ज्योतिष जोशी द्वारा लिखा गया आलेख 'यथार्थ से टकराती कविता का लोक'

 

भरत प्रसाद 


काव्य कर्म ऊपर से जितना आसान दिखता है उतना ही आंतरिक तौर पर कठिन कर्म है। कवि उस पीड़ा को मानसिक स्तर पर झेलता है जो उसे सामान्यतया स्वीकार्य नहीं होता। इसी क्रम में वह प्रतिरोध की भाषा गढ़ता है और उसे शब्दों में ढालता है। भरत प्रसाद हमारे समय के ऐसे ही कवि हैं जिनमें प्रतिरोधी चेतना सहज ही देखी जा सकती है। प्रसिद्ध आलोचक, कथाकार, कला-मर्मी ज्योतिष जोशी समकालीन परिदृश्य में अपनी दृष्टि की निरंतरता के लिए जाने जाते हैं। इन्होंने भरत प्रसाद के कवि कर्म की एक सुचिन्तित पड़ताल की है। बकौल ज्योतिष जोशी - 'भरत प्रसाद के तीन कविता संग्रह प्रकाशित है- ‘एक पेड़ की आत्मकथा, ‘बूँद-बूँद रोती नदी’ और 'पुकारता हूँ कबीर'। इन तीनों ही संग्रहों में भरत प्रसाद का कवि प्रतिरोध की अपनी जमीन पर खड़ा है और जनधर्मी सरोकारों से आबद्ध है।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं ज्योतिष जोशी द्वारा लिखा गया आलेख 'यथार्थ से टकराती कविता का लोक'।


                                                                                                                              

यथार्थ से टकराती कविता का लोक                                                                                                

ज्योतिष जोशी          

                             

युवा कवि, कहानीकार और आलोचक भरत प्रसाद को मैं ढ़ाई दशकों से जानता हूँ और उनके बनने की प्रक्रिया का गवाह भी रहा हूँ। भरत प्रसाद में अपने छात्र जीवन से ही आक्रोश रहा है और वे बराबर बद्धमूल सामाजिक ढांचे से ले कर अभिजात्यवादी संरचनाओं को प्रश्नांकित करते रहे है। कहानियों और अपनी आलोचनात्मक टिप्पणियों में भी उनका आक्रोश जब-तब प्रकट होता रहा और वे गैर बराबरी पर आधारित प्रायः हर तरह की व्यवस्था को लक्ष्य करते रहे है। सुदूर उत्तर-पूर्व में रह कर भी लगातार काम करना, साहित्य के केन्द्रीय विमर्शों में हिस्सेदारी करना और एक सार्थक जगह बना लेना आसान काम नहीं है। यह सचमुच हैरान करने वाली बात है कि भरत प्रसाद ने अपने क्षेत्र में, चाहे वह कहानी हो या आलोचना हो, या कविता का क्षेत्र हो- निरंतर असुविधाजनक प्रश्नों से टकराने की कोशिश की है और अपने दायित्व को गंभीरता से निभाया है। यह प्रश्न सत्ता-संरचना के तो हैं ही, सामाजिक विषमता, हिंसा, प्रजातांत्रिक दुःस्वप्न और छीजती मनुष्यता के भी हैं। अपने चारों तरफ पसरे दुःख और उदासी के बीच भरत प्रसाद का सर्जक व्यर्थ की खुशफहमी नहीं पालता, उसे बेमतलब का कोई भ्रम भी नहीं है जैसा कि अनेक युवा रचनाकारों का शगल बन गया है।

                     

