विनोद मिश्र की कविताएं
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विनोद मिश्र |
अवसाद की मनःस्थिति से उपजी संघर्षमय कविताएं : विनोद मिश्र
नासिर अहमद सिकन्दर
वह ऐसा विरला-विलक्षण कवि होगा जो ‘अवसाद’ शीर्षक से चार कविताओं की मनःस्थिति रचे और जिजीविषा को भी केन्द्र में रखे तथा अपनी कविता के भीतर सामाजिक-राजनैतिक यथार्थ और विचारधारा से भी विलग न हो। वह सामाजिक-राजनैतिक यथार्थ के ऐसे चित्र भी रखे जो बेबाकी से कविता में प्रस्तुत हों, बेबाकीपन कविता के भीतर संघर्ष व आंदोलन के रूप में भी प्रस्तुत होता है। विनोद मिश्र ऐसे ही युवा कवि हैं। उनकी ‘अवसाद’ शीर्षक से लिखी चौथी कविता एक ऐसी ही कविता है। उर्दू के बड़े शाइर मीर की मनःस्थिति भी कुछ ऐसी ही थी- अवसादग्रस्त (सिरहाने मीर के आहिस्ता बोलो, अभी टुक रोते-रोते सो गया है), जिसे विनोद मिश्र बखूबी जानते हैं। वे इस कविता में उनका शे’र भी रखते हैं-
दिल की वीरानी का क्या मज़कूर
ये नगर सौ मर्तबः लूटा गया है
यह शे’र भी इसी कविता का काव्य मूल्य बनता है। यानी ‘अवसाद’ की मनःस्थिति के भीतर यथार्थ और जिजीविषा की चित्रमयता अथवा बिंबधर्मिता। आपको ज्ञात होगा कि इसी स्तम्भ में सविता एकांशी की इसी मनःस्थिति की ‘सपना’ शीर्षक प्रस्तुत की गई थी-
तुम्हारे पास बचेगा केवल सपना
अवसाद को पालता एक सपना
(सपना, सविता एकांशी)
तो क्या मुक्तिबोध की लंबी और प्रासंगिक कविता ‘अंधेरे में’ इसी मनःस्थिति की कविता नहीं होगी? दरअसल बेचैन, अवसादग्रसित, ईमानदार, भावुक हृदय व्यक्तित्व की ऐसी अभिव्यक्तियां ही बड़ी कविताओं को जन्म देती हैं।
एक नगर सौ बार लूटा जाएगा
और किसी को इसकी भनक तक नहीं लगेगी
एक शायर सहरा में प्यासा मारा जाएगा
और पूरा दीवान हाथ बांधे खड़ा मिलेगा
एक आत्मा दर्द से नीली पड़ती जाएगी
और उसे कोई दूर तक दिखायी नहीं देगा
एक समुद्र घर में घरघराता हुआ घुसेगा
और डूब मरेंगी अब तक की सारी आकांक्षाएं
(अवसाद-4)
विनोद मिश्र एक ऐसे भी कवि हैं जो अपनी कविता में सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य के घटनाक्रम को केन्द्र में रख कर भारतीय राष्ट्र की संवैधानिक व धर्म निरपेक्ष व्यााख्या करते हैं तथा राजनैतिक विसंगतियों-विडम्बनाओं को भी निडरता के साथ उकेरने से भी नहीं चूकते। वे भारतीय समाज के भीतर बढ़ रही नफरत, दहशत, भय, भ्रष्टाचार जैसी घटनाओं को भी ब्यौरों में अपनी कविताओं में दर्ज करते हैं। ब्यौरों में दर्ज जीवन की यह सोच ही, यथार्थपरकता की दृष्टि बनती है-
बड़े बुजुर्ग कहते हैं
समय होने पर सब अपनों को खोजते हुए
लौट ही आते हैं
तुम तो मनुष्य हो
अब तुम्हें लौट आना चाहिए
(अब तुम्हें लौट आना चाहिए)
तुम्हारी तस्वीर निहारते हुए
आस्था बढ़ती ही जा रही जीवन के प्रति
पर अकेलापन सात घोड़ों पर सवार हो कर आता है
और गहरे नीले आकाश के बीच ले जा कर भटकने के लिए
छोड़ देता है।
सत्ता की निगाह में अकर्मण्य और अदद एक वोट तक
सीमित किया जाता हुआ मैं
तुम्हारी तस्वीर निहारते हुए
अब किसी पवित्र अपराध का भागी होना चाहता हूं
(तुम्हारी तस्वीर निहारते हुए)
जहर चढ़ रहा है ऊपर की ओर
और सिर झनझना रहा है
कान को चीरती हुई आवाजें
रह-रहकर प्रतिध्वनित होती गूंज रही हैं
बाइस्कोप की तरह चित्र बदल रहे हैं जल्दी-जल्दी
और हाथ ऐसे कांप रहे हैं
जैसे कोई अचानक से पिस्तौल थमा दिया हो. . ..
