिखने वाला कवि मन भी तत्कालीन वामपंथी पार्टीबद्ध आलोचक के मन पर कोई प्रभाव नहीं डाल सका!
यह विचारणीय है कि रांगेय राघव के प्रति इतना नकारात्मक दृष्टिकोण क्यों रहा। एक बात मानी जा सकती है कि विषय पर बहुत अधिक अध्ययन विश्लेषण के लिए राघव के पास उतना समय नहीं था। हालांकि वे अध्ययनशील थे और उनके लिखे से यह प्रतीत होता है कि लेखक ने कई विषयों पर तत्कालीन उपलब्ध पुस्तकों का अध्ययन किया था। लेकिन फिर भी इस बात को ले कर सोचा जा सकता है कि अध्ययन का थोड़ा अभाव लक्षित किया जा सके।
लेकिन यह शायद असली कारण नहीं है। असली कारण है इतिहास दृष्टि का फर्क। इसी फर्क के आधार पर रांगेय राघव और वामपंथ के धुरंधर विद्वानों के बीच एक बड़ा अंतर पैदा हो जाता है।
भारत के पश्चिम ज्ञान से जुड़े बौद्धिकों में राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय परंपरा के प्रति सदैव एक संशय का भाव रहा है। वे परिवर्तनकामी चेतना को नवजागरण, फ्रांस की क्रांति और औद्योगिक क्रांति से जोड़ कर देखने के आग्रही रहे हैं। वे चौदहवीं शताब्दी से पीछे जाने से यथासंभव दूरी बनाते हैं।
वामपंथी इतिहास दर्शन में इतिहास की जो समझ अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुई उसमें आपको बनते हुए भविष्य को समझते हुए इतिहास के मार्च को समझना होता है और उसमें सहयोग करना होता है। यह काम वामपंथी आंदोलन कर रहा होता है और वामपंथ के साथ जुड़े साहित्यिक का कार्य उसके साथ चलने का ही होना चाहिए उससे भिड़ने का नहीं। इतिहास के विद्यार्थी 1961 में दिए गए ई. एच. कार के लेक्चर्स के माध्यम से (‘व्हाट इज हिस्ट्री’ के नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित) जानते हैं। यहां 1981 में रामविलास शर्मा के कथन को इस संदर्भ में दोहराना अधिक उपयुक्त होगा। रामविलास जी लिखते हैं - "इतिहास एक प्रवाह है जिसमें अनागत भविष्य प्रतिक्षण अतीत में बदलता जाता है। वर्तमान उस परिवर्तन की रेखा का नाम है जो भविष्य के विराट सागरों के बीच क्षीण रूप में, क्षण भर को, दिखाई देता है।"
यह वह बिंदु है जहां से एक रचनाकार के लिए रचनात्मक स्वाधीनता के अर्थ को अपने लिए तय करने का प्रश्न उठता है।
रांगेय राघव इस बिंदु पर आ कर अपने को भिन्न धरातल पर पाते हैं। इस अंतर को समझने के लिए उन्होंने कई आलेख लिखे हैं। उस पर ध्यान देना जरूरी है।
एक आलेख में वे कलाकार की ‘न्याय भावना’ पर विशेष बल देते हैं। उनके हिसाब से कलाकारों ने ही मनुष्य को आगे बढ़ने की राह दिखाई है। वे लिखते हैं – “मार्क्स और लेनिन ने जिन आर्थिक और सामाजिक पक्षों को लिया था, गोर्की ने ही उसको पुष्ट करके समाज में स्थापित किया, क्योंकि वह किताब के माध्यम से नहीं, जीवित मनुष्यों को चित्रित करके उनके सुख-दुख के संपर्क के भीतर से उस ‘व्यापक न्याय’ की ओर इंगित कर सका जो मार्क्स और लेनिन की रचनाओं से अधिक व्यापक, स्थायी, उपदेशात्मक और सार्वभौम था।”[16]
