पंडित बिरजू महाराज से प्रवीण शेखर की बातचीत और एक शाम की याद

 




प्रख्यात भारतीय कथक नर्तक पंडित बृजमोहन नाथ मिश्र का लोकप्रिय नाम बिरजू महाराज था। वे भारत के प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य कलाकारों में से एक थे। वे भारतीय नृत्य की 'कथक' शैली के आचार्य और लखनऊ के 'कालका-बिंदादीन' घराने के एक अग्रणी नर्तक थे। पहला जुड़ाव नृत्य से होने के बावजूद इनकी गायकी पर भी अच्छी पकड़ थी, तथा ये एक अच्छे शास्त्रीय गायक भी थे। इन्होंने कत्थक नृत्य में नये आयाम नृत्य-नाटिकाओं को जोड़ कर उसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। ताल और घुँघुरूओं के तालमेल के साथ कथक नृत्य पेश करना एक आम बात है, लेकिन जब ताल की थापों और घुँघुरूओं की रूंझन को महारास के माधुर्य में तब्दील करने की बात हो तो बिरजू महाराज के अतिरिक्त और कोई नाम ध्यान में नहीं आता। बिरजू महाराज का सारा जीवन ही इस कला को क्लासिक की ऊँचाइयों तक ले जाने में ही व्यतीत हुआ। प्रख्यात रंगकर्मी प्रवीण शेखर ने बिरजू महाराज के साथ 1995 में एक बातचीत की थी। इस बातचीत के हवाले से प्रवीण ने उस यादगार शाम को भी शिद्दत के साथ याद किया है। इस आलेख को 'छायानट' पत्रिका के हालिया अंक से साभार लिया गया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं पंडित बिरजू महाराज से प्रवीण शेखर की बातचीत और एक शाम की याद 'संगीत और आनंद एक दूसरे के पर्याय'।



संगीत और आनंद एक दूसरे के पर्याय


प्रवीण शेखर


कथक नृत्य के लीजेंड और आइकॉन पंडित बिरजू महाराज से यह मुलाकात साल 1995 की है। इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के मुट्ठीगंज मोहल्ले में अपने एक आत्मीय आवास पर ही अक्सर वह ठहरते थे। यह उनसे दूसरी मुलाकात थी। पहली मुलाकात में ही उन्होंने अपने प्रेम और अपनेपन से उस दूरी को पाट दिया था जो एक विराट-विश्वविख्यात कलाकार और नौसिखिया लेखक-रंगकर्मी के बीच हो सकती थी। कथक नृत्य और ठुमरी गायन में उन्हें सिद्धि प्राप्ति थी ही, साथ में उन्हें रिश्ते और संबंध को प्रेम व बड़प्पन से सींच कर बड़ा और विश्वसनीय बनाने में भी महारत थी। पहली मुलाकात के बाद ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह हमारे शहर आए हों और मिलने का संदेशा न भेजा हो। 



17 मई 1995 की उस मुलाकात का एक हिस्सा अमर उजाला अखबार के इलाहाबाद संस्करण में उपयोग किया गया था। इसे पढ़ कर संस्कृति के प्रति कथक गुरु बिरजू महाराज के सरोकार और नज़रिये की झलक तो मिलती ही है, यह भी मालूम होता है कि टेलीविज़न के ज़रिये फैल रही अपसंस्कृति के बारे में तो वह फ़िक्रमंद थे ही, संगीत सभाओं में ताली भर पीटने वाले श्रोताओं पर भी उनकी निगाह लगी हुई थी।



पांच वर्ष की अल्प आयु से ही पैरों में घुंघरू बांध लेने वाले कथक गुरु पद्मविभूषण पंडित बिरजू महाराज दूरदर्शन के रवैये से ख़ासे क्षुब्ध थे। नाराज़गी भरे स्वर में उन्होंने कहा – दूरदर्शन पर कलाकारों के चयन का कोई मानदण्ड नहीं है। चुनाव और चयन दोनों ही ग़लत तरीक़े से होता है। कलाकारों के चयन के लिए बनी समितियां बेमानी हैं। दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले ‘ग्रेट मास्टर्स’ कार्यक्रम में कई ऐसे कलाकारों को मौक़ा दे दिया जाता है, जिन्हें अब भी कम-से-कम 15 साल रियाज़ की ज़रूरत है।