(उस दुष्ट ईश्वर को मैं कभी माफ नहीं करूंगा)
स्त्री संवेदना के कोमल बिंबों के बरक्स उनकी कविता में स्त्री संवेदना की सच्ची दारूण कथाएं हैं। उनकी कविताओं में आज की समकालीन कविता के भीतर स्त्री संवेदना की सामाजिक संरचना का यह एक अनछुआ अध्याय है। ‘उस दिन’ कविता में आए ब्योरों की फेहरिस्त यही दर्ज करती है। ‘एक गुलुकारा की याद में’ कविता भी लगभग इसी तरह की कविता है-
वह जितनी हंसमुख थी उतनी ही भावुक
पर अब वह दोनोें नहीं है
वह अब बाहर भी कम निकलती है
आखिर ऐसा क्या हुआ उस दिन
जिसके बाद उसने कोई कविता नहीं लिखी
(उस दिन)
ऐसे भी टूट कर प्यार नहीं किया जाता गुलबहार
कि प्यार न रहे तो पागल हो जाये कोई
(एक गुलूकारा की याद में)
विनोद मिश्र की कविताओं में विषयवस्तु या शिल्प, काव्य भाषा ही महत्त्वपूर्ण नहीं होती। कविताओं में निहित पाठ का भी संबंध, लयात्मकता से जुड़ कर महत्त्वपूर्ण होता है। उनकी कविताएं आरोह-अवरोह और बतकही शैली में एक संगीतमय एकल नाट्य प्रस्तुति भी बनती हैं। उनकी कविताओं में सोद्देश्यता और सार्थकता का गुण भी विद्यमान है, सामाजिक अन्तर्विरोधों तथा देश के भीतर अत्याचार के दारूण दृश्यों का पैमाना भी बनती हैं। इसे समकालीन हिन्दी कविता का नया काव्य परिदृश्य भी माना जाना चाहिए।
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नासिर अहमद सिकन्दर |
सम्पर्क
नासिर अहमद सिकंदर
मोगरा 76, ‘बी’ ब्लाक, तालपुरी
भिलाईनगर, जिला-दुर्ग
छ.ग.