रांगेय राघव के जन्म शताब्दी वर्ष के समापन के बाद जब हम उस महान कलाकार का स्मरण करते हैं तो लगता है कि इस महान लेखक की पुस्तकों और उनमें निहित विचारों पर फिर से विचार करना चाहिए। इससे उनके साहित्य के मूल्यांकन और उनके अवदान पर चर्चा तो होगी ही इस बात पर भी रौशनी पड़ेगी कि आज प्रगतिशील धारा का बौद्धिक संकट इतना सघन क्यों है? आज से सत्तर साल पहले और आजादी के सात साल बाद रांगेय राघव ने जो ‘समीक्षा और आदर्श’ में लिखा है उसमें क्या सिर्फ कटुता है या फिर हमारे स्वाधीन भारत के बौद्धिक इतिहास को समझने का कोई सूत्र भी इसमें है? वे लिखते हैं – “हो सकता है मुझे कुछ कुत्सित समाजशास्त्री तर्कहीन हो कर कम्युनिस्ट विरोधी कहें। किन्तु मुझे उसकी चिंता नहीं है। मैं उनका विरोधी नहीं हूँ किन्तु जो बात मुझे खटकी है, उनको मैंने उठाया है।" इसी में वे यह भी लिखते हैं – “मैंने राजनीतिज्ञों का विरोध नहीं किया। वरन राजनीतिज्ञों के उस व्यक्तिवाद का विरोध किया है जो निरंकुशता से जनवाद की आड़ ले कर लेखकों पर शासन करना चाहता है।" आज इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि उस समय रांगेय राघव अपने प्रगतिशील मित्रों से इतने क्षुब्ध थे कि उन्होंने अपनी लेखकीय स्वतंत्रता को इन शब्दों में महत्त्व दिया :
किसी भी परिस्थिति में मैं यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि कोई राजनीतिक इतना योग्य होता है कि लेखक की रचना का परीक्षक बन सके। हो सकता है कि कम्युनिस्ट, इस सर्वाधिकार को न पाने के कारण, जो कि उन्होंने सिद्धांत जाल खड़ा करके हस्तगत कर लिया है, मुझ पर खिजला उठें और अपने रटे हुए शब्दों में मुझे प्रतिक्रियावादियों का प्रचारक कहें किन्तु गलियों से सत्य नहीं ढंका जा सकता। अगर कम्युनिस्ट नेताओं में इतनी काबिलियत है कि तलवारों के डर से लेखक उनकी ओर मुंह बाये बैठे रहें, उनकी आज्ञा को सुनें कि स्तालिन हमसे यह चाहता है या माओ हमसे यह चाहता है, तो मैं समझता हूँ कि उस परिस्थिति में कलम तोड़ कर फेंक देना इज्जत की चीज है, बनिस्पत इसके कि जान के खतरे से हाँ में हाँ मिलाई जाए।[17] अपने समकालीन अपने प्रिय साथी लेखकों के प्रति भी राघव बहुत आलोचनात्मक हो जाते हैं जब वे देखते हैं कि वे पार्टी के पीछे अपने साहित्य को सीधे खड़ा कर देते हैं। वे आंदोलन प्रचारक के लिए पत्रकारिता को उपयुक्त मंच मानते हैं लेकिन कलाकार के लिए, जो उसकी आत्मानुभूति से जन्म लेते हैं इसे सही नहीं मानते। इसे वे पतित मनोवृत्ति का परिचायक मानते हैं।[18] अन्यत्र वे लिखते हैं –“साहित्य का उद्देश्य मार्क्सवाद की व्याख्या करना नहीं है। साहित्य का उद्देश्य जीवन का चित्रण करना है... साहित्य का नायक मनुष्य है (जो) समाज से परे नहीं।”
