वंदना मिश्रा की कविताएं


वन्दना मिश्रा 



यही समाज है और यही दुनिया है। उसे कुछ न कुछ कहना है। जहां नहीं कहने की जरूरत है, वहां भी उसे कहना ही है। उसे इस बात की परवाह नहीं कि उसे सुना जा रहा है अथवा नहीं। आप अच्छा करिए, तो आपको सुनना है, बुरा करिए तो आपको सुनना है। अपने जीवन में हम हर बार इस बात, इस अहसास को महसूस करते हैं। और कवि तो वही होता है जो इस महसूस करने को खुबसूरती से कविता में ढाल दे। वन्दना मिश्रा हमारे समय की जरूरी कवि हैं। अपनी कविता के लिए वे दूर दराज नहीं जाती या कह लें आसमान से टपक कर उनके पास विषय नहीं आते। अपने आसपास के जीवन खासतौर से स्त्री जीवन की विडंबनाओं को वे अपनी कविता का विषय बनाती हैं। ये अनुभवजनित कविताएं हैं जो जीवन के सीझने से बनती हैं। छोटी छोटी कविताओं में उनका पैनापन देखते ही बनता है। काफी पहले 'पहली बार' पर उनकी कविताएं प्रकाशित हुई थीं। एक अरसे बाद हम इस पोस्ट के जरिए फिर से उनकी कविताओं से रू ब रू हो रहे हैं। इन कविताओं को पढ़ते हुए यह कहा जा सकता है कि इस दौर में कवि ने अपने कवित्व का विकास किया है। तो आइए आज 'पहली बार' पर हम पढ़ते हैं वन्दना मिश्रा की कुछ नई कविताएं।



वंदना मिश्रा की कविताएं



माँ चली गई

       

पिता माँ से 14 वर्ष बड़े थे 

बिस्तर पर जल्दी पड़ गए।


माँ  उन्हें इस तरह

देख-देख  सूखती 

जैसे घात लगाए बिल्ली से 

कबूतर

ठंडी साँस ले कहती पता नहीं 

कौन सा दिन देखना पड़े!


पिता केवल दो रोटी खाते

माँ रोटियां थोड़ी मोटी बना देती

पिता  इसे माँ की चालाकी कह 

गुस्सा होते

माँ उनकी एक आवाज़ पर

उठ जाती थी

लाख थकी होने 

और हमारे रोकने पर भी

पिता की भूख का अंदाज़ था उन्हें।


माँ चली गई पिता से दस वर्ष पहले


पिता ने डॉक्टर के कहे पर भी 

भरोसा नहीं किया

बार -बार माँ की कनपटी पर हाथ रखते

कहते अभी जी रही हैं।


 माँ जानती थी

 पिता का प्यार

 हम तब जान 

 पाए जब नहीं रही माँ

 देखा

एक बूढ़ा बच्चा

 कैसे बन जाता है!

क्षण भर में


आखिरी बार सिंदूर पहनाते समय

बिलख उठे 

बोले "फिर मिलना"

माँ के दोनों हाथों में लड्डू 

रख दिया गया

और पिता का हाथ खाली हो गया

मैंने तब जाना कि

ये सिर्फ़ मुहावरा नहीं है

लाल चुनरी में सजी माँ को 

उठा लिया लोगों ने।


लौटे माँ को छोड़ तो पिता भी

कहीं छूट गए थोड़े से

माँ! उठो न 

पिता को किसी ने 

अभी तक 

कुछ नहीं खिलाया।

        


मतलब


हर वाक्य के पहले 

और आखिर में 


मतलब शब्द जोड़ने पर भी 

जब मतलब नहीं समझा पाई 


तो मौन हो गई 

अब मौन का मतलब 

निकालने लगे है लोग।


        



 

 दुःख

                      