490006
मो.नं. 98274-89585
*** ***. ***
कवि परिचय
विनोद मिश्र
आज़मगढ़ (उत्तर प्रदेश)
स्नातक एवं परास्नातक - इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
एम. फिल - जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
फ़िलहाल - शोधार्थी, हिन्दी विभाग
हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद
हिमांजलि, कृति बहुमत, समकालीन जनमत और हस्ताक्षर में कविताएँ प्रकाशित।
विनोद मिश्र की कविताएं
अवसाद
(1)
इस तरफ
जगती है रात
इस तरफ
सोता है दिन
इस तरफ
जलता है मन
इस तरफ
हिलती है नाव
इस तरफ
सूखती है नदी
इस तरफ
गड़ती है रेत
मौत हँसती है
इस तरफ ही।
(2)
एक दिन है
जहाँ
अँधेरों का कारख़ाना है
एक रात है
जहाँ
रौशनी का कारोबार नहीं
एक सुख है
जहाँ
सूखती हैं आत्मा की चिप्पियाँ
एक दुःख है
जहाँ
वे ईंधन की तरह जलती हैं
एक भूमि है
जहाँ
गड़ते हैं पाँव
एक नींद है
जहाँ
कुछ भी नहीं है चुपचाप।
(3)
यहाँ
चाँद निकला है
अमावस का
यहाँ
गीत बजता है
मातम का
यहाँ
राहगीर लूटते हैं
ख़ुद को
यहाँ
नक्षत्र टूटते हैं
अनिच्छा के
यहाँ
घोड़े दौड़ते हैं
दर्द के
यातनागृह है यहीं
यहीं भावों की वधशाला है।
(4)
एक सड़क अँधेरों के बीच से जाएगी
और उस पर कोई गाड़ी नहीं चलेगी
एक तोता मज़े से आँवला कुतरेगा
और उसमें कोई मिठास नहीं आ पाएगी
एक 'नगर सौ मर्तबा लूटा' जाएगा
और किसी को इसकी भनक तक नहीं लगेगी
एक शायर सहरा में प्यासा मारा जाएगा
और पूरा दीवान हाथ बाँधे खड़ा मिलेगा
एक आत्मा दर्द से नीली पड़ती जाएगी
और उसे कोई दूर तक दिखायी नहीं देगा
एक समुद्र घर में घरघराता हुआ घुसेगा
और डूब मरेंगी अब तक की सारी आकांक्षाएँ...
*दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है
ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया -मीर तक़ी मीर
उस दिन
ये जो अधेड़ उम्र की स्त्री सामने बैठी है
लोग कहते हैं कभी कविता लिखती थी
उसके पड़ोसी बताते हैं कि उसने एक दिन अपनी सब किताबें और लिखी हुई कविताएँ बीच सड़क पर जला दी थीं
उसके बाद से उसे कोई पढ़ते-लिखते नहीं देखा
वह जितनी हँसमुख थी उतनी ही भावुक
पर अब वह दोनों नहीं है
वह अब बाहर भी कम निकलती है
आख़िर ऐसा क्या हुआ उस दिन
जिसके बाद उसने कोई कविता नहीं लिखी
अच्छा, ये हुआ हो कि भरी बस में उसने अपने कमर के नीचे कोई सख़्त हाथ महसूस किया हो और लोग
उसे देखकर मुस्कुरा दिये हों
या ये हुआ हो कि बात-बात पर शायरी पढ़ने वाला उसका पुराना प्रेमी उसकी अंतरंग तस्वीरें लीक कर दी हों
और उसे कुठाराघात लग गया हो
या ये हुआ हो कि
अपने कवि-पति की करतूतें उसे पता चल गयी हों
झगड़ा हुआ हो और पिटाई के बाद उसका शब्दों से विश्वास उठ गया हो
या ये भी हो सकता है कि
उसके ज्ञानी शोध-निर्देशक ने अपनी सारी हदें पार कर दी हों और उसके मन में ज्ञान को लेकर घृणा भर गई हो
उस दिन कुछ तो हुआ ही था उसके साथ
कोई ऐसे कविता लिखना थोड़े ही छोड़ देता है
अनजाना चेहरा
एक अनजाना चेहरा भ्रम पैदा करता है
तुम्हारे होने का
बत्तियाँ कहती हैं-
वही है!