पंडित बिरजू महाराज ने कहा कि दूरदर्शन पर शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम देर रात में दिखाये जाते हैं जबकि अपसंस्कृति फैलाने वाले कार्यक्रमों का प्रसारण दूरदर्शन के ‘प्राइम टाइम’ में किया जाता है हालांकि, ज़रूरत इसके एकदम उलट है। यह भारत सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि इस सम्बन्ध में दूरदर्शन को ज़रूरी दिशानिर्देश दे। कहा कि इन्हीं सब वजहों से वह दूरदर्शन पर कार्यक्रम प्रस्तुत नहीं करते। आख़िरी कार्यक्रम उन्होंने 25-30 वर्ष पूर्व लखनऊ दूरदर्शन की शुरुआत के समय दिया था। विदेशी भी अपने जूठन जैसे पॉप संगीत के कार्यक्रमों को देख कर कहते हैं कि यह सब तो वह लोग 20 साल पहले ही छोड़ चुके हैं।



कलाकार और उसकी कला के लिए पुरस्कार और सम्मान के महत्व के सवाल पर उन्होंने कहा कि सच्चे कलाकार के लिए पुरस्कार या सम्मान की हैसियत एक छोटे-से स्टेशन से ज़्यादा नहीं होती लेकिन आजकल दिये जा रहे पुरस्कारों की भी कमोवेश दूरदर्शन जैसी है। पुरस्कार समिति में बैठे 8-10 लोग मिल बांट कर पुरस्कार ले-दे लेते हैं।



संचार माध्यमों, केबिल टेलीविज़न और सूचना-मनोरंजन के संसाधनों में आई क्रान्ति, उसके बदलते तेवर (और स्तर) के सवाल पर उनका कहना था कि विदेशी शास्त्रीय पहले जैसा ही ही है। उनकी कला वैसे ही सुरक्षित है। बैले और जापान के काबुकी थिएटर का वही रूप विद्यमान है। वहां चीखने वाले पॉप संगीत को हमारे फ़िल्म वालों की तरह स्वीकार नहीं किया गया। भारत इस मामले में ज्यादा दूषित हो गया है।



हालांकि उम्मीद भरे स्वर में उन्होंने यह भी कहा कि – लेकिन यह सब टिकाऊ नहीं है। विदेशी संगीत का यह प्रभाव वायरल फ़ीवर जैसा है, जो मौसम के साथ आया है और वैसे ही चला जाएगा। यहीं के लोग ‘पॉप सिंगर’ और न जाने क्या-क्या बनते जा रहे हैं।





यूरोप सहित पूरी दुनिया में बेहद लोकप्रिय अमेरिका के पॉप गायक माइकल जैक्सन का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि उसके पास भी संभावनाएं ख़त्म हो गईं। वह उछल-कूद लिया, कूद-फांद लिया, कपड़े कम कर दिए और जब सारी गुंजाइश ख़त्म हो गई तो क़ब्र से मुर्दा उठा कर नचवाने लगा। दरअसल पाश्चात्य सभ्यता का यह अपना दोष है। यह वैसे लोग अपनाते हैं, जिनका अपने ऊपर वश नहीं है, ब्रेक फेल हो गया है। हमारा संगीत आनन्द का द्योतक है। संगीत अर्थात्‌ संग और गीति। यह श्रृंगारिक भावनाओं और आनन्द के लिए हैं। जो आनन्द का प्रकटीकरण करे, वही सच्चा संगीत है जैसे हमारा शास्त्रीय संगीत। भारतीय संगीत और आनन्द एक दूसरे के पर्याय हैं।



