प्रज्ञा की कहानी 'काठ के पुतले'


प्रज्ञा



यह बाहर जो दिन रात की चकाचौंध हमें दिखाई पड़ती है, उसमें तमाम लोगों की भयावह त्रासदियां घुली मिली होती हैं। छोटे बड़े शहरों के मॉल्स इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं जहां तमाम युवा छोटी सी पगार पर घंटों काम किया करते हैं। वहां उन्हें सांस लेने का भी चैन नहीं। उनके लिए कोई सुविधाएं नहीं। वाकई रोजमर्रा की आपाधापी इस कदर बढ़ती जा रही है कि लोगों के पास खुद के लिए ही समय नहीं। प्रज्ञा की कहानी 'काठ के पुतले' सिलसिलेवार ढंग से इस उत्पीड़न को बयां करती है। इसके समानांतर इस कहानी में वह प्रेम भी है जो जिन्दा रखने के लिए जरूरी कारक के रूप में दिखाई पड़ता है। प्रज्ञा हमारे समय की महत्त्वपूर्ण कहानीकार हैं। उनके पास अछूते विषयों पर कहानी लिखने का कमाल का हुनर है। इस कहानी को पढ़ते हुए आप खुद उनके इस हुनर से वाकिफ होंगे। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रज्ञा की कहानी 'काठ के पुतले'।  

                           

 

काठ के पुतले

                                   

प्रज्ञा
                              


 

ललिता के लिए रोज़ का देखा-भाला रास्ता अब पहले जैसा कहां रह गया था। घर के छोटे से गेट के बाहर की लंबी गली से गुजर कर चैक की आठ-दस दुकानों के मोहल्ले के बाजार के पार मेन रोड पर ललिता पहले हमेशा तीर की तरह पहुंच जाती थी। उस पर हावी रहती हड़बड़ी  आजकल जाने किस खोह में कैद थी। पूरी चाल में एक अलमस्त शोखी उतर आई थी। कदमों को तनिक जल्दी नहीं थी कहीं पहुंचने की। चाल थीमी पर कान चौकन्ने। हवा में फैली ध्वनियों को पूरा पी जाने को आतुर। आंखों में न जाने कितने रंगों का संसार झूम रहा था। उनके साथ झूमती ललिता आजकल गली को चोर नज़रों से देखती चलती। उसकी सभी इंद्रियां समवेत रूप में ललिता की इच्छा की गुलाम हो कर फौरन से पेशतर उसके हुक्म बजा लातीं। ललिता के हर हुक्म का सिरा सनी से जा मिले यही चाह लिए उसके कदम घर से बाहर उठते। गली भी ललिता को देख कर कभी मुस्कुराती, कभी नया इशारे देती तो कभी कठोर आंखों से ताने-तिशनों के तीर भी छोड़ देती। कुछ महीनों से सनी की ओर से चल रहे इकतरफा खेल में अब ललिता पूरी तरह शामिल थी। सिर्फ एक आखिरी दीवार को दोनों ओर से धक्का लगना बाकी थी जिससे मनचली आंखों के रास्ते होंठों पर लुकाछिपी करती हंसी का यह खेल अब मेल-मुलाकातों के सब्ज़बाग की सैर पर निकल पड़े।


ललिता को गली में देखते ही सनी के यार-दोस्त उसे छेड़ते-
 

 

‘‘सनी भाई! आजकल तो ये सड़ी गर्मी भी तुझे चांदनी रात लगती होगी।’’


 

उधर ललिता की सहेलियों में भी सनी को देखते ही कोहनी मार कर कानाफूसी और दबी-दबी हंसी का निराला खेल शुरू हो जाता जिससे सनी के हौसले और बुलंद होते। आज मेन रोड पर आटो का इंतज़ार करते सनी की बांछें ललिता को अकेला देख कर खिल गईं। ललिता ने चौंक कर इधर-उधर देखा और हर तरफ से निश्चिंत हो कर उसकी हंसी ने सनी को खुला निमंत्रण दिया। बहुत दिनों से दिल में भरी अनेक बातों का बंद दरवाजा हौले से खुला और खुलता चला गया। आखिरी हिचक की दीवार आसानी से ढह गई और मेल-मुलाकातों, फोन पर लंबी बातों का सिलसिला निकल पड़ा। सनी के हर दिन का पूरा टाईम टेबल पहले ही ललिता के पास पहुंच जाता और उसी हिसाब से बातों-मुलाकातों के शिखर दोनों साथ चढ़ते। चढ़ाई के रास्ते में कभी-कभी मनुहार, लड़ाई और अबोला भी शामिल होने लगा जो इस रिश्ते में भरोसे और अधिकार की पुख्ता मोहर सरीखा था। दिन-दिन उठती प्रेम की उमंगों ने दोनों को बेवजह हंसना-रोना सिखा दिया था। दिनों ने सप्ताह का रुख किया और सप्ताहों ने मिल कर महीनों पर छलांग लगा दी।
 

 

‘‘ले भई ललिता! अब तो हर मुश्किल आसान है। फैक्ट्री के एक साल के प्रोेबेशन के बाद परमानेंट स्टाफ हो गया हूं। मिसेज सनी बनने में अब क्या देर-दार?’’ सनी ने ललिता का हाथ पकड़ कर उसकी आखों में देखते हुए कहा। ललिता पहले सकुचाई। शर्माते हुए उसने जानबूझ कर अपने बालों को समेटते हुए कनखियों से सनी को देखा। 


‘‘तो फिर...?’’ सनी ने कुछ क्षण इंतज़ार के बाद फिर पूछा।
 

‘‘फिर क्या...?’’ जानबूझ कर ललिता ने सवाल खड़ा किया।
 

‘‘शादी कर लेें?’’ सनी ने बेहिचक कहा।
 

‘‘शादी...पर... पहले मैं भी तो कहीं कोई काम-धाम ढूंढ लूं। आखिर ग्रेजुएट हूं। पार्ट टाईम सेल्स का काम पहले किया भी है। तुम अपनी पैकेजिंग फैक्ट्री की नौकरी से जितना कमाते हो उसमें मेरी सैलरी भी जुड़ जाएगी तो जीवन और सुख से कटेगा।’’
 

 

पहली बार ललिता ने सनी से अपने बारे में बात की। सनी को उसकी बात दमदार लगी। इतना जरूर था कि शादी से जुड़े सनी के सपनों को अभी जमीन न मिलने से मन की तेज उमंग के रंग चटख होते-होते रह गए। इधर ललिता को भी काम ढूंढ कर शादी की जल्दी थी। आत्मविश्वास की पक्की जमीन ही उसके उमंग भरे सपनों का आकाश होने वाली थी। ऐसा आकाश जिसका नीला रंग तरलता से पिघल कर कुछ आसमानी हो जाए तो कभी किसी प्रगाढ़ रेशे में घुल कर एक फिरोज़ी आभा बिखेर दे। कुछ समय बाद ललिता को भी एक बड़े माॅल के नामी स्टोर में सेल्स गर्ल की नौकरी मिल गई। सुबह तैयार हो कर जब ललिता माॅल पहुंचती उसे दुनिया बेहद खूबसूरत लगती। जिंदगी का फलसफा नए पैरहन में बला का खूबसूरत हो चला था। उस पर खुदमुख्तारी की महक और रंग छिपाए नहीं छिप रहे थे। माॅल के अनेक चमचमाते, रौनकदार स्टोर्स, चारों तरफ गंध का महकता संसार, मन में उतर कर तन को थिरकाता संगीत, आंखों को लुभाती नई-नई चीजें और उनके लिए बेसब्र लोगों का जोश सब उसे बेतरह अपनी ओर खींचते। यहीं क्यों इन सबके साथ पहले से अधिक तनख्वाह भी उसकी खुशियों का सबब थी। सनी और ललिता कुछ और आजाद हो चले। हर मुलाकात में उनके सपनों का रंग पहले से कहीं ज्यादा गहराने लगा। पैर के नीचे की मजबूत जमीन और नौकरी से आया भरोसा उनके भावी घर की पुख्ता दीवारों में जड़ी खिड़की पर पड़ा सुनहरी पर्दा हिला-डुला कर घर के अंदर रह रहे ललिता-सनी की प्यार में डूबी जिंदगी का आईना हो चला था। गली के इन लैला-मजनूं की जोड़ी को देख कर कितने जवान दिल धड़कने लगे थे। जवान लोगों का रास्ता पुरानी पहरेदार दीवारों की कब परवाह करता है। इस बेपरवाही में आखिर वही हुआ जो ललिता-सनी नहीं चाहते थे।
 

 

‘‘नौकरी के बहाने से खूब नाम रौशन कर रही है हमारा। तेरे लक्षण सही नहीं लग रहे। सुधर जा वरना हाथ-पैर तोड़ कर घर में बिठा दूंगा।’’ पापा की खूनी डोरों वाली डरावनी आंखों से ललिता सिहर गई। नए प्रेम और नई नौकरी से हर दिन उमगी रहने वाली ललिता की उमंग आज घायल थी। घर की हवा उसके लिए अब पहले सी नहीं रह गई थी।  
    