खेलती हँसती बिखरती चाँदनी की मानिंद
खड़ी है उसी रस्ते पर
जिधर से कई गलियाँ निकलती हैं
एक अनजाना चेहरा सुख देता है तुम्हारे होने का
खुशबू से सज रही है रात
कपड़े बदलने की हड़बड़ी में
आसमान से गिर-गिर-सा जा रहा चाँद
दाहिने हाथ से साड़ी संभाले आ रही हो तुम -
मेरे पास
पास
बिल्कुल पास।
देखो! याद की ज़मीं अभी गीली पड़ी है...
एक गुलूकारा की याद में
ऐसे भी टूट कर प्यार नहीं किया जाता गुलबहार
कि प्यार न रहे तो पागल हो जाये कोई
ख्वाज़ा मोहकमुदीन सेरानी की दरगाह पर
सुनते-गाते तुम बड़ी हुई
पर उनकी मजलिसों में अब तुम्हारे गीत नहीं गाये जाते
तुम्हारे सराइकी लोकगीतों को गुनगुनाते हुए
लोग तुम्हें भूल रहे हैं गुलबहार
तुम गाते-गाते मुस्कुराने लगती थी
और मुस्कुराते-मुस्कुराते गाने
तुम्हारा गाना -
'चाहत में क्या दुनिया-दारी इश्क़ में कैसी मजबूरी'
-बज रहा है
और मैं समझ नहीं पा रहा
आख़िर तुम्हें कौन-सी मजबूरी रही होगी
कहाँ गई तुम्हारी वो जादुई आवाज़
जो राज करती थी लोगों के दिलों में
कहाँ गई तुम्हारी वो खूबसूरती
जो तुम्हारी लटों से होते हुए तुम्हारे चेहरे पर खो जाती थी
कहाँ गई वो मुस्कुराहट
जिस पर फिदा-फिदा-से होते रहे
तुम्हारे चाहने वाले
तुम्हें ऐसा नहीं होना चाहिए था गुलबहार
कोई इतनी भी यातना न सहे कि
यातना ही भूल जाये
तुम भूल गई कि तुम बुलबुल-ए-बहावलपुर हो
खत्म हो रही महफ़िल गायक़ी का
अंतिम चमकता सितारा
तुम्हारा यूँ बीच सड़कों पर बैठ कर गाली बकना
अच्छा नहीं लगता
ओ कराची के फ़नकारो!
तुम सुनना क्यों बंद कर दिये
तुम्हारी स्मृति इतनी झीनी कब से हो गई
ओ मुल्तान के लोगो!
तुम्हारी आँखों को क्या हो गया
जो नहीं दिखी गुलबहार
गुलबहार!
तुम्हारी चीख़ बंद कमरे में गूँज रही है
तुम्हारे पैरों में रस्सियों के निशान झलक रहे
तुम कहाँ हो?
अब कहाँ हो गुलबहार?
तुम्हारे गीतों की रिकार्डिंग अब भी बज रही है
तुम कोई सराइकी लोकगीत गाते हुए
अपने पागलपन से लौट आओ
लौट आओ!
हमने तुम्हारी कोई संपत्ति नहीं हड़पी
हमने तुम्हें नहीं किया कैद
तुम जहाँ भी हो
लौट आओ!
लौट आओ सिर्फ़ एक बार
हम तुम्हें देखना चाहते हैं।
(पाकिस्तान की वो गायिका जो अपने जमाने में बहुत मशहूर रहीं, पर 2009 में पति की मृत्यु के बाद सिजोफ्रेनिया की शिकार हो गईं। उन्हें लोग बहुत जल्दी भूल गये। 2018-19 में उन्हें एक पुलिस थाने में देखा गया था। अब पता नहीं वे जीवित हैं या नहीं, इसकी कोई ख़बर नहीं है।)
कर्ज़दार
स्पलेंडर से आएँगे कुछ आदमी
और भरी बाज़ार कर जाएँगे उसकी सरेआम बेइज्ज़ती
लोग उसे घूरती आँखों से देखते रहेंगे
कोई नहीं आयेगा उसके पास
उसके दोस्त आँख चुरा कर निकल जाएंगे
वह अपनी दीनता को गमछे से छिपाने का प्रयास करेगा
पर वह भी फिसल-फिसल जायेगी
इतना असहाय इतना निरुपाय
इतना दीन इतना हीन
वह कभी नहीं हुआ होगा
जितना वो उस दिन हो जायेगा
आधी रात
उसके सपने में स्पलेंडर की आवाज़ दगदगायेगी
और वो खटिये के नीचे छिप जायेगा
घर वाले सोचेंगे इसे अचानक से हो क्या गया
वो चिल्लायेगा :
छिप जाओ कहीं
बेटी को घर के अंदर कर दो
ताला मार दो किवाड़ पे...