बिरजू महाराज ने और स्पष्ट करते हुए बताया कि उपद्रव के बाद जो शान्ति होती है, वह है हमारा संगीत। उपद्रव विदेशी चलताऊ संगीत है। कितना भी कूद-फांद कर लो, अंत में शान्ति की परम आवश्यकता होती है। यह योग क्रिया है। इससे ज़िन्दगी में सन्तुलन आता है। ‘स’ वही है, आवर्तन वहीं है लेकिन लय को समय में बांध कर मनन करना और आवर्तन रोकने का कार्य संतुलन हैं।



नई पीढ़ी के शास्त्रीय संगीत के साथ रिश्ते के बारे में उन्होंने कहा कि इसके लिए सरकार की ओर से वांछित प्रयास नहीं हो पा रहे हैं। कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में कलकत्ता के प्रहलाद दासगुप्ता के पुत्र चित्रेश दासगुप्ता ने संघर्ष करके वहां नृत्य को अनिवार्य विषय बनवा दिया लेकिन भारत के विद्यालयों से नृत्य को हटा दिया गया। वास्तव में नृत्य की शिक्षा हर व्यक्ति को दी जानी चाहिए। यह एक रचनात्मक कार्य है। शरीर की कसरत हो जाने के साथ शरीर संचालन में सन्तुलन बनता है नृत्य से।



सरकारी प्रचार से वह ख़ास संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने कहा कि नृत्य-संगीत में वजीफ़े तो दिए गए लेकिन उससे बात नहीं बनती। खेलों जैसी सुदृढ़ स्थिति कलाओं में अभी तक नहीं बन सकी। खेलों में चाहे कोई हारे या जीते आर्थिक तौर पर मज़बूत तो हो ही जाता है। यानी हार के भी वह कमाता है और जीत के तो कमाता ही है। अब क्रिकेट के प्रसिद्ध खिलाड़ी सुनील गावस्कर का ही उदाहरण लीजिए। उनकी सेवाओं के बदले सरकार ने उन्हें आजीवन मुफ़्त रेलवे पास जारी कर दिया लेकिन पंडित रविशंकर, उस्ताद अल्ला रक्खा ख़ाँ, पंडित किशन महाराज, अलाउद्दीन ख़ाँ या मुझे क्यों नहीं मिला?



कहा – मैं यह नहीं कहता कि गावस्कर को नहीं मिलना चाहिए। वह भी श्रेष्ठ हैं और गावस्कर ने अपने फ़न में क़माल हासिल किया है परन्तु हमें भी ऐसी ही तमाम सुविधाएं मिलनी चाहिए। अल्ला रक्खा ख़ाँ, किशन महाराज या पंडित रविशंकर के जैसा कोई दूसरा नहीं पैदा होगा। पद्मविभूषण का तमग़ा न तो ओढ़ सकते हैं, न बिछा सकते हैं और न उसमें रह-खा सकते हैं. कुछ ऐसी व्यवस्था होती कि हम किराये के मकान में न रह रहे होते। मेरे चाचा पंडित शम्भू महाराज कहा करते थे कि इन्दिरा गांधी ने मेडल तो दे दिया लेकिन एक स्कूटर दे दिया होता ताकि सावन में भीगने से बच जाते और घर जल्दी पहुंचते।



दर्शक और मंच के रिश्तों में बदलाव के सवाल पर उन्होंने कहा कि संगीत सभाओं में आने वाले गुणीजनों की संख्या अब कम हो चली है। लोगों के पास समय नहीं है। तालियां पीटने वाले और वाह-वाह करने वाले बहुत आते हैं. हृदय से ‘आह’ करने वाले अब अत्यन्त कम हैं।



पंडित जी के लिए नृत्य अब दर्शन है, अध्यात्म है। नाच अब उनके लिए महज नाच नहीं रहा। 30-35 वर्ष पूर्व ऐसा नहीं था। तब मेहनत और जीत की ख़्वाहिश थी। होड़ थी, एकदम तबले की तरह। वह सब बालपन ओर बांकपन की स्वाभाविक प्रवृत्ति थी।