 

रोज़ सुबह ललिता के घर से निकलने पर सनी उसे देखने की कोई न कोई तरकीब निकाल ही लिया करता पर कुछ महीनों के इस प्यार में ललिता के परिवार की टेढ़ी निगाह दोनों के रिश्ते पर कहर की तरह टूटी। मेल-मुलाकातों के घटते सिलसिले से सनी भी कम परेशान नहीं था। उसका मन करता ललिता के साथ सारी दिल्ली घूम ले। दिल्ली ही क्यूं उसका मन तो ललिता के साथ आसमान की सैर पर निकल जाने को करता। पूरी आजादी के साथ नीले से आसमानी, आसमानी से गुलाबी थोड़े जामुनी, फिरोज़ी होते हुए अलग-अलग रंगों वाले आसमान की सैर ही अब सपना थी पर हरदम उसे या तो अपने हाथ-पैर मजबूत रस्सियों से बंधे दिखाई देते या फिर ललिता पिंजड़े में बंद दिखती। जमीन की कैद में दोनों आसमान न देख पाते न जी पाते। एक दिन सनी ने सारे दुखड़े अपने दोस्त हितेश को सुनाए। हितेश लाॅ कर चुका था और एक वकील के जमे-जमाए आफिस में उसका अस्सिटेंट था। यही नहीं कुछ समाजसेवी संस्थाओं और संगठनों से भी उसका पुराना नाता था। उसने कहा-

‘‘दिक्कत क्या है यार! अब तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए। वैसे भी दो किलोमीटर के दायरे का प्यार घर वालों की तकरार की भेेंट चढ़ जाता है। दोनों बालिग हो और अब तो कमाते भी हो।’’
 

‘‘मैं भी यही चाहता हूं पर ललिता कहती है जिंदगी की गाड़ी के पेट्रोल लायक कुछ पैसे तो बचा लें।’’


‘‘परिवार वालों को पता लगने की देर है। वो बदल देंगे तुम दोनों की जिंदगी फिर क्या काम आएंगे ये पैसे?’’ हितेश झुंझलाया।
 

 

‘‘मैं भी डरता हूं पर ललिता मानती नहीं।’’ कहते हुए सनी एकदम हताश हो गया। उसे लगने लगा उसका और ललिता का किस्सा कहीं अधूरा न छूट जाए। सर झुकाए निराशा में झूलते सनी को हितेश ने झकझोरकर संभाला। उसे हंसाया और उम्मीद से खाली नहीं होने दिया।
    

 

जीवन के असमंजस और नौकरी की नई जिम्मेदारियों की गिरफ्त में घिरी ललिता का मन हरदम चिंताओं में डूबा रहता। चिंता का एक सिरा सनी था तो दूसरा नौकरी। यूं काम ललिता की अपनी पसंद का था। पहला काम एक छोटी दुकान से शुरू हुआ था पर अब उसे एक बड़े स्टोर में काम मिला था। देश के बड़े उद्योगपति की बड़ी कंपनी का आलीशान तिमंजिला स्टोर उस माॅल का दिल था। तन का सजाने वाले बहु ब्रैंडी कपड़ों-गहनों-सौंदर्य प्रसाधानों से ले कर घर को आलीशान बनाने वाले छोटे से छोटे और बड़े से बहुत बड़े साजो-सामान से ठसाठस भरा स्टोर था। सुई से ले कर, बिजली के उपकरण से ले कर अत्याधुनिक गैजेट्स क्या नहीं बिकता था यहां। सुबह से ही रौनक लग जाया करती जो देर रात तक इठलाती रहती। ललिता का मन चाहे कितना ही उदास क्यों न हो रौनक के भागते-इठलाते रेले और दस से बारह घंटे बेफुर्सत ड्यूटी में उसे चिंताओं का होश ही नहीं रहता था। सुबह ग्राहकों की आवाजाही से पहले पहुंच कर अपना कांउटर संभालना। शो-रूम खुलने से पहले एग्ज़ीक्यूटिव द्वारा बुलाई गई रोज़ की मीटिंग के सख्त नियमों को सुनना और काम शुरू होते ही ग्राहकों की फरमाईशों में ललिता खुद को एकदम भूल बैठती। कितनी किस्म के सौंदर्य प्रसाधन और तन को सजाने वाले आभूषण बाजार में उतरे थे। ललिता जैसी सेल्स गर्ल्स का काम प्रैशियस जूलरी को  बेचना ही नहीं बल्कि उनके स्टोनवर्क आदि के साथ उनके रख-रखाव की पूरी जानकारी देना भी रहता। पिछली दुकान पर उसने यह सब काम अच्छी तरह सीख लिया था। काउंटर के पीछे सुबह से दोपहर का समय और लंच की कुछ समय की छुट्टी के बाद से शाम-रात का समय कैसे उड़न-छू हो जाता उसे समझ ही नहीं आता। सुबह से रात तक कांउटर पर लगातार मुस्तैदी से खड़े हो कर वह अपना काम पूरी शिद्दत से करती। मन कितना भी परेशान हो पर ग्राहक का स्वागत उसे पूरी हंसी और ऊर्जा से करना होता। महिला ग्राहक के नखरों से ले कर उसकी बातों का जवाब, उसकी उपेक्षा और गुस्से का जवाब भी लगातार हंसते हुए देने से कितनी बार उसका चेहरा बेतरह थक जाता। अपने काम और उससे होने वाली आय की कल्पना एक ओर उसे रोमांचित करती तो दूसरी ओर पापा का पूरी तनख्वाह पर कब्ज़ा उसे सालता भी। यही सोच कर ललिता मन को दिलासा देती कि शादी के बाद काम भी अपना और तनख्वाह भी पूरी अपनी।
 

 

‘‘ललिता! आज प्रमिला नहीं आई है तुम्हारा काउंटर उसके साथ ही है दोनों को मैनेज तुम्हें ही करना है।’’ या फिर ‘‘ललिता! यहां से फ्री होते ही स्टोर के नए आए प्रोडैक्ट्स की लिस्ट तैयार कर के देना।’’- जैसे आदेश पहले दिन से ही उसकी झोली में आ गिरे थे। बारह घंटे की ड्यूटी में जैसे ही सनी की याद उसके मन से टकराती कोई न कोई ग्राहक या आदेश याद के सिलसिले को तोड़ देता। दो पैरों से स्टोर के तीन लोक ललिता और उस जैसे कितने ही लड़के-लड़कियों को दिन में कई बार नापने पड़ते। ललिता अक्सर सोचती दिन न सही रात तो उसकी अपनी है। रात यानी एकांत। रात यानी पहरों से मुक्ति। रात यानी सनी से बतियाने की छूट। यही सोच कर ललिता दिन भर काम की भट्टी में अपने खून-पसीने का ईंधन झोंकती चलती। रात को जब घर भर सो जाता ललिता धीरे से कमरा बंद कर के खुसफुसाती-सी सनी से बात करती।


 


 

 

‘‘आज बहुत काम किया सनी। शरीर थकान से चूर-चूर हो रहा है। करवट ले लूं इतनी हिम्मत भी नहीं।’’ पहले सनी से बातों के दौरान ललिता की खिलखिलाती हंसी अब अक्सर थकान का रोना ले कर बैठने लगी।
 

 

‘‘थकान तो हम लोगों की नौकरी का रोज का किस्सा है ये हमारे प्यार की बातों का टाईम है। काम की बातें काम की जगह छोड़ कर आया कर। मैं रोज रात तेरे काॅल के इंतजार में उल्लुओं सा जागता रहता हूं और तू इस इंतजार की ऐसी-तैसी कर देती है।’’ सनी बहुत काबू करने के बाद भी झुंझलाता।
 

 

‘‘क्या बताऊं सनी! सारा दिन खड़े-खड़े बहुत थक जाती हूं।’’ ललिता भोलेपन से ईमानदार जवाब देती जो सनी के प्यारे से उमग रहे मन को धक्का देता फिर भी सनी उमंगों को राह देता रहता-

 


‘‘अभी तेरे लिए सब नया-नया है न। धीरे-धीरे तुझे भी आदत हो जाएगी तो सब कुछ मैनेज होने लगेगा। थकान-वकान के बारे में ज्यादा न सोचा कर। मेरे बारे में सोचा कर तो थकान उड़न-छू हो जाएगी।’’



कुछ देर उमंग भरी बातचीत के बाद सनी के सवालों के जवाब में ललिता की की ‘हां-हूं’ गहरी खामोशी की चादर तान लेती। उसकी आंखें मुंदनी शुरू हो जातीं। दिन भर की थकान उसके और सनी के बीच दीवार बन कर खड़ी हो जाती। फोन पर ललिता की उंगलियों की गिरफ्त ढीली पड़ते ही फोन हाथ की पकड़ से छूट कर तकिए पर या तकिए से फिसल कर नीचे गिर जाता। ललिता बेसुध सो जाती या थकान उसे अपनी गिरफ्त में ले लेती।


