विनय सौरभ की कविताएं
विनय सौरभ |
इसे समय का दबाव कहा जाए या धारा में बह जाने की विवशता, कि एक लम्बे अरसे बाद मिले कवि दोस्त के पास तब भी जल्दबाजी थी, जब उसका मित्र उससे दो चार बातें या कुछ पल बिताना चाहता था। किसी से भी पूछने पर इस बात का अंदाजा हम लगा सकते हैं कि इस समय का सूत्र वाक्य बन गया है कि 'हमारे पास समय नहीं है।' हम मोबाइल पर घंटों बात कर सकते हैं। हम निरर्थक काम में महीनों बिता सकते हैं लेकिन अपनों के लिए हमारे पास कोई समय नहीं। अपने मतलब घर परिवार के लोग भी होते हैं। अपने मतलब मां पिता भी होते हैं। मनुष्य जिसकी बनावट में इस सामूहिकता का बड़ा हाथ रहा है, अब लगातार एकाकी होता जा रहा है। ऐसा ही रहा तो क्या हम मनुष्य रह पाएंगे। आज जो हृदयहीनता और निर्ममता दिखाई पड़ रही है उसमें इस समय न होने का बड़ा हाथ है। कवि विनय सौरभ की कविताओं में ऐसे ही दुर्लभ प्रसंग दिखाई पड़ते हैं। इन कविताओं का आस्वाद इन्हें पढ़ कर ही जाना जा सकता है। पहली बार पर यह विनय की कविताओं का आगाज है। कवि का स्वागत करते हुए आइए आज हम पहली बार पर पढ़ते हैं विनय सौरभ की कुछ नई कविताएं।
विनय सौरभ की कविताएं
उनका लौटना
वह तीसरे सत्र में नहीं आए जिसमें काव्य-पाठ होना था।
वह पहले सत्र की अध्यक्षता कर चुके थे।
आज दोपहर के बाद अचानक कोई कहता था
वह नहीं आ रहे हैं शाम को काव्य पाठ में।
उनकी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही।
शुक्ला सही कह रहा था -
"जरूरी काम आ पड़ा है
शायद वे देर रात की फ्लाइट से दिल्ली लौट जाएं"
इस दो दिवसीय आयोजन का सबसे प्रमुख चेहरा वही थे।
उनकी सहमति के बाद ही इस कार्यक्रम की रूपरेखा बन सकी थी।
कोई खुल कर कुछ नहीं कह रहा कि वे वापस क्यों लौट गए हैं!
उन्हें तेजी से उभरते एक कवि की दो किताबों का विमोचन कल करना था।
दूसरे शहरों से भी बतौर श्रोता कई लोग आए हुए हैं।
आयोजकों ने जो इंतजाम किया था उनके रूकने का,
वह शहर का सबसे अच्छा होटल है।
पर वे अंतिम समय में विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर के यहाँ चले गये।
वीसी छात्र रहे हैं उनके।
सभागार में उनकी शुरूआती दौर की कविता पंक्तियों के
और आलोचना मे व्यक्त किए गये विचारों के पोस्टर लगे हैं।
शहर के तीन प्रमुख चौराहों की हार्डिंग्स पर और
स्थानीय काॅलेजों में इस आयोजन की जन -सूचना दी गयी है,
जिसमें एकमात्र उनका चेहरा चस्पा है।
रंगीन पन्नियों में बंधी हुई कई किताबें पड़ी रह गई हैं।
ओह! सभागार में एक उदासी है।
जो परिचर्चा चल रही है उसमें दिलचस्पी ही नहीं जग पा रही है किसी की।
सब मोबाइल पर झुके हैं या उनके एकाएक लौट जाने को ले कर कयास में डूबे हैं
हिंदी साहित्य की एक सामान्य घटना नहीं है उनका लौटना !
माफ़ कीजिए, पूरे दिन मुझे तो यही लगता रहा!