अपने भारतीय होने पर गर्व करने वाले पंडित बिरजू महाराज उन दिनों गायन के विभिन्न रागों, कथक और प्रकृति पर आधारित एक टेलीविज़न धारावाहिक पर काम कर रहे थे। उसके बारे में उन्होंने बताया कि इसमें संगीत के श्रेष्ठ लोग जुड़े हैं।


शाम को उनके नृत्य का कार्यक्रम प्रयाग संगीत समिति में हुआ। वह शाम भी कैसी? पंडित जी के नाच से सजी खूबसूरत और जगमग शाम।



रात कल गहरी नींद में थी जब

एक ताजा सफेद कैनवस पर, 

आतिशी लाल सुर्ख रंगों से 

मैंने रौशन किया था इक सूरज। 



गुलज़ार के एक नज़्म की यह चंद सतरें भले ही किसी और मकसद से लिखी गयी हों लेकिन कथक सम्राट पदम्‌ विभूषण पं. बिरजू महाराज के छम-छम करते घुंघरू तो यही कह रहे थे । 



उनके भाव विभोर कर देने वाले नृत्य से मेहता प्रेक्षागह का मुक्तांगन का विशालकाय मंच शास्त्रीय नृत्य की आध्यात्मिकता के रंगों से चमक गया।





सांस्कृतिक आयोजन 'प्रयाग महोत्सव' की पहली शाम उनके नृत्य से निकले आनन्द के चमकीले सूरज-चांद-सितारों ने 43 डिग्री सेल्सियस तापमान की तपिश को बिसरा दिया। इस अप्रतिम कलाकार की थिरकन, मटकन, अभिनय, नेत्र व पद संचालन, अभिनय को पा कर समृद्ध होने की लालसा लिए स्वयं नृत्य कला महाराज के घुंघरुओं के पास घेरे खड़ी थी। 



कथक के लिए विख्यात लखनऊ के कालका बिंदादीन घराने के इस बेजोड़ कलाकार की मुझसे से कुछ घंटे पूर्व कही गयी वह बात सोलह आने सच साबित हुई कि अब उनका नृत्य दर्शन है, आध्यात्म है। वाकई, पं. बिरजू का नृत्य, नृत्य की आम परिभाषा के पार जा चुका था। जहां दर्शक और कलाकार के बीच आध्यात्मिक आनन्द के सिवा किसी चीज़ की रत्ती भर गुंजाइश नहीं रह जाती।



 इलाहाबाद, लखनऊ, वाराणसी को अपना घर मानने वाले उनके परिवार के लोग 5-6 पीढ़ी पूर्व स्थानीय हंड़िया कस्बे से लखनऊ जा कर बस गये। पं. बिरजू महाराज ने कार्यक्रम की शुरुआत कृष्ण वन्दना - समस्त पापखण्डनम्‌ ' समहित चेत रंगरम्‌' से की। फिर पं. बिरजू महाराज ने ताल के कागज पर धुंघरू की कलम ले कर अंग व नज़रों से रंग भरते तीन ताल की रचनाएं प्रस्तृत की। इस तीन ताल में नृत्य के प्रकार ठाठ, भावपूर्ण तरीके से आमद, तोड़े, गत व निकास को लखनऊ शैली की पूरी विशेषता के साथ प्रस्तुत करके मुग्ध कर दिया।



पीली चमकदार शेरवानी, सफेद चूड़ीदार पायजामा धारण किये वह पूरे मूड से नाच रहे थे और खूब नाचे। उठान में ताल के साथ लचबद्धता और मिलान सभी कुछ बेजोड़ लगा। उठान के बोलों में शिव के डमरू की थापों को पहले शब्दों में, परन में और तब उसकी नृत्य प्रस्तुति करते चले गए।



ताल के हिसाब से पैरों का संतुलन और गति में सामंजस्य करते चलते वह रचनाओं को उसके अंजाम तक ऐसे पहुंचाए कि दृष्टि, स्वर ताल की धारा में बहती चली गई। बढ़ी उम्र में भी गजब की चुस्ती फुर्ती के साथ नाचने वाले पं. बिरजू महाराज की जुगलबंदी देखना सुखद था, जिसमें घुंघरू (नायिका), तबला (नायक) की छेड़-छाड़, भाग-दौड़ और ठिठोली सब कुछ था। इसके साथ उन्होंने दादरा रूप में तीक्ष्ण गति वाली जुगलबंदी पेश की। उन्होंने बिंदादीन महाराज द्वारा रचित दादरा-