 

‘‘ललिता... ललिता सो गई क्या?’’ सनी पुकारता पर उसकी बातें किसी अंधे कुंए में अनसुनी हो कर चित्त हो जातीं। कुछ देर इंतजार के बाद ललिता की सांस के साथ तेज होते खर्राटों की आवाज पा कर निराश सनी फोन पटक कर सो जाता। अगली सुबह अक्सर ललिता के साॅरी, गुडमार्निंग मैसेज से ही होती। पूरे हफ्ते में एक बार मिलने के लिए सौ जतन दोनों अपनी ओर से करते। ललिता के पापा और भाई के पहरे से बच निकलना कोई हंसी-खेल नहीं था। तेजी से बनता-बिगड़ता कार्यक्रम आखिरकार जब बन जाता तो दोनों पहले के दिनों के प्यार को जीने की पूरी कोशिश करते। रंगों से मचलता आसमान जमीन पर उतरने को बेताब रहता। उनका मन करता काश ये समय यहीं ठहर जाए।
 

 

‘‘अब रहा नहीं जाता ललिता! आ जा सब छोड़-छाड़ कर।’’ ललिता के हाथों को कस कर पकड़े हुए सनी अपना मन खोल कर रख देता।
 

 

‘‘पहले अपने घर वालों को तो मनाओ। कम से कम एक का परिवार तो सहारा बने।’’ ललिता मुस्कुराती हुई सनी की दुखती रग पर हाथ रख देती।
 

 

‘‘हां अपने ससुर से तो मुझे कोई उम्मीद नहीं। सास तो फिर भी देख कर अनदेखा कर देती है पर ससुर का बस चले तो मुझे जिंदा निगल जाए।’’ बड़ी-बड़ी आंखें निकालता हुआ सनी, ललिता के पापा की सूरत और भाव को अपने चेहरे पर पूरा उतार लाने की कोशिश में लग जाता। दोनों खूब ठहाका लगाते और सप्ताह की बंदिश को पीछे छोड़ देते। पर हर सप्ताह एक-सा कहां होता उनके लिए। नाकाम सप्ताह की उदासी बेहद लंबी चलती। सप्ताह में एक दिन की छुट्टी में सनी घर के काम निबटाता और ललिता घर के कामों के साथ अपने शरीर की थकान उतारती। उस दिन मम्मी उसकी खूब सेवा करतीं। नया सप्ताह फिर बहुत-से काम लिए होता। पापा के कड़े पहरे के नीचे सावधान ललिता ने हर कोशिश की थी सनी और उसके रिश्ते की उन्हें भनक न लगे पर होने वाली बात हो कर रही। पापा की कड़कती आवाज़ ने ललिता के कानों में पिघलता सीसा घोल दिया। आग उगलती पापा की आंखों से भी वह आज भी डरी पर अपने चेहरे पर अनजानेपन के भाव ला कर उसने सवालिया निगाह से पापा को देखा।


 

‘‘तू बाज नहीं आई अपनी हरकतों से। सब पता है क्या गुल खिला रही है उस नीच-कमीन के साथ। मुझे बेवकूफ समझा है तूने?’’ पापा ने बिना किसी भूमिका के दो-टूक बात करके अपनी नापसंदगी और कड़ा एतराज ललिता पर जाहिर कर दिया।
 

 

‘‘पापा! वो नीच-कमीन है तो हम भी कौन-से..’’ आज जाने कैसे ललिता में सवाल पूछने की हिम्मत आ गई।



‘‘जबान लड़ाती है, उनकी बराबरी हमसे कर रही है तू? हमारी पांव की धोवन भी नहीं... हमारी गिनती अगड़ों में है। समझी? बड़ी आई हम भी वाली... उनका बेटा कमाने लगा, दो पैसे घर में आ गए तो औकात भूल गए। तौर-तरीका भूल गए?’’ सनी के परिवार को तमाम भद्दी गालियां देते ललिता के पापा की आवाज़ बाहर तक बेरोकटोक जा रही थी। ललिता जानती थी कि ये मसला जरूर सर उठाएगा लेकिन जिस मान की बात उसके पापा कर रहे थे वहां जातिगत अभिमान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। पापा की चीख-चिल्लाहट घर के बाहर निकल गई। शुक्रवार का दिन था। सारी गली आने वाली छुट्टी के आनंद में कल्पना की उड़ान भर रही थी कि अचानक शोर उठा। सनी के घर के बाहर उठे शोर से गली नए तमाशे की ओर बढ़ चली।

 


‘‘लड़का संभाला नहीं जाता तुमसे? जब देखो हमारी लड़की को फोन करके परेशान करता है? संभाल लो उसे वरना ठीक नहीं होगा। कहे देता हूं।’’ ललिता का फोन चैक करने के बाद यह बवाल घर से शुरू हुआ तो सनी के दरवाजे चढ़ कर ही माना।
 

 

‘‘क्यूं तुम्हारी लड़की क्या दो दिनी बच्ची है? इतनी चिंता है तो उसे बांध कर रखो घर में।’’ सनी के पापा और भाई भी चुप नहीं रहे। आग में ऐसा घी पड़ा कि दोनों के प्यार का आसमान धुएं की कालिमा से भर गया। गली भर में तीन गुट बन गए। एक गुट ललिता के पापा का हितू तो दूसरा सनी के परिवार का। तीसरा गुट हमेशा से चुस्त, मुंहदेखी करने वाला। अब ललिता के जीवन पर बंदिशें और बढ़ गई थीं। सुबह माॅल तक पापा छोड़ते और शाम को छोटा भाई उसे लेने आता। पापा के आदेश पर मम्मी अब ललिता के कमरे में ही सोने लगीं तो फोन का सहारा भी छिन गया। बड़ी मुश्किल से कभी-कभार ही कोई मौका ललिता के हाथ आता। सनी की खाट भी उसके भाईयों और पिता ने खड़ी कर दी थी। उनके लिए ललिता के परिवार वालों से रिश्ता करना नामुमकिन था और फिर ललिता के पापा ने गली भर में उनके घर की ऐसी थू-थू की थी कि अब चाह कर भी इस थूक को चाटना आसान नहीं था।
     

 

दुख के सैलाब में गोते खाती ललिता नौकरी के कुछ ही महीनों बाद अपने और सनी के उजले भविष्य के आईने को धुंधला पाती। उसे लगता जैसे आईने के बीच एक लहर-सी गुजरने लगी है जहां कई बार सनी की आकृति बड़ी होती-होती एकदम तिरछी होकर ललिता के अक्स को मिटा देती है तो कभी उसकी खुद की आकृति के पीछे सनी गुम हो जाता है। मन उमंग से खाली हो तो काम में कैसे लगे? नौकरी आजकल उसे एक गति, एक ध्वनि और एक लय में भागती बोरियत से भरी मशीन की तरह लग रही थी। नौकरी जिसमें या तो थकान से बोरियत पैदा हो गई थी या रूटीनी बोरियत से पहाड़ सी भारी थकान। ये अबूझ मसला उसकी समझ से परे था। लंच टाईम में कांउटर के अन्य लड़के-लड़कियों से पहले जी खोल कर बतियाती ललिता अब मुर्झाने लगी थी। जैसे-तैसे खाना निगल के थोड़ी देर को शो-रूम से बाहर आकर कभी छत या कभी बेसमेंट में चली जाती। छत पर आसमान को देखती तो आसमान आजकल उसे अपनी पहुंच से दूर लगता। आसमान बहुत ऊंचा था और सारे रंग गायब। सनी से बात फोन पर बतिया लेने के बाद इस भागती-दौड़ती दुनिया के बीच वह ठहरी-ठिठकी दिखाई देती। अक्सर छत से नीचे आते हुए वह बूढ़े लिफ्टमैन को देखती। उसे महसूस होता लिफ्टमैन और उसके चेहरे में ऐसा कुछ तो है जो बहुत कुछ मिलता-जुलता है। ललिता बहुत गौर से देखती पर पहचान नहीं पाती। एक दिन लंच की फुर्सत में ऐसे ही उसने लिफ्टमैन से पूछा-
 

 

‘‘अंकल! आप थक नहीं जाते हो इस नौकरी में?’’ ललिता जानना चाहती थी कि थकान का रिश्ता तन से जुड़ा है या मन से? थकान उसके जिस्म की हर नस में पैठती जा रही थी। रात-दिन थकान ही जैसे उसकी चिंता का सबब बन गई थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि इतनी थकान इतनी कम उम्र में उसमें कहां से भर गई? 