सुखी लोगों का दुःख ये भी

हो सकता है

कि जितने कोण तक 

चाहिए थी

उतनी नहीं झुकी

दुःखी 

लोगों की कमर



मत बांधना मुझे


वो जो हममें तुममें

वादा नहीं था


उस वादे की कसम


किसी उम्मीद की डोर में

मत बांधना मुझे।





      

कलम की आँखें 


मेरी आँखों के आँसू भर जाते हैं 

क़लम की आंखों में

और टपक पड़ते हैं कागज़ पर यहाँ वहाँ

और उन शब्दों को लोग पढ़ते हैं

कविता की तरह

तुम्हारी याद बर्फ़ बना दे मुझे

इससे पहले कलम पिघला देती है मुझे

तुम्हारे बिना क़लम सहारा है मेरा

खोजती हूँ तुम्हें

पर हर बार काम आती है 

सिर्फ़ कलम

इसका शुक्रिया कहूँ या नफ़रत 

जो तुम्हारा विकल्प बन कर 

भी तुमसे नफ़रत करने से रोक लेती है।

    


चलती रहो 


चलते-चलते पलट कर देखोगी 

तो आगे नहीं बढ़ पाओगी

बोलते-बोलते सुनना चाहोगी 

कि लोग क्या कहते हैं लोग

तुम्हारे बोलने के विषय में 

तो बन्द करना होगा अपना मुँह

रूको पर अपनी मर्ज़ी से

चुप होओ पर अपने थकने पर

अपने चलने बोलने पर सन्देह  

जताने वालों को पराजित

करने का सिर्फ़ यही रास्ता है 

तुम्हारे पास कि 

चलती रहो 

बोलती रहो 


  

शरीफ लोग

      

शरीफ़ लोग, इतने शरीफ़ होते हैं, कि, कभी किसी स्त्री की मदद  नहीं करते ।

 

जब कभी उनकी शराफ़त पर भरोसा कर, 

उनकी तरफ देखती हैं, 

वे दूसरी तरफ देखने लगते हैं 

और सावधानी से पीछे हट जाते हैं।


उनके पीछे से झाँकने लगते हैं,

फिर वही बदनाम लोग,

वक़्त ज़रूरत पर वे ही बदनाम व्यक्ति

कर देते हैं उस स्त्री के काम।


शरीफ़ लोग कहते हैं,

यह तो था ही इसी चक्कर में।


शरीफ़ लोग कभी नहीं पड़ते मदद जैसे चक्करों में,

मरती है, मर जाये स्त्री,

वे नहीं पड़ेंगे इस तमाशे में।

इतनी मदद ज़रूर करते हैं कि देखते रहे बदनाम 

लोगो के आने, जाने, रुकने का समय

बदनाम लोगों के फिसल जाने में ही उत्थान 

होता है उनका।


वैसे बडी चिंता होती है उन्हें अपनी इज़्ज़त और 

अपने परिवार की।


बदनाम लोंगो से मदद लेती स्त्री बड़ी सतर्क होती है

सोचती हैं, कृतज्ञ हो, 

पिला दे एक कप चाय या एक गिलास पानी ही 

पर डर कर शरीफ़ लोगोँ से लौटा देती हैं, 

दरवाजे से ही।


मदद ले कर दरवाजे से लौटती स्त्री की 

शक़्ल कितनी मिलती है,


शरीफ़  लोगों से।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


 

सम्पर्क


प्रोफेसर वन्दना मिश्रा

जी. डी. बिन्नानी पी. जी. कॉलेज

मिर्जापुर 231001 


ई मेल Vandanamkk@rediffmail.com





टिप्पणियाँ

  1. सारी कवितायें मर्मस्पर्शी और भावनाओं का गहन विज्ञान हैं !
    सारी कविताओं के एक खासियत समान है कि कविता को पढ़ने के बाद हर पात्र स्वंय से जुड़ा लगता है !
    माँ चली गई कविता पढ़कर नेत्र सजल हो गये !
    शुभकामनायें 🙏💐

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