भरत प्रसाद साहित्य-कर्म को एक जिम्मेदार नागरिक धर्म की तरह निभाते हैं और यहीं से उन पर चर्चा की शुरुआत की जा सकती है। कहानियों, लेखों, आलोचनात्मक कार्यों और विचारपरक आलेखों की कई पुस्तकों के अलावा भरत प्रसाद के तीन कविता संग्रह है- ‘एक पेड़ की आत्मकथा, ‘बूँद-बूँद रोती नदी’ और पुकारता हूँ कबीर'। इन तीनों ही संग्रहों में भरत प्रसाद का कवि प्रतिरोध की अपनी जमीन पर खड़ा है और जनधर्मी सरोकारों से आबद्ध है। कविता कवि की लाचारी नहीं, उसका संघर्ष और दायित्वबोध है इसलिए वह जब कलम उठाता है तो प्रश्नाकुल करता जाता है, पाठकों के मन की दुविधा को मिटाता है। भरत प्रसाद की कविताएं, सभी संग्रहों की कविताए एक विमर्श रचने का प्रयत्न करती हैं। विमर्श अव्यवस्था के प्रति प्रतिरोध का तो है ही, सत्ता संरचना के विरुद्ध भी है, जिसमें कवि के छल और वंचना के अतिरिक्त कुछ देखा ही नहीं है। एक सुंदर स्वप्न के टूट जाने, उम्मीदों पर नजर गड़ाए पथराई आँखों से बिसूरते लोगों और समाज में फैली दहशत पर चीत्कार करती भरत प्रसाद की कविताएं यथार्थ और विडम्बना-बोध के मध्य उन बेशर्म चालाकियों को पहचानती हैं जिनके कारण भोले-नासमझ लोग अब भी उम्मीद की गठरी अपनी पीठ पर लादे प्रतीक्षा कर रहे हैं- और कवि अपनी पहरेदारी की मुनादी करता हुआ कहता है-


‘मेरे शब्द चौकीदार की तरह

तुम्हारे चरित्र पर रात दिन पहरा देते है

तुम्हारी करतूतों के पीछे घात लगाये बैठे हैं वे

तुम तो क्या, तुम्हारी ऊँची से ऊँची

धोखेबाज कल्पना भी

उनकी पकड़ से बच नहीं पायेगी

परत-दर-परत एक दिन खोल-खोल कर

तुम्हें नंगा कर देंगे मेरे शब्द।’

                                   

एक तरफ प्रतीक्षातुर पथराई आँखों वाले लोग, तो दूसरी तरफ धोखेबाज कल्पना’ और बहकावे के साथ धूर्तता का खेल खेलती व्यवस्था, दोनों के बारीक फर्क से भरत प्रसाद कविता का गवाह  बना कर प्रस्तुत करते है और जनता को खबरदार करने वाले खुद को पहरेदार कहते है। कवि की चिन्ता का एक बड़ा पक्ष देश में फैलती जा रही सांप्रदायिक हिंसा का है। कवि का मन चीत्कार कर उठता है, वह क्षुब्ध होता है और हाथ जोड़े जाने और रोते-गिड़गिड़ाते हुए भी हिंसक भीड़ द्वारा बेकसूर को मार दिये जाने पर व्यथित मन से कहता है -


‘मार दिये जाने से पहले

हाथ जोड़ लेना

तुम्हारी नियति है भाई

लेकिन लाख प्रमाण के बावजूद

जीवन-दान पा लेना

तुम्हारे हक मैं कहाँ?

इनकी शिराओं में तो जीवन-भर

तुम्हारे खून की प्यास दौड़ती रहती है

ऐसे पाषाण चेहरों के सामने

दहशत-भरी विचित्र वेदना के साथ

तुम्हारे रोने का क्या अर्थ?




                                    

यह कवि का केवल क्षोभ ही नहीं है, मनुष्य के रूप में इस दहशत से भरे समाज में हिंसक होने की शर्म है जो बहुत व्यथा के साथ प्रकट होती है। भरत प्रसाद की कविताओं में समाज के उच्छिष्ट लोगों के प्रति गहरी संवेदना है और मार्मिक पीड़ा भी। शिलांग के ‘पोलो टाॅवर’ में स्थित कूड़ाखाना में चौबीसों घंटे डटे रहने और कूड़ा खा कर ही जीवन-बसर करने वाले ‘कूड़ाखोर’ पर लिखी गई है, जो हमें द्रवित करने के साथ-साथ हमारी व्यवस्था की आमनवीयता पर तीखी चोट भी करती है। उस ‘कूड़ाखोर’ के रेखाचित्र के साथ मानवी-सभ्यता के निरूतार करने वाले प्रश्न उठाते हुए भरत प्रसाद कविता के अंतिम अंश में कहते है-