 

 

आठ से दस लोगों के लिए लगी इस लिफ्ट में पहली से तीसरी मंजिल के साथ-साथ तीन लेवल की पार्किंग भी थी। शहर के लोगों सहित साथ सटे शहरों के ग्राहक भी घूमते-घामते यहां चले आते थे। पार्किंग में गाड़ियों की कतारों का सिलसिला चलता रहता। अनेक ब्रांड्स के स्टोर्स वाले इस माॅल में बड़ा सपाट नाता था ग्राहकों का और लिफ्ट में ग्राहक को उसकी मनचाही जगह पहुंचाते लिफ्टमैन का। अनेक नौकरियों के अनुभवों से सफेद बालों के उम्रदराज वृद्ध लिफ्टमैन ने ललिता को घूरा पर वह उसकी उम्र का मजाक उड़ाते हुए जरा नहीं हंसा। उसने कहा थकूंगा तो परिवार कैसे पालूंगा?’’


‘‘फिर भी...’’ ललिता आज उसका सच जान लेने को आमादा थी।
 

 

वह खामोश रहा। ललिता को कोई जल्दी नहीं थी। ग्राहक चढ़-उतर रहे थे। लिफ्ट खाली होने पर उसने फिर बात छेड़ी- ‘‘ये स्टूल आपको बैठने के लिए मिला है?’’ स्टील के छोटे से असुविधाजनक स्टूल की ओर आंख के इशारे से ललिता ने पूछा। फिर धीमी आवाज में बोली- ‘‘हमें तो यह भी नहीं मिलता। बैठने की परमीशन ही नहीं।’’ दुख जब साझा होते हैं तो तहा-छिपा कर रखा फोड़ा देर-सबेर फूट ही जाता है। लिफ्टमैन ने उड़ती-सी एक नजर स्टूल पर डाली और ठंडी आह के साथ कहा-
 

 

‘‘स्टूल तो है पर किस काम का? यहां तो हर आदमी के लिफ्ट में घुसने पर उसका स्वागत करना है- गुड मार्निंग सर, गुड ऑफ्टर नून मैडम, गुड ईविनिंग सर। खड़े-खड़े हर किसी को सलाम ठोकता हूं पर कभी सामने वाले के कान नहीं होते तो कभी इस चकाचौंध में मैं दिखता ही नहीं।’’ एक ठंडी आह के बाद हंसते हुए वे फिर बोले- ‘‘मुझसे अच्छा तो ये स्टूल है जो एक ही जगह मजे से पड़ा रहता है। दिन भर में ऐसा खुशनसीब समय आता ही कहां है जब मैं इत्मीनान से इस पर बैठ सकूं। डर ही लगता है कहीं कोई शिकायत हो गई तो नौकरी से हाथ धो बैठूंगा।’’
 

 

‘‘बारह घंटे बाद घर जा कर आपको कितना चैन मिलता होगा?’’
 

 

‘‘चैन? कहां बेटा! घर पहुंचते-पहुंचते बेहाल शरीर बिस्तर ढूंढने लगता है। न बीबी-बच्चों की बात सुहाती है न खाना। बीबी रोटी-सब्जी परोस देती है मैं खा कर लेट जाता हूं। कितना समय हो गया खाने में कोई स्वाद नहीं आता... थकान से बोझिल शरीर को मरी नींद भी नहीं आती। सुबह से खड़े -खड़े पैर सूज जाते हैं और सबसे ज्यादा दर्द करते हैं कंधे। कंधों से रीढ़ की हड्डी में उतरता हुआ दर्द जम कर पत्थर हो जाता है। सुबह से रात तक खड़े-खडे कंधों और रीढ़ की हड्डी में अनगिनत सुईयां चुभ कर हमला बोल देती हैं फिर पूरी रात कराहते रहो ये हमला कहां रूकता है? रात भर ऐसा लगता है दमघोंटू लिफ्ट में ही बंद हूं।’’
    

 

लिफ्ट वाले अंकल की बात सुन कर ललिता ने अपनी थकान के अनेक भेद जान लिए थे। उसने वाॅश रूम में मुंह धोते हुए अपनी शक्ल को गौर से देखा। वह ठिठक गई। लिफ्ट वाले अंकल के दुख का एक रेशा उसके चेहरे पर भी चस्पा था। वाॅश रूम से अपने काउंटर तक आते हुए ललिता की नजर उसी फ्लोर वाले फर्नीचर शोरूम पर पड़ी। वहां रंग-बिरंगे गुदगुदे कुशन की शीशे सी चमकती पाॅलिश वाली नई कुर्सियां लाईं जा रही थीं। उन्हें देख कर अचानक उसके पैरों का दर्द और बढ़ गया। अगल-बगल के कांउटर वाले सेल्स के लोगों, बिलिंग स्टाफ, सिक्योरिटी स्टाफ में से ललिता जिनके भी करीब थी उनकी हालत उसकी हालत से जुदा न थी। ममता, जुनैद, रानो, सुशील और ऐसे न जाने कितने ही लोग थे जो घंटों खड़े रहने से अनेक शारीरिक कष्ट और मानसिक यातना झेल रहे थे। कुछ दिन पहले ही तो ममता ने सबको सावधान किया था-
 

 

‘‘पैरों में दर्द है तो सह लो। पेन किलर ले लो पर ध्यान रहे भूल कर भी लंच टाईम के अलावा कभी कहीं बैठना नहीं। ये जो सीसी टीवी कैमरे लगे हैं न, ये ग्राहकों पर नजर रखने के लिए नहीं, तुम पर नजर रखने के इरादे से ही लगाए गए हैं।’’


 

‘‘यार! हद है ये तो। इंसान हैं कोई मशीन तो नहीं... और मशीन से भी लगातार काम लोगे तो घर्र-घर्र-ररर करके बैठ नहीं जाएगी? फिर कुछ पल आराम से बैठना क्या इतना बड़ा गुनाह है? यहां इतनी लेडीज़ हैं उन्हें देखो। ये रानो प्रेग्नेंट है इसे कुछ हो-हवा गया तो कौन होगा जिम्मेदार?’’ ललिता तैश में आ गई।
 

‘‘हां भई! जहां लेडीज़ वहां परेशानियां ही परेशानियां हैं।’’ साथ खड़े कमल और प्रिंस मजाक उड़ाते हंसने लगे।
 

‘‘इसमें हंसने की क्या बात है? हमारी हर परेशानी आप लोगों को झूठी ही क्यों लगती है?’’ ललिता को उनकी हंसी अखर गई।
 

‘‘सुशील! भाई मुझे तो बार-बार यूरिनरी इंफैक्शन हो जाता है और कांउटर से ज्यादा देर के लिए ब्रेक भी नहीं ले सकती।’’ रानो की बात से उसकी तकलीफ साफ झलक रही थी। सबके दुख एक ही से थे जिनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं थी।
 

 

‘‘परेशानी तो हमें भी होती है ये अलग बात है कुछ ऐसे मर्द हैं जिन्हें दर्द नहीं होता।’’ जुनैद का इशारा प्रिंस और कमल की ओर था। ‘‘सालों से एक ही खड़े रहते काम करने से पैरों की नसें दर्द करते-करते बेजान हो रही हैं। डाॅक्टर कहते हैं वेरिकोज़ वेन की समस्या है। हल भी आसान नहीं। अभी तो चल रही है जिंदगी की गाड़ी पर आगे? जुनैद की आवाज़ दर्द से भरी थी।
 

 

‘‘मैं तो यहां सबसे नयी हूं फिर भी मेरी और आपकी एक-सी कहानी है। दिन भर खड़े रहने की बात याद आते ही स्टोर आने की उमंग पर पानी फिरने लगा है। पैरों की सूजन और दर्द से बेहाल रहती हूं। रोज रात को पेन किलर लेना पड़ता है। यहां आती हूं तो मन करता है फर्नीचर स्टोर में रखी सारी कुर्सियां ले आऊं और हम उन पर इत्मीनान से बैठें।’’ ललिता ने कहा तो सबकी आंखें चमक उठीं। दर्द कुर्सी और आराम का समीकरण सबके लिए एकदम साफ था।

  
    


 

 

ललिता के जी में आता सनी से पूछ कर देखे सारे दिन की मेहनत के बाद भी ललिता से बात करते हुए कहां जाती है उसकी थकान? क्या उसके पैरों में दर्द नहीं होता? क्या रात में उसके कंधों से उठता दर्द का सैलाब रिसते हुए रीढ़ की हड्डी को सुन्न नहीं करता? पर न जाने क्यों ललिता की हिम्मत जवाब दे जाती। सारे दिन की मशक्कत के बाद बड़ी कोशिश से सबकी नजर बचा कर हाथ आए दो-चार हसीन पलों को भी बेकार की बक-झक में बर्बाद क्यूं करे। उसे डर भी लगता कि ऐसी बातों से कहीं सनी नाराज न हो जाए। पहले भी रात को ललिता के फोन पर बात करते-करते सो जाने का उसने कई दिन तक मजाक उड़ाया। उसके बाद ललिता ने कोशिश की चाहे थोड़ी देर बात करेगी पर खूब खुश हो कर ही। अक्सर ललिता सोचती कि खुशी का यह नाटक आखिर कब तक चलेगा?
    