लोग उसे पागल कहेंगे
किसी दिन पेड़ से लटकती मिलेगी लाश
और सब कहेंगे :
च्च च्च! ये तो होना ही था इसके साथ
बहुत अच्छा आदमी था
उस दुष्ट ईश्वर को मैं कभी माफ़ नहीं करूँगा
(1)
तुम सपने में वही फ्रॉक पहने आती हो
खिलखिलाती हुई
जिसे मैंने देखा था पाँच साल की उम्र में
आदतन सोये हुए में ही मेरे नन्हें गालों को नोचते हुए झिझोड़ देती हो अपने दोनों हाथ से
माँ डाँटती है :
मत किया कर ऐसा। देख, इसके गाल वैसे ही लटक रहे
तुम अनसुना करती नोचती ही रहती हो फिर-फिर
मैं रोने लगता हूँ
पर ऐन वक्त जब तुम मुझे झट से गले लगा कर चुप कराने को होती हो
सपना टूट जाता है
हमेशा ऐसे ही सपने आते हैं बहन
पर कभी पूरे नहीं होते
मुझे रोता छोड़ कर तुम हर बार सपने से कूद कर निकल जाती हो बहुत दूर
जैसे पिता की दहाड़ती आवाज़ तुम्हारा पीछा कर रही हो
मैं अधखुली नींद में कराहता करवट बदलता हूँ
और पाता हूँ
तुम मुझसे बहुत दूर हो गई हो
(2)
जैसे समुद्र के तट से आ लगती है सीपी और शंख
मैं आता था ऐसे ही तुम्हारे पास
जेब में कंचे और हाथ में गेंद लिये
तुम बैठी मिलती आईने के पास
तुम्हारा चेहरा आईने को गड़ता था
तुम उदास होती
आईना गुस्सा करने लगता
रोने लगती थी तुम
और...
ओह, ओ निशाचरी याद
तुम रात में ही क्यों आती हो
देखो, मेरा मन
बिच्छू के मारे डंक की तरह टपकने लगा है
ज़हर चढ़ रहा है ऊपर की ओर
और सिर झनझना रहा है
कान को चीरती हुई आवाज़ें
रह-रह कर प्रतिध्वनित होती गूँज रही हैं
बाइस्कोप की तरह चित्र बदल रहे हैं जल्दी-जल्दी
और हाथ ऐसे काँप रहे हैं
जैसे कोई अचानक से पिस्तौल थमा दिया हो
और...
मेरी बहन!
मैंने कितना चाहा कि मेरी स्मृति लुप्त हो जाए
पर बेर के काँटे की तरह गड़ गई घटनाओं ने
भीतर ही भीतर गुरखुल बना दिया है
आत्मा के घाव न भर जाय कभी
कुरेदते हुए नित हरा रखता हूँ
जिससे रह सकूँ दूर हो कर भी दुखता-बहता
तुम्हारे पास
(3)
तुम हँसती हो तो लगता है
तुम्हारी हँसी कितनी छोटी है
तुम रोती हो तो लगता है
तुम्हारा दुःख कितना बड़ा है
मैंने तुम्हारी हँसी के जितना
तुम्हारी रुलाई को सुना है
अपने पहाड़ जितने दुःख के बीच
नदी जितनी हँसती तुम
ड्योढ़ी पर बैठी
अपनी उम्र गिन रही हो और मैं
तुम्हारे बड़ेपन और अपने छोटेपन को ढोता हुआ
धीरे-धीरे बड़ा हो रहा हूँ
बहन!