‘कूड़ा उसके लिए कूड़ा नहीं

बुझते हुए जीवन की अंतिम उम्मीद है

डूबते हुए सुख का आखिरी तिनका

पराजय की आखिरी शरण-स्थली

यह निषेध उम्र के लिए कूड़ाखोर बन चुका है

जिसे अपने मामूली पेट से बढ़ कर

दुनिया की कोई पराजय नहीं मिली

पेट से कदम-कदम पर मात खाये

उस इन्सान के लिए

जूठन, जूठन नहीं

सिद्धि प्राप्त कर लेने जैसी चीज है।

                               

यह कूड़ाखोर कूड़े पर घात लगाते कुत्तों से भिड़ता है, तो ‘कच्ची भोर में उठते ही’ यहाँ आ धमकता है। कभी-कभी उसे अपनी दशा पर क्षोभ आता है, तब 


‘बाजारियों की ओर मुट्ठी बाँध कर

घूरने लगता है

और कभी अपने कंकाली सीने में सिर छुपा कर 

चुपचाप सौ-सौ आँसू रोता है।’

                 

यह उसकी नियति है कि हमारी प्रजातांत्रिक विफलता, यह आप तय करें, पर कवि इसे जिस बड़े मानवीय प्रश्न की तरह रखते हैं, उससे किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का हृदय दरक उठता है।

                        

भरत प्रसाद गहरी संवेदना के कवि हैं। अपने कथन में बेलाग और पारदर्शी तो कहने के ढंग में मर्मभेदी। उनका कवि व्यर्थ के सपने नहीं पालता। यह सपने के टूटने से आए संतापों को बांधता है। इसमें दुःख है, वेदना है, छटपटाहट है तो गहरी बेबसी भी, जो पाठकों को सहज ही बेधने लगती है। पर वे निरे यथार्थ के कवि भी नहीं हैं, क्योंकि उनके यहाँ जीवन के वे रंग भी हैं जो एक सम्मोहन में ले जाते है और बीते हुए दिन बरबस सामने हो जाते हैं-


‘फिर उसी छाँव में लौटने को जी करता है

फिर उसी धूल में मिटने का मन करता है

कोई दे न दे मेरे पाँवों को मेरी पगडंडियों

कोई दिला न दे मेरी आँखों को बीती हुई दुनिया

कितना अपना लगता था बचपन का आकाश।’

                                    

कवि को बीते दिन आज के भयावह दिनों के मुकाबले इसलिए अच्छे लगते हैं कि वह उन लोगों की याद में करुण हो गया है, जिन्होंने उसे बनाया और संवारा-


‘नहीं चाहिए मुझको मेरा भविष्य

रत्ती-भर चिन्ता नहीं मुझे अपने वर्तमान की

मुझे सँवारने में मर-खप गये लोगों को

फिर से पा लेना ही मेरा वर्तमान है

उनके नंगे पाँव के निशान को

अपने होठों से चूम लेना ही मेरा भविष्य है।’

                             

यह अतीत राग नहीं, मानवी संवेदना का वह करुण-जगत है जहाँ लौट कर कवि को अपने वर्तमान की भयंकरता से राहत मिलती है। पुराने दिन, पुराने लोग, सजल हार्दिकता और आत्मीयता, पर निस्वार्थ-भाव से जुड़े उनके प्रेम में आज की आपाधापी से भरी अमानवीयता का कारगर प्रतिरोध है। कवि में आत्म-उत्पीड़न है, जो बार-बार उसके व्यग्र मन से बाहर आता है- 


‘अंग-अंग विद्रोह करते हैं

मन की गुलामी से

पक चुकी है आत्मा

बुद्धि की मनमानी से’ 


कहते हुए भरत प्रसाद ‘सुक्खू’ नामक बंधुआ मजदूर की अकाल मृत्यु पर फट पड़ते हैं-


‘आओ, अपनी मौत के बाद

मुझमें साकार हो जाओ

जी उठो मेरे आत्म-धिक्कार में

उठ बैठो मेरे वजूद में

पुकारों मेरी बहरी हो चुकी आत्मा को

चूर-चूर कर डालो मेरा पत्थरपन

आओ, जिलाओ मुझे

आओ................... !’