 

इधर सनी, ललिता और अपने बीच की दूरी से बहुत परेशान हो चला था। ललिता के पापा और सनी का परिवार उनकी राह में रोड़ा बने हुए थे तो ललिता का कोई ठोस निर्णय न लेना भी सनी को अखर रहा था। मुसीबत में उसका हमदर्द हितेश ही था पर हितेश, ललिता का विकल्प तो नहीं था। मन का गुबार हितेश पर निकाल कर भी सनी उदास रहता। ऊपर से घर वालों के ताने आए दिन उसके मन के जख्मों को हरा किए रहते। सनी सोचता उसके और ललिता के प्रेम को किसी की नजर लग गई है। अपने मन में उलझते सवालों को सुलझाते हुए एक दिन उसने हितेश से कहा- ‘‘यार! पहले मुझे शक था पर अब यकीन हो चला है कि कोई ऊपरी चक्कर है। ललिता के पापा कुछ समय पहले अपने बाबा।जी के यहां होकर आए थे। कहते तो रहते हैं कि बड़े सिद्ध महात्मा है। अंतर्यामी टाइप।’’


‘‘ तो?’’ हितेश ने सनी को घूरते हुए पूछा।
 

 

‘‘तो ये कि उस बाबा की कोई भस्म-भभूत ही ललिता को खिला दी गई । इसीलिए यार! मुझसे मिलने में भी आना-कानी करती है और पहले की तरह फोन पर लंबी बात भी नहीं करती।’’ सनी के शब्द हताशा से भरे थे पर हितेश के चेहरे पर एक पल की तिलमिलाहट के बाद एक हंसी फूटी। अपनी हंसी को बिना दबाए उसने सनी के कंधे पर हाथ रखा और बोला-
 

 

‘‘अबे! तुझे अगर ऐसा ही लगता है कि किसी बावा-वाबा के खिलाने-पिलाने से ललिता बदल गई तो तू भाई ऐसा कर, तू ललिता को उस सिद्ध बाबा से भी बड़े बाबा की भस्म-भभूत खिला दे। फिर तो उस पर तेरा ही जादू चलेगा। पुराना जादू बेअसर हो जाएगा। हर गली-नुक्कड़ पर बड़े-बड़े सिद्ध योगी बैठे माला जप रहे हैं किसी को भी पकड़ ले।’’


‘‘यार! तुझसे कुछ कहना ही बेकार है।’’ सनी उदास हो गया।
 

‘‘गधे! बोलने से पहले कुछ तो सोचा कर। ललिता पढ़ी-लिखी लड़की है और तू भी अनपढ़ नहीं है।  एक तरफ तो प्रेम का झंडा उठा कर क्रांति करने की सोच रहा है और दूसरी तरफ इतनी दकियानूसी बात?’’ हितेश ने सनी को झकझोरा।
 

‘‘तू नहीं समझता। माना तेरा विश्वास इन सब पर नहीं है पर औरों का तो है न? मुझे नहीं लगता अब हमारा निबाह हो पाएगा।’’ सनी अड़ा रहा।
 

‘‘क्या निबाह नहीं हो पाएगा? अभी से हिम्मत हार गया ? साफ-साफ बता तुझे ललिता पर भरोसा है या भस्म-भभूत पर?’’ हितेश ने सवालों की झड़ी लगा दी।
 

‘‘यार! ये कैसा सवाल है...भरोसा तो है पर...’’ अबकी सनी कुछ संयमित मुद्रा में बोला।
 

 

‘‘पर को गटर में डाल और उसकी हालत समझ। तेरे और उसके परिवार की तना-तनी कम है क्या? उस पर जाने क्या गुजर रही होगी। जब मौका मिले बात कर उससे। भरोसा दिला। उसकी सुन अपनी सुना। चार दिन की जिंदगी में एक फैसला तो सही से निभा।’’ हितेश ने सनी को चेताया। सनी की हल्की सी हूं सुन कर हितेश ने उसे गले लगाया- ‘‘यार! चिंता न कर मैं हूं हरदम तेरे साथ। देख लेंगे अपन दोनों।’’ अकेलेपन में हितेश की दृढ़ता ने सनी और ललिता के बीच पैदा हो रही दूरी के जंगल में प्यार की मधुर तान छेड़ दी। उस रात सनी करवट बदलता रहा। कि बस अगले दिन लंच में ललिता के दफ्तर जा कर उसे चौंका देगा। आसमान के रंग धीरे-धीरे लौट रहे थे।
    

 

ललिता की सुबह फिर से पापा की कड़ी नजर और सख्त प्रवचनों के साथ शुरू हुई। ये प्रवचन धर्म और जाति की रक्षा से जुड़े थे। लड़की की मर्यादा और परिवार के संस्कारों से जुड़े थे। पापा बोलते जा रहे थे और ललिता नाश्ता करते हुए उनकी ओर देखे जा रही थी। कुछ समय बाद उसे पापा के शब्द सुनाई देने बंद हो गए। उनके होंठ कुछ बड़बड़ाए जा रहे थे पर ललिता तक शब्द नहीं पहुंच रहे थे। वह खुद से सवाल करने लगी- यदि पापा इतने ही संस्कारी हैं तो इंसानों से नफरत क्यूं करते हैं? यदि इतने ही धार्मिक हैं तो लोगों पर अविश्वास-अनास्था क्यूं? वह लगातार पापा को घूर रही थी। एक सवाल फिर तन कर खड़ा हो गया। पापा को लड़की की मर्यादा का इतना ख्याल है तो क्यूं नहीं छुड़वा देते उसकी नौकरी? आखिर इस नौकरी में उसे मिलता ही क्या है? आने-जाने का किराया और कुछ ढंग के कपड़े। वो भी नौकरी के लिए ही। महीने भर की कड़ी कमाई तो पापा के हाथ चली जाती है और फिर सारे महीने ललिता पापा के आगे किसी न किसी जरूरत के लिए हाथ फैलाए रहती है। पूरे महीने की मशक्कत के बाद उसके हिस्से आती है- थकान, थकान और सिर्फ थकान।
    

 

आज माॅल पहुंच कर ललिता जैसे ही लिफ्ट में घुसी अंकल नदारद थे। अलबत्ता स्टूल अपनी जगह सलामत था। कभी छुट्टी न लेने वाले अंकल को न पा कर ललिता परेशान हुई। काम के दौरान भी उसने सुपरवाइज़र से अंकल के न आने का कारण पूछा तो पता चला दो दिन नहीं आएंगे। दो दिन न आने का सीधा मतलब दो दिन के पैसे का नुकसान था। अंकल की फिक्र के साथ कांउटर पर ग्राहकों को निबटाते हुए अचानक उसके कान एक पुराने गीत से टकराए। गीत की दिशा में उसकी आंखें घूमीं तो उसने पाया एक बुजुर्ग व्यक्ति एक कोने में अपने मोबाइल पर कुछ देख-सुन रहा था। काम के दौरान ही एक भरपूर नजर ललिता ने उस व्यक्ति पर डाली और अचानक हाथ रोका। फिर सिर उठाकर पूरे फ्लोर पर नजर दौड़ाई। कहीं कोई अंतर नहीं था। उसने सारे काउंटर देखे। बार-बार एक ही बात। कल तक ललिता की जो चिंता सेल्समैन, गार्ड्स, लिफ्टमैन को ले कर थी आज उसका सिरा ग्राहकों से भी जुड़ गया। बुजुर्गवार हों या जवान, अधेड़ या बच्चे सब या तो खड़े थे या घूम फिर रहे थे। किसी काउंटर पर उनके बैठने के लिए कुर्सियां नहीं थीं। कुछ बच्चे थक कर काठ के मैनिक्यिून के नीचे बने चबूतरों पर आधे-अधूरे बैठे थे। जवान लोग थक कर स्टोर या माॅल में ही किसी-किसी कोने में जमीन पर अपने थैलों के संग बैठ दिखते थे। कुर्सियों वाले शोरूम के ग्राहक जरूर सुखी थे कि किसी कुर्सी पर बैठ कर दो घड़ी आराम कर लें। माॅल के किसी भी हिस्से में पैसा लुटाने वाले ग्राहकों के लिए बैठने की कोई व्यवस्था नहीं थी। ललिता को लगा माॅल में आने वाले ग्राहक भी जैसे अपने अधिकार और सुविधाओं को ले कर सजग नहीं रहे। वे सब कुछ भूल रहे थे पर उन्हें वो गार्ड्स और सेल्समैन जरूर याद रहते थे जो उनसे उनके मुताबिक अदब से पेश नहीं आते। गार्ड्स, लिफ्टमैन, सेल्स के लोग उनका ढंग से स्वागत न करें तो उनकी भौंहें तन जाती थीं।


 


 