कवि वह
कविता की छह किताबें उसने कांख में दबा रखी हैं
जिन्हें लिए फिरता है वह दूसरे शहरों में
इन दिनों उसकी एक किताब मुकम्मल होने की तैयारी में है
एक प्रेस में है लगभग तैयार बाहर आने को
हावड़ा ब्रिज पर कल दिखा हुआ तेजी से चलता हुआ कुछ बेचैन- सा
लेकिन उसने अपनी बेचैनी छिपाई अपनी विनम्रता में
मैं उससे उस एतिहासिक ब्रिज पर ही गले लगना चाहता था,
गोकि सालों बाद दिखा था
पर वह बहुत हड़बड़ी में था
उसने अपना बरसों से वही पुराना ढीला हाथ मिलाया और
चौंक कर पूछा- यहाँ कैसे दोस्त?
कई रोज से हावड़ा का मछली बाजार सपने में आ रहा था,
सो देखने चले आया कोलकाता!
अच्छा- अच्छा! इस तरह से अपने संसार को भी देखना चाहिए कभी-कभी
यह सब उसने एक आप्त-वचन की तरह कहा
एक बांसुरी वाला हुगली पार करने की सोच रहा था और खड़ा था
"तुम एक बांसुरी ले लो मित्र,
तुम्हारी कविताओं में बांसुरी बहुत आती है, नदी और नाव भी!"
वह हंसा मेरी बात पर
वह जल्दबाजी में था
लगा, यह भेंट निरर्थक थी उसके लिए !
किसी अकादमी के दफ़्तर में जाना था उसे
अपनी किताब ले कर
या कोई जरूरी मुलाक़ात छूटती जाती थी!
यह मुझे उसकी शरीर की भंगिमाओं से पता चलता था
तो चलूँ- कहता हुआ वह कवि पुल के ढलान के नीचे
उतरता हुआ गुम हो गया
जो मिला था मुझे तीस साल पहले
आकाशवाणी भागलपुर में कविताएं पढ़ते हुए!
बड़ा आदमी
धीरे-धीरे उनका बड़ा होना देखा!
सबसे पहले उन्होंने गाड़ी ख़रीदी
फिर राजधानी में एक ज़मीन
एक दिन लौटे प्रशासन की गाड़ी से गाँव
बॉडीगार्ड के साथ
काले चश्मे में गाँव के बचपन के दोस्तों के साथ खिंचवाई तस्वीरें
नये मंदिर के लिए दिया अच्छा खासा चंदा
बुजुर्गों का लिया आशीर्वाद
लौटे शहर को भाव- विभोर!
बचपन के साथियों के साथ इस सामूहिक फोटो में
कितने गदगद और प्रसन्न दिखते हैं वे!
देखते ही देखते राजधानी में उनके घर बनने की ख़बर आई
घर की साज-सज्जा ऐसी की
कि पिता फिसल कर गिर गए स्नानघर में
पत्नी को पसंद नहीं थी टूटी हुई कमर वाले पिता की कराह
और सुबह उनकी अनवरत रामधुन
पिता जी गाँव भेज दिए गए मंछले भाई के पास
जो एक किराने की एक छोटी दुकान चलाता था
मांँ पहले से ही रहती थी को छोटे बेटे के पास जो
एक सुदूर गाँव में शिक्षक था
बचपन से क्रिकेट के शौकीन बच्चे को
देहरादून के स्कूल में डलवाया है
चाहते हैं कि वह भी बड़ा आदमी बने
वह यह भी चाहते हैं कि बच्चा सचिन तेंदुलकर बन जाए
और देश का नाम रोशन करे
एक कुत्ता खरीदा गया विदेशी नस्ल का
दरवाजे पर नेम प्लेट लगवाई
लिखवाया - अधिकारी
राज्य प्रशासनिक सेवा