बिहारी को अपने बस में कर पाऊं,

लागे न पावें ताती बेरिया,

सांस की बेनिया डोलाऊं।

जहां चरण राखे मोरे प्रभु जी, 

तहं तहं नैना बिछाऊं 

बिन्दा सोवन लागे मोरे प्रभु जी

चुन चुन कलियां बिछाऊं


- में बढ़िया मुद्राएं दिखायी।



लय की छंद में अच्छी तरह बंधे 1-2-3-4-5 अघात वाली तिहाइयां, सीधी गत के टुकड़े, मयूर नृत्य रचना, ग़ज़ल की प्रस्तुति पूर्णता की हद लिए थी। पंडित बिरजू महाराज की विशेषता थी कि वह आम जीवन की घटनाओं व प्रसंगों को उदाहरण के रूप में नृत्य में ढाल कर प्रस्तुत करते थे। उस शाम झप ताल में बजने वाले भारतीय दूरभाष का प्रस्तुतीकरण ऐसा ही नमूना था। उन्‍हें पैरों के चपल संचालन, तिहाईयां, बंधे बोलो के साथ लय को बिखेरने का सुन्दर तरीका आता था। लखनऊ घराने में लयात्मकता पर जोर रहता है। यह विशेषता उनके नृत्य में भी हमेशा दिखी। लखनऊ घराने की ही अन्य खासियत अभिनय करने के अंदाज को भी उस शाम पण्डित जी ने सुंदरता के साथ दिखाया। उन्होंने प्रस्तुति के तीनों हिस्से नृत्य के अन्तर्गत लय के साथ अंग संचालन, लयकारी को परन, टुकड़ों, बोलों के माध्यम से दिखाया। गत में कृष्ण लीलाओं का निरूपण, हस्त मुख भंगिमाओं से तथा पैरों से लगातार आघात देते रहे। अभिनय के अंतर्गत वह गीत गाते और शब्द के भावों को विविध अभिनयों से व्यक्त किया। अभिनय के लिए उन्होंने तीन ताल के दादरा का प्रयोग किया। 



उसी शाम पंडित बिरजू महाराज की शिष्या शाश्वती सेन ने भी कथक की कलात्मक प्रस्तुति की। पंडित जी के कार्यक्रम में सारंगी पर तृष्णा दास मिश्र, तबले पर अंबिका मिश्र, सितार पर विजय शर्मा और गायन में हरि शंकर राय ने असरदार संगत किया।


******



नई पीढ़ी के अग्रणी नाट्य निर्देशकों में शुमार। प्रमुख अंतरराष्ट्रीय - राष्ट्रीय नाट्य समारोहों में बतौर निर्देशक भागीदारी। अंग्रेजी साहित्य, मॉस कम्युनिकेशन, हिंदी साहित्य में एम. ए., फिल्म अध्ययन की शिक्षा फिल्म संस्थान पुणे और कला अध्ययन राष्ट्रीय संग्रहालय प्रयागराज से। सांस्कृतिक समालोचना पर पुस्तक रंग सृजन प्रकाशित राष्ट्रीय सम्मान (भारत सरकार), राज्य सम्मान, उ.प्र. संगीत नाटक एकेडमी सम्मान, सीनियर फैलोशिप (संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार), अवॉर्ड आफ एक्सीलेंस (इलाहाबाद विश्वविद्यालय), कुम्भ फेलोशिप (जी. बी. पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट) आदि से सम्मानित।




प्रवीण शेखर 















सम्पर्क

प्रवीण शेखर

105/14-बी, जवाहर लाल नेहरू रोड, 

जॉर्ज टाउन, 

प्रयागराज/इलाहाबाद-211002


फ़ोन: 9415367179


ईमेल: pravinshekhar09@gmail.com

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं