बुद्धिलाल पाल के काव्य-संग्रह की समीक्षा
कवि की यह जिम्मेदारी होती है कि वह अव्यवस्था या वर्चस्ववाद के खिलाफ जनता का साथ दे। वह जनता जिसकी बात कवि अपनी कविताओं में करता है। हालांकि यह आसान नहीं होता। और कवियों को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ता है। लेकिन कवि खामियाजे की परवाह कहां करते हैं। ऐसे ही कवि हैं बुद्धिलाल पाल। वे पाते हैं कि आज लोकतन्त्र के लबादे में पुरातन काल या मध्य काल का ही निरंकुश राजा है। इसी क्रम में वे इस राजा को ही अपनी कविताओं के माध्यम से चुनौती देते हैं। न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ने कुछ कवियों की चुनिंदा कविताओं की श्रृंखला प्रकाशित की है। इसके अन्तर्गत बुद्धिलाल पाल के चुनिंदा कविताओं का संग्रह प्रकाशित हुआ है। रूपेन्द्र तिवारी ने इस संग्रह की एक तहकीकात की है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं बुद्धि लाल पाल के कविता संग्रह पर रूपेन्द्र तिवारी की समीक्षा 'वर्चस्ववाद को चुनौती देने वाला कवि'।
वर्चस्ववाद को चुनौती देने वाला कवि
रूपेन्द्र तिवारी
बुद्धिलाल पाल का सद्यःप्रकाशित काव्य-संग्रह 'समकाल की आवाज़' पढ़ने का अवसर मिला। यूँ तो आपकी फेसबुक वॉल पर आपके विमर्श, कविताएं तथा समसामयिक घटनाक्रमों पर आपके विचार अक्सर पढ़ती रहती हूँ। जिस दौर से हम गुज़र रहे हैं, एक संवेदनशील व्यक्ति ही उसके हर पहलू पर अपने मौलिक विचार रख सकता है।
भीड़ में भीड़ हो जाना और 'हां' में 'हां' मिलाना, दुनिया का चिरपरिचित दस्तूर है, किंतु बुद्धिलाल पाल जी का चिंतन व प्रतिरोध अपनी अलग पहचान रखता है।
'समकाल की आवाज़' इस संग्रह के नाम से ही अंदाज़ लगाया जा सकता है, कि इसमें कैसी कविताएं होंगी, पढ़ने पर अंदाज़ा सही बैठता है।
संग्रह के आत्म वक्तव्य में आपके निजी जीवन, परिवेश, विचारधारा के विषय में कुछ जानने का अवसर मिलता है। साथ ही आपकी काव्य धारा के सूत्र भी हाथ लगते हैं। समय के साथ बदलती आपकी आस्था, विश्वास, विचार, आपकी जिज्ञासाओं तथा पढ़ने की ललक से रूबरू होते हुए, आपके कार्यक्षेत्र में न केवल व्यक्ति की पहचान, बल्कि समाज के विभिन्न अवयवों की गहरी पड़ताल, आपके स्वभाव का अंग बनती दिखाई देती है। जिस दौर में आप की परवरिश हुई होगी, विसंगतियों से वह भी अछूता न रहा होगा, किंतु आज समाज विसंगतियों के चरम पर पहुंच चुका है, जिसे हम सब अनुभव करते हैं।
संग्रह की पहली कविता 'कोई है' किसी के प्रति संदेह मात्र की कविता नहीं है, वह 'कोई' कभी स्वार्थ, तो कभी बाजार, तो कभी सत्ता, तो कभी पूंजीवाद हो सकता है, जो पल-पल व्यक्ति से होता हुआ परिवार, समाज, देश और विश्व तक को विचार शून्य की स्थिति में पहुंचा रहा है।
संग्रह के कुछ कविताएं 'राजा' को संबोधित कर लिखी गई हैं। सवाल यह उठता है, कि लोकतंत्र में भला राजा का उल्लेख बार-बार क्यों आ रहा है?
जिस परिवेश में लोकतंत्र, राजशाही का आभास देने लगे तथा सत्तासीन प्रजा के नुमाइंदे न हो कर, 'राजा' का आभास देने लगे, ऐसे में सदियों पूर्व पढ़े, सुने, समझे 'राजा' के उपमान सामने आने लगते हैं -
"राजा यानि
राजा का प्रजा सुख
सुख यानि
जय-जयकार
जय यानि
राजा का घमंड
घमंड यानि जनता से व्यभिचार
व्यभिचार यानी
राजा का न्याय!"
जब न्याय का अर्थ राजा के द्वारा जनता से व्यभिचार से लगाया जाए तो कमोबेश स्थितियां कितनी विपरीत होने लगती हैं।
बुद्धिलाल पाल जी ने समय काल और परिस्थितियों को केवल कलमबद्ध ही नहीं करते, बल्कि इन कविताओं के माध्यम से स्थितियों को एक दृष्टि से विचारने का अवसर भी अपने पाठक को देते हैं।
लोकतंत्र को खतरे में कह देने भर से इतिश्री नहीं होगी, उसके प्रमाण भी देने होगें। लोकतंत्र का राजतांत्रिकरण होने के प्रमाण कि जिसमें सत्ता पक्ष स्वयं को प्रभुसत्ता की तरह स्पष्ट दर्शाता हो, किसी राजा की भांति स्वयं को दैवीय होने की उपाधि दिलवाता हो, धर्म के नाम पर अधर्म फैलाता हो, नीतियों के स्थान पर कु-नीतियों से आम जनता को दिग्भ्रमित करता हो, सांप्रदायिकता का अनुगामी हो, जहांँ सत्ता की आलोचना दंडनीय हो, जहांँ राजा अपनी जय घोष सुनने में पीड़ित जनता का क्रंदन उपेक्षित करता हो।
बुद्धिलाल पाल ने इतिहास से उठा कर एक ऐसा चरित्र सामने लाने का लेखकीय दायित्व निभाया है, जिसे दबी आवाज में सब स्वीकारते हैं, किंतु खुल कर कहना साहस का कार्य है।
संग्रह की कविता 'सन्नाटा' में जिस तरह बिंबों तथा प्रतीकों से बात कही गई है, उसे पढ़ कर मुक्तिबोध की लेखनी का आभास होता है। वही चिंतन, वही छटपटाहट, वही अवसाद जिसमें घिर कर कवि वस्तुस्थिति का अनुमान लगाते हैं, कि ऐसी स्थितियां उत्पन्न करने का आशय आमजन को भ्रमित कर उन स्थितियों का लाभ आपस में बांट लेना है।
कविता की कुछ पंक्तियां -
"जादू टोने के अस्तित्व से डर नहीं लगता
पर विश्वास टूटता है तो धक्का लगता है"
"वरदान ही गहरी नींद का है"
"मरघट के सन्नाटे का लाभ
आपस में बराबर बांँट लेते हैं।"
इन सब के विरोध में ऐसा नहीं कि आम जनता कुछ नहीं करती। कविता 'असंतोष' की पंक्तियां -
"जनता का असंतोष
राजा के राज्य में
पानी का बुलबुलों- सा
उठता.... फुस्स हो जाता।
"जनता की अकूत प्रतिरोध -क्षमता को
अपने बस्तों में लपेट कर रखना।"
"जनता का असंतोष हमेशा
राजभक्ति में घुटने टेकता
बस्स! चौराहों में बड़बड़ाता भर।"
इन पंक्तियों में आज की वस्तुस्थिति को जैसे जस-का-तस रख दिया हो।
बुद्धि लाल पाल |
बुद्धिलाल पाल की कविताओं में वे सारे प्रश्न आते हैं, जिन पर एक चिंतक की चेतना उसे मनन करने के लिए बार-बार प्रेरित करती है।
प्रश्न चाहे सामाजिक विसंगतियों के हो, धार्मिक आधार पर बंटवारे के हों, ईश्वरीय सत्ता को राजा की सत्ता में प्रतिपादित होने के हों, मिथकीय चरित्रों के हों, जिन की आड़ में भोली जनता को भ्रमित कर अपने पक्ष में लाभ की स्थितियां निर्मित करना हो, पूंजीवाद का बढ़ता प्रभाव हो, शिक्षा के नाम पर बुद्धि का हरण हो, अपराध के लिए विवशता की अनिवार्यता का स्वरूप रचना हो, राष्ट्रीयता को आतंक का पर्याय बना देना हो, चाहे समानता के नाम पर निरंतर ठगना हो।
नि:संदेह 'राजा' के प्रतीक को ले कर जितनी भी कविताएं इस संग्रह में हैं वे सब 'समकाल की आवाज़' हैं।
वर्तमान स्थिति का जायज़ा लेती इस संग्रह की एक और कविता -
"गरीब अपराधी होते हैं
अमीर कोई अपराध नहीं करते
अमीर के अपराध
गरीब पर थोप दिए जाएं
गरीब को कोई फर्क नहीं पड़ता
अमीर को पड़ता है
लिहाजा!