अभी गए हैं तेजतर्रार एस एन प्रसाद
राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी
सपरिवार वैष्णो देवी की यात्रा पर।
वे संबंधी
इस इलाक़े में साल भर में लगने वाले
एक दो मेलों में ज़रूर आते
सांझ ढ़ले हमारे यहां रूकते
तय होता था उनका आना
अपना देहातीपन वे पहचानते थे
और संकोच से भरे होते थे
चौकी पर कुर्सी पर
सिमट कर बैठते, बहुत कम बोलते
साथ आए बच्चे कौतूहल से हर चीज को देखते
छत पर चढ़ते-उतरते
सीढ़ियों पर फिसलते
रात को छत पर या कहीं भी
गुड़ीमुड़ी हो कर सो जाते थे एक चादर में
और मुंह अंधेरे बिना चाय-पानी
माँ का पाँव छूते यह कहते हुए निकल जाते
कि फिर आएंगे
वे अपने पांवों पर भरोसा करने वाले लोग थे
दो-चार कोस पैदल आदतन चलने वाले
सूरज के पहाड़ के ऊपर उठने तक
वे बहुत दूर निकल जाते थे
उन्हें खेतों में जाना होता था
वे किसान थे
छोटे-मोटे धंधे में लगे लोग थे
अपने गाय बैलों की ख़ातिर ज़ल्दी घर लौटते
जहाँ भी होते, जिस गाँव जाते
अब नहीं आते दूर-दराज़ के ये सगे-संबंधी
मेला देखने के बाद
बरसों पहले की उनकी आने-जाने की स्मृतियां भर बची हैं अब
मेले आज भी हैं
पहले से ज़्यादा भीड़ लिए
ज़्यादा चमकीले और नये शोर से भरे हुए
क्या पता वे आते भी हों
और हमसे बिना मिले ही लौट जाते हों!
वे आएंगे ही, इस भरोसे से रसोई में अलग से कोई जतन नहीं होता
पीतल की बड़ी हांड़ी में भात बने कई बरस हुए
पांत में इन संबंधियों के साथ बैठ कर
अपने ही आंगन में खाए बहुत साल बीते हैं
कोठरी घर
बहुत थोड़े से अनाज रहते थे उसमें
कुछ पुरखों के समय से संजोये कांसे-पीतल के बरतन
डालडा और अमूल के पुराने डब्बे और माँ के
ब्याह के समय के फूलदान, अनाज के कनस्तर,
उपहार में मिला लोहे का नक्काशीदार बक्शा
और थोड़े कबाड़ जिनके मोह से हम ताजिन्दगी नहीं निकल पाते !
हम कोठारी घर कहते थे उसे
छुटपन से ही देवताओं की कुछ तस्वीरें भी रखी देखीं हमने
इस तरह से वह पूजा घर भी था
पर हमने उसे कोठारी घर ही कहा उसे
मैं चाहता हूँ -
हमारा बच्चा भी उसे
कोठारी घर ही कहे
माँ के कमरे को दादी का कमरा कहे!
वह कहीं भी रहे
नोनीहाट को अपना घर कहे!
छूटता हुआ घर
घर छूटता जाता था रोज़
उसकी असंख्य छवियाँ पीछा करती थीं
एक यात्री बन कर गाँव के स्टेशन से गुजरना भावुक कर देता था
पलाश के जंगल बुलाते थे
ताड़-खजूर के अनगिनत पेड़
बेर की झाड़ियांँ
पहाड़ दूर तक आँखों में फैले हुए कुछ कहते थे
एक आदिवासी दोस्त था स्कूल के दिनों का
पहाड़ के नीचे रहता था
बरसों से उससे मिला नहीं
पता नहीं,
अब फिर इन सबों के पास कब जाना होगा!