                                 

यह कविता ‘सुक्खू - की अकाल-मृत्यु पर एक विदा' - कविता ही नहीं है, उस व्यवस्था पर विलाप भी है, जिसके सामन्ती अनाचार के शोषण से गरीब सुक्खू मरा है और उस जैसे नामालूम कितने अवश सुक्खू असमय काल के बाल में समा जाते है। कवि का अपने में सुक्खू को साकार करने का आह्वान वस्तुतः उस व्यवस्था का अंग होने के स्वीकार के साथ आत्मग्लानि की मार्मिक अभिव्यक्ति है जो मन को विचलित कर देती है।




                                            

भरत प्रसाद की कविताओं में दलित-उत्पीड़ित और वंचित के प्रति गहरी करुणा है, तो आत्म-ग्लानि से भरी गहरी कृतज्ञता भी है। अपने पूर्वजों के अनाचारों से त्रस्त होती वंचितों की अस्म्तिा के प्रति अपराध-बोध से भरे कवि के मन में कृतज्ञता का जो भाव है, वह उसके एक ऐसे स्वप्न का हिस्सा है जिसमें समता है। इस स्वप्न में कोई बड़ा-छोटा नहीं है, सब के प्रति समभाव का विमर्श रचते भर प्रसाद उन्हें अब भी पुराने अपराधों के लिए चेतावनी देते हैं जो नये समय में भी मनुष्यता में भेद करने का घृणित कर्म करते हैं -


जज्ब है इन आँखों में

सदियों का संताप

दफन है सीने में

पीढ़ियों की चीत्कार

दिन में मचलता है

पूर्वजों का अपमान।’

                                       

वंचित जनों की उपेक्षा की व्यथा के साथ भरत प्रसाद में उनके प्रति कृतज्ञता का भाव भी है, जो हमे गहरे मथता है। ‘गूंगी आँखों का विलाप’ नामक कविता में भरत प्रसाद वंचित जनों के शोषण और सदियों से हो रहे उत्पीड़न पर व्यथित होकर कहते हैं-


‘रोम-रोम पर दर्ज है

तुम्हारे खून-पसीने का कर्ज

मिट ही नहीं सकते पृथ्वी से

तुम्हारे पैरों के निशान गूंजता है सीने में

तुम्हारे सीधेपन का इतिहास

मचलता है मेरी आँखों में

तुम्हारी गूंगी आँखों का विलाप।’

                                       

भरत प्रसाद की कविताओं में यथार्थ से मुठभेड़ के साथ वर्तमान की विड़म्बनाओं को थाहने और उसे भेदने की हिकमत भी मिलती है। यह हिकमत कई दफा स्वप्न और यथार्थ से मुठभेड़ की शक्ल ले लेती है तथा एक दृश्य-चित्र की तरह कविता हमारे सामने से गुजर जाती है। बड़ी कविता के विन्यास को साधने की कुशलता के साथ भरत प्रसाद ने ऐसी कुछ कविताओं में जिस कौशल का परिचय दिया है, वह चकित करने वाला है। ऐसी कुछ कविताओं में एक है -

                               

‘बंधक देश! यह कविता अपने ही देश में बेसहारा हुई इराक और सीरिया की जनता को समर्पित है। चार खंडों में फैली यह कविता अपने पहले खंड - ‘तील दिया है खुद को’ मैं स्थिति के विवरण के साथ कवि की संवेदना में घुल कर सामने आती है -


‘गिरवी रख दिया है उसने शरीर को

बेच डाली है आत्मा मजहब के हाथों

तौल दिया है खुद को खुदा के आगे

जी कर भी वह अपने लिए नहीं जीता

मर कर भी अपने लिए नहीं मरता।’


इसी कविता में -


‘अंधा अनुगामी वह खूनी खयालातों का

भीषण गुलाम है अपने जज्बातों का

खतरनाक सपनों का मायावी शिल्पकार

                                  

कविता का खलनायक यथार्थ को फैन्टेसी की शक्ल देता हुआ ‘अपनी ही ज्वाला में नाचता है, भागता है।’ वह आँसुओं की भाषा भूल चुका है, भूल गया है गूंगे की पुकार और ‘खा ही डाला आखिरकार मनुष्य होने का अर्थ।




                                      