यह ध्यान देने लायक बात है कि एक घोषित प्रगतिवादी भारतीय लेखक ने उस समय यह लिखा – “... संसार की प्राचीन और महान जातियों – भारत और चीन के निवासियों बीके विषय में उसे (मार्क्स) घोर अज्ञान था। उसकी दौड़ओ प्राचीनता में ग्रीक और रोमन साहित्य तक थी, जहां मानव का विकास उतना गहरा नहीं था, जितना भारतीय प्राचीन साहित्य में प्राप्त होता है। उसके पीछे सांस्कृतिक परंपरा उतनी नहीं थी जितनी भारतीयों के।और चीनियों के पीछे है। वैष्णव मानववाद जैसी व्यापक दृष्टि उसे संप्रदायपरक यहूदी, ईसाई और इस्लाम चिंतन दे भी कैसे सकते थे। जो दार्शनिक स्वतंत्रता, अपने समस्त बंधनों के बावजूद भारत में थी वह कहीं नहीं थी। उसकी समानता केवल चीन में मिलती है।... मार्क्सवाद ने जो दर्शन प्रस्तुत किया है अधिकाधिक लोग आकर्षित होते जा रहे हैं, किन्तु अभी वह भारतीय मस्तिष्क को बुद्धिजीवी वर्ग में भी संतुष्ट नहीं कर सका है।... भारतीय मस्तिष्क सदा से ही अपनी अंध-परंपराओं के बावजूद दर्शन क्षेत्र में जितनी स्वतंत्रता देता है, उतनी कहीं भी नहीं।”
रांगेय राघव की पुस्तको को आज पढ़ते हुए महसूस होता है कि उनके भीतर लेखक की विचार-सत्ता, दायित्व और जनता में आस्था के प्रति जो विचार थे वे उन्हें अपने समय के साथ संवादी बनाते है। वे अपने समय के सबसे समर्थ व्यक्तियों और विचारों के साथ पूरे आत्मविश्वास से मुठभेड़ करते थे और इन मुठभेड़ों का स्मरण करके आज भी हिन्दी बौद्धिक जगत समृद्ध और अधिक सचेत हो सकता है। उनसे गंभीर असहमतियाँ हो सकती हैं लेकिन उनको प्रगतिशीलता विरोधी कह कर उनकी चर्चा न करना हिन्दी जगत के लिए दुर्भाग्यपूर्ण ही होगा।[19] 39 वर्ष की अल्पायु में दिवंगत हुए इस लेखक में कुछ वैचारिक अंतर्विरोध को खोज लेना कठिन नहीं है लेकिन उनकी चेष्टाओं के ऐतिहासिक महत्ता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। उनकी ऐतिहासिक दृष्टि की गहराई से परिचित होने के लिए महायात्रा के चार खंडों पर एक नजर डालना ही यथेष्ठ है। हो सकता है पाठकों को लगे कि नोआ हरारे की पुस्तकों को पढ़ते हुए इतना विस्मित होने की जरुरत नहीं।
इतिहास के अध्येताओं के लिए जो साहित्य संपदा से लाभ ले कर अतीत चर्चा के लिए प्रस्तुत हैं रांगेय राघव के लेखन में बहुत सारे उपयोगी सूत्र हैं जो उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस आलेख के शीर्षक को उनकी पुस्तक ‘समीक्षा और आदर्श’ से लिया गया है। इस सूत्र को रांगेय राघव को अपनी एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक गोरखनाथ और उनका युग की भूमिका में भी रखते हैं – “भारतीय इतिहास को यूरोपीय इतिहास की भांति ... सामंत तथा पूंजीवादी युग के रूप में विभाजित नहीं किया जा सकता क्योंकि भारत में वैदिक काल से अब तक सामंतवाद जीवित है। बहुधा इतिहासकारों से यह भूल हो रही है।”[20]
संदर्भ / टिप्पणियाँ
[1] सीमंतिनी राघव (संपादित) रांगेय राघव रचना संचयन , साहित्य अकादेमी , दिल्ली 2019। इसकी भूमिका (पृ 5 से 37 तक) बहुत उपयोगी है।
[2] जवाहर लाल नेहरू में भारतीय परंपरा के प्रति एक लगाव था जो उनको मानवेन्द्रनाथ राय जैसे विचारकों से अलग करता था। उनके लेखन में खासकर ‘भारत की खोज’ में यह स्पष्ट है। लेकिन देश निर्माण के लिए प्रतिबद्ध प्रशासक के रूप में वे पश्चिमी आधुनिकता के साथ ही तत्वतः खड़े थे। मानवेन्द्रनाथ राय ने जीवन के अंतिम वर्षों में मानवतावादी दर्शन की पुनरव्याख्या की थी यह सही है लेकिन वे भी तत्वतः पश्चिमी आधुनिक दर्शन के साथ पूरी तरह से हैं।
[3] किसी रचना की ऐतिहासिकता के संदर्भ में मतभेद जाहिर किए जाने पर राघव जी ने अपने जैसे ही महान लेखक राहुल सांकृत्यायन के सामने अपने कई सौ पृष्ठों को नष्ट कर दिया था। चकित राहुल ने उन्हें सचमुच का निर्मोही कहा था।
[4] दूसरे शब्दों में कहें तो इनको सांस्थानिक समर्थन नहीं मिला, बावजूद इसके कि इनको पाठकीय समर्थन था। यह एक गंभीर चर्चा का विषय है कि सरकार, जिसके पास सांस्थानिक सहयोग की असली कुंजी थी , और कम्युनिस्ट पार्टी के सहयोग के बिना किसी बड़े लेखक को आलोचकों का सहयोग नहीं मिला। यहां तक कि फिल्म जगत में भी उनको अपेक्षित सहयोग नहीं मिल सका। फिल्म जगत पर भी सरकार और पार्टी की छाया कैसे रही है यह आज भी कोई विश्लेषित करना नहीं चाहता। इतिहास के क्षेत्र में राज्य शक्ति का कितना गहरा दबाव था इसके लिए इतिहासकारों के जीवन का अध्ययन ही यथेष्ठ होगा। यदुनाथ सरकार और रोमेश चंद्र मजूमदार जैसे दिग्गज हाशिए पर चले गए और दूसरे लोग केंद्र में कैसे आ गए, इसकी चर्चा यहां संभव नहीं। यहां इतना ही कहना यथेष्ठ होगा कि डी डी कौशांबी भी तभी तक ज्यादा प्रभावी रहे जब तक उनको सरकारी समर्थन तंत्र से जुड़े होमी भाभा जैसे लोगों ने अपने मनोनुकूल पाया। बाद में उनको भी भुला दिया गया।
[5] आलोचक अजय तिवारी कहते हैं कि निराला की तरह रांगेय राघव की चर्चा होने पर उनके जीवन संघर्ष की चर्चा करते हुए रामविलास जी भावुक हो जाते थे।
[6] देखें कृष्णदत्त शर्मा और विजय शर्मा, रामविलास शर्मा रचनावली खंड भाग 1 खंड 17, राजकमल, दिल्ली 2021, पृ 288 एवं अन्यत्र।
[7] रांगेय राघव ने लिखा है – “आधुनिक कम्युनिस्ट जो अधिकांश टटपूँजिया मध्यवर्ग से निकलकर अध्यापक बनकर अपने को स्वातंत्र्यचेता कहाते हैं , पार्टी में तनख्वाह लेकर पार्टी का काम करते हैं क्या उनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वे अपनी कोटियों और अहमन्यता में आबद्ध होने के कारण पार्टी के नाम पर यांत्रिक मार्क्सवाद का प्रचार करते हैं।” ऐसे लोगों से परेशान होकर ही शायद उन्होंने ‘समीक्षा और आदर्श’ पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने भूमिका में लिखा “ कम्युनिस्ट विचारक पुरानी सारी राजनीति की व्याख्या अन्य प्रकार से करते हैं और अपने बारे में प्रश्न उठने पर विषय को स्पष्ट नहीं करते जनता की आड़ लेने लगते हैं।“ (समीक्षा और आदर्श , विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा , दिसंबर 1955)