लगातार अनसुना करने का स्वांग भरते हुए
हम सब एक दिन छोड़ ही देते हैं अपनी मिट्टी
और वह जगह जहाँ हमारा जन्म हुआ
ज़रूरतें हमें कहीं और ले जाती हैं
संपन्नता से भरा लेकिन एकाकी जीवन आता है हमारे पास
रेल से गुजरते हुए गाँव की वह नदियाँ दिखती हैं
रेत और पानी के अपने वैभव से ख़ाली और उदास
इन्हीं नदियों का पानी आता था घर
पीतल की कलशियों में
नदी का पानी याद आता है
तो कांसे और पीतल के पुराने बर्तनों की याद हो आती है
जो अब घर के किसी अंधेरे कोने या छज्जे पड़े हैं उदास
जिनके इस्तेमाल की एक स्मृति भर है
थोड़े बहुत अंतराल पर
उन पर से धूल हटाते हुए
हम बचाते हैं अपने पुरखों की स्मृतियाँ
फ़िर अपने आँसू छिपाते
लौटते रहते हैं जीवन यात्रा में
छोड़े हुए घर को याद करते हुए
बिना शीर्षक
एक रोज़ उसके चेहरे पर सूरज सुनहला था।
उसको देख कर एक पुरानी फ़िल्म की याद आती थी
और उनके पोस्टर जिसमें आमोल पालेकर और विद्या सिन्हा की तस्वीर नुमायां थी।
सुबह सो कर उठने के बाद मैं उसको फ़ोन करता था
बदले में वह मुझे अपनी पुरानी यात्राओं की तस्वीरें भेजती थी।
हम पीछे छूट गये अपने-अपने घरों की बातें करते थे।
उसने एक दिन अपनी माँ की वह साड़ी दिखाई जिसको
तीस साल बाद उसने एक सलवार सूट में बदल दिया था।
वह गाती बहुत अच्छा थी।
जब हम मिले थे तो उसका गला फंसा हुआ था
लेकिन उसने मेरे कहने पर एक पुरानी धुन सुनाई
और कहा कि क्या संयोग है कि यह गाना मेरी माँ को भी बहुत पसंद था।
दीदी
अब तुम्हारा फ़ोन नहीं आएगा
अब तुम्हें छुप-छुप कर बात करने की ज़रूरत नहीं
अब तुम्हें डरने की ज़रूरत नहीं
अब किसी बात का कोई मतलब नहीं रह गया है !
अब तुम्हारे दरवाज़े से हो कर
उस शहर को कैसे जाऊँगा
जो शिव की नगरी कहलाती है
जिसमें इक्कीस साल तक रहीं तुम
अपने ही हत्यारे के साथ
तुमसे मिलने जाते हुए
अब कभी बीच रास्ते में
रुकना नहीं पड़ेगा हमें
फ़ोन की घंटी की आवाज़ सुन कर
अब तुम्हें समय का अंदाज़ा नहीं लगाना पड़ेगा
कि तुम्हारे घर तक पहुँचने पर
हमारे लिए बन चुकी होती थी चाय!
मेरी पसंद की वह सब्ज़ी
जिसमें माँ के हाथों का स्वाद आता था
जिसे तुमने सीख लिया था
हूबहू मेरे लिये
-अब तुम्हें नहीं बनानी पड़ेगी!
अब तुम्हें भैया के स्वास्थ्य की चिंता नहीं करनी है
और बेटे की पढ़ाई और स्वभाव की चिंता तो बिल्कुल नहीं!
तुम्हारी रिसर्च पढ़ाई सब बेकार गयी
इस बेचैनी से तुमको
तुम्हारे ईश्वर ने कर दिया है मुक्त
अब मैं तुम्हारे शहर से घृणा करता हूँ
जहाँ तुम्हारे लिए अंतिम समय में
कोई सिरहाने खड़ा नहीं था
किसी ने जगा कर तुमसे यह नहीं पूछा कि
सुबह के साढ़े दस बजे तक तुम क्यों सो रही हो!