सुबह से ही माॅल में काफी गहमागहमी थी। फेस्टिवल आफर के तहत चीजों पर भारी छूट का ऑफर घोषित किया गया था। सुबह से लगातार काम करते हुए ललिता को वाॅशरूम जा कर फ्रेश होने का मौका भी नहीं मिला। कहीं प्रेशर और अधिक न बन जाए इस डर से वह पानी भी बहुत कम पी रही थी। ग्राहकों की भीड़ में सर उठाने का मौका न था। पैर भी लगातार खड़े-खड़े बेतरह टूट रहे थे। टीसते पैर बैठने की भीख मांग रहे थे। ऊपर से हर ग्राहक की बातों पर दर्द को छिपा कर जबरन हंसते हुए जवाब देना भी ललिता को अब मुश्किल लग रहा था। सारे माॅल में शोर ही शोर था कि अचानक उसके कांउटर पर एक महिला जोर से चीखी-


‘‘आखिर यहां कब तक खड़े रहना होगा? इतनी देर से एक ब्रेस्लेट मांग रही हूं कोई पहाड़ नहीं।’’
 

 

‘‘साॅरी मैडम! बस इनके बाद अब आपको ही देती हूं। नया कलैक्शन आया है वह देखेंगी तो खुश हो जाएंगी।’’
 

 

‘‘इन पर चीखो नहीं तो सुनते कहां हैं? नया कलैक्शन... स्टूपिड गर्ल। खामखां मुझे खड़ा किया हुआ है।’’ महिला पूरे आवेश में आ कर जोर से सबको सुनाते हुए ललिता की बेइज्जती करने लगी।
 

 

‘‘आपसे साॅरी कहा तो मैडम...प्लीेज़ इन्सल्ट मत कीजिए। आपको केवल दो मिनट हुए हैं खड़े हुए हम पूरे दिन खड़े रह कर काम करते हैं।’’ ललिता के अंतिम शब्द धीमे स्वर में निकले पर कई दिनों से आहत उसके स्वाभिमान ने करवट ली।



‘‘किसने किसकी इनसल्ट की मैं बताती हूं तुझे।’’ कहते हुए भद्र महिला और बिफर गई। अचानक हो-हल्ला मच गया जो किसी भी हालत में स्टोर के माहौल के लिए खतरा था। आनन-फानन में सेल्स सुपरवाइज़र और कई लोग जुट गए। सबसे पहले बज रहे संगीत का वाल्यूम बढ़ाया गया। भद्र महिला के लिए एक नई सेल्सगर्ल को तुरंत बुलाया गया पर महिला आमादा थी कि ललिता बद्तमीजी के लिए माफी मांगे। तनाव बढ़ता चला गया क्योंकि ललिता ने साफ कह दिया कि वो पहले ही माफी मांग चुकी है। रानो, ममता और सुशील, ललिता के पक्ष में खड़े हो कर सफाई देने लगे तो भद्र महिला उसे नौकरी से निकाले जाने की मांग पर अड़ गई। बड़ी मुश्किल से महिला को शांत करके काउंटर पर मामला सुलटाया गया पर आज ललिता की पेशी हो गई। उसे चुपचाप काम करने की वार्निंग दी गई जिसमें छिपी हुई धमकी भी थी कि यदि भगवान जैसे कस्टमर्स से उलझी तो उसे नौकरी से निकाला भी जा सकता है। ललिता ने कई बार अपनी सफाई दी पर जब गलती उसकी ही मानी गई तो उसने आज की लीव एप्लीकेशन सुपरवाइज़र की टेबल पर रख दी। वह जानती थी आज की तनख्वाह कट जाएगी चाहे आधे दिन भी उसने पूरी मेहनत क्यों न किया हो। पापा की डांट अलग खानी पड़ेगी पर आज जैसे उसे कोई परवाह नहीं थी। रानो, ममता और सुशील ने उसे घर जा कर आराम करने की सलाह दी। बेपरवाह ललिता बहुत देर तक बाहर माॅल की सीढ़ियों पर बैठी रही। स्टोर में नौकरी से ले कर आज तक के घटनाक्रम पर विचार करते हुए धीरे-धीरे ललिता को अपने ऊपर हो रहे अन्याय की शक्ल दिखी तो औरों के प्रति हो रहे अन्याय के चेहरे भी दिखने लगे। चेहरों पर दर्द के रंग पहचान में आने लगे। वो चेहरे कभी कुछ कहते भले न हों पर ललिता को उनकी चुप्पियों में चीख सुनाई दी। लिफ्ट वाले अंकल, गारमेंट सैक्शन देखने वाली रानो जो पांच माह के गर्भ में कई बार वाॅश रूम भागती, नवविवाहित ममता जिसे सारा दिन खड़े रह कर नौकरी ही नहीं करनी बल्कि नई बहू और घर के दायित्व भी निभाने हैं। पूरे दिन बिलिंग काउंटर पर वेरिकोज़ वेन की समस्या से परेशान जुनैद, लेडीज़ सैक्शन के सुशील सहित न जाने कितने जुनैद, कितनी रानो, कितनी ममता? और न जाने कितने सुशील शहर की राजधानी के, देश के अलग-अलग हिस्सों के, दुनिया के चमचमाते माॅल्स में दस से बारह घंटे तक सब सहते हुए खट रहे हैं। एक अप्राकृतिक स्थिति और एक असहज मुद्रा को विवशता में स्वीकार रहे हैं। कुछ देर बाद उसका दिमाग सुन्न हो गया। उसे न दुनिया का शोर सुनाई दे रहा था न कोई दृश्य दिख रहा था बस यही समझ आ रहा था कि थके हुए पैरों को यहां बैठने से सुकून मिल रहा है। माॅल के भीतर काम करने वाले सभी लोग उसे भीतर लगे बेजान मैनीक्यिूंस की तरह लग रहे थे। बहुत देर बाद उसने पाया कि कोई उसके कंधे को झकझोर रहा है। आज सनी उसे चौंकाने आया था पर ललिता की सारी बातें सुन कर उसे खुद जोरदार झटका लगा। सनी ने खुद को संभालते हुए ललिता को भी समझाया-
 

 

‘‘चल ललिता! आज की शाम तक का समय हमारा है। कई दिनों की कसर आज निकालते हैं। खाएंगे-पियेंगे और खूब बातें करेंगे।’’ सनी ने ललिता का हाथ थामा और दोनों चल दिए। नज़दीक के रेस्तरां में इत्मीनान से बैठ कर ललिता का मन पहले से बेहतर हुआ तो सनी ने पूछा- ‘‘तू तो कहती थी नौकरी तेरे मन की है तो फिर ये सब?’’ सनी ने कंधे उचकाते हुए पूछा। ललिता के खामोश रहने पर सनी ने उसकी हथेली को अपने भरोसे की हथेली से सहलाया और आंखों से फिर सवाल दोहराया। एक ठंडी सांस ले कर ललिता ने चुप्पी तो तोड़ी-
 

 

‘‘सनी! पहले मुझे लगता था कि इस दुनिया में मेरा दुख सबसे बड़ा है। पापा की सख्ती, हमारी शादी में अड़चन, तेरी नाराज़गी, नौकरी की थकान और थकान होने पर बैठने का हक न होना... पर एक बात कहूं पिछले दिनों जिसे भी मैंने करीब से जाना है उसके दुुख पहचाने हैं। समझने लगी हूं कि आंखें खोल कर दूसरों के दुखों को देखने के बाद अपने दुःख की दुनिया कितनी छोटी लगती है। इसलिए आज जो भी हुआ ये सब सिर्फ मेरे लिए नहीं है। मेरे स्टोर में अनेेक लोग हैं। इस माॅल में अनेक लोग हैं। अनेक माॅल्स में अनेक लोग हैं। तू है, मैं हूं, ममता दीदी हैं, रानो, जुनैद जाने कितने लोग हैं। सबके साझे दुःख हैं।’’
 

 

‘‘पर तू कोई नेता है जो सबकी लड़ाई लड़ेगी?’’ सनी सब ध्यान से सुन कर बोला।
 

 

‘‘बात नेता की नहीं अधिकार की है। थकान होने पर बैठने की, कुछ देर आराम की स्वाभाविक इच्छा रखना क्या गलत है?’’ ललिता दृढ़तापूर्वक बोली।
 

‘‘नहीं नेता जी, ठीक है।’’
 

‘‘देख इस तरह मजाक में न उड़ा मेरी बात। मदद तो करता नहीं बस पापा की तरह तू भी या तो मजाक उड़ा ले या उपदेश दे दे।’’ ललिता ने उलाहना दिया। सनी कुछ पल ठहर कर बोला-

 

 


 

‘‘तू सही कहती है ललिता। मैं भी तेरे पापा जैसा ही हो चला था। भला हो हितेश का जिसने सब टूटने-छूटने से बचा लिया। ललिता! तू चिंता नहीं कर मैं तेरे हर फैसले में साथ हूं। चाहे तो हम सलाह-मशविरे के लिए अभी हितेश के पास भी चल सकते है।’’ सनी की बात सुन कर ललिता को बहुत दिनों से साल रही थकान आज हारती हुई महसूस हुई। आदतन उसका हाथ अपने चेहरे पर गया तो चेहरा भी आज उसे कई दिन की चिपचिपाहट के बाद मुलायम महसूस हुआ। दोनों देर तक बातें करते रहे। रंगों से भरा आसमान उन्हें देखकर मुस्कुरा दिया। आज वही पुराने दिनों के ललिता-सनी साथ थे और उनके आस-पास बिखरा था बहुत सारा प्यार जो निर्भय था, निर्द्वंद्व था। बहुत दिनों बाद दोनों के भविष्य का धुंधला पड़ा आईना साफ दिख रहा था उसमें उनके सपनों की शक्ल फिर से उभर रही थी।

   

 

उस रात घर लौट कर ललिता को एक क्षण का आराम नहीं था। हितेश से लंबी बात करने के बाद अब उसे ममता, सुशील, रानो, जुनैद उसे सबसे बात करनी थी। सबको समझाना था। कल के लिए तैयार करना था। देर तक चली उसकी बातों से आज घर भर हैरान था। सब देख रहे थे बहुत दिनों बाद थकी-हारी ललिता न जाने कहां चली गई थी। पापा ने हमेशा की तरह दखलंदाजी करने कोशिश भी की पर दृढ़ विश्वास से भरी लड़की को देख कर खुद ही सिमट गए। देर रात तक सोने को लेटी ललिता की आंखों में नींद नहीं थी। उसे सुबह का इंतज़ार था। ललिता को बार-बार बेचैनी में करवट बदलते देख कर मम्मी ने प्यार से उसके सर पर हाथ रख कर कहा- ‘‘ललिता! तू वही करना जो तुझे ठीक जंचे। चाहे नौकरी हो या शादी। तू काठ की गुड़िया नहीं पढ़ी-लिखी, कमाऊ और समझदार लड़की है।’’ अंधेरे कमरे में मम्मी की आवाज ललिता को सौ वाॅट के बल्ब की रौशनी-सी महसूस हुई। मम्मी पर उसे बहुत प्यार आया पर आने वाले कल की उम्मीद में नींद फिर भी कोसों दूर रही।


 

‘‘ये क्या तरीका है? इस काम की किसी को भी परमीशन नहीं है।’’ अगले दिन सुबह स्टोर खुलने से पहले सुपरवाइज़र की तेज आवाज़ ने सारे कांउटर्स पर खड़े लोगों को चौकन्ना कर दिया। सुपरवाइजर की आंखें हैरत से भर उठीं स्टोर का नया नजारा देख कर। सुपरवाइजर की फटकार ललिता-रानो के काउंटर से शुरू हुई थी जो बाद में ममता, सुशील और जुनैद के काउंटर सहित कुछ अन्य कांउटर्स पर सुनाई दी। स्टोर के अलग-अलग डिपार्टमेंट्स के लोग भी इस नए नजारे को हैरानी से देख रहे थे। कुछ की हंसी नहीं रूक रही थी तो कुछ की सांसें गले में ही रूक गईं थीं।
 

 

‘‘सर! दिन के बारह घंटे में सिर्फ कस्टमर्स के न होने पर ही हम लोग इस कुर्सी का इस्तेमाल करेंगे।’’ ललिता ने विनम्रता पर चट्टानी दृढ़ता से कहा।
 

 

‘‘तुम सब अपनी-अपनी कुर्सियां उठाते हो कि नहीं? अभी के अभी इन्हें बाहर रखो। यहां काम करना है तो या कुर्सी रहेगी या तुम।’’ सुपरवाइज़र गरजा। इस गरज के साथ ही स्टोर के कुछ लोग सुपरवाइजर के साथ आ खड़े हुए। वे ललिता एंड कंपनी के खड़े किए बखेड़े से खुद को दूर रखना चाहते थे।
 

 

स्टोर का माहौल आज सुबह से ही बदला हुआ था। खलबली ग्राहकों के आने से पहले ही मच गई जब स्टोर में अनेक काउंटर्स पर कुछ लोगों ने शांतिपूर्वक अपनी जगह पर एक फोल्डिंग कुर्सी रख दी। सुबह के समय अपना काउंटर व्यवस्थित कर के वह उस पर बैठ गए तो सुपरवाइजर हैरान रह गया। एक नहीं दो नहीं सात-आठ कांउटर्स पर एक-सा नज़ारा देख कर उसकी आंत-पीत जलने लगीं। सुपरवाइजर का गुस्सा ललिता पर फूट पड़ा- ‘‘तो तुझे लीडरी का चस्का लगा है। यहां नहीं चलेगा ये सब। काम करना है तो ढंग से करो वरना सबको नोटिस दे कर फायर कर दिया जाएगा।’’ सुपरवाइजर ने धमकाया। नोटिस की बात सुन कर अच्छे-अच्छों को सर्दी के इस मौसम में पसीना आ गया। ललिता सहित कुछ लोगों ने अपनी कुर्सी फोल्ड करके नहीं रखीं। कुर्सियां बीच-बीच में इस्तेमाल की जा कर सारे दिन स्टोर के कर्मचारियों की लड़ाई को शांतिपूर्वक लड़ती रहीं। कुछ पल बैठ कर थकान उतारने के लिए लड़ी जाने वाली यह लड़ाई न मामूली थी और न ही एकाध दिन की बात थी। दो-तीन दिन में सुपरवाइजर के सब्र का प्याला बुरी तरह छलक गया। उसने शो काॅज़ नोटिस तो जारी नहीं किया पर मैनेजर के कानों में सारी बात पहुंचा दी। मैनेजर पहले ही सब जानता था पर वह भी बाढ़ के पानी के उतरने की राह तक रहा था। सुपरवाइजर के भड़काने पर उसने ललिता और उसके साथियों को समझाने के लिए आफिस में बुलवाया। कुर्सी में धंसे हुए वह बोला-
 

 

‘‘देखिए! ये हमारे स्टोर का तरीका नहीं बल्कि आस-पास किसी भी स्टोर में देखें वहां भी सेल्स से जुड़ा कोई भी आदमी कुर्सी पर नहीं बैठता।’’
 

 

‘‘पहले से जो चला आया करता है वह क्या हमेशा ठीक होता है सर? गलत बात तो गलत ही होती है।’’ रानो ने कहा तो सुपरवाइजर ने उसे गौर से देखा। पांच-छह माह का गर्भ उससे छिप नहीं सका।



‘‘फिर भी हर जगह का कोई कायदा होता है।’’ अबकी मैनेजर के स्वर में समझौते की लय चली आई। कारण साफ था रानो पुरानी एमप्लाई थी फिर प्रेग्नेंट भी। कानूनी कार्यवाही हुई तो मामला उसके पक्ष में भी जा सकता था।


‘‘सर! क्या हमारी मांग गलत है? हम तो काम न होने के दौरान ही बैठने की मांग कर रहे हैं लेकिन आप लोगों को लगता है जैसे हम स्टोर में जगह-जगह लगे पुतले ही हो चुके हैं जिनमें न जान है, न दुख न कोई हरकत और न कोई थकान।’’ अबकी ललिता ने सीधे और साफ बात कही तो सब को साहस मिला। सुपरवाईजर की भौंहें तन गईं और तनी हुई भौंहों से ही उसने मैनेजर को सांप का फन कुचल देने का इशारा किया।


‘‘देखो! तुम लोग ऐसे ही अड़े रहे तो कल से स्टोर में तुम लोगों की एंट्री बैन हो सकती है। तुम्हें नौकरी पर रहना है या कर दूं छुट्टी?...बोलो।’’ इस बार मैनेजर ने सुपरवाईजर की भौंहों के इशारे के अनुरूप कहा।


‘‘सर! आप भी हमारी ही तरह एमप्लाॅई हैं मालिक नहीं। हम सबकी एक ही मांग है कि काम के समय में कुछ देर हमें बैठने की मोहलत मिले। एक सिटिंग ज़ोन बनाया जाए एमप्लाॅईज़ के लिए। बस... इसमें क्या दिक्कत है?’’ इस बार सुशील, ललिता, रानो और कई आवाजें एक साथ उठ खड़ी हुईं।
 

 

‘‘कल से कुर्सी वालों की एंट्री स्टोर में बैन है। कुर्सी आंदोलन खत्म कर के सब लोग अपना-अपना काम करें... नेतागिरी में कुछ नहीं रखा है।’’ इस आदेश के साथ ही स्टोर के तीनों फ्लोर के गार्ड्स को सख्त निर्देश दिया गया कि कल से बिना कुर्सी वाले लोग ही स्टोर में आएंगे। मैनेजर ने ललिता के साथियों को बारी-बारी से बुला कर ललिता से दूर रहने और सीधी राह पर चलने के लिए समझाया। ललिता को एक बार भी नहीं बुलाया जाना सबको समझ में आ रहा था। लड़ाई की एकमात्र दोषी ललिता बना दी गई थी। बहुत दिनों से चल रही खींचतान का खात्मा लोगों को दिखने लगा। सुरक्षित हो कर जो लोग लड़ाई से दूर थे आज उनका ही पक्ष सही साबित हुआ तो उनके चेहरों की खुशी अपनी नमकहलाली पर इतरा बैठी।