तुम कहती थी कि ईश्वर ने तुम्हें ऐसा बनाया
इस काम के लिये
तुम्हारे उस दुष्ट ईश्वर को मैं कभी माफ़ नहीं करूँगा...
अब तुम्हें लौट आना चाहिए*
शाम होते ही चिड़िया
अपना घोंसला खोजने लगती है
भूख लगते ही प्यारी बछिया
तड़प उठती है अपनी माँ के पास जाने के लिये
फूल खिलते ही
खुशबू भी आ जाती है पीछे-पीछे
और मधुमक्खियाँ भी रस ले कर
छत्ते की तरफ ही लौटती हैं
बड़े-बुजुर्ग कहते हैं :
समय होने पर सब अपनों को खोजते हुए
लौट ही आते हैं
तुम तो मनुष्य हो
अब तुम्हें लौट आना चाहिए
*कवि-मित्र गौरव की एक कविता की पंक्ति।
जुगनहवा कलर
दस साल की बच्ची से जब मैंने पूछा
बताओ! तुम्हें कौन-सा रंग पसंद है
वह तपाक से बोली-
'जुगनहवा कलर'
इस बात को अब सात बरस होने को आये हैं
आज अचानक से दिख गया एक जुगनू
और मैं सोच रहा हूँ
नहीं बता पाऊँगा अपनी बच्ची को
इस रंग के बारे में।
'उस नसीबन के लिए जिसके लिए लौंडा बदनाम हो गया था'*
तुम किसी दूसरे लोक से नहीं आयी हो नसीबन!
तुम मेरे घर से, गाँव से
या उस मोहल्ले से आयी हो
जहाँ दरिद्रता सौ अवसर छीन कर
जिंदा रहने के लिये
एक सीपी-भर जगह छोड़ती है
नसीबन!
तुम बदनाम थी कितनों की निग़ाह में
पर कितने लौंडे तुम्हारे लिये बदनाम हो गये थे
तुम्हारा एक समय था नसीबन
फूल, इत्रों और काँटों से भरा
एक शामियाना था
जहाँ सभ्य से सभ्य समझा जाने वाला आदमी भी
चोरी-छिपे जाता था
रात उसकी सभ्यता को ढँक लेती थी
पर तुम्हें क्यों नहीं लग रहा अब भी तुम्हारा ही समय है नसीबन!
तुम गा सकती हो
बहुत सुंदर गा सकती हो
अश्लील गानों के लिये
अब दूसरे कारखाने लग गये हैं नसीबन
तुम्हारे गानों की कामुकता
और द्वि-अर्थीपन
उनसे तो बुरे नहीं हैं
तुम मत छोड़ो गाना
पान की लाली तुम्हारे होठों पर
अब भी उतनी ही लाल है
तुम्हारी पाजेब अब भी खनक रही है
उतनी ही तेज
तुम्हारे पाँव अब भी थिरक रहे हैं
बंजर ज़मीन के ऊपर लगे स्टेज पर
खेत जोतते हुए ट्रैक्टरों पर
तुम्हारे गीत अब भी बज रहे हैं
तुम चुप क्यों हो रही हो नसीबन!
क्यों चुप हो रही हो
इतनी नौटंकियों से गुजरता ये देश
तुम्हारी नौटंकी भले ही न देखे
पर गाओ नसीबन, गाओ!
तुम नाचो नसीबन, नाचो!