‘हत्यारे सपनों का शिल्पकार वह‘ नामक दूसरे खण्ड में खलनायक अपने को ‘हिंसा के उत्सव का पागल नृत्यकार’ और ‘हत्यारे सपनों का कुशल शिल्पकार कहता है और स्वीकार करता है कि एक सनक उसके हृदय पर सवार है। विडम्बना यह है कि वह इस विचार का कायल हो चुका है कि ‘खड़े-खड़े प्रलय भरी आँखों के बूते वह/ झुक कर दो हाथों पर चलना सिखायेगा। कविता का तीसरा खंड - ‘देश की हरियाली को लकवा मार गया है’ में दहशत की भेंट चढ़े देशों की दुर्दशा का चित्र है -


‘समूचे आकाश को खा गई है धूल

अंधकार निगल गया है दिशाओं को

क्षितिज का कोना-कोना

काली धुंध के चंगुली में फँसा हुआ

आतंक की माया ऐसी कि

देश को लकवा मार गया है।’


इस खं डमें आतंक के खिलाफ का विद्रोह है, जो कहती है -


‘लो! छोड़ती हूँ वतन

भागती हूँ अपनी जमीन से

नहीं माँगूगी अपेन लिए दया

प्राण की भीख माँगने के लिए

झुके मेरी गर्दन तो काट लेना उसे’


चौथे खंड- भविष्य का प्रातः काल में आतंक की भेंट चढ़े इन देशों की औरतों की मुनादी है -


‘हम तो क्या, हमारा बच्चा-बच्चा

हमारी आने वाली पीढ़ियों

नस्ले-दर-नस्ले

दीवार बन कर खड़ी होंगी

तुम्हारी हुकूमत के खिलाफ

अमन की हिफ़ाजत में।’

                                 

यह कविता विस्तार से टिप्पणी मांगती थी ; क्योंकि यह यथार्थ के जिस भयावह दुःस्वप्न से टकराती है और जिस चित्रमयता के साथ पहले काव्य-नायक पुरुष के अपने धिक्कार को सामने लाती है, उसमें धर्म के नाम पर बर्बाद हुई उसकी आत्मा चित्कार करती है। बाद के खंडों में औरतों का विद्रोह एक उम्मीद के साथ अंतिम खंड तक आता है जिसमें कवि ने आने वाले बच्चों में अमन की आश देखी है। यह कविता यथार्थ और विडम्बनाबोध के जिस शिल्प में ढली है, वह परम्परा मुक्तिबोध की काव्य-परम्परा है, जिस पर बहस करने वाले कवियों की कोई कमी नहीं है, पर उसे कविता में बरत पाने की संवेदना और आवश्यक धैर्य का अभाव है। भरत प्रसाद की यह कविता ‘अँधेरे में के शिल्प और उसके संवेदनात्मक वितान का विकास करती है जो सराहनीय पहल है।

                                 

भरत प्रसाद की यह कविता तो स्पष्टतः मुक्तिबोध के विन्यास से जुड़ती ही हैं, कुछ अन्य कविताएं, जैसे - ‘बुद्ध के एक-एक कदम’ और ‘उमड़ते आँसुओं का उद्घोष भी उसी परम्परा में देखी जा सकती हैं, जिनमें अपने समय के विरूपित यथार्थ से टकराने और वर्तमान के दुष्चक्र को भेदने का प्रयत्न दिखाई देता है। कुछ उदाहरण देंखे -


‘काँपता हुआ वक्त बैठ गया है

दिल के दरवाजे पर

अंग-अंग रक्त से लथपथ

पलकों के उठने-गिरने पर

किसी षड्यंत्र का पहरा

पागल जैसा बदहवास

लहराता है मुट्ठियाँ हवा में

पीटता है माथा, पीटता है सीना

अवाक् कर देने वाली चीख

घुट कर रह जाती है मुँह में

जैसे जीभ को लकवा मार गया हो’

अवसरवादी चेहरे को घूरता है समय

तौलता है मेरी निगाहें

जैसे तीर धँस जाय आँखों में

बीच चौराहे पर’।

                               

‘आत्महत्या की शताब्दी’ और ‘मुस्कुराता है हत्यारा’ जैसी कविताएं भी अपने वितान में छोटी है, पर उनमें व्यक्त संवदेनाओं का दायरा बड़ा है, जो अर्थपूर्ण बिम्बों में खुलकर वर्तमान को उसकी विड़म्बनाओं को प्रस्तुत करती है -