दीदी, उन किताबों के पन्नों में पढ़ता हूँ तुमको
जिन पर आज भी तुम्हारी उंँगलियों
के स्पर्श बाक़ी हैं
अच्छा हुआ लेता आया तुम्हारी सभी किताबें
किसी कूड़ेदान में जाने से पहले
जिसने नहीं की कद्र
एक धड़कते हुए दिल की
वो क्या जानेगा किताबों के बारे में!
जानता हूँ
अब तुम्हारा फ़ोन कभी नहीं आएगा
उस रूट की सभी लाइनें
अब बंद हो चुकी हैं!
कहाँ चल दिए हो!
(भाई की मृत्यु पर)
जूते पहिन कर कहां चल दिए हो अचानक
कहीं आसपास दिखते भी नहीं हो
फ़ोन भी नहीं किया है कहीं से
जूते पहिन कर कहां चल दिए हो अचानक!
दवाइयों का वक़्त तो ख्याल है न?
बहुत कम पानी पीना है, याद है ना?
खोला भी नहीं है अख़बार,
कई रोज से किसी ने
चीज़ें तुम्हारी सब अपनी ज़गह हैं
बस कई फ़ोन, आए हैं तुम्हारे
सबको कह दिया है -
फ़ोन छोड़ कर जाने कहां चल दिए हो !
क्या ऐसी ज़गह मिली है
चाहते थे तुम जैसी?
क्या किताबों की दुनिया
आख़िर मिली तुम्हें वैसी?
जैसा छोड़ कर गए हो यह घर
उससे बेहतर मिले तो रह जाना
नहीं तो -
जैसे आया है एक खरगोश घर अपने
दबे पांव तुम भी गिलहरी बन के आना
हजारों किताबों की जगमग यह दुनिया
किसके भरोसे तुमने है छोड़ी?
बता कर तो जाते, क्या हड़बड़ी थी!
जूते पहिन कर कहां चल दिए हो अचानक!
पिता तुम
सब देखते रहते हो जैसे, तस्वीर में जड़े !
तुम्हारी सभी किताबें रखी हैं आज भी तरतीब से।
कपड़े सर्दियों वाले, चश्मा और खैनी की डिबिया भी। कई डायरियाँ ।
दुमका-भागलपुर वाली सड़क अब हाईवे कहलाती है।
सड़क धार वाला सबसे पुराना पीपल कट गया इसी हाईवे में,
जो तुम्हें प्रिय था बहोत। अब नहीं बचे तुम्हारे कोई साथी यहाँ, सब चले गये!
मैं अगले महीने "रेणु" के गांव जा रहा हूं उनका घर देखने,
जहां तुम चाह कर भी जा नहीं सके।
एक असगर मियां मिले थे अभी हाल में
पिचहत्तर बरिस के होंगे। बुनकर हैं। दफ्तर में आए थे।
नोनीहाट का ज़िक्र आया तो तुम्हारा नाम कहा।
फिर बोले- बहुत पुरानी बात है!
शायद आप नहीं जानते होंगे उनको!
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स युवा चित्रकार मनोज कचंगल की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल- 7004433479
ई मेल : nonihatkakavi@gmail.com
विनय सौरभ ने रोज ब रोज की घटनाओं को काव्य विषय बनाया है
जवाब देंहटाएंये कविताएं नही जीवन के त्रासद विवरण हैं
विनय जी की कविताएँ बहुत अच्छी हैं। उन तक हमारी बधाई पहुँचे।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंविनय जी
मेरे प्रिय कवि
और मेरे प्रिय मित्र हैं
उनकी कविताएँ
संवेदनाओं की सरिता में
कल कल बहती हैं
कविताएँ
बिना श्रृंगार के ही
बहुत कुछ कहती हैं
विनय जी सबके प्रिय कवि हैं
बहुत गहन और मानवीय मूल्यों की तरफ हमारा ध्यान खींचती यथार्थ बोध की कविताएँ।
जवाब देंहटाएं