सुनो नसीबन-
तारा बानो फैज़ाबादी भी गा रही हैं
'लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिये'
लौंडे, फिर से तुम्हें सुनना चाहते हैं
लौंडे, फिर से तुम्हें देखना चाहते हैं
लौंडे, फिर से बदनाम होना चाहते हैं...
*(ताराबानो फ़ैज़ाबादी का गाया हुआ एक नौटंकी गीत है - 'लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिये'।)
तुम्हारी तस्वीर निहारते हुए
तुम्हारी तस्वीर निहारते हुए
जनाया ही नहीं कि
सुकवा उग गया है और
सितारे अलविदा कहने को हैं
मन के सीलन भरे कोने में
ठुमरी बज रही है-
'भँवरा रे हम परदेशी लोग'
हम परदेशी लोग
कितने दूर हैं उस प्रेम से
जो खूब औटाये गये दूध की तरह अँगीठी में पकता रहता है और पक कर अपना रंग बदल देता है
गेहूँ के दानों में अब दूध नहीं बचा होगा
आम के पेड़ अब अपना बौर झार दिए होंगे
बेल की चोरी होनी शुरू हो गयी होगी
हर बार की तरह इस बार भी उस चितकबरी कुतिया के सब बच्चे बड़े होने से पहले ही मर गए होंगे
और तुम,
अपना पीलापन छिपाती हुई
फिस्स से हँस देती होगी कि मुझे एनीमिया नहीं है
मैं बिल्कुल ठीक हूँ
एक कवि ने सच ही कहा था-
'अप्रैल सबसे क्रूर महीना है'
तुम्हारी तस्वीर निहारते हुए
मैं बारहा सोचता हूँ
तुम इतनी बेपरवाह कैसे हुई होगी?
तुम्हारी मेमनों की तरह सजल आँखों में झांकता हुआ
और हथेलियों की हरी नसों में दौड़ता हुआ
मैं अब बहुत दूर निकल आया हूँ
तुमने समुन्दर नहीं देखा कभी
न ही पहाड़
झरने तुम्हारे सपनों में आ कर सताते होंगे
नदी, जिसे तुमने हमेशा पुल के ऊपर से ही देखा है,
तुम्हें स्पर्श का सुख और बह जाने का हुनर सिखाने के लिये बुलाती होंगी
पर तुम,
समय और अवसर में भेद न कर पाने के कारण कह देती हो कि मेरे पास समय नहीं है
ज्ञान की ही भूख होती तो भी मैं खुश रहता एक बार
पर ये भूख जो पेट में मरोड़ की तरह उठ रही है
ये प्यास जो थूक निगल कर शांत की जा रही
उस दूरी की देन है जिसमें
नदी नाले जंगल पहाड़ खेत खलिहान गॉंव शहर
सब समा जाते हैं
तुम्हारी तस्वीर निहारते हुए
आस्था बढ़ती ही जा रही जीवन के प्रति
पर अकेलापन सात घोड़ों पर सवार हो कर आता है
और गहरे नीले आकाश के बीच ले जा कर भटकने के लिये छोड़ देता है
सत्ता की निग़ाह में अकर्मण्य और अदद एक वोट तक सीमित किया जाता हुआ मैं
तुम्हारी तस्वीर निहारते हुए
अब किसी पवित्र अपराध का भागी होना चाहता हूँ।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 9956727565
ईमेल : vm222142@gmail.com
जब तक कोई संवेदनाओं के गहरे में नहीं उतरता तब तक ऐसी कवितायें संभव नहीं होती। विनोद जी की कवितायें उस घनीभूत पीड़ा की अत्यंत मार्मिक एवं सारगर्भित अभिव्यक्ति हैं जो हम सब के अंदर है पर वह अभिव्यक्त नहीं हो पातीं। उनका क़लमकार हर नज़रिये से विचार करता है। सिर्फ़ अपना दुःख नहीं गाता।
जवाब देंहटाएंबेहद शानदार 💐💐 विनोद को बहुत शुभकामनाएं और बधाई
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