घोषित कर दिया जाए
गरीब ही अपराध करते हैं।"
सर्वहारा की पीड़ा को स्वर देना और वर्चस्ववाद को कटघरे में खड़ा करने की इस कविता को व्यंजनात्मक शैली में बखूबी उभारा गया है।
वर्तमान परिदृश्य में रचे जा रहे अराजक तत्व में सबसे आम दृष्टिगोचर होने वाले तत्व हैं, आतंक तथा आतंक की सत्ता। आज के संदर्भ को एक पंक्ति में परिभाषित करने का साहस किया है कवि ने -
"आतंक को ही
वे राष्ट्रीयता कहते हैं।"
क्या समाजवाद केवल यूटोपिया मात्र ही रह जाएगा... यह प्रश्न यक्ष प्रश्न की तरह जनता के सामने खड़ा है -
"जनता के
परंपरागत चिंतन में
स्मृतियों में संस्कृतियों में
परंपराओं में अवधारणाओं में मूल्यों में
साम्राज्यवादी सताएं
फासीवादी धर्मवादी पूंजीवादी
जनता इन सब में डूब कर सिर्फ गाना गाती है
समाजवाद आ रहा है।"
संग्रह में आम व्यक्ति की प्रवृत्तियों, प्रतिरोध, आकांक्षाओं, आशाओं, अपेक्षाओं के भाव तो हैं ही, साथ ही प्रकृति में व्याप्त प्रेम का भी उल्लेख है। एक और राजनीतिक दृष्टिकोण जहांँ ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी, भेद-भाव, जाति-पाति धर्म को हथियार के रूप में प्रयुक्त करने वालों की अराजक सोच है, तो दूसरी ओर प्रेम जो प्रकृति का अवयव है, जिसमें निश्चलता है, जो कभी चांद में सूत कात रही बुढ़िया को खोजता है, तो कभी आदमी की जेब में पड़े धूप के टुकड़ों के रूप में आशा को सहेजता है, जो समझता है चालबाजियां धर्म, जाति, वर्ण के आधार पर बांटने की साजिशें, जो समझता है, 'आग' का अस्तित्व, जिसमें नकारात्मकता तो है ही, सकारात्मकता का अधिक उपयोग है। जो 'जंगलों' के मिटने से दुखी है, वनजीवियों के स्थानापन्न होना जिसके लिए असहनीय पीड़ा है। जिसे पता है 'शुचिता' ऑनर-किलिंग में नहीं, उदात्त प्रेम में है, जिसके लिए प्रेम 'उत्सव' है, जिसे 'सनद' है प्रेम बाजारबाद में नहीं, प्रकृति के नैसर्गिक संगीत में है। प्रेम उन्मुक्त 'हंसी' में जीवित है, प्रेम में तुलना नहीं 'साथ-साथ' होने का भाव है, जिसके लिए जीवन
'सपनीले-रंग सूरज के संग
मखमली आशाएं
मिट्टी के संग"
है।
बुद्धिलाल पाल जी के इस संग्रह में जहांँ क्रूर अराजकता का उल्लेख है, वही प्रेम की उदात्तता भी है, जहांँ गरीबी है, वही स्वप्न और आशाओं के फलने-फूलने का जज़्बा भी है।
राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक दरिद्रता के बीच उद्दाम आकांक्षाओं की सुनहरी धूप पड़ती है उसके मुख पर जो निरंतर कार्यरत है। वह मजदूर है, किसान है, जगत का सच्चा सेवक है, जिसके हौसले पर टिकी है पृथ्वी।
इन कविताओं से होते हुए एक संसार दिखाई देता है, जिस पर आपदाओं के काले बादल तो मंडरा रहे हैं, लेकिन आशाओं की रोशनी भी दिखाई देती है।
'समकाल की आवाज़' "बुद्धिलाल पाल"
'चयनित कविताएं'
प्रकाशन : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन (नई दिल्ली)
सम्पर्क
ई मेल : rupendratiwari19@gmail.com
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