    

 

कोई भी लड़ाई आसान कहां होती है पर लड़ने के क्रम में धीरज और लड़ने के नए तरीके जरूर ईजाद करती चलती है। ललिता खुद से लड़ कर एक नई लड़ाई का सलीका सीख रही थी। कल का दिन बेहद निर्णायक होने वाला था। अब तक चली आ रही लड़ाई एक नई दिशा की ओर मुड़ चली थी। यह लड़ाई अब आर-पार की होने वाली थी। इसका नफा-नुकसान एकदम सामने दिख रहा था। आज ललिता ने किसी से एक शब्द नहीं कहा न ही कल की कोई पूर्व तैयारी ही की। सनी को उसने सच बता दिया। सनी ने छुट्टी ले कर हितेश के संग आने का भरोसा दिया। अगली सुबह वह उठी। तैयार हुई। घर से निकली तो कुछ रोज़ की अपनी साथी फोल्डिंग कुर्सी को उसने देखा और फिर उसे उठा कर स्टोर की तरफ बढ़ चली।

 


‘‘मैडम! आप अंदर नहीं जा सकतीं। साहब का आर्डर है।’’ गार्ड, ललिता की अपेक्षा के अनुरूप कहते हुए दरवाजा रोक कर खड़ा हो गया। दो पल को ठिठकी ललिता ने कुर्सी को खोला और गार्ड के बगल में ही बैठ गई। गार्ड की हैरानी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया वहीं उस पर नज़र रखे मैनेजर और सुपरवाईजर भी सकते में आ गए पर मामले को कोई तूल न देते हुए वे चुप रहे। धीरे-धीरे एमप्लाई आने शुरू हुए तो दरवाजे पर ललिता को बैठे देख कर चौंके। उनमें से कुछ उस पर हंसे पर कल तक हंसने वाले कुछ लोगों के मन में ललिता के प्रति सहानुभूति उपजी। स्टोर के भीतर हलचल मौजूद थी। आगे क्या होने वाला है यह रहस्य सबके दिमाग में आकार ले चुका था। ललिता अभी तक अकेली बाहर बैठी थी। कस्टमर्स आने लगे तो वे भी उसे घूर कर देख रहे थे। सुपरवाइजर और मैनेजर के मन में खटका हुआ कि ललिता उठ कर नारेबाजी न करने लगे। रानो, ममता, सुशील, जुनैद और ललिता के पांच-छह साथी समय होने के बावजूद आज नहीं आए थे। सुपरवाइजर और मैनेजर सहित कुछ लोगों ने बिना सेना के अकेले सिपाही ललिता पर तरस खाया। दरवाजे के भीतर ऑफिस में ललिता को नोटिस देने का पूरा मन बन चुका था। सुपरवाइजर की बांछे खिल गईं थीं कि मैनेजर के जरिए आज वो ललिता को सबक सिखा पाएगा। तभी दरवाजे पर हरकत हुई। निचले तल के कर्मचारियों की निगाहें ग्लासडोर पर अटक गईं। वहां रानो, ममता, सुशील, जुनैद सहित कई लोग अपनी-अपनी कुर्सियों के साथ दिखाई दिए। अब तक अकेली बैठी ललिता के साथ एक पूरा समूह था। आते-जाते लोग उन्हें चौंक कर देख रहे थे। थोड़ी देर में सनी और हितेश भी वहां पहुंच गए। हितेश ने मांगपत्र को पढ़ा। कुछ जरूरी सुझाव भी दिए। जुनैद ने एक मांगपत्र गार्ड के हाथ अंदर भिजवाया जिस पर काम के दौरान बैठने की विनम्र मांग के साथ उन सबके दस्तखत थे। अंदर फिर एक नई हलचल थी। ग्राहकों की आवाजाही और लड़ाई के इस नए एकजुट रूप को देख कर मैनेजर ने मामला सुलटाने को सही समझा। ललिता को काट कर अकेला करने की उसकी चाल को मात मिली थी।



‘‘ठीक है। आप लोग काम पर लौटें। हम जल्द आपकी मांग पर बात करेंगे।’’ उसने आश्वासन का लाॅलीपाॅप थमाया।


‘‘सर! हमारी एप्लीकेशन रिसीव करें और आप जो कह रहे हैं उसे लिखित में दें।’’ जुनैद की लिखित एप्लीकेशन स्टोर के लोगों को इंसान समझने की अपील कर रही थी।



मैनेजर के पास समाधान की फिलहाल कोई और तरकीब नहीं थी सो उन्होंने खिसियाते हुए सर हिलाया। अपनी कुर्सियां उठाए सभी लोग जब स्टोर में घुसे तो बहुत-सी आंखें उनकी लड़ाई के सम्मान में गर्व से चमकीं। काठ के पुतलों में इंसानी हरकत दिखने लगी। उन्हें समझ आ गया था कि ये लंबी लड़ाई अब अकेले लड़ी जाने वाली नहीं है। लड़ाई का मोर्चा उनकी तरफ भी खुल गया है। ये लड़ाई उनके लिए भी है। 



शाम को माॅल से निकल कर ललिता ने भाई को फोन किया कि आज वह उसे लेने न आए।  सनी और हितेश के साथ ललिता अपने पुराने पसंदीदा रेस्तरां गई। आज की जीत का जश्न मनना जरूरी था।


‘‘कैसे तुम्हारा शुक्रिया करूं हितेश। तुमने इस लड़ाई को फैसलाकुन अंजाम पर पहंचाया है।’’ ललिता ने कृतज्ञ भाव से कहा।


‘‘लड़ाई अभी खत्म कहां हुई है ललिता वह तो चलेगी पर अब लड़ाई में तुम सब भी एक बुलंद आवाज़ हो।’’ हितेश ने जवाब दिया।


‘‘तुम और सनी न होते तो...’’


‘‘ललिता! सच्चाई तो ये है कि बहुत से लोग अलग-अलग जगहों पर ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं। कुछ जीत भी गए हैं तो कुछ डटे हुए हैं। तुम लोग भी डटे रहो।’’ हितेश के शब्दों ने ललिता को जिंदादिली से भर दिया।


‘‘लो भइ! अब तो कुर्सी भी मिल जाएगी नेताजी को पर हमें क्या मिलेगा?’’ सनी ने मुस्कुराते हुए ललिता को देखा।


‘‘ललिता! ये तो तुम्हारी ज्यादती है। मेरा दोस्त कबसे तुम्हारे इंतजार में बैठा है इसकी शादी की अर्जी कब मंजूर होगी? 

 
‘‘मैंने कब कहा कि शादी नहीं करूंगी। जरूर करूंगी। मेरे और इसके पापा के लाख न चाहने पर भी करूंगी।’’ ललिता ने यूं कहा जैसे वह सनी से नहीं खुद से पक्का वादा कर रही हो। 


    

नीला आकाश आसमानी से गुलाबी, गुलाबी से जामुनी और फिरोज़ी होता जा रहा था।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स विजेन्द्र जी की हैं।)


 

संपर्क 

 एच-103, सेेकेंड फ्लोर                                

साउथ सिटी-2, सैक्टर-50
गुरुग्राम, हरियाणा 122018
 

 

9811585399


टिप्पणियाँ

  1. यदि कोई प्रश्न करे कि इस कहानी में क्या है तो आवाज स्वतः गूँजेंगी कि इसमें क्या नहीं है। कहानी का मूल स्वर संघर्ष है । प्रेम जैसी पावन भावना के लिए हमें अपनों से ही संघर्ष करना पड़ता है। दो जून की रोटी के पीड़ादायक नौकरी करनी पड़ती है। जो चकाचौंध वाली जगह है वहाँ सबसे ज्यादा अनीति और अन्याय है। एक लड़की की हाड़तोड़ कमाई उसका पिता ही हड़प लेता है। इससे दारुण और क्या हो सकता है। और सबसे बड़ी बात यह कि प्रेम की छांव जीवन में ऐसी ऊर्जा भर देता है कि मनुष्य में इस अपराधी व्यवस्था से लड़ने की अपरिमित ताकत आ जाती है। प्रज्ञा जी को खूब बधाई। अच्छी कहानी प्रस्तुत करने के लिए पहलीबार का आभार ।
    ललन चतुर्वेदी

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  2. बहुत महत्वपूर्ण कहानी है।शुक्रिया संतोष।शुक्रिया प्रज्ञा

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  3. प्रज्ञा जी को खूब बधाई। अच्छी कहानी प्रस्तुत करने के लिए पहलीबार का आभार।

    जवाब देंहटाएं

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