[8] वही
[9] तमाम विरोध के बावजूद राघव मार्क्सवाद की प्रगतिशील धारा के ही लेखक रहे। कुछ अन्य लेखकों की तरह वे यांत्रिक मार्क्सवादी दृष्टि का विरोध करते करते मार्क्सवाद के विरोधी नहीं हो गए।
[10] कॉलिंगवुड के इस संबंध में विचारों के लिए देखें R G Collingwood, An Autobiography, Oxford Paperbacks 1970 (प्रथम प्रकाशन वर्ष 1939 में कलारेंडन प्रेस से)
[11] कुछ विस्तार के लिए देखें सीमंतिनी राघव, पूर्वोक्त।
[12] देखें मधुरेश, ऐतिहासिक उपन्यास : इतिहास और इतिहास दृष्टि, आधार प्रकाशन, पंचकुला, 2019, पृ 437-448. इस पुस्तक में अन्यत्र भी रांगेय राघव पर जो वक्तव्य आए हैं उसे देखना उपयोगी हो सकता है। आलोचकों में मधुरेश ने ही सबसे सकारात्मक दृष्टि से रांगेय राघव के ऐतिहासिक उपन्यासों पर और उनके जीवनीपरक उपन्यासों पर लिखा है।
[13] किसी पाठक को इस तरह की विचार दृष्टि में 1942 के आंदोलन की छाया भी दिखलाई दे सकती है।
[14] मधुरेश , पूर्वोक्त।
[15] देखें रामविलास शर्मा , ‘रांगेय राघव : प्रगतिशील साहित्य में छायावादी प्रवृत्तियों का अध्ययन’, जो मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य में शामिल है।
[16] समीक्षा और आदर्श, पृ 9
[17] उपरोक्त, पृ 30। इस पुस्तक में बहुत विस्तार से राघव ने कलाकार के विचार मिश्रित भाव और स्थाई साहित्य के मूल्य को महत्त्व दिया है। वे इस बात पर दृढ़ हैं कि साहित्य के क्षेत्र में व्यक्ति स्वातंत्र्य और जनहित दो अलग अलग प्रतिमान नहीं हैं, न हो सकते हैं। साहित्य के स्थायी मूल्य के प्रसंग में वे गोर्की के विचारों को महत्त्व देते हैं।
[18] रांगेय राघव ने बहुत तल्ख होकर लिखा है –“जिस प्रकार हिन्दी में टटपूँजिया निम्नमध्यवर्गीय हीनता के संस्कार लेकर, जनता का नाम पर अपनी छिछली रचनाएं नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल आदि ने प्रस्तुत की है और जिस कुत्सा का निरंजन और अगिया बैताल के छद्म नामों से रामविलास शर्मा ने कविता में प्रचार किया है, वह इस पतित मनोवृत्ति का परिचायक है जो युग परकता का अर्थ राजनीतिज्ञों की गुलामी से लगाती है।”
[19]
रांगेय राघव जी जन्म शताब्दी पर राजस्थान
प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से कई व्याख्यान
आयोजित किए हैं जो ऑन लाइन उपलब्ध हैं। प्रेमचंद गांधी और उनके साथियों ने इस दिशा में जो प्रयास शुरू किया है उसको आगे बढ़ाने की जरुरत है।
[20] रांगेय राघव , गोरखनाथ और उनका युग आत्माराम एंड संस, दिल्ली , 1963 (?), भूमिका।
सम्पर्क
मोबाईल - 09230511567
रांगेय राघव जन्मशती के बहाने रांगेय राघव के महत्वपूर्ण ऐतिहासिक अवदान को समझने में सहायक महत्वपूर्ण आलेख।
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