‘पेट फैल गया है शरीर में

रोग की तरह

भूख जैसी पीड़़ा

सरे वदन में उठती है’


या


नफरत फूटती है इसकी आँखों से

साहसी आँखों के खिलाफ

बहकती है सोने में

तनी हुई गर्दनों की प्यास’।

                                       

कविता को एक भरे-पूरे जीवन की नागरिक जवाबदेही की तरह बरतते भरत प्रसाद के यहाँ गाँव की गहरी स्मृति है, तो शहर का परायापन भी है, तिल-तिल कर मरती मनुष्यता की व्यथा है तो अपनी प्रकृति और पर्यावरण की विनता भी, पर उनके काव्य की मूल चेतना यह प्रतिरोध है जो हिन्दी कविता की यथार्थवादी परम्परा से आई है। अपने कहन में बेवाक, बेलाग भरत प्रसाद की कविताएं रोमानी भावुकता से परहेज कर यथार्थ को अपना उपजीव्य बनाती है और नए समाज-विमर्श को रचती हैं उनकी कविता में कमनीयता और चमत्कार नहीं, जीवन के खुरदरे यथार्थ से टकराव है। ‘मर्द और उनकी ऐसी ही एक कविता है। मर्द की देह पाई यह एक ऐसी औरत का रेखाचित्र है जो मर्दो की तरह काम करती है, पर समाज उसे औरत तो नहीं ही मानता, मर्द की तरह भी छोड़ देने से इन्कार करता है। इस दोहरी विडम्बना को झेल रही औरत को भरत प्रसाद ने कुछ इस तरह आंका है -


वह

किसी ठूंठ वृक्ष की

सख्त गाँठ की तरह

अपनी कमर पर हाथ ऐसे रखती है

मानो कह रही हो

बोलो! कभी हरा सकते हो

मुझे?

                                    

यह सबके मजाक का विषय है - दर्द यह है कि वह औरत बन सकी, न मर्द। मर्द की तरह काम करती है पर स्त्री होने की विडम्बना जीती है, स्त्री है पर मर्द की तरह दिखती हुई मर्द न बन पाने की बेबसी झेलती है। यह समाज उसके स्त्रीत्व को तो हरता है, पर स्त्री का दर्जा नहीं देता, पुरुष वह है नहीं, जिसे वह अपनी अस्मिता मान सके। भरत प्रसाद कहते है-


‘वह सवाल बन कर

सभ्यता की पीठ पर

तन कर खड़ी है-

पूछ रही है कि 

मैं तो औरत हूँ

हमें मर्द की तरह किसने बनाया?

किसने छीने?

मेरे भाव, मेरे रूप, मेरे रंग, मेरे हक ?

                                         

कह सकते है कि भरत प्रसाद अपने समकालीन में अलग से पहचाने जा सकने वाले ऐसे कवि है जिनका काव्य-मुहावरा सबसे अलग और हिन्दी कविता की विशुद्ध यथार्थवादी काव्य-परम्परा का विकास है। कविता को सहज-स्फूर्त बिम्बों, अपने समय के मानवीय प्रश्नों और विमर्शों से उठा कर इस कवि ने हिन्दी कविता की प्रगतिशील परम्परा को समृद्ध किया है। अपनी दुनिया में कवि के लिए समूची मानवता ही कविता क्षेत्र है। इनमें अनुभूति की जो सहजता है या विडम्बना को थाहने की जो गहरी युक्ति है, वह भरत प्रसाद को एक विचारशील कवि बनाती है। वह संतोष का विषय तो है ही, एक बड़ी संभावना की बानगी भी है।




ज्योतिष जोशी 




सम्पर्क


मोबाइल : 09818603319






टिप्पणियाँ

  1. सटीक,सारगर्भित किन्तु गहन अध्ययनोपरांत लिखा हुआ लेख है यह ज्योतिष जी का कवि भरत प्रसाद जी के कवि कर्म पर | भरत प्रसाद जी को बधाई और ज्योतिष जी को साधुवाद |

    जवाब देंहटाएं
  2. वास्तव में आदरणीय बन्धु ज्योतिष जी आपने बहुत ही सारगर्भित, सटीक और गहन अध्ययनोप्रान्त Bharat भाई के काव्य पर लिखा आपको साधुवाद

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'